Friday, December 24, 2010
देशान्तर
आज के कवि : एज़रा पाउण्ड
एज़रा पाउण्ड ( 1885-1972) अंग्रेज़ी के उन कवियों मे शुमार किये जा सकते हैं जो 19वीं और 20वीं सदियों की दहलीज़ को लांघ कर एक नये मुहावरे के साथ सामने आये और जिन्होंने आधुनिक सम्वेदना को समृद्ध किया. पाउण्ड की एक खूबी यह भी है कि उन्होंने अंग्रेज़ी के काव्य-प्रेमियों को चीनी कविता से भी परिचित कराया. यहां पाउण्ड द्वारा की गयी कुछ चीनी कविताओं की पुनर्रचनाएं प्रस्तुत हैं. इन चीनी कविताओं की विशेषता है संकेतों में बात कहना और एक हलके-से अवसाद का माहौल रच देना.
चीनी कविताएँ
तो-एम-माई का टिका हुआ बादल
"बसन्त में झड़ी," तो-एम-माई कहता है,
"बगिया में वसन्त की झड़ी।"
1. बादल घिर आये हैं, घिर आये हैं और बूँदें गिरती है, गिरती है
आकाश की आठों तहें सिमट कर एक अन्धकार में बदल गयी हैं,
और दूर तक फैली दिखायी देती है चौड़ी, सपाट सड़क।
मैं थिर हो कर रुकता हूँ अपने पूरब की ओर कमरे में, ख़ामोश, ख़ामोश,
थपथपाता हूँ मदिरा की नयी सुराही।
मेरे दोस्त अब दोस्त नहीं रहे या चले गये हैं दूर,
सिर झुकाता हूँ मैं और खड़ा रहता हूँ निश्चल।
2. वर्षा, वर्षा, और बादल घिर आये हैं
आकाश की आठों तहें अँधेरे में बदल गयी हैं,
सपाट धरती बन गयी है दरिया
मदिरा, मदिरा, यह रही मदिरा,
मैं पीता हूँ पूरब की खिड़की के पास।
सोचता हूँ बातचीत और इन्सान के बारे में,
और कोई नाव, कोई गाड़ी आती नहीं दिखती।
3. पूरब की ओर मेरी बगिया के पेड़
नयी कोंपलों में फूट पड़े हैं,
वे नयी चाहत जगाने की कोशिश करती हैं,
और लोग कहते हैं कि चाँद और सूरज बराबर चलते रहते हैं
क्य¨ंकि उन्हें कोई नरम आसरा नहीं मिलता।
चिड़ियाँ फड़फड़ाती हुई मेरे पेड़ पर आराम करने उतारती हैं
और मेरा खयाल है मैंने उन्हें यह कहते सुना है:
ऐसा नहीं है कि दूसरे लोग न हों
लेकिन हमें यही आदमी पसन्द है,
मगर चाहे जितना भी हम बात करना चाहें
इसे हमारे दुख का पता नहीं चल सकता।
(ताओ युआन मिंग 365-427 ई)
शू के तीरन्दाज़ों का गीत
यहाँ हैं हम, साग की पहली-पहली कोंपलें तोड़ते
और कहते: कब लौटेंगे हम अपने देश ?
हम यहाँ हैं क्योंकि केन-निन क़बाइली हमारे दुश्मन हैं
इन मंगोलों की वज़ह से हमें जरा भी आराम नहीं।
साग की नरम कोपलों पर ज़िन्दा हैं हम,
जब कोई कहता हैं वापसी, दूसरों में उमड़ता है दुख।
दुखी हैं मन, दुख प्रचण्ड है, हम भूखे और प्यासे हैं।
हमारी सुरक्षा की पाँत अभी सुनिश्चित नहीं की गयी,
कोई अपने मित्र को लौटने नहीं दे सकता।
साग के पुराने डण्ठलों पर ज़िन्दा हैं हम।
हम कहते हैं : क्या हमें अक्तूबर में लौटने दिया जायेगा ?
राज-काज में कोई आराम नहीं,
हमें ज़रा भी चैन नहीं।
कटु है हमारा दुख, पर हम लौट नहीं सकते अपने देस।
कौन-सा फूल खिला होगा ?
किसका रथ ? सेनापति का है।
घोड़े, उसके घोड़े भी, थक गये हैं। कभी वे तगड़े थे।
हमें कोई आराम नहीं, महीने-भर में तीन-तीन लड़ाइयाँ
क़सम से, उसके घोड़े थक गये हैं।
सेनापति उन पर सवार हैं, सैनिक उनके साथ-साथ पैदल।
घोड़े अच्छी तरह सिखाये हुए हैं, सेनापति के पास
हाथी-दाँत के तीर हैं और मछली के चमड़े से मढ़े हुए तरकश
दुश्मन तेज़ है, हमें सावधान रहना है।
जब हम निकले थे, सरो के गाछ वसन्त से झुक आये थे,
हम लौटते हैं बर्फ़ को रौंदते हुए,
धीमी है हमारी गति, हम भूखे और प्यासे हैं,
दुख से बोझल हैं हमारे मन, हमारे दुख के बारे में कौन जानेगा,
(बुन्नो कथित रूप से 1100 ई.पू.)
विदा की चार कविताएँ
हलकी धूल पर हो रही है हलकी बारिश
सराय के आंगन में सरो के पेड़
लगातार, हरे, और हरे होते जायेंगे
लेकिन आप, श्रीमान, विदा होने से पहले
मदिरा ले लें
क्योंकि आपके गिर्द कोई मित्र नहीं रह जायेगा
जब पहुँचेंगे आप गो के द्वारों के पास
(रिहाकू या ओगाकित्सू)
कियांग नदी पर बिछोह
को-काकू-रो से जा रहा है पच्छिम को-जिन,
नदी पर धूम्र-पुष्प धुँधले हो गये हैं।
उसके एकाकी पाल के पीछे छिप गया है दूर का आकाश।
और अब मुझे दिखती है केवल नदी,
यह लम्बी कियांग नदी, स्वर्ग तक पहुँचती हुई।
(रिहाकू)
मित्र से विदा लेते हुए
नगर प्राचीरों के उत्तर में नीले पहाड़
सफ़ेद नदी उनमें मँडराती हुई;
यहाँ हमें बिदा लेनी है
और मुरझाई घास से हो कर
हज़ार मील जाना है।
तैरते हुए चौड़े बादल की तरह मन,
सूर्यास्त जैसे पुराने मित्रों का बिछुड़ना
जो दूर से अपने हाथ जोड़े नमन करते हैं।
हमारी विदाई के समय
हमारे घोड़े एक-दूसरे से हिनहिनाते हैं।
(ली पो)
शोकू के पास विदाई
"शोकू के राजा सांसो ने सड़कें बनवायीं."
कहते हैं सांसो की बनवायी सड़कें चढ़ाईदार हैं
खड़ी जैसे पहाड़।
दीवारें उठती हैं आदमी के चेहरे की तरफ़
बादल उगते हैं पहाड़ से
उसके घोड़े की लगाम तक
शिन के पक्के रास्ते पर महकदार पेड़ हैं,
उनके तने सड़क के पत्थरों को फोड़ कर निकले हैं,
और पहाड़ी नाले अपनी बर्फ़ से फूट रहे हैं
शोकू के बीचों-बीच, जो एक गर्वीला नगर है
इन्सानों का नसीबा पहले से तय हो चुका है,
ज्योतिषियों, से पूछने की कोई ज़रूरत नहीं।
(ली पो)
Thursday, December 23, 2010
देशान्तर
आज के कवि : बर्टोल्ट ब्रेख़्ट
निर्णय के बारे में
तुम जो कलाकार हो
और प्रशंसा या निन्दा के लिए
हाज़िर होते हो दर्शकों के निर्णय के लिए
भविष्य में हाज़िर करो वह दुनिया भी
दर्शकों के निर्णय के लिए
जिसे तुमने अपनी कृतियों में चित्रित किया है
जो कुछ है वह तो तुम्हें दिखाना ही चाहिए
लेकिन यह दिखाते हुए तुम्हें यह भी संकेत देना चाहिए
कि क्या हो सकता था और नहीं है
इस तरह तुम मददगार साबित हो सकते हो
क्योंकि तुम्हारे चित्रण से
दर्शकों को सीखना चाहिए
कि जो कुछ चित्रित किया गया है
उससे वे कैसा रिश्ता कायम करें
यह शिक्षा मनोरंजक होनी चाहिए
शिक्षा कला की तरह दी जानी चाहिए
और तुम्हें कला की तरह सिखाना चाहिए
कि चीज़ों और लोगों के साथ
कैसे रिश्ता कायम किया जाय
कला भी मनोरंजक होनी चाहिए
वाक़ई तुम अँधेरे युग में रह रहे हो।
तुम देखते हो बुरी ताक़तें आदमी को
गेंद की तरह इधर से उधर फेंकती हैं
सिर्फ़ मूर्ख चिन्ता किये बिना जी सकते हैं
और जिन्हें ख़तरे का कोई अन्देशा नहीं है
उनका नष्ट होना पहले ही तय हो चुका है
प्रागैतिहास के धुँधलके में जो भूकम्प आये
उनकी क्या वक़अत है उन तकलीफ़ों के सामने
जो हम शहरों में भुगतते हैं ? क्या वक़अत है
बुरी फ़सलों की उस अभाव के सामने
जो नष्ट करता है हमें
विपुलता के बीच
आलोचनात्मक रवैये पर
बहुत-से लोगों को
आलोचनात्मक रवैया कारगर नहीं लगता
ऐसा इसलिए कि वे पाते हैं
सत्ता पर उनकी आलोचना का कोई असर नहीं पड़ता।
लेकिन इस मामले में जो रवैया कारगर नहीं है
वह दरअसल कमज़ोर रवैया है।
आलोचना को हासिल कराये जायँ
अगर हाथ और हथियार
तो राज्य नष्ट किये जा सकते हैं उससे
नदी को बाँधना
फल के पेड़ की छँटाई करना
आदमी को सिखाना
राज्य को बदलना
ये सब हैं कारगर आलोचना के नमूने
साथ ही कला के भी।
तेरह भजन
बसन्त का भजन
1. मैं अब गर्मियों की ताक में हूँ दोस्तो।
2. हमने जमा कर ली है ख़ूब सारी रम और गिटार पर चढ़ा लिये हैं नये तार।
बस, सफ़ेद कमीज़ें जुटाना बाक़ी है
3. हमारे अंग गर्मियों की घास तरह बढ़ते है और अगस्त के मध्य में
ग़ायब हो जाती हैं कुँआरी कन्याएँ। यह वक़्त है बेपनाह मस्ती का।
4. दिन पर दिन आकाश में भर जाती है एक सुकोमल आभा और
रात हमारी नींद उड़ा ले जाती है।
ईश्वर का सायंकालीन गीत
जब शाम की धुन्ध भरी नीली हवा परमपिता ईश्वर को जगाती है
वह देखता है अपने ऊपर तने आकाश को निरवर्ण होते और
आनन्दित होता है इस पर। फिर सृष्टि का महान कीर्तन
तरोताजा करता है उसक कानों को और आहलाद से भर देता है उसे :
डूबने के कगार पर बाढ़ ग्रस्त वनों की चीख़
लोगों और साज-सामान के बेपनाह बोझ से दबे
पुराने, धूसर मकानों की कराह।
जिनकी ताक़त छीन ली गयी है
उन चुके हुए खेतों की हलक़-चीरती खाँसी।
धरती पर प्रागैतिहासिक हाथी की कठिन और आनन्द-भरी ज़िन्दगी के
अन्त को चिह्नित करने वाली पेट की विराट गड़गड़ाहट।
महापुरुषों की माताओं की चिन्तातुर प्रार्थनाएँ।
बर्फीले एकान्त में आमोद-प्रमोद करते श्वेत हिमालय के
दहाड़ते हिमनद।
और बर्टोल्ट ब्रेश्ट की वेदना जिसके दिन ठीक नहीं गुजर रहे
और इसी के साथ:
वनों में बढ़ते हुए पानी के पगलाये गीत।
फ़र्श के पुराने तख़्तों पर झूलते, नींद में डूबे लोगों की धीमी साँसें।
अनाज के खेतों की हर्ष भरी बुदबुदाहट, अन्तहीन प्रार्थनाओं मे अम्बार लगाती हुई
महापुरुषों के महान भजन।
और बर्टोल्ट ब्रेश्ट के शानदार गीत, जिसके दिन ठीक नहीं गुजर रहे
प्रेमिका का गीत
1. मैं जानता हूँ, मेरी जान, मेरी बीहड़ ज़िन्दगी की वजह से मेरे बाल
झड़ रहे हैं और मुझे पत्थरों पर सोना पड़ता है। तुम मुझे ठर्रा पीते देखती
हो और मैं हवा में उघाड़े बदन घूमता फिरता हूँ।
2. लेकिन एक समय था, मेरी जान, जब मैं निष्पाप था।
3. मेरी एक औरत थी जो मुझसे ज़्यादा ताक़तवर थी, जैसे घास बैल से
ज़्यादा ताक़तवर होती है - वह फिर सीधी तन जाती है।
4. वह जानती थी कि मैं दुष्ट हूँ और मुझसे प्यार करती थी।
5. उसने कभी नहीं पूछा वह रास्ता वहाँ जाता था और उसका रास्ता था
और शायद वह नीचे को उतरता था। जब वह मुझे अपनी देह
सौंपती तो कहती-बस। और उसकी देह मेरी देह बन जाती।
6. अब वह कहीं नहीं है। वर्षा के बाद बादल सरीखी वह गायब हो गयी।
मैंने उसे छोड़ दिया और वह नीचे गिरती चली गयी क्योंकि वही
उसका रास्ता था।
7. लेकिन कभी-कभार रात को जब तुम मुझे शराब पीते देखती हो,
मुझे उसका चेहरा नज़र आता है - हवा में विवर्ण, मज़बूत और मेरी तरफ़ मुख़ातिब
और मैं हवा में झुक कर उसे सलाम करता हूँ।
पत्नी का गीत
1. कभी कभी शाम के समय नदी किनारे झाड़ियों के अँधेरे सीने में मुझे फिर उसका
चेहरा दिखायी देता है। उस औरत का चेहरा जिसे मैं प्यार करता था। मेरी बीवी। जो अब नहीं है।
2. यह बरसों पहले की बात है और बाज़ वक्त मुझे उसकी कोई याद नहीं रहती
जो कभी सब कुछ थी, मगर सब कुछ बीत जाता है।
3. और वह मेरे भीतर थी जैसे मंगोलिया के मैदानों पर नन्हीं ज़ूनिपर की झाड़ी,
धुनषाकार, हल्के पीले आकाश और गहरी उदासी के साथ
4. नदी किनारे की एक काली-सी झोंपड़ी हमारा घर थी। मच्छर अक्सर उसकी गोरी
देह को काटते और मैं सात बार अख़बार पढ़ता या कहता - ‘तुम्हारे बालों का
रंग मिट्टी जैसा है’ या - ‘तुम हृदयहीन हो।’
5. लेकिन एक दिन जब मैं झोंपड़ी में अपनी कमीज़ धो रहा था, वह दरवाज़े तक
गयी और उसने मेरी तरफ देखा बाहर जाने की इच्छा से।
6. और उसने, जो उसे थक जाने की हद तक पीटता था, कहा - ‘प्राणेश्वरी।’
7. और वह, जिसने कहा था, ‘मैं तुम्हें प्यार करता हूँ’ - उसे बाहर ले गया
और उसने मुस्कराते हुए आकाश को देख कर मौसम की तारीफ़ की और उससे हाथ मिलाया।
8. अब जबकि वह बाहर खुली हवा में थी और झोंपड़ी में उदासी छा गयी
थी, उसने दरवाजा बन्द किया और अख़बार खोल कर बैठ गया।
9. तब से मैंने उसे फिर नहीं देखा। अपने पीछे वह बस एक हल्की-सी
चीख़ छोड़ गयी जब सुबह दरवाजे पर आ कर उसने बन्द पाया।
10. अब झोंपड़ी ढह चुकी है और मेरे सीने में अखबार ठुँसे हुए हैं और मैं
शामों को नदी किनारे झाड़ियों के अँधेरे विवर में लेटा रहता हूँ और याद करता हूँ।
11 हवा के बालों में घास की महक है और पानी ईश्वर से
शान्ति की अन्तहीन गुहार लगाता है और मेरी ज़बान पर हरदम रहता है एक कड़वा स्वाद।
भजन
1. हमने पलक तक नहीं झपकायी जब सफ़ेद पानी हमारे गले तक चढ़ आया।
2. जब गहरी भूरी शामें हमें कुतरती रहीं हम सिगार पीते रहे।
3. हमने इनकार नहीं किया जब हम आकाश में डूब गये।
4. पानी ने किसी को नहीं बताया कि वह हमारे गले तक चढ़ आया है।
5. अख़बारों में कुछ भी नहीं था हमारे कुछ न कहने के बारे में।
6. आकाश नहीं सुनता उन लोगों की चीख़ें जो डूब रहे होते हैं।
7. लिहाज़ा हम बैठे रहे बड़ी चट्टानों पर ख़ुशक़िस्मत लोगों की तरह।
8. लिहाज़ा हमने मार डालीं वे सोनचिरैयाँ जो हमारे मौन चेहरों की चर्चा करती थीं।
9. कौन बात करता है चट्टानों के बारे में ?
10. और किसे परवाह है कि पानी, शाम और आकाश का हमारे लिए क्या मतलब है ?
चौथा भजन
1. अब वे मुझसे क्या चाहते हैं ? मैं ताश की सभी बाज़ियाँ खेल चुका हूँ, सारी शराब थूक चुका हूँ, सारी किताबें चूल्हे में झोंक चुका हूँ, सारी औरतों को उस हद तक प्यार कर चुका हूँ जब तक कि वे मगरमच्छ की तरह गँधाने नहीं लगीं।
अभी से मैं एक महान सन्त हो गया हूँ, मेरा कान सड़ गया है कि बहुत जल्द झड़ जायेगा।
तब फिर क्यों कोई चैन नहीं है ? क्यों लोग अहाते में कचरे की पेटियों की तरह खड़े रहते हैं, चन्दे की उम्मीद में? मैंने यह साफ़ कर दिया है कि अब मुझसे यह अपेक्षा नहीं रखी जा सकती कि मैं वह गीतों का सरताज गीत रच ही दूँगा। मैंने पुलिस को उन हज़रात के पीछे लगा दिया है। तुम्हें जिसकी भी तलाश हो, मैं वह बन्दा नहीं हूँ।
2. अपने भाइयों में मैं सबसे ज़्यादा दुनियादार हूँ - और मेरा ही सर सबसे पहले क़लम किया जाता है। मेरे भाई क्रूर थे, मैं क्रूरतम हूँ - और रात-रात भर रोता हूँ मैं।
3. पवित्र आचार संहिता के साथ पापों का भी बण्टाढार हो गया है। यहाँ तक कि अपनी बहन के साथ सोने में भी अब कोई मज़ा नहीं रहा। बहुतों के लिए हत्या एक बड़ी ज़हमत है, कविता लिखना बेहद आम। सारे रिश्तों की असुरक्षा के इस माहौल में बहुत-से लोग सच बोलना पसन्द करते हैं - इसके ख़तरों से बिलकुल अनजान। रण्डियाँ सर्दियों के लिए गोश्त का अचार डाल रही हैं और शैतान ने अपने सबसे वफ़ादार लोगों को गुहारना बन्द कर दिया है।
ईश्वर के लिए भजन
1. गहरी अँधेरी घाटियों में भूखे लोग मर रहे हैं। तुम सिर्फ़ उन्हें रोटी दिखाते
हो और मरने के लिए छोड़ देते हो। तुम सिर्फ़ राज करते हो अनन्त
अदृश्य। इस अन्तहीन योजना पर क्रूरता से मुस्कुराते हुए।
2. तुम नौजवानों को मरने देते हो और उनको भी जोज़िन्दगी का मज़ा लेते
हैं। लेकिन जो मरना चाहते थे उन्हें तुमने स्वीकार नहीं किया। बहुत
से लोग जा अब पड़े सड़ रहे हैं। तुम में विश्वास करते थे
और पूरी तरह महफ़ूज़ मरे
3. तुम ग़रीबों को साल-ब-साल गरीब रहने देते हो
इस एहसास के साथ कि उनकी इच्छाएँ तुम्हारे स्वर्ग से ज़्यादा मधुर हैं।
अफ़सोस इससे पहले कि तुम उन तक रोशनी ला सको वे सिधार गये।
तो भी वे आनन्द से सिधारे - और तत्काल सड़ गये।
4. हममें से बहुत से कहते हैं तुम नहीं हो -
और यही भला है लेकिन वह चीज़
जो रच सकती है ऐसा प्रपंच नहीं कैसे हो सकती।
अगर इतना कुछ तुम्हारे सहारे ज़िन्दा है
और मर नहीं सकता तुम्हारे बिना तो
बताओ ज़रा इससे क्या फ़र्क
पड़ता है कि तुम नहीं हो ?
माँ के लिए
और जब वह ख़त्म हो गयी उन्होंने दफ़्न कर दिया उसे
फूल उगते रहे उसके ऊपर, तितलियाँ मँडराती रहीं उस पर
इतनी हल्की थी वह, मुश्किल से दबा पायी धरती को
कितनी तकलीफ़ों से गुज़र कर हुई होगी वह इतनी हल्की।
बेचारे बी.बी. के बारे में
मैं, बर्टोल्ट ब्रेख़्ट, काले जंगलों से आया।
मेरी माँ मुझे शहरों में लायी जब मैं उसके देह के भीतर था
और मरते दम तक मेरी भीतर रहेगी जंगलों की ठण्ड।
डामर की सड़कों वाले शहर मेरा ठिकाना हैं शुरू ही
से उन्होंने मुझे हर अन्तिम संस्कार प्रदान
किया - अख़बार और तम्बाकू और शराब
अन्त तक शक्की, काहिल और सन्तुष्ट
लोगों से शिष्टता और दोस्ती से पेश आता हूँ मैं पहनता हूँ टोप
क्योंकि ऐसा ही करते हैं वे भी
वे जानवर हैं एक ख़ास गन्ध वाले
मैं कहता हूँ
तो क्या हुआ ? मैं यह भी कहता हूँ
मैं भी तो हूँ।
कभी-कभी दोपहर से पहले मैं
अपनी ख़ाली झूलने वाली कुर्सियों पर
बैठा देता हूँ एक या दो औरतें और फिर
लापरवाही से उन पर नज़र डाल कहता
हूँ मैं वो शख़्स हूँ जिस पर तुम भरोसा नहीं कर सकतीं।
शाम होते-होते मैं इकट्ठा कर लेता
हूँ कुछ पुरुष अपने गिर्द
हम एक-दूसरे को कहते हैं महाशय
मेरी मेज़ पर टाँगें फैला कर वे
कहते हैं चीज़ें बेहतर होंगी हमारे लिए
मैं नहीं पूछता कब ?
सुबह-सबेरे भोर के
सलेटी धुंधलके में मूतते हैं चीड़ के पेड़ और उनके कीड़े,
यानी चिड़ियाँ, चहचहा कर गुलगुपाड़ा मचाने लगती हैं
उस समय शहर में अपना गिलास ख़ाली करता हूँ मैं
फिर फेंक देता हूँ सिगार का टोटा और चिन्ता में डूबा सोने जाता हूँ।
हम एक आरामतलब पीढ़ी के लोग
रहते आये हैं ऐसे घरों में
जिनके बारे में ख़याल था कि वे तबाह नहीं किये जा सकते
( इसी तरह बनाये हमने : मैनहैटन आइलैण्ड के ऊँचे डिब्बे
और अतलान्तिक महासागर की लहरों का मनोरंजन करने वाले एण्टेना)
उन शहरों में बस बचेगा वही जो
उनसे हो कर गुज़रा यानी तूफ़ान।
घर ख़ुशी देता है खाने पर आये मेहमान को
जो उसकी सफ़ाई कर जाता है
हम जानते हैं हम सिर्फ़ किरायेदार हैं, कुछ देर के,
और हमारे बाद ऐसा कुछ नहीं आयेगा जो चर्चा के क़ाबिल हो।
उन भूकम्पों में जो आने वाले हैं
मुझे पूरी उम्मीद है मैं अपने सिगार को बुझने नहीं दूँगा
भले ही मुझ में कड़वाहट भर गयी हो या नहीं
मैं, बर्टोल्ट ब्रेख़्ट, जो अर्सा पहले अपनी माँ के भीतर काले जंगलों में
डामर की सड़कों वाले शहरों में लाया गया था।
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बावेरिया, जर्मनी में जन्मे बर्टोल्ट ब्रेख़्ट (10 फ़रवरी 1898-14 अगस्त 1956)बीसवीं सदी के उन साहित्यकारों में हैं जिन्होंने पूरी दुनिया पर अपना असर छोड़ा है. वे नाटककार, कवि और नाट्य-निर्देशक थे. पूर्वी और हिन्दुस्तानी परम्पराओं से प्रेरणा ले कर उन्होंने समूचे नाट्य-कर्म को अपनी नयी शैली से प्रभावित किया. बीस-बाईस साल की उमर से वे एक प्रतिबद्ध मार्क्सवादी बन गये और जीवन भर रहे. उन्होंने दो-दो महा युद्धों की विभीषिका नज़दीक से देखी थी और हिट्लर और उसकी नात्सी पार्टी की हिट-लिस्ट में रहे जिसकी वजह से उन्हें दस साल से ज़्यादा की जलावतनी से गुज़रना पड़ा. ब्रेख़्ट कहते थे कि वे कविताएं प्रकाशित करने के लिए नहीं, बल्कि अपने नाटकों को और बेहतर बनाने के लिए लिखते थे. लेकिन उनका काव्य भण्डार जिसमें 500 से ज़्यादा कविताएं हैं बज़ातेख़ुद एक अहमियत रखता है. इसके अलावा उन्होंने उपन्यास और कुछ कहानियां भी लिखी हैं और नाट्य प्रस्तुतियों पर वैचारिक लेख भी
निर्णय के बारे में
तुम जो कलाकार हो
और प्रशंसा या निन्दा के लिए
हाज़िर होते हो दर्शकों के निर्णय के लिए
भविष्य में हाज़िर करो वह दुनिया भी
दर्शकों के निर्णय के लिए
जिसे तुमने अपनी कृतियों में चित्रित किया है
जो कुछ है वह तो तुम्हें दिखाना ही चाहिए
लेकिन यह दिखाते हुए तुम्हें यह भी संकेत देना चाहिए
कि क्या हो सकता था और नहीं है
इस तरह तुम मददगार साबित हो सकते हो
क्योंकि तुम्हारे चित्रण से
दर्शकों को सीखना चाहिए
कि जो कुछ चित्रित किया गया है
उससे वे कैसा रिश्ता कायम करें
यह शिक्षा मनोरंजक होनी चाहिए
शिक्षा कला की तरह दी जानी चाहिए
और तुम्हें कला की तरह सिखाना चाहिए
कि चीज़ों और लोगों के साथ
कैसे रिश्ता कायम किया जाय
कला भी मनोरंजक होनी चाहिए
वाक़ई तुम अँधेरे युग में रह रहे हो।
तुम देखते हो बुरी ताक़तें आदमी को
गेंद की तरह इधर से उधर फेंकती हैं
सिर्फ़ मूर्ख चिन्ता किये बिना जी सकते हैं
और जिन्हें ख़तरे का कोई अन्देशा नहीं है
उनका नष्ट होना पहले ही तय हो चुका है
प्रागैतिहास के धुँधलके में जो भूकम्प आये
उनकी क्या वक़अत है उन तकलीफ़ों के सामने
जो हम शहरों में भुगतते हैं ? क्या वक़अत है
बुरी फ़सलों की उस अभाव के सामने
जो नष्ट करता है हमें
विपुलता के बीच
आलोचनात्मक रवैये पर
बहुत-से लोगों को
आलोचनात्मक रवैया कारगर नहीं लगता
ऐसा इसलिए कि वे पाते हैं
सत्ता पर उनकी आलोचना का कोई असर नहीं पड़ता।
लेकिन इस मामले में जो रवैया कारगर नहीं है
वह दरअसल कमज़ोर रवैया है।
आलोचना को हासिल कराये जायँ
अगर हाथ और हथियार
तो राज्य नष्ट किये जा सकते हैं उससे
नदी को बाँधना
फल के पेड़ की छँटाई करना
आदमी को सिखाना
राज्य को बदलना
ये सब हैं कारगर आलोचना के नमूने
साथ ही कला के भी।
तेरह भजन
बसन्त का भजन
1. मैं अब गर्मियों की ताक में हूँ दोस्तो।
2. हमने जमा कर ली है ख़ूब सारी रम और गिटार पर चढ़ा लिये हैं नये तार।
बस, सफ़ेद कमीज़ें जुटाना बाक़ी है
3. हमारे अंग गर्मियों की घास तरह बढ़ते है और अगस्त के मध्य में
ग़ायब हो जाती हैं कुँआरी कन्याएँ। यह वक़्त है बेपनाह मस्ती का।
4. दिन पर दिन आकाश में भर जाती है एक सुकोमल आभा और
रात हमारी नींद उड़ा ले जाती है।
ईश्वर का सायंकालीन गीत
जब शाम की धुन्ध भरी नीली हवा परमपिता ईश्वर को जगाती है
वह देखता है अपने ऊपर तने आकाश को निरवर्ण होते और
आनन्दित होता है इस पर। फिर सृष्टि का महान कीर्तन
तरोताजा करता है उसक कानों को और आहलाद से भर देता है उसे :
डूबने के कगार पर बाढ़ ग्रस्त वनों की चीख़
लोगों और साज-सामान के बेपनाह बोझ से दबे
पुराने, धूसर मकानों की कराह।
जिनकी ताक़त छीन ली गयी है
उन चुके हुए खेतों की हलक़-चीरती खाँसी।
धरती पर प्रागैतिहासिक हाथी की कठिन और आनन्द-भरी ज़िन्दगी के
अन्त को चिह्नित करने वाली पेट की विराट गड़गड़ाहट।
महापुरुषों की माताओं की चिन्तातुर प्रार्थनाएँ।
बर्फीले एकान्त में आमोद-प्रमोद करते श्वेत हिमालय के
दहाड़ते हिमनद।
और बर्टोल्ट ब्रेश्ट की वेदना जिसके दिन ठीक नहीं गुजर रहे
और इसी के साथ:
वनों में बढ़ते हुए पानी के पगलाये गीत।
फ़र्श के पुराने तख़्तों पर झूलते, नींद में डूबे लोगों की धीमी साँसें।
अनाज के खेतों की हर्ष भरी बुदबुदाहट, अन्तहीन प्रार्थनाओं मे अम्बार लगाती हुई
महापुरुषों के महान भजन।
और बर्टोल्ट ब्रेश्ट के शानदार गीत, जिसके दिन ठीक नहीं गुजर रहे
प्रेमिका का गीत
1. मैं जानता हूँ, मेरी जान, मेरी बीहड़ ज़िन्दगी की वजह से मेरे बाल
झड़ रहे हैं और मुझे पत्थरों पर सोना पड़ता है। तुम मुझे ठर्रा पीते देखती
हो और मैं हवा में उघाड़े बदन घूमता फिरता हूँ।
2. लेकिन एक समय था, मेरी जान, जब मैं निष्पाप था।
3. मेरी एक औरत थी जो मुझसे ज़्यादा ताक़तवर थी, जैसे घास बैल से
ज़्यादा ताक़तवर होती है - वह फिर सीधी तन जाती है।
4. वह जानती थी कि मैं दुष्ट हूँ और मुझसे प्यार करती थी।
5. उसने कभी नहीं पूछा वह रास्ता वहाँ जाता था और उसका रास्ता था
और शायद वह नीचे को उतरता था। जब वह मुझे अपनी देह
सौंपती तो कहती-बस। और उसकी देह मेरी देह बन जाती।
6. अब वह कहीं नहीं है। वर्षा के बाद बादल सरीखी वह गायब हो गयी।
मैंने उसे छोड़ दिया और वह नीचे गिरती चली गयी क्योंकि वही
उसका रास्ता था।
7. लेकिन कभी-कभार रात को जब तुम मुझे शराब पीते देखती हो,
मुझे उसका चेहरा नज़र आता है - हवा में विवर्ण, मज़बूत और मेरी तरफ़ मुख़ातिब
और मैं हवा में झुक कर उसे सलाम करता हूँ।
पत्नी का गीत
1. कभी कभी शाम के समय नदी किनारे झाड़ियों के अँधेरे सीने में मुझे फिर उसका
चेहरा दिखायी देता है। उस औरत का चेहरा जिसे मैं प्यार करता था। मेरी बीवी। जो अब नहीं है।
2. यह बरसों पहले की बात है और बाज़ वक्त मुझे उसकी कोई याद नहीं रहती
जो कभी सब कुछ थी, मगर सब कुछ बीत जाता है।
3. और वह मेरे भीतर थी जैसे मंगोलिया के मैदानों पर नन्हीं ज़ूनिपर की झाड़ी,
धुनषाकार, हल्के पीले आकाश और गहरी उदासी के साथ
4. नदी किनारे की एक काली-सी झोंपड़ी हमारा घर थी। मच्छर अक्सर उसकी गोरी
देह को काटते और मैं सात बार अख़बार पढ़ता या कहता - ‘तुम्हारे बालों का
रंग मिट्टी जैसा है’ या - ‘तुम हृदयहीन हो।’
5. लेकिन एक दिन जब मैं झोंपड़ी में अपनी कमीज़ धो रहा था, वह दरवाज़े तक
गयी और उसने मेरी तरफ देखा बाहर जाने की इच्छा से।
6. और उसने, जो उसे थक जाने की हद तक पीटता था, कहा - ‘प्राणेश्वरी।’
7. और वह, जिसने कहा था, ‘मैं तुम्हें प्यार करता हूँ’ - उसे बाहर ले गया
और उसने मुस्कराते हुए आकाश को देख कर मौसम की तारीफ़ की और उससे हाथ मिलाया।
8. अब जबकि वह बाहर खुली हवा में थी और झोंपड़ी में उदासी छा गयी
थी, उसने दरवाजा बन्द किया और अख़बार खोल कर बैठ गया।
9. तब से मैंने उसे फिर नहीं देखा। अपने पीछे वह बस एक हल्की-सी
चीख़ छोड़ गयी जब सुबह दरवाजे पर आ कर उसने बन्द पाया।
10. अब झोंपड़ी ढह चुकी है और मेरे सीने में अखबार ठुँसे हुए हैं और मैं
शामों को नदी किनारे झाड़ियों के अँधेरे विवर में लेटा रहता हूँ और याद करता हूँ।
11 हवा के बालों में घास की महक है और पानी ईश्वर से
शान्ति की अन्तहीन गुहार लगाता है और मेरी ज़बान पर हरदम रहता है एक कड़वा स्वाद।
भजन
1. हमने पलक तक नहीं झपकायी जब सफ़ेद पानी हमारे गले तक चढ़ आया।
2. जब गहरी भूरी शामें हमें कुतरती रहीं हम सिगार पीते रहे।
3. हमने इनकार नहीं किया जब हम आकाश में डूब गये।
4. पानी ने किसी को नहीं बताया कि वह हमारे गले तक चढ़ आया है।
5. अख़बारों में कुछ भी नहीं था हमारे कुछ न कहने के बारे में।
6. आकाश नहीं सुनता उन लोगों की चीख़ें जो डूब रहे होते हैं।
7. लिहाज़ा हम बैठे रहे बड़ी चट्टानों पर ख़ुशक़िस्मत लोगों की तरह।
8. लिहाज़ा हमने मार डालीं वे सोनचिरैयाँ जो हमारे मौन चेहरों की चर्चा करती थीं।
9. कौन बात करता है चट्टानों के बारे में ?
10. और किसे परवाह है कि पानी, शाम और आकाश का हमारे लिए क्या मतलब है ?
चौथा भजन
1. अब वे मुझसे क्या चाहते हैं ? मैं ताश की सभी बाज़ियाँ खेल चुका हूँ, सारी शराब थूक चुका हूँ, सारी किताबें चूल्हे में झोंक चुका हूँ, सारी औरतों को उस हद तक प्यार कर चुका हूँ जब तक कि वे मगरमच्छ की तरह गँधाने नहीं लगीं।
अभी से मैं एक महान सन्त हो गया हूँ, मेरा कान सड़ गया है कि बहुत जल्द झड़ जायेगा।
तब फिर क्यों कोई चैन नहीं है ? क्यों लोग अहाते में कचरे की पेटियों की तरह खड़े रहते हैं, चन्दे की उम्मीद में? मैंने यह साफ़ कर दिया है कि अब मुझसे यह अपेक्षा नहीं रखी जा सकती कि मैं वह गीतों का सरताज गीत रच ही दूँगा। मैंने पुलिस को उन हज़रात के पीछे लगा दिया है। तुम्हें जिसकी भी तलाश हो, मैं वह बन्दा नहीं हूँ।
2. अपने भाइयों में मैं सबसे ज़्यादा दुनियादार हूँ - और मेरा ही सर सबसे पहले क़लम किया जाता है। मेरे भाई क्रूर थे, मैं क्रूरतम हूँ - और रात-रात भर रोता हूँ मैं।
3. पवित्र आचार संहिता के साथ पापों का भी बण्टाढार हो गया है। यहाँ तक कि अपनी बहन के साथ सोने में भी अब कोई मज़ा नहीं रहा। बहुतों के लिए हत्या एक बड़ी ज़हमत है, कविता लिखना बेहद आम। सारे रिश्तों की असुरक्षा के इस माहौल में बहुत-से लोग सच बोलना पसन्द करते हैं - इसके ख़तरों से बिलकुल अनजान। रण्डियाँ सर्दियों के लिए गोश्त का अचार डाल रही हैं और शैतान ने अपने सबसे वफ़ादार लोगों को गुहारना बन्द कर दिया है।
ईश्वर के लिए भजन
1. गहरी अँधेरी घाटियों में भूखे लोग मर रहे हैं। तुम सिर्फ़ उन्हें रोटी दिखाते
हो और मरने के लिए छोड़ देते हो। तुम सिर्फ़ राज करते हो अनन्त
अदृश्य। इस अन्तहीन योजना पर क्रूरता से मुस्कुराते हुए।
2. तुम नौजवानों को मरने देते हो और उनको भी जोज़िन्दगी का मज़ा लेते
हैं। लेकिन जो मरना चाहते थे उन्हें तुमने स्वीकार नहीं किया। बहुत
से लोग जा अब पड़े सड़ रहे हैं। तुम में विश्वास करते थे
और पूरी तरह महफ़ूज़ मरे
3. तुम ग़रीबों को साल-ब-साल गरीब रहने देते हो
इस एहसास के साथ कि उनकी इच्छाएँ तुम्हारे स्वर्ग से ज़्यादा मधुर हैं।
अफ़सोस इससे पहले कि तुम उन तक रोशनी ला सको वे सिधार गये।
तो भी वे आनन्द से सिधारे - और तत्काल सड़ गये।
4. हममें से बहुत से कहते हैं तुम नहीं हो -
और यही भला है लेकिन वह चीज़
जो रच सकती है ऐसा प्रपंच नहीं कैसे हो सकती।
अगर इतना कुछ तुम्हारे सहारे ज़िन्दा है
और मर नहीं सकता तुम्हारे बिना तो
बताओ ज़रा इससे क्या फ़र्क
पड़ता है कि तुम नहीं हो ?
माँ के लिए
और जब वह ख़त्म हो गयी उन्होंने दफ़्न कर दिया उसे
फूल उगते रहे उसके ऊपर, तितलियाँ मँडराती रहीं उस पर
इतनी हल्की थी वह, मुश्किल से दबा पायी धरती को
कितनी तकलीफ़ों से गुज़र कर हुई होगी वह इतनी हल्की।
बेचारे बी.बी. के बारे में
मैं, बर्टोल्ट ब्रेख़्ट, काले जंगलों से आया।
मेरी माँ मुझे शहरों में लायी जब मैं उसके देह के भीतर था
और मरते दम तक मेरी भीतर रहेगी जंगलों की ठण्ड।
डामर की सड़कों वाले शहर मेरा ठिकाना हैं शुरू ही
से उन्होंने मुझे हर अन्तिम संस्कार प्रदान
किया - अख़बार और तम्बाकू और शराब
अन्त तक शक्की, काहिल और सन्तुष्ट
लोगों से शिष्टता और दोस्ती से पेश आता हूँ मैं पहनता हूँ टोप
क्योंकि ऐसा ही करते हैं वे भी
वे जानवर हैं एक ख़ास गन्ध वाले
मैं कहता हूँ
तो क्या हुआ ? मैं यह भी कहता हूँ
मैं भी तो हूँ।
कभी-कभी दोपहर से पहले मैं
अपनी ख़ाली झूलने वाली कुर्सियों पर
बैठा देता हूँ एक या दो औरतें और फिर
लापरवाही से उन पर नज़र डाल कहता
हूँ मैं वो शख़्स हूँ जिस पर तुम भरोसा नहीं कर सकतीं।
शाम होते-होते मैं इकट्ठा कर लेता
हूँ कुछ पुरुष अपने गिर्द
हम एक-दूसरे को कहते हैं महाशय
मेरी मेज़ पर टाँगें फैला कर वे
कहते हैं चीज़ें बेहतर होंगी हमारे लिए
मैं नहीं पूछता कब ?
सुबह-सबेरे भोर के
सलेटी धुंधलके में मूतते हैं चीड़ के पेड़ और उनके कीड़े,
यानी चिड़ियाँ, चहचहा कर गुलगुपाड़ा मचाने लगती हैं
उस समय शहर में अपना गिलास ख़ाली करता हूँ मैं
फिर फेंक देता हूँ सिगार का टोटा और चिन्ता में डूबा सोने जाता हूँ।
हम एक आरामतलब पीढ़ी के लोग
रहते आये हैं ऐसे घरों में
जिनके बारे में ख़याल था कि वे तबाह नहीं किये जा सकते
( इसी तरह बनाये हमने : मैनहैटन आइलैण्ड के ऊँचे डिब्बे
और अतलान्तिक महासागर की लहरों का मनोरंजन करने वाले एण्टेना)
उन शहरों में बस बचेगा वही जो
उनसे हो कर गुज़रा यानी तूफ़ान।
घर ख़ुशी देता है खाने पर आये मेहमान को
जो उसकी सफ़ाई कर जाता है
हम जानते हैं हम सिर्फ़ किरायेदार हैं, कुछ देर के,
और हमारे बाद ऐसा कुछ नहीं आयेगा जो चर्चा के क़ाबिल हो।
उन भूकम्पों में जो आने वाले हैं
मुझे पूरी उम्मीद है मैं अपने सिगार को बुझने नहीं दूँगा
भले ही मुझ में कड़वाहट भर गयी हो या नहीं
मैं, बर्टोल्ट ब्रेख़्ट, जो अर्सा पहले अपनी माँ के भीतर काले जंगलों में
डामर की सड़कों वाले शहरों में लाया गया था।
_______________________________________________________
बावेरिया, जर्मनी में जन्मे बर्टोल्ट ब्रेख़्ट (10 फ़रवरी 1898-14 अगस्त 1956)बीसवीं सदी के उन साहित्यकारों में हैं जिन्होंने पूरी दुनिया पर अपना असर छोड़ा है. वे नाटककार, कवि और नाट्य-निर्देशक थे. पूर्वी और हिन्दुस्तानी परम्पराओं से प्रेरणा ले कर उन्होंने समूचे नाट्य-कर्म को अपनी नयी शैली से प्रभावित किया. बीस-बाईस साल की उमर से वे एक प्रतिबद्ध मार्क्सवादी बन गये और जीवन भर रहे. उन्होंने दो-दो महा युद्धों की विभीषिका नज़दीक से देखी थी और हिट्लर और उसकी नात्सी पार्टी की हिट-लिस्ट में रहे जिसकी वजह से उन्हें दस साल से ज़्यादा की जलावतनी से गुज़रना पड़ा. ब्रेख़्ट कहते थे कि वे कविताएं प्रकाशित करने के लिए नहीं, बल्कि अपने नाटकों को और बेहतर बनाने के लिए लिखते थे. लेकिन उनका काव्य भण्डार जिसमें 500 से ज़्यादा कविताएं हैं बज़ातेख़ुद एक अहमियत रखता है. इसके अलावा उन्होंने उपन्यास और कुछ कहानियां भी लिखी हैं और नाट्य प्रस्तुतियों पर वैचारिक लेख भी
Wednesday, December 22, 2010
देशान्तर
आज से हम देश-विदेश के जाने-माने कवियों की रचनाओं के अनुवाद पेश करने जा रहे हैं. हर बार हमारी कोशिश होगी कि एक नये कवि से आप का परिचय करायें, साथ ही उस का संक्षिप्त परिचय भी दें.
आज के कवि : निकानोर पार्रा
युवा कवि
चाहे जैसा लिखो,
जो भी शैली तुम्हें पसन्द हो, अपना लो
बहुत ज़्यादा ख़ून बह चुका है
पुल के नीचे से
यह मानते रहने के लिए
कि सिर्फ़ एक ही रास्ता सही है
कविता में हर बात की इजाज़त है
शर्त बस यही है
तुम्हें बेहतर बनाना है कोरे पन्ने को
नामों का परिवर्तन
साहित्य-प्रेमियों को
मैं अपनी हार्दिक शुभकामनाएँ देता हूँ।
मैं कुछ चीज़ों के नाम बदलने जा रहा हूँ।
मेरी मान्यता यह है :
कवि अपने क़ौल का सच्चा नहीं
अगर वह चीज़ों के नाम नहीं बदलता।
क्या कारण है कि सूरज को
हमेशा सूरज ही कहा जाता रहा है ?
मैं कहता हूँ कि उसे
एक डग में चालीस कोस नापते जूतों वाली
बिल्ली कहा जाय।
मेरे जूते ताबूतों जैसे लगते हैं ?
तो जान लीजिए कि आज के बाद
जूतों को ताबूत कहा जायेगा।
बता दीजिए, सूचित कर दीजिए,
प्रकाशित कर दीजिए इसे -
कि जूतों का नाम बदल दिया गया है :
अब से उन्हें ताबूत कहा जायेगा।
ख़ैर, रात तो ख़ासी लम्बी है।
अपना सम्मान करने वाले हर मूर्ख के पास
उसका एक अपना शब्द-कोश तो होना ही चाहिए
और इससे पहले कि मैं भूल जाऊँ
ईश्वर को भी तो अपना नाम बदलवाना पड़ेगा
हर कोई उसे जो नाम देना चाहे दे दे
यह एक निजी समस्या है।
रोलर कोस्टर
आधी सदी तक
कविता
गम्भीर मूर्खों का स्वर्ग थी
जब तक कि मैंने आ कर
अपना रोलर कोस्टर नहीं बनाया
सवार हो जाओ अगर तुम्हारा जी चाहे
लेकिन अगर तुम नाक और मुंह
फोड़वा कर उतरो
तो मेरी ज़िम्मेदारी नहीं है
मेरा प्रस्ताव है कि बैठक स्थगित कर दी जाय
देवियो और सज्जनो
मेरे पास सिर्फ़ एक सवाल है:
क्या हम सूर्य की सन्तान हैं या धरती की ?
क्योंकि अगर हम केवल धरती हैं
तो मुझे इस फ़िल्म की शूटिंग
जारी रखने में कोई तुक नहीं नज़र आता।
मेरा प्रस्ताव है कि बैठक स्थगित कर दी जाय।
रस्में
हर बार
जब मैं लौटता हूँ अपने देश
लम्बी यात्राओं के बाद
सबसे पहले मैं
उन लोगों के बारे में पूछता हूँ
जो दिवंगत हो गये हैं:
महज़ मौत की सरल-सी क्रिया से
सभी लोग नायक हैं
और नायक ही हमारे शिक्षक हैं
फिर मैं पूछता हूँ
घायलों के बारे में।
इसके बाद ही,
जब यह छोटी-सी रस्म पूरी हो जाती है
मैं माँग करता हूँ जीवन के अपने अधिकार की :
खाता हूँ, पीता हूँ, आराम करता हूँ
आँखें मूँदता हूँ ताकि और भी साफ़ देख सकूं
और गाता हूँ मैं विद्वेष-भरे स्वर में
इस सदी के आरम्भिक दिनों का कोई गीत
अधूरा प्रेमी
एक नव विवाहित जोड़ा
आ कर रुकता है एक क़ब्र के पास
वधू मातमी सफ़ेद लिबास में लिपटी है
उनके देखे बिना उन पर नज़र रखने के लिए
मैं एक खम्भे के पीछे छिप जाता हूँ
गहरी उदासी में डूब कर जब वधू
अपने पिता की कब्र से घास साफ़ करती है
उसका अधूरा प्रेमी बड़ी तन्मयता से
पत्रिका पढ़ता रहता है
घड़ियाँ
सान्तियागो, चिली में
दिन बेहद लम्बे होते हैं :
एक दिन में अनेक सदियाँ
खच्चरों पर सवार
सागर-सिवार के फेरी वालों की तरह
तुम उबासी लेते हो -
फिर-फिर उबासी लेते हो
लेकिन हफ़्ते बहुत छोटे होते हैं
महीने सरपट गुज़रते हैं
और वर्षों ने तो जैसे पंख उगा लिये हैं
कविता मेरे साथ ख़त्म होती है
मैं किसी चीज़ को ख़त्म नहीं कर रहा
मुझे इस बारे में कोई भ्रम नहीं है
मैं कविताएँ रचते रहना चाहता था
लेकिन प्रेरणा ही चुक गयी।
कविता पूरी तरह खरी उतरी
मेरा ही चाल-चलन बहुत ख़राब रहा
यह कहने से मुझे क्या फ़ायदा है
कि मैं खरा उतरा
और कविता ने बुरा आचरण किया
जब सभी जानते हैं दोष मेरा है ?
मूर्ख बस इसी लायक होता है
कविता पूरी तरह खरी उतरी है
मैंने ही बहुत बुरा आचरण किया
कविता मेरे साथ ख़त्म होती है।
अनजान औरत को लिखे गये पत्र
जब बरसों बीत जायें, जब कई साल
बीत जायें और हवा
तुम्हारी और मेरी आत्मा के बीच
खाई खोद चुकी हो, जब कई बरस
गुज़र जायें और मैं
महज़ वह आदमी रह जाऊँ
जिसने प्यार किया,
जो केवल एक क्षण के लिए
तुम्हारे होंटों पर टिका,
वह बेचारा आदमी
जो बाग़ों में टहलते-टहलते
थक गया हो
जब तुम कहाँ होगी ?
कहाँ होगी तुम
ओ मेरे चुम्बनों की बेटी।
_____________________________________
निकानोर पार्रा सान्दोवाल का जन्म 5 सितम्बर 1914 को चीले (दक्षिण अमरीका) के शहर चिलैन के पास सान फ़ैबिअन दे अलीचो नामक स्थान में हुआ. वे कवि के साथ-साथ गणितज्ञ भी हैं. लातीनी अमरीका में वे बहुत प्रसिद्ध हैं और जाने-माने काव्य आन्दोलन "ऐण्टी पोएट्री" के जनक हैं जिसका आधुनिक लातीनी अमरीकी ही नहीं, अमरीकी और यूरोपीय कविता पर गहरा असर पड़ा है. उनकी कविता का सारा उद्देश्य व्यर्थ के अलन्करणों से कविता को मुक्त करके पाठक को सम्बोधित करना है, जिसका मतलब है कि उनकी कविता अधिक देसी प्रभावों से युक्त है. उनका पहला ही कविता संग्रह "पोएमास ई ऐण्टीपोएमास" अब लातीनी अमरीकी साहित्य का एक गौरव ग्रन्थ बन चुका है.
आज के कवि : निकानोर पार्रा
युवा कवि
चाहे जैसा लिखो,
जो भी शैली तुम्हें पसन्द हो, अपना लो
बहुत ज़्यादा ख़ून बह चुका है
पुल के नीचे से
यह मानते रहने के लिए
कि सिर्फ़ एक ही रास्ता सही है
कविता में हर बात की इजाज़त है
शर्त बस यही है
तुम्हें बेहतर बनाना है कोरे पन्ने को
नामों का परिवर्तन
साहित्य-प्रेमियों को
मैं अपनी हार्दिक शुभकामनाएँ देता हूँ।
मैं कुछ चीज़ों के नाम बदलने जा रहा हूँ।
मेरी मान्यता यह है :
कवि अपने क़ौल का सच्चा नहीं
अगर वह चीज़ों के नाम नहीं बदलता।
क्या कारण है कि सूरज को
हमेशा सूरज ही कहा जाता रहा है ?
मैं कहता हूँ कि उसे
एक डग में चालीस कोस नापते जूतों वाली
बिल्ली कहा जाय।
मेरे जूते ताबूतों जैसे लगते हैं ?
तो जान लीजिए कि आज के बाद
जूतों को ताबूत कहा जायेगा।
बता दीजिए, सूचित कर दीजिए,
प्रकाशित कर दीजिए इसे -
कि जूतों का नाम बदल दिया गया है :
अब से उन्हें ताबूत कहा जायेगा।
ख़ैर, रात तो ख़ासी लम्बी है।
अपना सम्मान करने वाले हर मूर्ख के पास
उसका एक अपना शब्द-कोश तो होना ही चाहिए
और इससे पहले कि मैं भूल जाऊँ
ईश्वर को भी तो अपना नाम बदलवाना पड़ेगा
हर कोई उसे जो नाम देना चाहे दे दे
यह एक निजी समस्या है।
रोलर कोस्टर
आधी सदी तक
कविता
गम्भीर मूर्खों का स्वर्ग थी
जब तक कि मैंने आ कर
अपना रोलर कोस्टर नहीं बनाया
सवार हो जाओ अगर तुम्हारा जी चाहे
लेकिन अगर तुम नाक और मुंह
फोड़वा कर उतरो
तो मेरी ज़िम्मेदारी नहीं है
मेरा प्रस्ताव है कि बैठक स्थगित कर दी जाय
देवियो और सज्जनो
मेरे पास सिर्फ़ एक सवाल है:
क्या हम सूर्य की सन्तान हैं या धरती की ?
क्योंकि अगर हम केवल धरती हैं
तो मुझे इस फ़िल्म की शूटिंग
जारी रखने में कोई तुक नहीं नज़र आता।
मेरा प्रस्ताव है कि बैठक स्थगित कर दी जाय।
रस्में
हर बार
जब मैं लौटता हूँ अपने देश
लम्बी यात्राओं के बाद
सबसे पहले मैं
उन लोगों के बारे में पूछता हूँ
जो दिवंगत हो गये हैं:
महज़ मौत की सरल-सी क्रिया से
सभी लोग नायक हैं
और नायक ही हमारे शिक्षक हैं
फिर मैं पूछता हूँ
घायलों के बारे में।
इसके बाद ही,
जब यह छोटी-सी रस्म पूरी हो जाती है
मैं माँग करता हूँ जीवन के अपने अधिकार की :
खाता हूँ, पीता हूँ, आराम करता हूँ
आँखें मूँदता हूँ ताकि और भी साफ़ देख सकूं
और गाता हूँ मैं विद्वेष-भरे स्वर में
इस सदी के आरम्भिक दिनों का कोई गीत
अधूरा प्रेमी
एक नव विवाहित जोड़ा
आ कर रुकता है एक क़ब्र के पास
वधू मातमी सफ़ेद लिबास में लिपटी है
उनके देखे बिना उन पर नज़र रखने के लिए
मैं एक खम्भे के पीछे छिप जाता हूँ
गहरी उदासी में डूब कर जब वधू
अपने पिता की कब्र से घास साफ़ करती है
उसका अधूरा प्रेमी बड़ी तन्मयता से
पत्रिका पढ़ता रहता है
घड़ियाँ
सान्तियागो, चिली में
दिन बेहद लम्बे होते हैं :
एक दिन में अनेक सदियाँ
खच्चरों पर सवार
सागर-सिवार के फेरी वालों की तरह
तुम उबासी लेते हो -
फिर-फिर उबासी लेते हो
लेकिन हफ़्ते बहुत छोटे होते हैं
महीने सरपट गुज़रते हैं
और वर्षों ने तो जैसे पंख उगा लिये हैं
कविता मेरे साथ ख़त्म होती है
मैं किसी चीज़ को ख़त्म नहीं कर रहा
मुझे इस बारे में कोई भ्रम नहीं है
मैं कविताएँ रचते रहना चाहता था
लेकिन प्रेरणा ही चुक गयी।
कविता पूरी तरह खरी उतरी
मेरा ही चाल-चलन बहुत ख़राब रहा
यह कहने से मुझे क्या फ़ायदा है
कि मैं खरा उतरा
और कविता ने बुरा आचरण किया
जब सभी जानते हैं दोष मेरा है ?
मूर्ख बस इसी लायक होता है
कविता पूरी तरह खरी उतरी है
मैंने ही बहुत बुरा आचरण किया
कविता मेरे साथ ख़त्म होती है।
अनजान औरत को लिखे गये पत्र
जब बरसों बीत जायें, जब कई साल
बीत जायें और हवा
तुम्हारी और मेरी आत्मा के बीच
खाई खोद चुकी हो, जब कई बरस
गुज़र जायें और मैं
महज़ वह आदमी रह जाऊँ
जिसने प्यार किया,
जो केवल एक क्षण के लिए
तुम्हारे होंटों पर टिका,
वह बेचारा आदमी
जो बाग़ों में टहलते-टहलते
थक गया हो
जब तुम कहाँ होगी ?
कहाँ होगी तुम
ओ मेरे चुम्बनों की बेटी।
_____________________________________
निकानोर पार्रा सान्दोवाल का जन्म 5 सितम्बर 1914 को चीले (दक्षिण अमरीका) के शहर चिलैन के पास सान फ़ैबिअन दे अलीचो नामक स्थान में हुआ. वे कवि के साथ-साथ गणितज्ञ भी हैं. लातीनी अमरीका में वे बहुत प्रसिद्ध हैं और जाने-माने काव्य आन्दोलन "ऐण्टी पोएट्री" के जनक हैं जिसका आधुनिक लातीनी अमरीकी ही नहीं, अमरीकी और यूरोपीय कविता पर गहरा असर पड़ा है. उनकी कविता का सारा उद्देश्य व्यर्थ के अलन्करणों से कविता को मुक्त करके पाठक को सम्बोधित करना है, जिसका मतलब है कि उनकी कविता अधिक देसी प्रभावों से युक्त है. उनका पहला ही कविता संग्रह "पोएमास ई ऐण्टीपोएमास" अब लातीनी अमरीकी साहित्य का एक गौरव ग्रन्थ बन चुका है.
Monday, December 20, 2010
कई दिनों के नागे के बाद
कई दिनों के नागे के बाद एक बार फिर आप से मुख़ातिब हूं. सिर्फ़ इतना सूचित करने के लिए कि बहुत जल्द - शायद एक-दो दिन में मैं विश्व के कुछ जाने-माने कवियों की रचनाएं पेश करूंगा. और यह क्रम बराबर चलता रहेगा. रोज़ एक या दो कविताएं आपकी नज़र होंगी. उम्मीद है कि आप सब उन्हें पढ़ेंगे और वे आप को पसन्द आएंगी. इन कवियों में निकानोर पार्रा, पाब्लो नेरूदा, बर्टोल्ट ब्रेख़्ट, जीवनानन्द दास, सुकान्त भट्टाचार्य, तादेयूश रोज़ेविच, वाल्ट ह्विट्मैन, अतिया जोज़ेफ़, एज़रा पाउण्ड, ली पो और ऐसे ही अनेक कवि होंगे. और यह कहने की बात नहीं कि ये अनुवाद मेरी वर्षों की मेहनत का नतीजा हैं. अपनी प्रतिक्रिया ज़रूर दीजिएगा
Wednesday, December 1, 2010
फ़तवे नहीं, सन्तुलित नज़रिया चाहिए, आनन्द प्रकाश जी
किन्तु युग बदला व आया कीर्ति-व्यवसायी
लाभकारी कार्य में से धन,
व धन में से हृदय-मन,
और, धन-अभिभूत अन्त:करण में से
सत्य की झाईं
निरन्तर चिलचिलाती थी.
आत्मचेतस किन्तु इस
व्यक्तित्व में थी प्राणमय अनबन...
विश्वचेतस बे-बनाव !!
महत्ता के चरण में था
विषादाकुल मन !
-मुक्तिबोध : ब्रह्मराक्षस
कुछ दिन पहले वरिष्ठ लेखक और शिक्षक आनन्द प्रकाश ने दो हिस्सों में लिखे गये अपने एक लेख में हिन्दी साहित्य की मौजूदा हालत का एक जायज़ा लेते हुए कुछ सवाल उठाये हैं, कुछ विचार प्रकट किये हैं और कुछ टिप्पणियां की हैं. आनन्द प्रकाश के लेख के इन दोनों हिस्सों पर एक टिप्पणी करते हुए युवा कवि अच्युतानन्द मिश्र ने अपनी तरफ़ से हिन्दी साहित्य की वर्तमान स्थिति का लेखा-जोखा पेश किया है और इस के कुछ कारणों पर प्रकाश डाला है. अगर सरसरी नज़र से इन लेखों-टिप्पणियों को देखा जाये तो इनमें कही गयी बहुत-सी बातों से इनकार नहीं किया जा सकता. कहा जाये कि अपने समग्र रूप में दोनों लेख उस विराट गड़्बड़ी की सैर-बीनी तस्वीर पेश करते हैं जिसे हम "आज का सांस्कृतिक संकट" के नाम से परिभाषित कर सकते हैं. यही नहीं, मोटे तौर पर यह तस्वीर काफ़ी हद तक सच्चाई से और गम्भीरता से अंकित करने की भी कोशिश आनन्द प्रकाश और अच्युतानन्द ने की है.
लेकिन अगर ज़रा गहरे में जा कर आनन्द प्रकाश के लेखों की छान-बीन करें तो जो सबसे पहली बात खटकती हैं वह इन लेखों का सर्वथा नकारवादी, फ़तवेबाज़ी से भरा रवैया है जो एक दूसरे क़िस्म की वैचारिक शून्यता और अवैज्ञानिक दृष्टिकोण की चुग़ली खाता है. उन्हें शिकायत है कि --"समकालीन हिंदी लेखन, जिससे मेरी मुराद पिछली सदी के अंतिम दो दशकों के लेखन से है, सीधे-सीधे चिन्तन-विरोधी है। वह न केवल वर्तमान दौर या पिछले वक्त को समझने में यकीन नहीं रखता,बल्कि स्पष्ट रूप से समझने की क्रिया को ही अनुचित और गैरजरूरी मानता है।"
क्या सचमुच एक पूरे दौर के सारे लेखन पर इस तरह हैंगा फेर देना किसी मुनासिब (और वैज्ञानिक, मार्क्सवादी) नज़रिये की उपज कहा जा सकता है ? वरिष्ठ लेखक और शिक्षक होने के नाते आनन्द प्रकाश ज़रूर इस बात से वाक़िफ़ होंगे कि किसी भी दौर में दो तरह की प्रवृत्तियां काम करती हैं. एक -- जो सत्ता और, आनन्द प्रकाश ही के शब्दों में कहूं तो, "अधिकार-तन्त्र" की पिछलगुआ और समर्थक होती है और एवज़ में उससे पोषित-पुरस्कृत होती है. दूसरी -- जो सत्ता और अधिकार-तन्त्र का विरोध करती है या उससे उदासीन रह कर अपना काम करती है. यह कोई आज के दौर का संकट नहीं है. "सन्तन को कहा सीकरी सौं काम" की उक्ति 70 या उससे पहले के किसी दशक के कवि की नहीं, बल्कि कई सौ साल पहले की है. यह खेद की बात है कि आनन्द प्रकाश ने इन दो प्रवृत्तियों के सन्दर्भ में मौजूदा संकट की छान-बीन करने और सत्ता और अधिकार-तन्त्र के उत्सवी शोर-शराबे के नीचे दबे सच्चे जनवादी सरोकारों को व्यक्त करने वाली रचनाधर्मिता की शिनाख़्त करने और उसे सामने लाने का वह दायित्व नहीं निभाया जो उनकी चिन्ताओं के सन्दर्भ में उनसे अपेक्षित था.
इस एकांगी दृष्टिकोण का परिणाम यह हुआ है कि उनका लेख भी किसी हद तक वैसी ही सतही बहसों को बढ़ाता जान पड़ता है जैसी हाल के दिनों में हिन्दी के साहित्यिक जगत में कसरत से नज़र आती रही हैं. कहीं किसी अकादेमी में किसी नियुक्ति को ले कर, किसी पुरस्कार के दिये या न दिये जाने को ले कर, किसी अधिकार-सम्पन्न साहित्यकार की अभद्र टिप्पणियों को ले कर या फिर किसी वरिष्ठ कवि द्वारा ढेर सारे निस्बतन युवा कवियों पर एक सिरे से दूसरे सिरे तक कुठाराघात करने को ले कर या फिर अब ताज़ा मामले में आनन्द प्रकाश द्वारा नकारवादी (निहिलिस्ट) शैली में लगभग 25-30 वर्षों की समूची रचनात्मकता को पूरी तरह ख्ज़ारिज करके. आनन्द प्रकाश ने बजाय किसी सार्थक बहस को शुरू करने, मौजूदा दौर में चल रही टकराहट को साफ़ तौर पर पहचान कर सामने लाने और एक नज़ीर पेश करने की जगह आरोपों की झड़ी लगा कर एक शिकायतनामा पेश किया है और असली सवाल से कन्नी काट ली है.
इसमें कोई शक नहीं है कि संकट बढा है पर इसी के बीच सही स्वर भी मौजूद हैं. नब्बे के जिस दशक को आनन्द प्रकाश ने एक सिरे से ख़ारिज कर दिया है उसी के आरम्भ में एक युवा कवि ने "नागरिक व्यथा" जैसी कविता लिख कर संकट की पहचान करायी थी. और संकट की पहचान कराना भी उस संकट के विरुद्ध मोर्चेबन्दी में शामिल होना है. क्या आनन्द प्रकाश ने यह कविता पढ़ी है ? नहीं पढ़ी तो वे अब एकान्त श्रीवास्तव का पहला संग्रह हासिल करके पढ़ लें. और केवल एकान्त श्रीवास्तव ही का संग्रह क्यों, जिन दशकों को उन्होंने अपने लेख में कटघरे में खड़ा किया है उन की अच्छी तरह छान-बीन करके उनकी रचनाओं का मूल्यांकन वैसी ही कसौटी के आधार पर करें जिसे मुक्तिबोध ने "ज्ञानात्मक सम्वेदन और सम्वेदनात्मक ज्ञान" की कसौटी कहा है. फ़िलहाल तो आनन्द प्रकाश ने कुछ बनी-बनायी धारणाओं के आधार पर प्रवृत्तियों और मौडलों की बात की है. इसीलिए वे अपने लेख के दूसरे हिस्से में एक और फ़तवा देते हुए कहते हैं, "रचनाकार को मालूम ही नहीं है कि वर्तमान माहौल में सामाजिक गैर-बराबरी, अशिक्षा, नारी-शोषण, बेकारी, दलितों का उत्पीड़न, गरीबी और सांस्कृतिक पतनशीलता निरंतर बढ़ रहे हैं।"
क्या सचमुच सभी रचनाकारों के सिलसिले में निर्विवाद रूप से ऐसा कहा जा सकता है ?
इन्हीं फ़तवेबाज़ियों की वजह से आनन्द प्रकाश वैचारिकता की तमाम तवक़्क़ो रखने के बावजूद मौजूदा संकट को सिर्फ़ रचनाकारों के अन्दर से हल करने की उम्मीद लगाते हैं. मानो वैचारिकता से लैस और पुरस्कारों से विमुख होते और सुविधाओं से किनारा करते ही सारी समस्याएं आप-से-आप हल हो जायेंगी. वरिष्ठ चिन्तक होने के नाते वे ज़रूर यह जानते होंगे कि साहित्यिक प्रवृत्तियों और साहित्यकारों के आचरण का सम्बन्ध जिस हद तक उनके अन्दर से होता है, उतना ही उनके बाहर की स्थितियों में भी होता है. प्लेखानोव ने "कला और सामाजिक जीवन" में बड़े विस्तार से सामाजिक परिस्थितियों और कलात्मक उद्यम के आपसी सम्बन्ध को व्याख्यायित-विश्लेषित किया है और बड़ी बारीक़बीनी से फ़्रांसीसी क्रान्ति के उत्थान-पतन के सन्दर्भ में बौदलेयर जैसे कथित रूप से "पतनशील" लेखक की जनवादिता को, भले ही उसका आयुष्य कम था, चिह्नित किया है. ज़ाहिर है कि बहुत हद तक लेखक भी समाज ही का हिस्सा होता है और प्लेखानोव के शब्दों में कहें तो अगर वह एक दौर में "कला के लिए कला" की बजाय "कला के उपयोगितावादी नज़रिये" को मानने लगता है या दूसरे दौर में इसकी उलटी दिशा अख़्तियार करता है तो इसके पीछे कुछ ठोस सामाजिक कारण होते हैं.
आनन्द प्रकाश के लेख की एक बड़ी कमज़ोरी यह भी है कि उन्हों ने एक बहुत विस्तृत और उलझे हुए विषय को अनेक प्रकार के सरलीकरणों द्वारा विश्लेषित करने की कोशिश की है. इसीलिए उनके लेख में कुछ अन्तर्विरोध भी चले आये हैं. पहला तो यह कि उन्होंने 70 के दशक तक के 60-70 वर्षों का एक काल-खण्ड बनाया है और बाक़ी 25-30 वर्षों का एक. जबकि बीसवीं सदी के अनेक दौर हैं और उनकी चुनौतियां और संकट भी अलग-अलग हैं. दूसरी बात यह है कि उन्हों ने मौडलों के सिलसिले में भी अजीब जोड़े बनाये हैं. प्रेमचन्द और महावीरप्रसाद द्विवेदी तो चलो एक खण्ड में रख भी लिये जायें लेकिन निराला और मुक्तिबोध को एक ही तरह का मौडल बताना मेरे खयाल में ठीक नहीं है. शीत युद्ध का प्रभावी असर मुक्तिबोध की स्वीकृति पर ज़रूर पड़ा था मगर निराला उसके ज़ेरे-असर नहीं थे. दरअसल यह मौडलों की चर्चा ही बेमानी है. हर कालखण्ड में दो या उससे अधिक मौडल भी हो सकते हैं, दो तो यक़ीनन होते ही हैं -- एक सत्ता और अधिकार-तन्त्र का मौडल और दूसरा जन-पक्षी मौडल. किसी भी दौर का जायज़ा लेते हुए इन दोनों को आमने-सामने रख कर ही बात हो सकती है. बल्कि मेरी नज़र में मौडलों की जगह प्रवृत्तियों के सन्दर्भ में बात करना ज़्यादा मुनासिब है क्योंकि कोई भी रचनाकार मोनोलिथिक क़िस्म का नहीं होता. अलग-अलग चरणों में उसकी रचनात्मकता अलग-अलग रूप ले सकती है. अज्ञेय और नयी कविता के प्रभाव से रघुवीर सहाय और सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, दोनों ही निकल कर आये थे. लेकिन रघुवीर सहाय ने, जिन्होंने पहले के दौर में लिखा था "दुनिया एक बजबजाई हुई चीज़ हो गयी है," आगे चल कर "मेरा प्रतिनिधि" और "रामदास" जैसी कविताएं लिखीं, लेकिन वहीं तक महदूद रह जाने के कारण वे बुर्जुआ लोकतन्त्र के प्रतिपक्ष तक ही सीमित रह गये; जबकि सर्वेश्वर ने, जो "साम्यवाद और पूंजीवाद मैं दोनों पर थूकता हूं लिख चुके थे, समय के बदलते ही नक्सलवादी आन्दोलन के नज़दीक चले गये और उन्होंने "कुआनो नदी" और "किश्टा और भूमैय्या" जैसी परिवर्तनकामी कविताएं लिखीं. तो क्या हम इस परिवर्तन पर ग्ज़ौर किये बिना ही उनका मूल्यांकन करेंगे ?
दूसरा अन्तर्विरोध यह है कि आनन्द प्रकाश यह भी नज़रन्दाज़ कर गये हैं कि एक ही लेखक के अन्दर अन्तर्विरोध भी हो सकते हैं और उस लेखक की चर्चा करते हुए इन अन्तर्विरोधों की चर्चा न करने से ही वह प्रतिमा निर्माण की प्रवृत्ति उभरती है जो अन्तत: रचनाशीलता को नुक़सान पहुंचाती है. एक मिसाल देना चाहूंगा. निराला एक ओर तो "वन बेला" और महगू महगा रहा जैसी कविताएं लिखते हैं, दूसरी ओर जवाहरलाल नेहरू से इतने मुग्ध हैं कि लगातार उनसे संवाद करने की कोशिश करते रहते हैं. एक ओर वे "जल्द जल्द पैर बढ़ाओ आओ आओ" जैसी कविता लिखते हैं दूसरी ओर "शिवाजी का पत्र" नामक कविता में देश के "झुकाव" के "जातिगत" होने और "एक ओर हिन्दू एक ओर मुसलमान" के होने की कामना व्यक्त करते हैं. आर.एस, पण्डित की मृत्यु पर तो निराला कविता लिखते हैं पर अपने समय की -- और आज तक की भी -- सबसे प्रखर जनवादी धारा -- भगत सिंह और आज़ाद की क्रान्तिकारी धारा -- पर एक अजीब ख़ामोशी उनके साहित्य में दिखती है. मैं निराला के महत्व को ज़रा भी कम कर के आंकने का हामी नहीं हूं. सिर्फ़ बुत-परस्ती की उस रवायत का विरोधी हूं जो मौजूदा संकट का एक प्रमुख कारण है और जिसे मौडलों की चर्चा करके आनन्द प्रकाश पुष्ट करते जान पड़ते हैं. अगर शुरू ही से हिन्दी में यह प्रतिमा निर्माण न होता तो शायद हिन्दी के लेखक "बड़े अग्रजों" के कृपाकांक्षी होने के चक्कर में अपने जनों से इतना दूर न चले गये होते.
इससे यह न समझा जाये कि मैं उन लेखकों की ओर से कोई सफ़ाई पेश करने की कोशिश कर रहा हूं जो सत्ता और अधिकार-तन्त्र के मुखापेक्षी हैं और अपनी जनता और वास्तविक समस्याओं से विमुख हो कर विचारशून्यता के उत्सव में जुटे हुए हैं. मैंने खुद अपने हाल के एक लेख में इन्हीं बातों का ज़िक्र करते हुए लिखा था -- "वे कौन-से कारण हैं जिनसे इस तरह का छिछोरा हल्कापन इतने बड़े पैमाने पर हिन्दी के साहित्यिक संसार में व्याप्त हो गया है ? क्या अब चर्चा के लिए कोई गम्भीर मुद्दा नहीं बचा ? केन्द्रीय सरकार हो या प्रान्तीय सरकारें -- उनके स्वैराचार और जनविरोधी क़दमों पर हिन्दी के साहित्यकारों के बीच चुप्पी क्यों छायी हुई है ? चलो माओवादियों के समर्थन से सरकारी कोप का भाजन बनने का डर हो सकता है, या उनसे वैचारिक विरोध भी, पर छत्तीसगढ़, झारखण्ड और ऊड़ीसा के आदिवासियों के दमन और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलन्द क्यों नहीं होती ? या फिर कश्मीर में लगातार चल रही सैनिक कार्रवाई के खिलाफ़ ? इज़्ज़त के नाम पर औरतों और प्रेमी-प्रेमिकाओं की बेहुरमती और हत्याओं पर वे साहित्यकार उस रोष का दसवां हिस्सा भी क्यों नहीं व्यक्त करते जो उन्होंने महज़ "छिनाल" शब्द के प्रयोग पर व्यक्त किया है ? सत्ता के दाहिने बने रहने की अनिवार्यता ने हिन्दी के उस परम्परागत विवेक पर क्यों पर्दा डाल दिया है जिसके अनुसार हिन्दी की मूल प्रति्ज्ञा ही शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ़ मनुष्य के अथक संघर्ष में हिस्सेदारी; यथास्थिति का विरोध; सत्ता और उसके प्रलोभनों से किनाराकशी; और वास्तविकता की अक़्क़ासी के आत्म-संघर्ष का सामना करने की थी ? क्या कारण है कि चारों ओर मचे कोहराम और हाहाकार के बीच हिन्दी साहित्य एक जलसे की शक्ल अख़्तियार करता चला जा रहा है -- अपने में मग्न, उत्तरोत्तर सत्ता और उसके प्रलोभनों के निकट जाने की फ़िक्र में ग़लतान ? पिछली सदी के साठ और सत्तर के दशकों में परिवर्तन की जिन लहरों ने साहित्य को रोमांचकारी ऊंचाइयों पर पहुंचाया था उनके अलमबर्दार पुलिस के सन्दिग्ध अफ़सरों के मुसाहिब क्यों बन गये ?"
मेरी गुज़ारिश यह है कि इस पेचीदा हालत को महज़ चलताऊ ढंग से शीत-युद्ध, भूमण्डलीकरण, पुरस्कार-प्रेम, परस्पर पीठ-खुजाऊपन, अहो-अहो मार्का चर्चा, एक-ध्रुवीय दुनिया की चपेट, महा-आख्यान, आदि शब्दों का इस्तेमाल करके इन्हीं में संकट के कारणों की पहचान करना-कराना उसी फ़तवेबाज़ी का नतीजा है जिस से आनन्द प्रकाश पिछले बीस-पच्चीस बरस के लेखन और लेखकों को एक सिरे से दूसरे सिरे तक पूरी तरह ख़ारिज करते हैं. उनके एकांगी दृष्टिकोण का पता इस बात से भी चलता है कि एक तो वे बुर्जुआ प्रवृत्तियों को रेखांकित करने के लिए सिर्फ़ कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी का ज़िक्र करते हैं. वे लिखते हैं, "हिंदी में शासक वर्ग की विचारधारा के वाहक संगठन (मसलन कांग्रेस और भाजपा के साथ-साथ व्यक्ति-लेखकों द्वारा नियंत्रित संगठन) भी हैं जहां लेखकीय उठा-पटक और क्षुद्र अवसरवादिता का बोलबाला है। लेकिन हमारे संदर्भ में उम्मीद की किरण जगाने वाले तीन वामपंथी संगठनों की प्रारंभिक आभा भी मंद होने लगी है। इनमें सबसे कमजोर प्रगतिशील लेखन संगठन है।"
क्या शासक वर्ग का प्रतिनिधित्व सिर्फ़ कांग्रेस और भाजपा द्वारा ही होता है या फिर इस का प्रतिनिधित्व सत्ता की उठा-पटक में शामिल सभी पार्टियां कमो-बेश करती हैं ? यानी वे सारी पार्टियां जो संसदीय लोकतन्त्र के ढकोसले में शामिल हैं. सम्भव है कि आनन्द प्रकाश सीपीआई और सीपीएम और सीपीआई माले लिबरेशन को बुर्जुआ पार्टियां न मानते हों, पर आपातकाल में सीपीआई की और हाल के दिनों में नन्दीग्राम, लालगढ़, सिंगुर आदि में सीपीएम की भूमिका को देखते हुए और बिहार के पिछले चुनावों में सीपीआई माले लिबरेशन के अनेक ग़ैर-कम्यूनिस्ट राजनैतिक दलों के साथ चुनावी गंठजोड़ को देखते हुए उन्हें न तो कम्यूनिस्ट पार्टियां कहा जा सकता है, न क्रान्तिकारी पार्टियां. हम यह भी न भूलें कि जिस दौर से आनन्द प्रकाश क्षरण की शुरुआत मानते हैं उसी दौर के पहले चरण में सीपीएम ने विश्वनाथ प्रसाद सिंह की सरकार को सत्ता में बनाये रखने के लिए भाजपा के साथ हाथ मिलाया था. और विश्वनाथ प्रसाद सिंह का समर्थन सीपीआई माले लिबरेशन ने भी किया था.
ज़ाहिर है इस सब का असर भी लामुहाला साहित्यिक-सांस्कृतिक जगत पर पड़ता ही है. ख़ास तौर पर तीनों कम्यूनिस्ट पार्टियों के साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों पर और उनसे जुड़े लेखकों पर. जो सत्ता और अधिकार तन्त्र के हिमायती लेखक हैं उनसे तो कोई उम्मीद नहीं की जा सकती, पर क्या कारण है कि वाम साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों से जुड़े साहित्यकार भी बेतरह विचलन का शिकार हो गये हैं ? उदय प्रकाश अगर महन्त अवैद्यनाथ के धोरे जाते हैं तो आलोक धन्वा विश्वरंजन की किताब के विमोचन में नज़र आते हैं. क्या इस विपथगामिता का स्रोत इन लेखकों के अन्दर है या इसमें उनके संगठनों की भी कोई भूमिका बनती है ? इसमें कोई शक नहीं है कि प्रगतिशील लेखक संघ का एक गौरवशाली इतिहास है. उसकी गिरावट के भी कारण हैं. फिर क्या कारण है कि जलेस और जसम इस गिरावट के कारणों से सबक़ लेने में विफल हुए ?
संगठनों की यक़ीनन बड़ी भूमिका होती है. लेखन की प्रक्रिया तो बेहद निजी प्रक्रिया होती है, लेकिन संगठन लेखकों के नकारात्मक पक्ष को कम करके उसके सबल पक्ष को बढ़ाते हैं. साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों की तरह समाज भी एक संगठन ही है. चूंकि संगठन मनुष्य निर्मित होते हैं इसलिए उन्हें ठस, ठोस और मोनोलिथिक मान लेने से भी गड़्बड़ी पैदा होती है. वरना क्या कारण है कि आनन्द प्रकाश आज के जिन लेखकों की पतनशीलता और विचार-शून्यता की शिकायत कर रहे हैं उनमें से नब्बे फ़ीसदी साहित्यकार उन तीन वाम साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों के सदस्य हैं या रहे हैं जिनका ऊपर ज़िक्र किया गया. आनन्द प्रकाश ख़ुद इनमें से एक वाम साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठन के सक्रिय सदस्य रहे हैं. जब वे ऐसे सामान्यीकृत ढंग से सब कुछ नकार रहे हैं तो उन्हें ख़ुद अपनी भूमिका को भी जांचना चाहिये. उन्होंने मुक्तिबोध का नाम लिया है. ज़रा १९५७-६२ के बीच लिखी कविता "अंधेरे में" का यह अंश देखें जिसमें मुक्तिबोध एक प्रोसेशन का चित्र खींचते हैं--
"विचित्र प्रोसेशन, गम्भीर क्विक मार्च... कलाबत्तूवाली काली ज़रीदार ड्रेस पहने चमकदार बैण्ड दल -- अस्थि-रूप, यकृत-स्वरूप, उदर-आकृति आंतों के जालों से उलझे हुए, बाजे वे दमकते हैं भयंकर गम्भीर गीत-स्वन-तरंगें ध्वनियों के आवर्त मंडराते पथ पर. बैण्ड के लोगों के चेहरे मिलते हैं मेरे देखे हुओं से, लगता है उनमें कई प्रतिष्ठित पत्रकार इसी नगर के !! बड़े-बड़े नाम अरे कैसे शामिल हो गये इस बैण्ड दल में !! उनके पीछे चल रहा संगीन-नोकों का चमकता जंगल, चल रही पदचाप, तालबद्ध दीर्घ पांत, टैंक दल, मोर्टार, आर्टिलरी, सन्नद्ध, धीरे-धीरे बढ़ रहा जुलूस भयावना..." और फिर इसी क्रम में मुक्तिबोध साफ़-साफ़ चित्रित करते हैं कि कैसे इस जुलूस में "चेहरे वे मेरे जाने-बूझे-से लगते, उनके चित्र समाचार-पत्रों में छपे थे, उनके लेख देखे थे, यहां तक कि कविताएं पढ़ी थीं भई वाह ! उनमें कई प्रकाण्ड आलोचक, विचारक, जगमगाते कविगण मन्त्री भी, उद्योगपति और विद्वान यहां तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात डोमाजी उस्ताद बनता है बलबन हाय हाय !!"
आनन्द प्रकाश द्वारा वर्णित परिदृश्य की तरह जान पड़ता यह चित्र आश्चर्यजनक रूप से उस युग का है जो, आनन्द प्रकाश के लेख को हवाला मानें तो, वैचारिकता से सम्पन्न था. तब क्या यह मानें कि मुक्तिबोध के आकलन में दोष था. नहीं मुक्तिबोध का आकलन सही था जैसे आनन्द प्रकाश का आकलन जहां तक तथ्यों का सवाल है आज के बारे में सही है. गड़बड़ी यह है कि मुक्तिबोध जहां अपने युग की पतनशीलता का आकलन करते हुए आगे चल कर यह लिखते हैं कि "मानो मेरी ही निष्क्रिय संज्ञा ने संकट बुलाया," वहीं आनन्द प्रकाश अपने युग की गड़बड़ी का आकलन करते हुए आत्मालोचन से किनाराकशी कर लेते हैं. इसीलिए वे उन लोगों को चिह्नित नहीं कर पाते जो मौजूदा पतनशीलता का मुक़ाबला कर रहे हैं. इन्हीं के लिए निराला ने कहा था --
"हमारे अपने हैं यहां बहुत छिपे हुए लोग, मगर चूंकि अभी ढीला-पोली है देश में, अखबार व्यापारियों की ही सम्पत्ति हैं, राजनीति कड़ी से भी कड़ी चल रही है, वे सब जन मौन हैं इन्हें देखते हुए; जब वे कुछ उठेंगे और बड़े त्याग के निमित्त कमर बांधेंगे आयेंगे वे जन भी देश के धरातल पर, अभी अखबार उनके नाम नहीं छापते, ऐसा ही पहरा है."
यही नहीं, अपने युग की सारी आलोचना करते हुए भी नयों के प्रति निराला के दिल में जो प्यार और उम्मीद का भाव था उसे उनकी प्रसिद्ध कविता "हिन्दी के सुमनों के नाम पत्र" में सहज ही देखा जा सकता है.
आनन्द प्रकाश ने यह आरोप लगाया है कि पिछले 25-30 वर्षॊं का लेखन, कहें कि रचनाकार, "न केवल वर्तमान दौर या पिछले वक्त को समझने में यकीन नहीं रखता,बल्कि स्पष्ट रूप से समझने की क्रिया को ही अनुचित और गैरजरूरी मानता है।" उनसे पलट कर नया साहित्यकार पूछ सकता है कि महाशय जो लेखक तेभागा, तेलंगाना, नक्सलबाड़ी जैसे आन्दोलनों का प्रत्यक्षदर्शी न हो, जिसने प्रगतिशील लेखक संघ की शानदार तहरीक न देख रखी हो, जिसने ऐसे दौर में लिखना शुरू किया जब हर तरफ़ -- साहित्य ही नहीं समाज और राजनीति में भी -- भयंकर पतनशीलता हो, तब उसे वर्तमान दौर या पिछले वक्त की असलियत कौन समझायेगा. ? परम्परागत रूप से तो अग्रज साहित्यकार और संगठन यह करते आये हैं -- ख़ुद आनन्द प्रकाश ने महावीरप्रसाद द्विवेदी और वाम लेखक संगठनों का ज़िक्र किया है -- वे क्यों निष्क्रिय हो गये ?
इसलिए मैं अन्त में आनन्द प्रकाश से अनुरोध करूंगा कि व्याधि के लक्षणों का लेखा-जोखा तो काफ़ी हद तक उन्हों ने कर दिया है, पर उसके कारणों को भी ध्यान से परखें और उपचार को भी. और इसे निर्वैयक्तिक असम्पृक्ति से न करके सहानुभूतिपूर्ण लगाव के साथ करें. महज़ अयातुल्लाह ख़ुमैनी बनने या आरोप लगाने या उपदेश देने या प्रलय का पैग़म्बर बनने में कोई निस्तार नहीं है. मिट्टी तो वही है, पर अगर चाक टेढ़ा हो या कुम्हार के हाथ लरज़ते हों तो बात बनने से रही. अगर हम ने पहचान लिया है कि रोग है तब हमें ही उसका निदान और उपचार करना होगा तभी हम -- मुक्तिबोध ही की एक और कविता "भूल-ग़लती" की याद कराते हुए कहूं तो -- "उस" को पहचान सकेंगे जो "मुहैया कर रहा लश्कर; हमारी हार का बदला चुकाने आयेगा. संकल्प-धर्मा चेतना का रक्त-प्लावित स्वर, हमारे ही हृदय का गुप्त स्वर्णाक्षर प्रकट हो कर विकट हो जायेगा."
लाभकारी कार्य में से धन,
व धन में से हृदय-मन,
और, धन-अभिभूत अन्त:करण में से
सत्य की झाईं
निरन्तर चिलचिलाती थी.
आत्मचेतस किन्तु इस
व्यक्तित्व में थी प्राणमय अनबन...
विश्वचेतस बे-बनाव !!
महत्ता के चरण में था
विषादाकुल मन !
-मुक्तिबोध : ब्रह्मराक्षस
कुछ दिन पहले वरिष्ठ लेखक और शिक्षक आनन्द प्रकाश ने दो हिस्सों में लिखे गये अपने एक लेख में हिन्दी साहित्य की मौजूदा हालत का एक जायज़ा लेते हुए कुछ सवाल उठाये हैं, कुछ विचार प्रकट किये हैं और कुछ टिप्पणियां की हैं. आनन्द प्रकाश के लेख के इन दोनों हिस्सों पर एक टिप्पणी करते हुए युवा कवि अच्युतानन्द मिश्र ने अपनी तरफ़ से हिन्दी साहित्य की वर्तमान स्थिति का लेखा-जोखा पेश किया है और इस के कुछ कारणों पर प्रकाश डाला है. अगर सरसरी नज़र से इन लेखों-टिप्पणियों को देखा जाये तो इनमें कही गयी बहुत-सी बातों से इनकार नहीं किया जा सकता. कहा जाये कि अपने समग्र रूप में दोनों लेख उस विराट गड़्बड़ी की सैर-बीनी तस्वीर पेश करते हैं जिसे हम "आज का सांस्कृतिक संकट" के नाम से परिभाषित कर सकते हैं. यही नहीं, मोटे तौर पर यह तस्वीर काफ़ी हद तक सच्चाई से और गम्भीरता से अंकित करने की भी कोशिश आनन्द प्रकाश और अच्युतानन्द ने की है.
लेकिन अगर ज़रा गहरे में जा कर आनन्द प्रकाश के लेखों की छान-बीन करें तो जो सबसे पहली बात खटकती हैं वह इन लेखों का सर्वथा नकारवादी, फ़तवेबाज़ी से भरा रवैया है जो एक दूसरे क़िस्म की वैचारिक शून्यता और अवैज्ञानिक दृष्टिकोण की चुग़ली खाता है. उन्हें शिकायत है कि --"समकालीन हिंदी लेखन, जिससे मेरी मुराद पिछली सदी के अंतिम दो दशकों के लेखन से है, सीधे-सीधे चिन्तन-विरोधी है। वह न केवल वर्तमान दौर या पिछले वक्त को समझने में यकीन नहीं रखता,बल्कि स्पष्ट रूप से समझने की क्रिया को ही अनुचित और गैरजरूरी मानता है।"
क्या सचमुच एक पूरे दौर के सारे लेखन पर इस तरह हैंगा फेर देना किसी मुनासिब (और वैज्ञानिक, मार्क्सवादी) नज़रिये की उपज कहा जा सकता है ? वरिष्ठ लेखक और शिक्षक होने के नाते आनन्द प्रकाश ज़रूर इस बात से वाक़िफ़ होंगे कि किसी भी दौर में दो तरह की प्रवृत्तियां काम करती हैं. एक -- जो सत्ता और, आनन्द प्रकाश ही के शब्दों में कहूं तो, "अधिकार-तन्त्र" की पिछलगुआ और समर्थक होती है और एवज़ में उससे पोषित-पुरस्कृत होती है. दूसरी -- जो सत्ता और अधिकार-तन्त्र का विरोध करती है या उससे उदासीन रह कर अपना काम करती है. यह कोई आज के दौर का संकट नहीं है. "सन्तन को कहा सीकरी सौं काम" की उक्ति 70 या उससे पहले के किसी दशक के कवि की नहीं, बल्कि कई सौ साल पहले की है. यह खेद की बात है कि आनन्द प्रकाश ने इन दो प्रवृत्तियों के सन्दर्भ में मौजूदा संकट की छान-बीन करने और सत्ता और अधिकार-तन्त्र के उत्सवी शोर-शराबे के नीचे दबे सच्चे जनवादी सरोकारों को व्यक्त करने वाली रचनाधर्मिता की शिनाख़्त करने और उसे सामने लाने का वह दायित्व नहीं निभाया जो उनकी चिन्ताओं के सन्दर्भ में उनसे अपेक्षित था.
इस एकांगी दृष्टिकोण का परिणाम यह हुआ है कि उनका लेख भी किसी हद तक वैसी ही सतही बहसों को बढ़ाता जान पड़ता है जैसी हाल के दिनों में हिन्दी के साहित्यिक जगत में कसरत से नज़र आती रही हैं. कहीं किसी अकादेमी में किसी नियुक्ति को ले कर, किसी पुरस्कार के दिये या न दिये जाने को ले कर, किसी अधिकार-सम्पन्न साहित्यकार की अभद्र टिप्पणियों को ले कर या फिर किसी वरिष्ठ कवि द्वारा ढेर सारे निस्बतन युवा कवियों पर एक सिरे से दूसरे सिरे तक कुठाराघात करने को ले कर या फिर अब ताज़ा मामले में आनन्द प्रकाश द्वारा नकारवादी (निहिलिस्ट) शैली में लगभग 25-30 वर्षों की समूची रचनात्मकता को पूरी तरह ख्ज़ारिज करके. आनन्द प्रकाश ने बजाय किसी सार्थक बहस को शुरू करने, मौजूदा दौर में चल रही टकराहट को साफ़ तौर पर पहचान कर सामने लाने और एक नज़ीर पेश करने की जगह आरोपों की झड़ी लगा कर एक शिकायतनामा पेश किया है और असली सवाल से कन्नी काट ली है.
इसमें कोई शक नहीं है कि संकट बढा है पर इसी के बीच सही स्वर भी मौजूद हैं. नब्बे के जिस दशक को आनन्द प्रकाश ने एक सिरे से ख़ारिज कर दिया है उसी के आरम्भ में एक युवा कवि ने "नागरिक व्यथा" जैसी कविता लिख कर संकट की पहचान करायी थी. और संकट की पहचान कराना भी उस संकट के विरुद्ध मोर्चेबन्दी में शामिल होना है. क्या आनन्द प्रकाश ने यह कविता पढ़ी है ? नहीं पढ़ी तो वे अब एकान्त श्रीवास्तव का पहला संग्रह हासिल करके पढ़ लें. और केवल एकान्त श्रीवास्तव ही का संग्रह क्यों, जिन दशकों को उन्होंने अपने लेख में कटघरे में खड़ा किया है उन की अच्छी तरह छान-बीन करके उनकी रचनाओं का मूल्यांकन वैसी ही कसौटी के आधार पर करें जिसे मुक्तिबोध ने "ज्ञानात्मक सम्वेदन और सम्वेदनात्मक ज्ञान" की कसौटी कहा है. फ़िलहाल तो आनन्द प्रकाश ने कुछ बनी-बनायी धारणाओं के आधार पर प्रवृत्तियों और मौडलों की बात की है. इसीलिए वे अपने लेख के दूसरे हिस्से में एक और फ़तवा देते हुए कहते हैं, "रचनाकार को मालूम ही नहीं है कि वर्तमान माहौल में सामाजिक गैर-बराबरी, अशिक्षा, नारी-शोषण, बेकारी, दलितों का उत्पीड़न, गरीबी और सांस्कृतिक पतनशीलता निरंतर बढ़ रहे हैं।"
क्या सचमुच सभी रचनाकारों के सिलसिले में निर्विवाद रूप से ऐसा कहा जा सकता है ?
इन्हीं फ़तवेबाज़ियों की वजह से आनन्द प्रकाश वैचारिकता की तमाम तवक़्क़ो रखने के बावजूद मौजूदा संकट को सिर्फ़ रचनाकारों के अन्दर से हल करने की उम्मीद लगाते हैं. मानो वैचारिकता से लैस और पुरस्कारों से विमुख होते और सुविधाओं से किनारा करते ही सारी समस्याएं आप-से-आप हल हो जायेंगी. वरिष्ठ चिन्तक होने के नाते वे ज़रूर यह जानते होंगे कि साहित्यिक प्रवृत्तियों और साहित्यकारों के आचरण का सम्बन्ध जिस हद तक उनके अन्दर से होता है, उतना ही उनके बाहर की स्थितियों में भी होता है. प्लेखानोव ने "कला और सामाजिक जीवन" में बड़े विस्तार से सामाजिक परिस्थितियों और कलात्मक उद्यम के आपसी सम्बन्ध को व्याख्यायित-विश्लेषित किया है और बड़ी बारीक़बीनी से फ़्रांसीसी क्रान्ति के उत्थान-पतन के सन्दर्भ में बौदलेयर जैसे कथित रूप से "पतनशील" लेखक की जनवादिता को, भले ही उसका आयुष्य कम था, चिह्नित किया है. ज़ाहिर है कि बहुत हद तक लेखक भी समाज ही का हिस्सा होता है और प्लेखानोव के शब्दों में कहें तो अगर वह एक दौर में "कला के लिए कला" की बजाय "कला के उपयोगितावादी नज़रिये" को मानने लगता है या दूसरे दौर में इसकी उलटी दिशा अख़्तियार करता है तो इसके पीछे कुछ ठोस सामाजिक कारण होते हैं.
आनन्द प्रकाश के लेख की एक बड़ी कमज़ोरी यह भी है कि उन्हों ने एक बहुत विस्तृत और उलझे हुए विषय को अनेक प्रकार के सरलीकरणों द्वारा विश्लेषित करने की कोशिश की है. इसीलिए उनके लेख में कुछ अन्तर्विरोध भी चले आये हैं. पहला तो यह कि उन्होंने 70 के दशक तक के 60-70 वर्षों का एक काल-खण्ड बनाया है और बाक़ी 25-30 वर्षों का एक. जबकि बीसवीं सदी के अनेक दौर हैं और उनकी चुनौतियां और संकट भी अलग-अलग हैं. दूसरी बात यह है कि उन्हों ने मौडलों के सिलसिले में भी अजीब जोड़े बनाये हैं. प्रेमचन्द और महावीरप्रसाद द्विवेदी तो चलो एक खण्ड में रख भी लिये जायें लेकिन निराला और मुक्तिबोध को एक ही तरह का मौडल बताना मेरे खयाल में ठीक नहीं है. शीत युद्ध का प्रभावी असर मुक्तिबोध की स्वीकृति पर ज़रूर पड़ा था मगर निराला उसके ज़ेरे-असर नहीं थे. दरअसल यह मौडलों की चर्चा ही बेमानी है. हर कालखण्ड में दो या उससे अधिक मौडल भी हो सकते हैं, दो तो यक़ीनन होते ही हैं -- एक सत्ता और अधिकार-तन्त्र का मौडल और दूसरा जन-पक्षी मौडल. किसी भी दौर का जायज़ा लेते हुए इन दोनों को आमने-सामने रख कर ही बात हो सकती है. बल्कि मेरी नज़र में मौडलों की जगह प्रवृत्तियों के सन्दर्भ में बात करना ज़्यादा मुनासिब है क्योंकि कोई भी रचनाकार मोनोलिथिक क़िस्म का नहीं होता. अलग-अलग चरणों में उसकी रचनात्मकता अलग-अलग रूप ले सकती है. अज्ञेय और नयी कविता के प्रभाव से रघुवीर सहाय और सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, दोनों ही निकल कर आये थे. लेकिन रघुवीर सहाय ने, जिन्होंने पहले के दौर में लिखा था "दुनिया एक बजबजाई हुई चीज़ हो गयी है," आगे चल कर "मेरा प्रतिनिधि" और "रामदास" जैसी कविताएं लिखीं, लेकिन वहीं तक महदूद रह जाने के कारण वे बुर्जुआ लोकतन्त्र के प्रतिपक्ष तक ही सीमित रह गये; जबकि सर्वेश्वर ने, जो "साम्यवाद और पूंजीवाद मैं दोनों पर थूकता हूं लिख चुके थे, समय के बदलते ही नक्सलवादी आन्दोलन के नज़दीक चले गये और उन्होंने "कुआनो नदी" और "किश्टा और भूमैय्या" जैसी परिवर्तनकामी कविताएं लिखीं. तो क्या हम इस परिवर्तन पर ग्ज़ौर किये बिना ही उनका मूल्यांकन करेंगे ?
दूसरा अन्तर्विरोध यह है कि आनन्द प्रकाश यह भी नज़रन्दाज़ कर गये हैं कि एक ही लेखक के अन्दर अन्तर्विरोध भी हो सकते हैं और उस लेखक की चर्चा करते हुए इन अन्तर्विरोधों की चर्चा न करने से ही वह प्रतिमा निर्माण की प्रवृत्ति उभरती है जो अन्तत: रचनाशीलता को नुक़सान पहुंचाती है. एक मिसाल देना चाहूंगा. निराला एक ओर तो "वन बेला" और महगू महगा रहा जैसी कविताएं लिखते हैं, दूसरी ओर जवाहरलाल नेहरू से इतने मुग्ध हैं कि लगातार उनसे संवाद करने की कोशिश करते रहते हैं. एक ओर वे "जल्द जल्द पैर बढ़ाओ आओ आओ" जैसी कविता लिखते हैं दूसरी ओर "शिवाजी का पत्र" नामक कविता में देश के "झुकाव" के "जातिगत" होने और "एक ओर हिन्दू एक ओर मुसलमान" के होने की कामना व्यक्त करते हैं. आर.एस, पण्डित की मृत्यु पर तो निराला कविता लिखते हैं पर अपने समय की -- और आज तक की भी -- सबसे प्रखर जनवादी धारा -- भगत सिंह और आज़ाद की क्रान्तिकारी धारा -- पर एक अजीब ख़ामोशी उनके साहित्य में दिखती है. मैं निराला के महत्व को ज़रा भी कम कर के आंकने का हामी नहीं हूं. सिर्फ़ बुत-परस्ती की उस रवायत का विरोधी हूं जो मौजूदा संकट का एक प्रमुख कारण है और जिसे मौडलों की चर्चा करके आनन्द प्रकाश पुष्ट करते जान पड़ते हैं. अगर शुरू ही से हिन्दी में यह प्रतिमा निर्माण न होता तो शायद हिन्दी के लेखक "बड़े अग्रजों" के कृपाकांक्षी होने के चक्कर में अपने जनों से इतना दूर न चले गये होते.
इससे यह न समझा जाये कि मैं उन लेखकों की ओर से कोई सफ़ाई पेश करने की कोशिश कर रहा हूं जो सत्ता और अधिकार-तन्त्र के मुखापेक्षी हैं और अपनी जनता और वास्तविक समस्याओं से विमुख हो कर विचारशून्यता के उत्सव में जुटे हुए हैं. मैंने खुद अपने हाल के एक लेख में इन्हीं बातों का ज़िक्र करते हुए लिखा था -- "वे कौन-से कारण हैं जिनसे इस तरह का छिछोरा हल्कापन इतने बड़े पैमाने पर हिन्दी के साहित्यिक संसार में व्याप्त हो गया है ? क्या अब चर्चा के लिए कोई गम्भीर मुद्दा नहीं बचा ? केन्द्रीय सरकार हो या प्रान्तीय सरकारें -- उनके स्वैराचार और जनविरोधी क़दमों पर हिन्दी के साहित्यकारों के बीच चुप्पी क्यों छायी हुई है ? चलो माओवादियों के समर्थन से सरकारी कोप का भाजन बनने का डर हो सकता है, या उनसे वैचारिक विरोध भी, पर छत्तीसगढ़, झारखण्ड और ऊड़ीसा के आदिवासियों के दमन और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलन्द क्यों नहीं होती ? या फिर कश्मीर में लगातार चल रही सैनिक कार्रवाई के खिलाफ़ ? इज़्ज़त के नाम पर औरतों और प्रेमी-प्रेमिकाओं की बेहुरमती और हत्याओं पर वे साहित्यकार उस रोष का दसवां हिस्सा भी क्यों नहीं व्यक्त करते जो उन्होंने महज़ "छिनाल" शब्द के प्रयोग पर व्यक्त किया है ? सत्ता के दाहिने बने रहने की अनिवार्यता ने हिन्दी के उस परम्परागत विवेक पर क्यों पर्दा डाल दिया है जिसके अनुसार हिन्दी की मूल प्रति्ज्ञा ही शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ़ मनुष्य के अथक संघर्ष में हिस्सेदारी; यथास्थिति का विरोध; सत्ता और उसके प्रलोभनों से किनाराकशी; और वास्तविकता की अक़्क़ासी के आत्म-संघर्ष का सामना करने की थी ? क्या कारण है कि चारों ओर मचे कोहराम और हाहाकार के बीच हिन्दी साहित्य एक जलसे की शक्ल अख़्तियार करता चला जा रहा है -- अपने में मग्न, उत्तरोत्तर सत्ता और उसके प्रलोभनों के निकट जाने की फ़िक्र में ग़लतान ? पिछली सदी के साठ और सत्तर के दशकों में परिवर्तन की जिन लहरों ने साहित्य को रोमांचकारी ऊंचाइयों पर पहुंचाया था उनके अलमबर्दार पुलिस के सन्दिग्ध अफ़सरों के मुसाहिब क्यों बन गये ?"
मेरी गुज़ारिश यह है कि इस पेचीदा हालत को महज़ चलताऊ ढंग से शीत-युद्ध, भूमण्डलीकरण, पुरस्कार-प्रेम, परस्पर पीठ-खुजाऊपन, अहो-अहो मार्का चर्चा, एक-ध्रुवीय दुनिया की चपेट, महा-आख्यान, आदि शब्दों का इस्तेमाल करके इन्हीं में संकट के कारणों की पहचान करना-कराना उसी फ़तवेबाज़ी का नतीजा है जिस से आनन्द प्रकाश पिछले बीस-पच्चीस बरस के लेखन और लेखकों को एक सिरे से दूसरे सिरे तक पूरी तरह ख़ारिज करते हैं. उनके एकांगी दृष्टिकोण का पता इस बात से भी चलता है कि एक तो वे बुर्जुआ प्रवृत्तियों को रेखांकित करने के लिए सिर्फ़ कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी का ज़िक्र करते हैं. वे लिखते हैं, "हिंदी में शासक वर्ग की विचारधारा के वाहक संगठन (मसलन कांग्रेस और भाजपा के साथ-साथ व्यक्ति-लेखकों द्वारा नियंत्रित संगठन) भी हैं जहां लेखकीय उठा-पटक और क्षुद्र अवसरवादिता का बोलबाला है। लेकिन हमारे संदर्भ में उम्मीद की किरण जगाने वाले तीन वामपंथी संगठनों की प्रारंभिक आभा भी मंद होने लगी है। इनमें सबसे कमजोर प्रगतिशील लेखन संगठन है।"
क्या शासक वर्ग का प्रतिनिधित्व सिर्फ़ कांग्रेस और भाजपा द्वारा ही होता है या फिर इस का प्रतिनिधित्व सत्ता की उठा-पटक में शामिल सभी पार्टियां कमो-बेश करती हैं ? यानी वे सारी पार्टियां जो संसदीय लोकतन्त्र के ढकोसले में शामिल हैं. सम्भव है कि आनन्द प्रकाश सीपीआई और सीपीएम और सीपीआई माले लिबरेशन को बुर्जुआ पार्टियां न मानते हों, पर आपातकाल में सीपीआई की और हाल के दिनों में नन्दीग्राम, लालगढ़, सिंगुर आदि में सीपीएम की भूमिका को देखते हुए और बिहार के पिछले चुनावों में सीपीआई माले लिबरेशन के अनेक ग़ैर-कम्यूनिस्ट राजनैतिक दलों के साथ चुनावी गंठजोड़ को देखते हुए उन्हें न तो कम्यूनिस्ट पार्टियां कहा जा सकता है, न क्रान्तिकारी पार्टियां. हम यह भी न भूलें कि जिस दौर से आनन्द प्रकाश क्षरण की शुरुआत मानते हैं उसी दौर के पहले चरण में सीपीएम ने विश्वनाथ प्रसाद सिंह की सरकार को सत्ता में बनाये रखने के लिए भाजपा के साथ हाथ मिलाया था. और विश्वनाथ प्रसाद सिंह का समर्थन सीपीआई माले लिबरेशन ने भी किया था.
ज़ाहिर है इस सब का असर भी लामुहाला साहित्यिक-सांस्कृतिक जगत पर पड़ता ही है. ख़ास तौर पर तीनों कम्यूनिस्ट पार्टियों के साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों पर और उनसे जुड़े लेखकों पर. जो सत्ता और अधिकार तन्त्र के हिमायती लेखक हैं उनसे तो कोई उम्मीद नहीं की जा सकती, पर क्या कारण है कि वाम साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों से जुड़े साहित्यकार भी बेतरह विचलन का शिकार हो गये हैं ? उदय प्रकाश अगर महन्त अवैद्यनाथ के धोरे जाते हैं तो आलोक धन्वा विश्वरंजन की किताब के विमोचन में नज़र आते हैं. क्या इस विपथगामिता का स्रोत इन लेखकों के अन्दर है या इसमें उनके संगठनों की भी कोई भूमिका बनती है ? इसमें कोई शक नहीं है कि प्रगतिशील लेखक संघ का एक गौरवशाली इतिहास है. उसकी गिरावट के भी कारण हैं. फिर क्या कारण है कि जलेस और जसम इस गिरावट के कारणों से सबक़ लेने में विफल हुए ?
संगठनों की यक़ीनन बड़ी भूमिका होती है. लेखन की प्रक्रिया तो बेहद निजी प्रक्रिया होती है, लेकिन संगठन लेखकों के नकारात्मक पक्ष को कम करके उसके सबल पक्ष को बढ़ाते हैं. साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों की तरह समाज भी एक संगठन ही है. चूंकि संगठन मनुष्य निर्मित होते हैं इसलिए उन्हें ठस, ठोस और मोनोलिथिक मान लेने से भी गड़्बड़ी पैदा होती है. वरना क्या कारण है कि आनन्द प्रकाश आज के जिन लेखकों की पतनशीलता और विचार-शून्यता की शिकायत कर रहे हैं उनमें से नब्बे फ़ीसदी साहित्यकार उन तीन वाम साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों के सदस्य हैं या रहे हैं जिनका ऊपर ज़िक्र किया गया. आनन्द प्रकाश ख़ुद इनमें से एक वाम साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठन के सक्रिय सदस्य रहे हैं. जब वे ऐसे सामान्यीकृत ढंग से सब कुछ नकार रहे हैं तो उन्हें ख़ुद अपनी भूमिका को भी जांचना चाहिये. उन्होंने मुक्तिबोध का नाम लिया है. ज़रा १९५७-६२ के बीच लिखी कविता "अंधेरे में" का यह अंश देखें जिसमें मुक्तिबोध एक प्रोसेशन का चित्र खींचते हैं--
"विचित्र प्रोसेशन, गम्भीर क्विक मार्च... कलाबत्तूवाली काली ज़रीदार ड्रेस पहने चमकदार बैण्ड दल -- अस्थि-रूप, यकृत-स्वरूप, उदर-आकृति आंतों के जालों से उलझे हुए, बाजे वे दमकते हैं भयंकर गम्भीर गीत-स्वन-तरंगें ध्वनियों के आवर्त मंडराते पथ पर. बैण्ड के लोगों के चेहरे मिलते हैं मेरे देखे हुओं से, लगता है उनमें कई प्रतिष्ठित पत्रकार इसी नगर के !! बड़े-बड़े नाम अरे कैसे शामिल हो गये इस बैण्ड दल में !! उनके पीछे चल रहा संगीन-नोकों का चमकता जंगल, चल रही पदचाप, तालबद्ध दीर्घ पांत, टैंक दल, मोर्टार, आर्टिलरी, सन्नद्ध, धीरे-धीरे बढ़ रहा जुलूस भयावना..." और फिर इसी क्रम में मुक्तिबोध साफ़-साफ़ चित्रित करते हैं कि कैसे इस जुलूस में "चेहरे वे मेरे जाने-बूझे-से लगते, उनके चित्र समाचार-पत्रों में छपे थे, उनके लेख देखे थे, यहां तक कि कविताएं पढ़ी थीं भई वाह ! उनमें कई प्रकाण्ड आलोचक, विचारक, जगमगाते कविगण मन्त्री भी, उद्योगपति और विद्वान यहां तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात डोमाजी उस्ताद बनता है बलबन हाय हाय !!"
आनन्द प्रकाश द्वारा वर्णित परिदृश्य की तरह जान पड़ता यह चित्र आश्चर्यजनक रूप से उस युग का है जो, आनन्द प्रकाश के लेख को हवाला मानें तो, वैचारिकता से सम्पन्न था. तब क्या यह मानें कि मुक्तिबोध के आकलन में दोष था. नहीं मुक्तिबोध का आकलन सही था जैसे आनन्द प्रकाश का आकलन जहां तक तथ्यों का सवाल है आज के बारे में सही है. गड़बड़ी यह है कि मुक्तिबोध जहां अपने युग की पतनशीलता का आकलन करते हुए आगे चल कर यह लिखते हैं कि "मानो मेरी ही निष्क्रिय संज्ञा ने संकट बुलाया," वहीं आनन्द प्रकाश अपने युग की गड़बड़ी का आकलन करते हुए आत्मालोचन से किनाराकशी कर लेते हैं. इसीलिए वे उन लोगों को चिह्नित नहीं कर पाते जो मौजूदा पतनशीलता का मुक़ाबला कर रहे हैं. इन्हीं के लिए निराला ने कहा था --
"हमारे अपने हैं यहां बहुत छिपे हुए लोग, मगर चूंकि अभी ढीला-पोली है देश में, अखबार व्यापारियों की ही सम्पत्ति हैं, राजनीति कड़ी से भी कड़ी चल रही है, वे सब जन मौन हैं इन्हें देखते हुए; जब वे कुछ उठेंगे और बड़े त्याग के निमित्त कमर बांधेंगे आयेंगे वे जन भी देश के धरातल पर, अभी अखबार उनके नाम नहीं छापते, ऐसा ही पहरा है."
यही नहीं, अपने युग की सारी आलोचना करते हुए भी नयों के प्रति निराला के दिल में जो प्यार और उम्मीद का भाव था उसे उनकी प्रसिद्ध कविता "हिन्दी के सुमनों के नाम पत्र" में सहज ही देखा जा सकता है.
आनन्द प्रकाश ने यह आरोप लगाया है कि पिछले 25-30 वर्षॊं का लेखन, कहें कि रचनाकार, "न केवल वर्तमान दौर या पिछले वक्त को समझने में यकीन नहीं रखता,बल्कि स्पष्ट रूप से समझने की क्रिया को ही अनुचित और गैरजरूरी मानता है।" उनसे पलट कर नया साहित्यकार पूछ सकता है कि महाशय जो लेखक तेभागा, तेलंगाना, नक्सलबाड़ी जैसे आन्दोलनों का प्रत्यक्षदर्शी न हो, जिसने प्रगतिशील लेखक संघ की शानदार तहरीक न देख रखी हो, जिसने ऐसे दौर में लिखना शुरू किया जब हर तरफ़ -- साहित्य ही नहीं समाज और राजनीति में भी -- भयंकर पतनशीलता हो, तब उसे वर्तमान दौर या पिछले वक्त की असलियत कौन समझायेगा. ? परम्परागत रूप से तो अग्रज साहित्यकार और संगठन यह करते आये हैं -- ख़ुद आनन्द प्रकाश ने महावीरप्रसाद द्विवेदी और वाम लेखक संगठनों का ज़िक्र किया है -- वे क्यों निष्क्रिय हो गये ?
इसलिए मैं अन्त में आनन्द प्रकाश से अनुरोध करूंगा कि व्याधि के लक्षणों का लेखा-जोखा तो काफ़ी हद तक उन्हों ने कर दिया है, पर उसके कारणों को भी ध्यान से परखें और उपचार को भी. और इसे निर्वैयक्तिक असम्पृक्ति से न करके सहानुभूतिपूर्ण लगाव के साथ करें. महज़ अयातुल्लाह ख़ुमैनी बनने या आरोप लगाने या उपदेश देने या प्रलय का पैग़म्बर बनने में कोई निस्तार नहीं है. मिट्टी तो वही है, पर अगर चाक टेढ़ा हो या कुम्हार के हाथ लरज़ते हों तो बात बनने से रही. अगर हम ने पहचान लिया है कि रोग है तब हमें ही उसका निदान और उपचार करना होगा तभी हम -- मुक्तिबोध ही की एक और कविता "भूल-ग़लती" की याद कराते हुए कहूं तो -- "उस" को पहचान सकेंगे जो "मुहैया कर रहा लश्कर; हमारी हार का बदला चुकाने आयेगा. संकल्प-धर्मा चेतना का रक्त-प्लावित स्वर, हमारे ही हृदय का गुप्त स्वर्णाक्षर प्रकट हो कर विकट हो जायेगा."
Monday, November 8, 2010
A CESSPOOL CALLED BURARI
A Letter Sent To Mr Vir Sanghvi Some Time Back
dear mister vir sanghvi,
i am fully aware that this e-mail will not solicit any response from your end, still i have decided to send it on an off chance that even if it does not draw out a response, it may pass before your eyes.
i am a hindi poet and happen to be a regular reader of your paper. i have read your weekly columns regularly and i am struck with the ease with which you can float from discussing an exotic cuisine ( unfortunately out of the reach and even comprehension of thousands of your english knowing readers, leave alone the millions who are not acquainted with this great language of our erstwhile masters and the culinary delights you talk about) to discussing some finer point in our socio-political set-up as you have done yesterday (sunday 26th september ) by deftly defining the two indias we are face to face with, namely, the old india of the aged, tottering, doddering corrupt and callous ministers and officials like m.s.gill, jaipal reddy and lalit bhanot on the one hand and the go-getters representing the new resentful india of the private enterprise. you have not only soft-handled Kalmadi but also very cleverly not named the shining seigfrieds and ivan hoes of the new india but we can surmise they must be the likes of anil/mukesh ambanis, the young "kingfisher" mallyas. so, we know whose side you are despite, your sermonising stance.
but, the two indias you mentioned in passing in the very first paragraph of your article, albeit with a little derision, are the two indias which oppose each other in reality or shall i mention real space. the india of the haves versus the india of the haves-not. the poor india of the slums vs the shining india of the posh colonies. your seemingly righteous anger stems from the fact that the two indias you talk about are what in our native parlance is known as "ek hi thaili ke chatte batte." get what i mean. the ambanis and mittals and mallyas must be fuming at kalmadi and his cohorts siphoning off and salting away millions out of the 9 billion dollars being spent out of the public exchequer. i hope you still agree that the poor india of the slums deserves its share out of this as a right and not as largesse to be doled out by the new "east india company sahibs." so, the new go-getter indians must be really sore at not having a go at the public cake, large slices of which have gone into the jowls of oc officials and politicians.
but, why not question the bloody cw games in the first place ? is the queen coming here ? to see how her forner subjects are faring ? or is she content with having a splendid lackey at the helm of affairs who has put the whole country and martyrs like bhagat sing, lahiri, rajguru, azad and sukhdev to shame by kow-towing before the dons of oxford. how very apt that the word "don" takes on ever new shades of meaning with the passage of time. or mention that mani shanker aiyer has all along been very critical of the games. sorry, your paper has mentioned mani only as a spanner in the works and as a scape-goat for the dilly-dallying of officials and politicians who chose to remain silent all along and have now come howling at the quandary mani has landed them in by saying that it was because of his attitude that no work could be done.
obviously, you have no interest in looking at the seamier side of things and that is the reason why your newspaper has already embarked on a damage-control strategy. not only the games are being lauded almost as a "great leap forward", but your staff has started harping on an "enough is enough, let's get the act together" theme right after your cue of 26th september. and we can now hope that in the days to come your newspaper is going to paint quite a rosy picture of the games.
but you, naturally, don"t mention this. which brings me to the second reason for sending this missive. in your paper you are very fond of publishing illustrated stories featuring residents of various localities of delhi in raptures about the wonderful living conditions there. i distinctly remember two such storie, one on derawalnagar and one on rohini. but have you ever heard of an old village called burari which has now become part of the expanding topography of our metropolis ? it is two to three kilometers from derawalnagar and the same distance away from rohini, off the karnal g.t. road. to call it a cesspool is putting it mildly. or rather i should say it depends which angle are you looking at it from. the cesspools of india shining, or the new india as you term it, must of necessity smell differently to the cesspools of the old india for which you and people like you have developed a blind spot.
to enter burari is an experience which a person from say race course road or jor bagh or even hauz khas is likely not to forget for a very long, long time. the pot holes in the two kilometer road from the bypass to burari are enough to cause miscarriages in expecting mothers. the filth in the lanes and streets, the overflowing sewers and the waterlogged lanes and open spaces are a sight to behold. but, is burari the only cesspool ? what of the tens of hundreds of buraris scattered in the capital and other metropolitan cities, state capitals and mufassil townships ? or the buraris which stink in the four great columns keeping our great democracy from crumbling -- the corrupt polity, unreliable and embedded media, self-serving bureaucracy and the last bastion to tumble, i.e., the judiciary ?
this is the india which the leaders of new india like p. chidambaram and rahul gandhi and the sindhias and pilots wish to obliterate by inflicting neglect and sub-human conditiions upon its denizens. how else does chidambaram hope that 85 percent of india's population will move from the villages to urban areas. and what urban areas at that. let me quote a few lines from my friend arundhati's latest article :
"Maybe it’s in the fitness of things that what's left of our democracy should be traded in for an event that was created to celebrate the British Empire. Perhaps it’s only right that 400,000 people should have had their homes demolished and been driven out of the city overnight. Or that hundreds of thousands of roadside vendors should have had their livelihoods snatched away by order of the Supreme Court so city malls could take over their share of business. And that tens of thousands of beggars should have been shipped out of the city while more than a hundred thousand galley slaves were shipped in to build the flyovers, metro tunnels, Olympic-size swimming pools, warm-up stadiums and luxury housing for athletes. The Old Empire may not exist. But obviously our tradition of servility has become too profitable an enterprise to dismantle"
it is because of this questioning that arundhati is constantly the target of the attacks of you star columnist barkha datt and the great media persons like arnab goswami and chandan mitra. allow me to mention a few more facts about the state of affairs in the new india that you are so anxiously advocating. again a quote from arundhati :
more than sixty million people who have been displaced, by rural destitution, by slow starvation, by floods and drought (many of them man-made), by mines, steel factories and aluminium smelters, by highways and expressways, by the 3300 big dams built since Independence and now by Special Economic Zones. They’re part of the 830 million people of India who live on less than twenty rupees a day, the ones who starve while millions of tons of foodgrain is either eaten by rats in government warehouses or burnt in bulk (because it’s cheaper to burn food than to distribute it to poor people). They’re the parents of the tens of millions of malnourished children in our country, of the 2 million who die every year before they reach the age of five. They’re the millions who make up the chain-gangs that are transported from city to city to build the New India. Is this what is known as “enjoying the fruits of modern development”?
What must they think, these people, about a government that sees fit to spend nine billion dollars of public money (two thousand percent more than the initial estimate) for a two-week long sports extravaganza which, for fear of terrorism, malaria, dengue and New Delhi’s new superbug, many international athletes have refused to attend? ...Not much, I guess. Because for people who live on less than twenty rupees a day, money on that scale must seem like science fiction. It probably doesn’t occur to them that it’s their money. That’s why corrupt politicians in India never have a problem sweeping back into power, using the money they stole to buy elections. (Then they feign outrage and ask, “Why don’t the Maoists stand for elections?”)
so, this is the real india mr vir sanghvi, illustrious editor of the great newspaper hindustan times. see the hindustan in which the majority of your countrymen live in ( and die ) and the times they are passing through.
dear mister vir sanghvi,
i am fully aware that this e-mail will not solicit any response from your end, still i have decided to send it on an off chance that even if it does not draw out a response, it may pass before your eyes.
i am a hindi poet and happen to be a regular reader of your paper. i have read your weekly columns regularly and i am struck with the ease with which you can float from discussing an exotic cuisine ( unfortunately out of the reach and even comprehension of thousands of your english knowing readers, leave alone the millions who are not acquainted with this great language of our erstwhile masters and the culinary delights you talk about) to discussing some finer point in our socio-political set-up as you have done yesterday (sunday 26th september ) by deftly defining the two indias we are face to face with, namely, the old india of the aged, tottering, doddering corrupt and callous ministers and officials like m.s.gill, jaipal reddy and lalit bhanot on the one hand and the go-getters representing the new resentful india of the private enterprise. you have not only soft-handled Kalmadi but also very cleverly not named the shining seigfrieds and ivan hoes of the new india but we can surmise they must be the likes of anil/mukesh ambanis, the young "kingfisher" mallyas. so, we know whose side you are despite, your sermonising stance.
but, the two indias you mentioned in passing in the very first paragraph of your article, albeit with a little derision, are the two indias which oppose each other in reality or shall i mention real space. the india of the haves versus the india of the haves-not. the poor india of the slums vs the shining india of the posh colonies. your seemingly righteous anger stems from the fact that the two indias you talk about are what in our native parlance is known as "ek hi thaili ke chatte batte." get what i mean. the ambanis and mittals and mallyas must be fuming at kalmadi and his cohorts siphoning off and salting away millions out of the 9 billion dollars being spent out of the public exchequer. i hope you still agree that the poor india of the slums deserves its share out of this as a right and not as largesse to be doled out by the new "east india company sahibs." so, the new go-getter indians must be really sore at not having a go at the public cake, large slices of which have gone into the jowls of oc officials and politicians.
but, why not question the bloody cw games in the first place ? is the queen coming here ? to see how her forner subjects are faring ? or is she content with having a splendid lackey at the helm of affairs who has put the whole country and martyrs like bhagat sing, lahiri, rajguru, azad and sukhdev to shame by kow-towing before the dons of oxford. how very apt that the word "don" takes on ever new shades of meaning with the passage of time. or mention that mani shanker aiyer has all along been very critical of the games. sorry, your paper has mentioned mani only as a spanner in the works and as a scape-goat for the dilly-dallying of officials and politicians who chose to remain silent all along and have now come howling at the quandary mani has landed them in by saying that it was because of his attitude that no work could be done.
obviously, you have no interest in looking at the seamier side of things and that is the reason why your newspaper has already embarked on a damage-control strategy. not only the games are being lauded almost as a "great leap forward", but your staff has started harping on an "enough is enough, let's get the act together" theme right after your cue of 26th september. and we can now hope that in the days to come your newspaper is going to paint quite a rosy picture of the games.
but you, naturally, don"t mention this. which brings me to the second reason for sending this missive. in your paper you are very fond of publishing illustrated stories featuring residents of various localities of delhi in raptures about the wonderful living conditions there. i distinctly remember two such storie, one on derawalnagar and one on rohini. but have you ever heard of an old village called burari which has now become part of the expanding topography of our metropolis ? it is two to three kilometers from derawalnagar and the same distance away from rohini, off the karnal g.t. road. to call it a cesspool is putting it mildly. or rather i should say it depends which angle are you looking at it from. the cesspools of india shining, or the new india as you term it, must of necessity smell differently to the cesspools of the old india for which you and people like you have developed a blind spot.
to enter burari is an experience which a person from say race course road or jor bagh or even hauz khas is likely not to forget for a very long, long time. the pot holes in the two kilometer road from the bypass to burari are enough to cause miscarriages in expecting mothers. the filth in the lanes and streets, the overflowing sewers and the waterlogged lanes and open spaces are a sight to behold. but, is burari the only cesspool ? what of the tens of hundreds of buraris scattered in the capital and other metropolitan cities, state capitals and mufassil townships ? or the buraris which stink in the four great columns keeping our great democracy from crumbling -- the corrupt polity, unreliable and embedded media, self-serving bureaucracy and the last bastion to tumble, i.e., the judiciary ?
this is the india which the leaders of new india like p. chidambaram and rahul gandhi and the sindhias and pilots wish to obliterate by inflicting neglect and sub-human conditiions upon its denizens. how else does chidambaram hope that 85 percent of india's population will move from the villages to urban areas. and what urban areas at that. let me quote a few lines from my friend arundhati's latest article :
"Maybe it’s in the fitness of things that what's left of our democracy should be traded in for an event that was created to celebrate the British Empire. Perhaps it’s only right that 400,000 people should have had their homes demolished and been driven out of the city overnight. Or that hundreds of thousands of roadside vendors should have had their livelihoods snatched away by order of the Supreme Court so city malls could take over their share of business. And that tens of thousands of beggars should have been shipped out of the city while more than a hundred thousand galley slaves were shipped in to build the flyovers, metro tunnels, Olympic-size swimming pools, warm-up stadiums and luxury housing for athletes. The Old Empire may not exist. But obviously our tradition of servility has become too profitable an enterprise to dismantle"
it is because of this questioning that arundhati is constantly the target of the attacks of you star columnist barkha datt and the great media persons like arnab goswami and chandan mitra. allow me to mention a few more facts about the state of affairs in the new india that you are so anxiously advocating. again a quote from arundhati :
more than sixty million people who have been displaced, by rural destitution, by slow starvation, by floods and drought (many of them man-made), by mines, steel factories and aluminium smelters, by highways and expressways, by the 3300 big dams built since Independence and now by Special Economic Zones. They’re part of the 830 million people of India who live on less than twenty rupees a day, the ones who starve while millions of tons of foodgrain is either eaten by rats in government warehouses or burnt in bulk (because it’s cheaper to burn food than to distribute it to poor people). They’re the parents of the tens of millions of malnourished children in our country, of the 2 million who die every year before they reach the age of five. They’re the millions who make up the chain-gangs that are transported from city to city to build the New India. Is this what is known as “enjoying the fruits of modern development”?
What must they think, these people, about a government that sees fit to spend nine billion dollars of public money (two thousand percent more than the initial estimate) for a two-week long sports extravaganza which, for fear of terrorism, malaria, dengue and New Delhi’s new superbug, many international athletes have refused to attend? ...Not much, I guess. Because for people who live on less than twenty rupees a day, money on that scale must seem like science fiction. It probably doesn’t occur to them that it’s their money. That’s why corrupt politicians in India never have a problem sweeping back into power, using the money they stole to buy elections. (Then they feign outrage and ask, “Why don’t the Maoists stand for elections?”)
so, this is the real india mr vir sanghvi, illustrious editor of the great newspaper hindustan times. see the hindustan in which the majority of your countrymen live in ( and die ) and the times they are passing through.
Friday, November 5, 2010
SEEMA AZAD : NINE MONTHS BEHIND BARS WITHOUT TRIAL NOW
Dear Friends,
it is now nine months to the date that our dear comrade Seema Azad, editor of the leftist bi-monthly Dastak and a committed social activist was taken into custody on the the 6th of February 2010, along with her husband and fellow-activist Vishwadeepak and lodged in Naini jail. Despite all efforts of the PUCL, Allahabad whose office-bearer Ravi Kiran Jain is appearing on Seema's behalf, she has not been granted bail. Every fifteen days or so, for the last nine months, she is brought before the judge at Allahabad civil courts and sent back to jail on remand. Even after these long months of incarceration there seems to be no progress in the case.
Under Seema's able editorship the bi-monthly Dastak achieved a standard of its own, laying bare many injustices, exposing the devious designs of those who wish to perpetuate the exploitation of the common people and inspiring the readers of her journal to stand up and fight injustice. Seema had published some small tracts as well regarding the state of textile workers in Kanpur, the reality behind the Ganga Expressway and the sinister nature of Operation Greenhunt, which earned her the praise of her compatriots as well as the ire of Central and State Governments. So, it came as no surprise when she was arrested on trumped up charges while returning from the World Book Fair in February.
Silencing its critics by fake encounters, long imprisonments without trial and other draconian methods is the usual tactics adopted by tyrannical and anti-people governments all over the world. The Manmohan Singh government seems no different. Seema is fully aware of this. She has recently sent a note to me, through one of her visitors, reiterating her firm stand against all oppression, stating, "...we are both of us alright here and are gathering a whole lot of experiences while waiting for our release. The one thing which I have realised very clearly after coming here, is that oppression makes man stronger and more militant. In this respect governments of any country are operating under a great illusion. I have felt forcefully that suppressing the desire for social change by the government may seem negative at the surface, but it works like the story about Kalidas in which he was chopping off the very branch on which he was sitting....my salaam to all friends and well-wishers."
I would like to exhort all of you to oppose Seema's indefinite remand through whatever channels you have recourse to.
Yours sincerely
NEELABH
219, Gali No. 9, Block A-2,
Bhagat Colony, West Sant Nagar,
Burari, DELHI -110084
Mob : 9910172903
Phone 27617625
it is now nine months to the date that our dear comrade Seema Azad, editor of the leftist bi-monthly Dastak and a committed social activist was taken into custody on the the 6th of February 2010, along with her husband and fellow-activist Vishwadeepak and lodged in Naini jail. Despite all efforts of the PUCL, Allahabad whose office-bearer Ravi Kiran Jain is appearing on Seema's behalf, she has not been granted bail. Every fifteen days or so, for the last nine months, she is brought before the judge at Allahabad civil courts and sent back to jail on remand. Even after these long months of incarceration there seems to be no progress in the case.
Under Seema's able editorship the bi-monthly Dastak achieved a standard of its own, laying bare many injustices, exposing the devious designs of those who wish to perpetuate the exploitation of the common people and inspiring the readers of her journal to stand up and fight injustice. Seema had published some small tracts as well regarding the state of textile workers in Kanpur, the reality behind the Ganga Expressway and the sinister nature of Operation Greenhunt, which earned her the praise of her compatriots as well as the ire of Central and State Governments. So, it came as no surprise when she was arrested on trumped up charges while returning from the World Book Fair in February.
Silencing its critics by fake encounters, long imprisonments without trial and other draconian methods is the usual tactics adopted by tyrannical and anti-people governments all over the world. The Manmohan Singh government seems no different. Seema is fully aware of this. She has recently sent a note to me, through one of her visitors, reiterating her firm stand against all oppression, stating, "...we are both of us alright here and are gathering a whole lot of experiences while waiting for our release. The one thing which I have realised very clearly after coming here, is that oppression makes man stronger and more militant. In this respect governments of any country are operating under a great illusion. I have felt forcefully that suppressing the desire for social change by the government may seem negative at the surface, but it works like the story about Kalidas in which he was chopping off the very branch on which he was sitting....my salaam to all friends and well-wishers."
I would like to exhort all of you to oppose Seema's indefinite remand through whatever channels you have recourse to.
Yours sincerely
NEELABH
219, Gali No. 9, Block A-2,
Bhagat Colony, West Sant Nagar,
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