tag:blogger.com,1999:blog-37808218054220681622024-02-08T05:18:30.265-08:00Hirawal MorchaNeelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.comBlogger57125tag:blogger.com,1999:blog-3780821805422068162.post-13497773983259169212011-01-25T02:13:00.000-08:002011-01-25T02:19:03.835-08:00देशान्तर<span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 0);"><span></span></span><br /><br /><span style="color: rgb(153, 0, 0); font-weight: bold;">नीलाभ के लम्बे संस्मरण की आठवीं क़िस्त</span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(0, 102, 0);">पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(0, 102, 0);">और एक लम्बी मैत्री की दास्तान</span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);">ज्ञानरंजन के बहाने - ८</span><br /><br /><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(51, 0, 153);">अधूरी लड़ाइयों के पार</span><br /><br /><br /><div style="text-align: right;"><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">लड़ाइयाँ अधूरी रह जाती हैं अक्सर, बाद में पूरी होने के लिए</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">किसी और युग में किन्हीं और हथियारों से</span><br /> <span style="font-style: italic; color: rgb(0, 0, 0);"> -असद ज़ैदी, 1857: सामान की तलाश </span><br /></div><br /><div style="text-align: justify;"><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 0);">पटना</span><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 0);"> में 27-28 दिसम्बर 1970 को आयोजित युवा लेखक सम्मेलन में क्या-कुछ हुआ, क्या-क्या नज़ारे देखने को मिले, कैसी-कैसी थिगलियाँ साहित्य के नभ-मण्डल में लगायी गयीं, और जिसे अंग्रेज़ी में ‘फ़्रोम द सब्लाइम टू द रिडिक्युलस’ कहते हैं, यानी अगर मनोहर श्यामिया सुख़नगोई से काम लेते हुए कहें कि ‘उदात्त से चौत्य’ तक कैसी उठा-पटक रही, इसे आज 35-40 वर्ष बाद, स्मृतियों के कबाड़ख़ाने से उबार कर, तमाम गर्द-ग़ुबार झाड़ कर पेश करना ख़ासा मुश्किल है। लेकिन पीछे मुड़ कर उस दौर को याद करते हुए, इतना यकीनी तौर पर कहा जा सकता है कि 1970 का वह सम्मेलन कई अर्थों में ऐतिहासिक था। एक तो इसलिए कि वह लेखकों के जम्बूरी-नुमा सम्मेलनों की शृंखला में आख़िरी बड़ा जमावड़ा था। </span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 0);">जिस तरह से 70 पार कर आये लेखक आज भी ‘वो झाड़ियाँ चमन की, वो मेरा आशियाना’ के अन्दाज़ में 1957 के लेखक सम्मेलन को याद करते हैं, वैसे ही 60 के पाँच वर्ष इधर या उधर के लेखकों की आँखें 1970 के युवा लेखक सम्मेलन के ज़िक्र से चमक उठती हैं। इस सम्मेलन में शायद सबसे कम उम्र वाले लेखकों में वीरेन डंगवाल और पंकज सिंह थे, 21-22 की दहलीज़ पर और शायद सबसे ज़्यादा उम्र रेणु जी की थी। ज़्यादातर साहित्यकार इन दोनों छोरों के दरमियान थे - 30-35 के पेटे में। कुछ मेरे जैसे 25 वर्ष के थे तो कुछ, मसलन नामवर जी, महज़ 42-43 वर्ष के, और यह तो हम सभी लोग अपने भारतीय अनुभव से जानते ही हैं कि जिस तरह नेतागण अपनी अर्द्ध-शती मनाने के बाद भी अपने राजनैतिक दल के युवा संगठन के महासचिव और अध्यक्ष वग़ैरह बने रहते हैं, उसी तरह लेखक भी सिर के आधे बाल पक जाने के बावजूद युवा लेखक बने रहते हैं। उम्र वाले इस पहलू का ज़िक्र शुरू में ही इसलिए किया है ताकि उस सम्मेलन में जो कुछ हुआ, उसकी संगति-असंगति-विसंगति के बारे में हैरत न हो। </span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 0);">बहरहाल, ऐसा जमावड़ा कभी देखा नहीं गया - न उससे पहले, न उसके बाद। गो, दो साल बाद बाँदा में भी एक हंगामाख़ेज़ सम्मेलन आयोजित हुआ था, लेकिन वह न तो इतने बड़े पैमाने पर था, न उसमें इतने भिन्न-भिन्न विचारों के लेखक शामिल थे और न वहाँ उस तरह के दृश्य देखने को मिले जो पटना में देखने को मिले थे, इस बात के बावजूद कि बाँदा में वैचारिक ढिशुम-ढिशुम एक समय तो ऐसी भौतिक समीक्षा की दिशा में बढ़ चली थी कि पुराने मुजाहिद मन्मथनाथ गुप्त और नये मरजीवड़े सुधीश पचौरी के बीच डब्ल्यू.डब्ल्यू.ए. जैसा कुछ घटित होने को था। दूसरी तरफ़ धूमिल, ऐसा बताया जाता है कि, एक भण्टा कुर्ते की जेब में डाले उसे बम बताते हुए ठेठ बनारसी लण्ठई और लनतरानी का मुज़ाहिरा करता घूम रहा था। इस सब को देखते हुए कुल मिला कर बड़े सुरक्षित ढंग से यह कहा जा सकता है कि बाँदा वाला सम्मेलन इसी 1970 वाले युवा लेखक सम्मेलन का, ग़ालिबन, उत्तरकाण्ड था।</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 0);"> 0</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 0);">वैसे, हिन्दी में बड़े-बड़े साहित्यकार सम्मेलनों की परम्परा कभी नहीं रही। कुछ संस्थाएँ ज़रूर अपने अधिवेशनों में साहित्यकार जुटाया करती थीं, जैसे इलाहाबाद का हिन्दी साहित्य सम्मेलन या बनारस की नागरी प्रचारिणी सभा या फिर बिहार राष्ट्रभाषा परिषद आदि, लेकिन वहाँ साहित्य गौण और दूसरी चीज़ें ज़्यादा महत्वपूर्ण होती थीं। एक लम्बे अर्से तक तो इन संस्थाओं में हिन्दी की राजनीति की ही पटफेराबाज़ी होती रही, जिसका सम्बन्ध हिन्दी भाषा और हिन्दी साहित्य से कम और राजनीति से अधिक था। कई किस्म के जुगाड़ और गुन्ताड़े इन अधिवेशनों में भिड़ाये जाते। फिर, इनमें सभी साहित्यकार आमन्त्रित भी नहीं होते थे। </span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 0);">हिन्दी में यूँ भी पंगतपरक सम्मेलनों की परम्परा रही है। यानी अपनी पंगत, अपना एजेण्डा, अपने लोग। ऐसे सम्मेलन बिरले ही देखे गये हैं जिनमें हर जाति-प्रजाति के साहित्यकार, अपने-अपने मतभेदों को किनारे रख कर या फिर उन्हें झण्डों की तरह लहराते हुए, शामिल हुए हों। इस लिहाज़ से भी 1970 का युवा लेखक सम्मेलन अपने आप में अनोखा था, क्योंकि उसमें लगभग एक प्रतिशोध-भरे आग्रह, या कहें कि पूर्वाग्रह, से हर नस्ल के युवा लेखक जुटाये गये थे - किंचित युवा, कतिपय युवा, लगभग युवा, हत युवा, गत युवा, आहत युवा, आगत युवा, आदि - और जिनमें सुविद्रोहियों के साथ-साथ अविद्रोहियों और कुविद्रोहियों की भी अच्छी-ख़ासी भरमार थी। </span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 0);"> </span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 0);">इससे पहले, 1957 में जो दो बड़े सम्मेलन इलाहाबाद में हुए थे, उनमें जो ख़ेमेबन्दियाँ थीं, वे साफ़-साफ़ नज़र आती थीं। जहाँ तक मुझे याद पड़ता है, नामवर जी ने अपने किसी आत्म-चरित में साहित्यकारों के जमावड़ों की एक लम्बी फ़ेहरिस्त गिनायी थी, लेकिन न तो वे इतने बड़े पैमाने पर आयोजित हुए थे और न उनमें परस्पर विरोधी विचारों के लेखकों ने शिरकत ही की थी। कुल मिला कर वे ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ ही की जम्बूरियाँ थीं। </span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 0);">1957 के सम्मेलन भी - हालाँकि उनमें से एक ‘परिमल’ ने आयोजित किया था और दूसरा ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ ने - जहाँ तक दायरे और सरोकारों का सवाल है - पहले के सभी सम्मेलनों से भिन्न थे। इनमें से दूसरे सम्मेलन को बड़े भाव-भीने ढंग से याद करते हुए कवि अशोक वाजपेयी ने एकाधिक बार कहा है कि वे उस सम्मेलन में शामिल होने वाले सबसे कमसिन साहित्यकार थे और ग़ालिबन उनकी उम्र उस वक्त 17 बरस की थी। मुझे इतना और याद पड़ता है कि मेरी उम्र उस समय बारह की रही होगी और मैं उस सम्मेलन के लिए चन्दा जुटाने वाले और आव-भगत करने वाले दस्ते में शामिल था और इस मुहिम पर किसी के साथ कानपुर भी गया था। </span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 0);">अब 1970 के युवा लेखक सम्मेलन को याद करते हुए पीछे मुड़ कर देखते समय, 1957 के इन सम्मेलनों के बारे में कुछ और बातें भी दिमाग़ में कौंधती हैं। मिसाल के लिए यह कि 1957 में इलाहाबाद में आयोजित दोनों साहित्यकार सम्मेलनों पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से 1956 में दिल्ली में आयोजित पहली ऐफ़्रो एशियन राइटर्स कॉनफ़रेन्स की छाया मँडरा रही थी, जिसमें तमाम हिन्दी-उर्दू और अन्य भारतीय, एशियाई और अफ़्रीकी देशों के साहित्यकार शामिल हुए थे। ऐफ़्रो एशियन रॉइटर्स कॉन्फ़रेन्स को प्रकट ही ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ और सोवियत संघ का समर्थन प्राप्त था। जहाँ तक मुझे याद पड़ता है, उसमें ऐसे लोग भी बड़ी तादाद में शामिल हुए थे जो भले ही सोवियत समर्थक या ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ अथवा कम्यूनिस्ट पार्टी के सदस्य न रहे हों, मगर सामाजिक रूप से प्रतिबद्ध थे। लेकिन कुल-मिला कर उसकी मूल प्रेरणा वामपन्थी ही थी। वह समय भी ख़ासी उथल-पुथल का था। स्टालिन युग समाप्त हुआ ही हुआ था, ख़्रुश्चेव ने नयी-नयी सत्ता सँभाली थी और भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी, जो बाद में ‘इस दिल के टुकड़े हज़ार हुए’ की तर्ज़ पर कई-कई खण्डों और उपखण्डों में बँटी, उस समय तक एक थी। यह बात दीगर है कि उसी दौर में कम्यूनिस्ट पार्टी से जुड़े लेखक या प्रगतिशील साहित्यकार अनेक विषयों पर तीखे अन्दरूनी मतभेद का शिकार थे - चाहे वह हिन्दी-उर्दू का मसला हो या फिर पार्टी लाइन का। पी.सी.जोशी और उनके उदार प्रगतिवादी दौर को पीछे छोड़ कर एक ऐसा कट्टरतावादी गुट कम्यूनिस्ट पार्टी और ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ में उभर आया था जिसने राहुल सांकृत्यायन से ले कर यशपाल, अश्क, रांगेय राघव, शिवदान सिंह चौहान, अमृत राय आदि पुराने प्रगतिशीलों के ख़िलाफ़ तालिबानी अन्दाज़ में जिहाद बोल दिया था।</span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 0);">दूसरी ओर, यह भी कहने की बात नहीं है कि वह शीतयुद्ध का ज़माना था। हीरोशिमा और नागासाकी पर अमरीकी युद्धोन्माद ने जो तबाही बरपा की थी, उसकी स्मृति ताज़ा बेखुरण्ड ज़ख़्म की तरह थी। इन्हीं नीतियों को आगे बढ़ाते हुए अमरीका ने मार्शल प्लान चालू किया था, इसलिए एक बड़े पैमाने पर दुनिया भर में वामपन्थी, जनवादी और कम्यूनिस्ट लेखकों का हरकतज़दा होना अमरीका के कान खड़े कर देने के लिए काफ़ी था। इस सब की सांस्कृतिक पेशबन्दी के तौर पर अमरीका परस्त संस्था ‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ की स्थापना हो चुकी थी जिसके मानद अध्यक्षों में बेनेदेत्तो क्रोचे, कार्ल जास्पर्स और बरट्रेण्ड रसेल के साथ हिन्दुस्तानी समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण भी शामिल थे। ‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ के रंगून सम्मेलन के अध्यक्षों में डॉ. सम्पूर्णानन्द जैसे काँग्रेसी-समाजवादी बहैसियत मुख्यमन्त्री, उत्तर प्रदेश सरकार शिरकत कर रहे थे।</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 0);"> </span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 0);">‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ ने ‘एनकाउण्टर’ के नाम से एक पत्रिका भी प्रकाशित करनी शुरू की थी, जिसके सम्पादक थे पुराने वामपन्थी स्टीफ़न स्पेण्डर। हालाँकि तब तक ‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ को सी.आई.ए. से मिलने वाले आर्थिक अनुदान की बात और इस भण्डाफोड़ से उठे कौआरोर के चलते ‘एनकाउण्टर’ से स्टीफ़न स्पेण्डर के इस्तीफ़े की घटना में अभी दस बरस की देरी थी, लेकिन यह बात राजनैतिक रूप से सचेत सभी लेखक जानते थे कि ‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ की असलियत क्या है और स्टीफ़न स्पेण्डर जैसे घोषित वामपन्थी इसी बिना पर ‘एनकाउण्टर’ के सम्पादक बन भी सके हैं, क्योंकि उन्होंने 1949 में प्रकाशित पुस्तक ‘द गॉड दैट फ़ेल्ड’ में लिखे गये अपने लेख में, उसी पुस्तक के सहयोगी लेखक आर्थर केस्लर के सुर-में-सुर मिलाते हुए, साम्यवाद और साम्यवादी विचारधारा से किनाराकशी कर ली थी। अगर यह बात इतनी प्रकट और प्रत्यक्ष नहीं भी थी, तो भी स्टीफ़न स्पेण्डर के राजनैतिक स्खलन के साथ ‘एनकाउण्टर’ में उनके सम्पादक बनने को जोड़ कर लोग इतना तो जान ही रहे थे कि ‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ एक अमरीका-परस्त और अमरीकी पैसों से चलने वाली संस्था है। </span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 0);">यों, जैसा कि शीत युद्ध की तकनीक है, दोनों पक्ष एक-दूसरे पर नज़र रख कर चलते थे। यही वजह है कि 1956 के ऐफ़्रो एशियन लेखक सम्मेलन में अनेक ग़ैर-वामपन्थी लेखक तो गये ही थे, ‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ के एशियाई मामलों के सचिव प्रभाकर पाध्ये भी गये थे। ऐफ़्रो एशियन लेखक सम्मेलन की सफलता, ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के बढ़ते हुए प्रभाव और अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर हो रहे परिवर्तनों ने जहाँ ‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ जैसी संस्था को अपनी गतिविधियाँ तेज़ करने के लिए उकसाया, वहीं कम्यूनिस्ट जगत में होने वाली तब्दीलियों और प्रगतिशील लेखकों की बिरादरी के आपसी मतभेदों ने ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ को एक बड़ा साहित्यकार सम्मेलन करने की प्रेरणा दी। चूँकि ‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ एक दाग़ी संस्था थी, तकरीबन वैसी ही, जैसी पच्चीस-तीस वर्ष बाद ‘फ़ोर्ड फ़ाउण्डेशन’ बनी, और उसके काम करने का ढंग लुका-छिपी वाला था, जिसे अंग्रेज़ी में ‘क्लोक ऐण्ड डैगर’ वाला तरीका कहते हैं, इसलिए उसने अपने मंसूबों के लिए प्रगतिशील लेखक संघ की घोषित विरोधी संस्था ‘परिमल’ को चुना और ‘परिमल’ ने ‘साहित्य और राज्याश्रय’ के सवाल पर एक लेखक सम्मेलन आयोजित किया। </span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 0);">उधर, ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ पहले ही से एक सम्मेलन की सोच रहा था। अब, इसे संयोग ही कहा जायेगा कि दोनों सम्मेलन 1957 में हुए और दोनों इलाहाबाद में हुए। ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ में मतभेद चाहे कितने रहे हों, लेकिन कोई दुराव-छिपाव तो था नहीं। उससे जुड़े लेखकों की राजनैतिक प्रतिबद्धताएँ सबको मालूम थीं। लेकिन ‘परिमल’ के मुखौटे के पीछे असली चेहरा किसका था, यह उस समय उजागर हो गया जब ‘परिमल’ वाले सम्मेलन के बाद धन्यवाद-ज्ञापन के पत्र ‘परिमल’ के पदाधिकारियों की ओर से जारी न हो कर ‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ के एशियाई मामलों के सचिव, प्रभाकर पाध्ये की ओर से लेखकों को भेजे गये। चूँकि इलाहाबाद की पुरानी परम्परा के अनुसार सम्मेलनों में सभी तरह के साहित्यकार न्योते जाते थे, इसलिए ‘परिमल’ वाले समेलन में अज्ञेय, ताराशंकर बन्द्योपाध्याय, शिवराम कारन्त, समरेश बसु, फ़ादर कामिल बुल्के आदि के साथ-साथ यशपाल और उपेन्द्र नाथ अश्क जैसे प्रगतिशील साहित्यकार भी शामिल हुए। और चूँकि प्रगतिशीलों की आपसी कशमकश भी कोई छिपी हुई चीज़ नहीं थी, इसलिए भी किसी बाहरी व्यक्ति को किसी साहित्यकार विशेष की प्रतिबद्धता के बारे में भ्रम हो सकता था जो प्रभाकर पाध्ये को भी हुआ होगा, क्योंकि उन्होंने धन्यवाद ज्ञापन के जो पत्र भेजे, उनमें से एक पत्र ऐसे ही प्रगतिशील लेखक के नाम था जिन्होंने वह पत्र अमृत राय को सौंप दिया और इलाहाबाद से निकलने वाली ‘कहानी’ पत्रिका के जुलाई 1957 के अंक में अमृत राय ने इस तोड़क-फोड़क गतिविधि का भाँडा ऐन बीच चौराहे फोड़ दिया।</span><br /></div><div style="text-align: right;"><span style="color: rgb(255, 0, 0);">(जारी)</span><br /></div>Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3780821805422068162.post-43121481711400448142011-01-23T21:37:00.000-08:002011-01-23T21:40:20.276-08:00देशान्तर<span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);"></span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">नीलाभ के लम्बे संस्मरण की सातवीं क़िस्त<br /><br /></span><span style="font-weight: bold; color: rgb(0, 153, 0);">पिछले 50 </span><span style="font-weight: bold; color: rgb(0, 153, 0);">बरसों</span><span style="font-weight: bold; color: rgb(0, 153, 0);"> की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(0, 153, 0);">और एक लम्बी मैत्री की दास्तान</span><br /><br /><span style="color: rgb(102, 0, 0); font-weight: bold;">ज्ञानरंजन के बहाने - ७</span><br /><br /><span style="color: rgb(0, 153, 0); font-weight: bold;"></span><br /><br /><br /><div style="text-align: justify;"><br /><br /><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);">‘सिर्फ़’ के उसी अंक के साथ या उसके कुछ दिन बाद मुझे नवल जी का एक पत्र मिला कि वे दिसम्बर 1970 में एक युवा लेखक सम्मेलन कर रहे हैं। लेखक सम्मेलन के परिपत्र और आमन्त्रण के साथ भेजी गयी इस चिट्ठी में नवल जी ने लिखा था कि वे सम्मेलन को बड़े पैमाने पर करने की सोच रहे हैं और उन्होंने मुझसे पटना आने का आग्रह किया था। इसके साथ-साथ नवल जी ने यह भी लिखा था कि अगर मैं चाहूँ और ठीक समझूँ तो अपने संग कुछ और युवा साथियों को भी लेता आऊँ। वे तीसरे-दर्जे का आने-जाने का रेल भाड़ा देंगे और रहने-खाने की भी व्यवस्था करेंगे। </span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);"> </span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);"> आज का कोई लेखक अव्वल तो अपना पैसा ख़र्च करके दूसरे शहर जा कर लेखक-मित्रों से मिलने की नहीं सोचता और अगर किसी आयोजन में जाना हो तो ए.सी. टू टियर या ए.सी. थ्री टियर से नीचे बात नहीं करता और उम्मीद करता है कि उसे किसी अच्छे होटल में ठहराया जायेगा, लेकिन उन दिनों बात दूसरी थी। लोग धड़ल्ले से यात्राएँ करते थे, अक्सर निष्प्रयोजन, सिर्फ़ मित्रों से मिलने के लिए, और मित्रों के यहाँ ही टिकते थे। कोई सम्मेलन वग़ैरा होता तो किसी बड़े-से हॉल में फ़र्श पर गद्दे डाल कर सो जाया जाता। तीसरे दर्जे का यात्रा-व्यय ख़ुशी-ख़ुशी स्वीकार कर लिया जाता। यों बीच की बात यह है कि अनेक लेखक आज भी सफ़र तीसरे दर्जे में करते हैं, हाँ, ऊपर के पैसे जेब में डाल लेते हैं। इसमें कोई बुराई भी नहीं है, अगर आयोजक देने की स्थिति में हो, जैसा कि सरकारी या अर्द्ध सरकारी संस्थानों के साथ होता है। लेकिन जहाँ ऐसी स्थिति न हो, वहाँ अपनी तरफ़ से ख़र्च करके जाने भी कोई हानि नहीं है। जिन बड़े आयोजनों को हम याद करते हैं, मसलन, 1952 में इलाहाबाद का प्रगतिशील लेखक संघ का सम्मेलन या इलाहाबाद ही में 1957 का लेखक सम्मेलन, वे सब ऐसे ही हुए थे। इसीलिए चलन बदलने के साथ ऐसे जमावड़े भी - कम-से-कम साहित्यिक संस्थाओं की ओर से - आयोजित होने बन्द हो गये हैं। सच तो यह है कि साहित्यिक संस्थाएँ भी दुकान बढ़ा कर चलती बनी हैं। 1970 का पटना सम्मेलन इस कड़ी का आख़िरी बड़ा सम्मेलन था। </span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);"> नवल जी का पत्र आने पर मैंने दरियाफ़्त किया तो पता चला कि इलाहाबाद से ज्ञान, दूधनाथ, कालिया, ममता, ज्ञान प्रकाश, अरविन्द कृष्ण मेहरोत्रा और उसकी पत्नी, अजय सिंह और सतीश जमाली जा रहे थे। मैंने सोचा, कण्टिंजेण्ट में कुछ और लोगों को शामिल कर लिया जाय।</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);"> 0</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);">ज्ञान के जबलपुर चले जाने के बाद उन दिनों मेरा समय दो लोगों के साथ बड़ी कसरत से गुज़रता था। एक तो थे वीरेन डंगवाल, जो आज बड़े ही महत्वपूर्ण कवि हो गये हैं और जिनके प्रशंसकों-प्रेमियों की संख्या भारतीय फ़ौज को भी शर्मिन्दा करने के लिए काफ़ी हैं। दूसरे सज्जन, जिनकी संगत में मैं ज्ञान की ग़ैर-हाज़िरी को भुलाये रखता था, रमेन्द्र त्रिपाठी थे, जो इन दिनों प्रशासनिक सेवाओं में शामिल हो कर उत्तर प्रदेश जैसे परम भ्रष्ट राज्य में अपनी आकबत बचाये रखने के फेर में इतने मुब्तिला रहते हैं कि कविता से केवल पढ़ने का रिश्ता रखते हैं। उन दिनों रमेन्द्र एम.ए. कर रहा था। इरादा प्रशासनिक सेवाओं में जाने का था। चूँकि रामचन्द्र शुक्ल के परिवार से था, इसलिए हम लोग रमेन्द्र को ‘रामचन्द्र शुक्ल का नाती’ कह कर भी बुलाते थे। </span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);"> </span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);"> वीरेन से मेरी मुलाक़ात अजय सिंह ने करायी थी जो हॉलैण्ड हॉल छात्रावास में प्रकुबम (यानी प्रणव कुमार बंद्योपध्याय) और गिरधर राठी के साथ रहता था। अजय का एकांकी ‘कुहनी की हड्डी’ 1966 में ‘ज्ञानोदय’ के उसी ‘नयी कलम अंक’ में छपा था जिसमें मेरी भी कविता छपी थी, और वह राजनीति शास्त्र में एम.ए. न करने की कोशिश कर रहा था, जिस कोशिश में वह अन्ततः सफल हो ही गया था। मैं एम.ए. करके हिन्दी विभाग से निकल आया था, मगर चूँकि मैंने शोध के लिए आवेदन दे रखा था और वह स्वीकृत भी हो गया था इसलिए जब तक ज्ञान की तरह मैंने भी शोध न करने फ़ैसला न कर लिया, मैं कुछ महीनों के लिए हर दूसरे-तीसरे विभाग का चक्कर लगा आता था। </span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);"> तभी एक दिन विभाग के गलियारे में अजय सिंह मझोले क़द के दुबले-पतले बेढंगे-से युवक के साथ मिला जिसकी आँखों में कुछ ‘लुक हियर सी देयर’ वाला भाव था। अजय ने परिचय कराते हुए कहा कि यह वीरेन डंगवाल है, इसकी कहानियाँ ‘सरिता’ में छप चुकी हैं। ‘सरिता में!’ मुझे एक धक्का-सा लगा क्योंकि 1966 में भले ही रंगीन, चिकनी व्यावसायिक पत्रिकाओं के ख़िलाफ़ वह झूठा जिहाद शुरू नहीं हुआ था, जिसका ज़िक्र मैंने कालिया के सिलसिले में किया, तो भी कोई गम्भीर लेखक ‘सरिता’ में छपने की बात अपने परिचय में कहना या कहलवाना चाहेगा, यह मुझे अटपटा ही लगता था; हालाँकि एम.ए. करने के दौरान मैं दो बार गर्मियों की छुट्टियाँ दिल्ली बिता आया था और जानता था कि ‘सरिता’ कई लेखकों की पनाहगाह रही है, मसलन, भीमसेन त्यागी, कंचन कुमार, सुदर्शन चोपड़ा वग़ैरा की। ज़ाहिर है, मैंने सरसरी नज़र डाल कर उस युवक को ख़ारिज कर दिया था। लेकिन चूँकि उन दिनों इलाहाबाद में बहुत गहमा-गहमी थी, लेखकों के बीच बहुत मिलना-मिलाना था, इसलिए वीरेन से मिलना-जुलना बढ़ता चला गया। वैसे, वीरेन से खिंचे-खिंचे रहने का भाव सिर्फ़ मेरे ही मन में नहीं था। बाद में पता चला कि वीरेन को भी मुझसे शिकायत है, क्योंकि मैंने एक बार बटरोही से कॉफ़ी हाउस में बुरा व्यवहार किया था।</span><br /><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);"> आज तो लक्ष्मण सिंह बटरोही नैनीताल में हिन्दी विभागाध्यक्ष के पद पर आसीन है और गाहे-बगाहे लेखादि लिख कर अपने लेखक होने की आबरू बचाये हुए है, पर उन दिनों वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय में रिसर्च करता था और शैलेश मटियानी ने अपनी स्वाभाविक उदारता और पर्वत-पुत्रों के प्रति प्रेम के कारण उसे अपने घर में आसरा दे रखा था। जैसा कि उन्होंने पहाड़ से आये चित्रकार-कवि सईद को दे रखा था। बटरोही गंगा प्रसाद विमल जैसे सातवें दशक के बरबाद कथाकारों के प्रभाव में कहानियाँ लिखता था जिनका किसी भी तरह की वैचारिकता से या ज़िन्दगी से कोई नाता न होता और लगे हाथ ‘विकल्प’ के सम्पादन में शैलेश मटियानी की मदद करता था। लेकिन जिस क़िस्से का वीरेन को मलाल है, वह इससे पहले का है जब बटरोही इलाहाबाद की टोह लगाने के लिए आया था।</span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);"> हुआ यों कि उन्हीं दिनों कमलेश्वर ने बटरोही को ‘डिस्कवर’ किया और उसकी कहानी ‘नई कहानियाँ’ में छापी। यहाँ तक कोई एतराज़ की बात नहीं थी। लेकिन कमलेश्वर ने कहानी के साथ जो प्रशस्ति गा रखी थी, उससे कुछ ऐसी गन्ध आती थी मानो वे एक नया चेला तैयार कर रहे हैं। हो सकता है, इसमें खेल कमलेश्वर ही का रहा हो, पर बटरोही ने उस यात्रा में एक ओर जिस तरह उस कहानी के छपने को भुनाने की कोशिश की और दूसरी ओर इलाहाबाद से साहित्यकारों से ‘चिपकने’ की, उसका कोई बहुत अच्छा असर नहीं पड़ा था। ऐसे ही में एक दिन जब ज्ञान, प्रभात, मैं और एकाध कोई और दोपहर बाद कॉफ़ी हाउस में बैठे गप लड़ा रहे थे तो बटरोही नमूदार हुआ। उसके साथ एक युवक भी था। एक ख़ुशामदी-सी हँसी हँसते हुए बटरोही आ कर हमारी ही मेज़ पर बैठ गया। उस ज़माने में कॉफ़ी हाउस के कई क़िस्म के दस्तूर थे। पहला दस्तूर ‘परिमल’ वालों और ‘शनिवारी समाज’ का था। एक में साही, रघुवंश, रामस्वरूप चतुर्वेदी आदि थे, दूसरे में भैरव जी और उनके साथी। ये सब अपनी-अपनी कॉफ़ी के पैसे ख़ुद चुकाते थे। दूसरा दस्तूर हम लोगों का था। जिसके पास पैसे हुए, उसने चुका दिये या फिर अपनी-अपनी क्षमता से सबने कम-ज़्यादा योग दे दिया। ज्ञान के साथ यह था कि अक्सर पैसे वही देता था। जब वह नहीं होता था तो कई बार प्रभात के पैसे मैं देता था। या फिर चार-छै दिन बाद जब मुझे लगता था कि ज्ञान को यह न महसूस हो कि वही अकेला चाय-कॉफ़ी के लिए ज़िम्मेदार है तो मैं बिल चुका देता था। एक अघोषित नियम यह था कि जो कॉफ़ी के लिए कहेगा, वही पैसे भी देगा। हम लोग शायद कॉफ़ी के लिए कह चुके थे, या शायद कॉफ़ी अभी-अभी आयी थी जब बटरोही आया, पूरा ब्योरा तो अब याद नहीं, पर बटरोही ने आते ही बैरे को दो कॉफ़ी लाने के लिए कहा। गप-शप चलती रही। कॉफ़ी पी गयी। जब उठने का समय आया तो मैंने बटरोही की तरफ़ देखा। ज़ाहिर है, कॉफ़ी के पैसे चुकाने थे, मगर बटरोही इस बात को अनदेखा कर रहा था। वह इस फेर में था कि हमीं में से कोई उनके पैसे भी चुका दे। मुझे बुरा इस बात का लगा कि एक तो वह हम रोज़ के उठने-बैठने वालों में से नहीं था, दूसरे उसने आते ही इस बात का इन्तज़ार भी नहीं किया था कि कोई कॉफ़ी के लिए पूछे और बड़े इत्मीनान से कॉफ़ी मँगवा ली थी, फिर वह हम पर लदने की कोशिश कर रहा था। जो युवक नैनीताल से एक और बन्दे को अपने साथ लिये-लिये इलाहाबाद आ सकता है, वह इतना ‘खुक्ख’ होगा कि कॉफ़ी के पैसे न दे सके, यह यक़ीन करने को जी न चाहता था। अगर वह सीधे-सीधे भी कह देता तो भी एक बात थी, पर वह तो एक दयनीय काइयाँपने से दुबका बैठा था। कुछ पल बाद वातावरण बड़ा बोझिल होने लगा। शायद मैंने बिल के बारे में कुछ कहा भी। पर तभी ज्ञान ने उठते हुए बैरे को बुलाया और पैसे अदा कर दिये। </span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);"> मैं यह क़िस्सा भूल भी गया था, लेकिन वीरेन को याद था, क्योंकि बटरोही के साथ उस दिन वही था। तो भी इस प्रसंग को काफ़ी समय बीत गया था और इस पहले सफ़र के बाद बटरोही की असलियत से वीरेन वाकिफ़ हो चुका था, इसलिए हम दोनों ही इस किस्से को किनारे करके निकट आते चले गये।</span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);"> उन दिनों ये दोनों, वीरेन और रमेन्द्र, गंगानाथ झा छात्रावास के एक ही कमरे में रह कर गाँजा पीने, कविता करने, बाहर से आये लोगों (मसलन पंकज सिंह) को इलाहाबाद ‘दिखाने,’ यदा-कदा दारू पीने, मेरी जावा मोटरसाइकिल पर तीन सवारी आवारागर्दी करने, दुनिया को अंग विशेष पर रखने और बचे हुए समय में प्रेम की सम्भावनाएँ तलाशने और मजाज़ की नज़्म ‘ऐ ग़मे दिल क्या करूँ’ को ऊँची आवाज़ और सुर-बेसुर में गाने में अपने जीवन का सदुपयोग करते थे। चूँकि शैलेश मटियानी गंगानाथ झा छात्रावास के नज़दीक कटरा में रहते थे और ‘विकल्प’ के नाम से हिन्दी की पहली भीमकाय ‘लघु पत्रिका’ निकाल रहे थे, लिहाज़ा हम लोग कभी-कभी वहाँ चले जाते। मैं इनमें से एकमात्र शादी-शुदा था। लेकिन तब तक मुझ पर ज्ञान रंजन का गाढ़ा रंग चढ़ा हुआ था। इसलिए जिस तरह शादी करने और कालिया की संगत करने पर भी ज्ञान अपनी मलंगई नहीं छोड़ पाया था, वैसे ही मैं अपने ज्ञान साईं के नक्शे-कदम पर चलते हुए अपना ठाठ फ़कीरी कायम किये हुए था।</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);"> </span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);"> चुनांचे मैंने वीरेन और रमेन्द्र को भी ‘युवा लेखक सम्मेलन’ में पटना चलने के लिए राज़ी कर लिया और नवल जी को लिख दिया कि मेरे साथ इन दोनों के यात्रा-व्यय और रिहाइश की भी व्यवस्था कर दें।</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);"> 0</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);">1970 का ‘युवा लेखक सम्मेलन’ जैसा हुआ, वह आज अकल्पनीय लगता है। न सिर्फ़ शिरकत और उसमें उठी बहसों के लिहाज़ से, बल्कि उस प्रबल और दीर्घकालीन प्रभाव के चलते भी जो उसने आगे के लेखन पर छोड़ा। इसी सम्मेलन के दौरान मुझे ज्ञान के चरित्र के कुछ अन्य पहलू नज़र आये जिन्होंने मुझे चकित कर दिया।</span><br /></div><div style="text-align: right; color: rgb(255, 0, 0);">(जारी)<br /></div>Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3780821805422068162.post-40548600548326665882011-01-23T05:32:00.000-08:002011-01-23T05:33:50.788-08:00देशान्तर<span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 0, 0);"></span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 51, 0);">नीलाभ के लम्बे संस्मरण की छठी क़िस्त</span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">और एक लम्बी मैत्री की दास्तान</span><br /><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(0, 51, 0);">ज्ञानरंजन के बहाने - ६</span><br /><br /><br /><br /><br /><br /><br /><div style="text-align: justify;"><br /><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);">आज लगभग चालीस साल बाद जब मैं उस प्रसंग पर सोचता हूँ तो मुझे ऐसे तमाम संयोगों पर हैरत भी होती है और दुख भी। क्या कारण है कि अक्सर हमें उन्हीं लोगों से आघात पहुँचते हैं, जिनसे हम गहरे भावनात्मक रेशों से जुड़े होते हैं ? कहीं ऐसा तो नहीं है कि हमीं अपने निकटस्थ व्यक्तियों से कुछ अधिक अपेक्षाएँ रखने लगते हैं ? </span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);">यहाँ इस प्रकरण के सम्बन्ध में एक छोटा-सा विषयान्तर करते हुए इतना और जोड़ना है कि मुझे उस समय भी और आज लगभग चालीस वर्ष बाद भी उस सब को याद करते हुए आश्चर्य कालिया पर नहीं, ज्ञान पर था। कारण यह था कि कालिया का स्वभाव ‘आधार’ वाले प्रसंग के बाद बहुत जल्द ही मेरे सामने साफ़ हो गया था। व्यावसायिक पत्रिकाओं के अपने तमाम विरोध के बावजूद उसने उधर की तरफ़ एक चोर दरवाज़ा हमेशा खुला रखा था। ममता को कभी उसने व्यावसायिक पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित करने से नहीं बरजा। चलिए, मान लेते हैं कि ममता का अपना स्वतन्त्र व्यक्तित्व था, लेकिन बाद में कालिया ने ‘सत्यकथा’ और ‘मनोहर कहानियाँ’ छापने वाले मित्र-बन्धुओं में से एक के साथ गठबन्धन करके कैंची-गोद मार्का पत्रिका ‘गंगा-जमुना’ निकाली जो ‘धर्मयुग’ और ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ के बुरे-से-बुरे रूपों से भी गयी-बीती थी और अब कालिया बरास्ता ‘वागर्थ’ जैनियों के उसी संस्थान में जा पहुँचा है जिसे वह चालीस साल पहले छोड़ आया था। जालन्धर की ज़बान में कहें तो ‘जित्थों दी खोत्ती, ओत्थे जा खलोत्ती,’ यानी ‘पहुँची वहीं पे ख़ाक जहाँ का ख़मीर था।’ इलाहाबाद में दरबार लगाने की परम्परा कभी नहीं रही। लेकिन कालिया दरबार लगाने का कायल था। उसे कॉफ़ी हाउस के लोकतान्त्रिक माहौल की बजाय 370, रानी मण्डी में बैठना पसन्द था। उसे पसन्द था कि प्रेस के बाहर वाले कमरे में लोग उसे घेरे बैठे रहें। शुरू-शुरू में तो पालियाँ बँधी हुई थीं। कौन-सी पाली में साहित्यकार होंगे, कौन-सी पाली में उसके ग़ैर-साहित्यिक पिट्ठू। फिर धीरे-धीरे साहित्यकार छँटते चले गये और यही दूसरे क़िस्म के लोग रह गये। कभी पी.डब्ल्यू.डी. या ऐसे ही किसी सरकारी विभाग का कोई इंजीनियर होता, कभी कोई चालू क़िस्म का डॉक्टर, कभी दिलीप कुमार के फ़िल्मी लिबास बनाने वाला नाई-उपन्यासकार, कभी कोई उपरफट्टू क़िस्म का नेता तो कभी पुलिस का कोई अधिकारी। कुछ समय तक हरनाम दास सहराई ने भी इस दश्त की सैयाही की थी जब कालिया ने उसके उपन्यास को पंजाबी से हिन्दी करके छापा था, शायद ‘रचना प्रकाशन’ के लिए। इलाहाबाद दंग हो कर कालिया के करतब देख रहा था। कालिया ने भी सत्ता का ख़ूब आनन्द लिया। लेकिन दरबारों का एक तर्क होता है। जो लोग दरबार लगाते हैं, वे कई बार किसी और जगह दरबारीलाल बने मुसाहिबगीरी करते रहते हैं। चूँकि इलाहाबाद में ऐसा न कोई व्यक्तित्व था, न माहौल, सो कालिया ने अमेठी का रास्ता लिया। </span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);"> सारे ब्योरे तो मुझे मालूम नहीं हैं, क्योंकि ‘आधार’ प्रसंग के बाद मैं धीरे-धीरे कालिया से दूर हटता चला गया और 1972 के बाद तो पन्द्रह साल उसके घर नहीं गया, और यूँ भी वह पुरानी गर्मजोशी दोनों तरफ़ से ख़त्म हो चुकी थी, लेकिन इतना मुझे ज़रूर पता है कि कालिया अमेठी के डॉ. जगदीश पीयूष के ज़रिये अमेठी के राजा संजय सिंह के दरबार में पहुँचा और उनकी मार्फ़त संजय गाँधी के दरबार में। अपनी पुरानी प्रगतिशील प्रतिबद्धताओं को ताक में रख कर वह कांग्रेस के साथ हो लिया। उसके यहाँ सन्दिग्ध क़िस्म के लोगों का जमावड़ा लगने लगा। दिलचस्प बात यह थी कि जब 1981 में संजय गाँधी की मृत्यु हुई तो कालिया ने पलटी मार कर राजीव गान्धी का साथ कर लिया, यहाँ तक कि चुनावों के दौरान मेनका गान्धी का चरित्र हनन करते हुए - कि कैसे वह शराब पीती है, सिगरेट पीती है, उच्छृंखल है, आदि, आदि - एक पुस्तिका भी बँटवायी। यह तब जब ममता बराबर नारी-अधिकारों की हिमायत करती थी। बहरहाल, यह सब कालिया के देखने की चीज़ें हैं - उसकी अन्तरात्मा, उसके ज़मीर और उसके आदर्शों की। शराब पी कर भी वह कैसी-कैसी अभद्रताएँ करता रहा है, इसके कुछ प्रसंग तो मेरे भी देखे हुए हैं, हालाँकि अपने रणछोड़दास स्वभाव के चलते उसने ‘ग़ालिब छुटी शराब’ में ऐसे प्रसंगों का कोई ज़िक्र नहीं किया है। लेकिन मुझे ज्ञान पर ज़रूर आश्चर्य होता रहा है कि उसकी नज़र से यह सब कैसे छिपा रहा और अगर छिपा नहीं रहा तो उसने इस सब के साथ निभाया कैसे। </span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);"> ज्ञान की यादें ताज़ा करते हुए मैंने एक बार फिर ‘कबाड़ख़ाना’ वह पत्र पढ़ा है जो उसने ‘हंस’ में काशीनाथ सिंह का संस्मरण छपने के बाद उसे लिखा था - कालिया की हिमायत में। मुझे फिर एक बार हैरत हुई। मित्र तो वह जो ग़ालिब के शब्दों में ‘रोक लो गर ग़लत करे कोई’ पर चलने वाला हो। मुझे ऐसे भी मित्र मिले हैं। </span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);"> हाल के दिनों तक तो ख़ैर, मेरे जीवन के एक व्यक्तिगत प्रसंग की वजह से आनन्दस्वरूप वर्मा के साथ लगभग दस साल से मेरा अबोला चल रहा था, लेकिन लगभग बीस-बाईस बरस पहले 1989 की बात है, मैंने ‘न्यू डेल्ही टाइम्स’ के निर्देशक रमेश शर्मा के लिए वृत्तचित्रों के एक धारावाहिक ‘कसौटी’ पर काम किया था। इस धारावाहिक के ख़त्म होने के कुछ महीने बाद मैं पाकिस्तान चला गया। वहाँ से लौटा तो रमेश ने मुझसे आग्रह किया कि मैं उसके लिए दो वृत्तचित्रों के लिए आलेख लिख दूँ और स्वर भी दे दूँ। विषय था इन्दिरा गाँधी और धर्म निरपेक्षता। रमेश की कुछ राजनैतिक महत्वाकांक्षाएँ थीं, वह कई कारणों से कांग्रेस से जुड़ गया था, और ये फ़िल्में उसके लिए एक सी़ढ़ी का काम कर सकती थीं। </span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);"> मैं डॉक्यूमेंट्री बना कर अण्डमान चला गया। वहाँ से लौटा तो आनन्द स्वरूप वर्मा से मुलाकात हुई। उसने छूटते ही कहा कि तुमने यह काम ठीक नहीं किया; हम लोग बराबर इन्दिरा गाँधी की निरंकुशता का, आपात काल का, इन्दिरा गाँधी और कांग्रेस की नीतियों का विरोध करते रहे; ऐसे में फ़िल्म चाहे किसी दृष्टि से इन्दिरा गाँधी को ले कर बनायी गयी हो, हमें और हमारी प्रतिबद्धता को सन्दिग्ध बना देगी। शब्द तो ठीक-ठीक ये नहीं थे, पर आशय यही था। मुझे भी तत्काल अपनी चूक का एहसास हुआ। मैंने आनन्द का शुक्रिया अदा किया कि उसने सचमुच दोस्ती का फ़र्ज़ निभाया है। ग़लती तो मुझसे हो गयी थी और तीर वापस न आ सकता था, लेकिन मैंने उससे वादा किया कि अब दोबारा ऐसी ग़लती मैं नहीं करूँगा। </span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);"> मैं आज भी आनन्द स्वरूप वर्मा का कृतज्ञ हूँ कि उसने बेकार का लिहाज़ न बरत कर मुझे टोक दिया था। ‘कबा़ड़ख़ाना’ वाले पत्र के सिलसिले में इतना ही कि ज्ञान ने काशीनाथ सिंह को तो बरजा, लेकिन जब कन्हैयालाल नन्दन ‘सण्डे मेल’ का सम्पादक बना और सैयाँ के कोतवाल बनने पर कालिया ने हमेशा की तरह दोस्ती का लाभ उठा कर पीत पत्रिका मार्का संस्मरण लिखे-छपाये तब ज्ञान ने उसे नहीं बरजा। अलबत्ता, जब काशी ने प्रतिक्रिया में दो-चार बनारसी घिस्से दिये तो कालिया के बिलबिलाने पर ज्ञान द्रवित हो गया! ख़ैर।</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);"> 0</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);">बहरहाल, ‘आधार’ का यह प्रसंग भी बीत गया। मैत्री और दूसरे तमाम सामाजिक सम्बन्ध जो हम ख़ुद बनाते-रचते हैं, कहीं-न-कहीं हमारे वयस्क होते जाने, परिपक्व होते जाने में भी चाहे-अनचाहे, जाने-अजाने अपनी भूमिका अदा करते हैं। मेरे ज़ख़्मों पर खुरण्ड चढ़ने में हालाँकि थोड़ा वक़्त लगा, मगर वह कहा है न कि वक़्त सब कुछ...</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);"> 0</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);">उन दिनों पटना से नन्द किशोर नवल ‘सिर्फ़’ नाम की एक लघु पत्रिका का सम्पादन-प्रकाशन कर रहे थे। ‘आधार’ के द्वार से धकियाये जाने पर जब मैंने अपनी लम्बी कविता ‘अपने आप से बहुत लम्बी, बहुत लम्बी बातचीत’ एक पुस्तिका की शक्ल में प्रकाशित की तो उसे नवल जी को भेज दिया। पुस्तिका मैंने अशोक वाजपेयी और रवीन्द्र कालिया को समर्पित की थी। अशोक के नाम इसलिए कि उन्होंने हिन्दी के आम वतीरे से हलग हट कर, यानी अश्क जी के साथ अपने और अपने निकट के अन्य लोगों के सम्बन्धों को ख़ातिर में न लाते हुए, मेरे पहले कविता-संग्रह ‘संस्मरणारम्भ’ की अच्छी समीक्षा की थी - शायद ‘धर्मयुग’ में। अच्छी इस मानी में कि वह आज की ‘अच्छी’ समीक्षाओं की तरह न तो अहो-अहोवादी थी, न पंजीरी-बाँटू। उसमें सम्भावनाओं की तरफ़ इशारा करने और उत्साह दिलाने की भावना थी। रवीन्द्र कालिया को मैंने कविता इसलिए समर्पित की, क्योंकि जिन दिनों वह लिखी जा रही थी, कालिया हमारे ही घर पर मुकीम था, कविता के पहले दो-तीन प्रारूप उसने सुने थे, सराहे थे, कुछ ज़रूरी सुझाव दिये थे। फिर, तब तक उसका वह रूप सामने नहीं आया था जिससे मुझे वितृष्णा हुई थी। ‘आधार’ वाले प्रसंग में भी मुझे ज्ञान से ज़्यादा शिकायत थी। (‘आधार’ की पृष्ठ संख्या पर कालिया के नियन्त्रण के कारण ज्ञान के हाथ बँधे हुए थे, यह बात बाद में साफ़ हुई जब ज्ञान ने मेरी ही नहीं, अन्य लेखकों की भी लम्बी रचनाएँ ‘पहल’ में छापीं जहाँ सब कुछ उसके हाथ में था। यही नहीं, बल्कि जिन्हें विशेष रूप से प्रस्तुत करना था, उन रचनाओं को पुस्तिकाओं की शक्ल में ‘पहल’ की ओर से प्रकाशित किया। जब कि ‘आधार’ से अपना काम सध जाने के बाद कालिया ने ‘आधार’ को डम्प कर दिया और वह अंक एक तरह से ‘आधार’ का समाधि-लेख साबित हुआ। हालाँकि उसके बाद ‘आधार’ के दो-एक अंक निकले, पर वे मृत्यु के बाद मांस के फड़कने की मानिन्द थे।)</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);"> मेरी कविता-पुस्तिका के ब्लर्ब पर पन्त जी की एक भूमिका थी। यह भी उन दिनों के साहित्यिक माहौल का आम चलन था कि हम जैसे नौसिखुए कवि, पन्त जी जैसे तपे हुए वरिष्ठ कवियों के साथ अदब से, मगर बराबरी की भावना से, संगत करते थे। मैं उन दिनों अक्सर पन्त जी के यहाँ जाता था। एक दिन उन्होंने कहलवाया कि उन्हें पता चला है मैंने नयी कविता लिखी है, वे सुनना चाहते हैं। पन्त जी के आग्रह पर जब मैंने उन्हें कविता सुनायी और ‘आधार’ वाला प्रकरण बताते हुए यह कहा कि अब मैं इसे पुस्तिका के रूप में छापने की सोच रहा हूँ तो उन्होंने बड़े सहज भाव से प्रस्ताव रखा कि वे उसकी भूमिका लिखना चाहेंगे। मैं थोड़ा हिचकिचाया था। हालाँकि लीलाधर जगूड़ी की तरह मैंने पन्त जी की कविताओं के अकवितावादी ‘अनुवाद’ करके ख़ुद को क्रान्तिकारी साबित करने की कोशिश नहीं की थी, लेकिन मैं पन्त जी को महत्वपूर्ण कवि मानते हुए भी, उनकी अपेक्षा निराला-शमशेर-मुक्तिबोध को अपने ज़्यादा करीब पाता था। लेकिन जब मुझसे कहा गया कि इतने वरिष्ठ कवि का यह प्रस्ताव एक सम्मान की बात है तो मैंने कहा ठीक है, भैये, करा लेते हैं सम्मान, अपनों ने तो हमारी औक़ात हमें जता ही दी है, कविता में कुछ होगा तो रहेगी, वरना डूब जायेगी - पन्त जी की भूमिका समेत। लगे हाथों मैंने कविता से पहले उसकी रचना-प्रक्रिया, वग़ैरा, वग़ैरा पर अपनी तरफ़ से भी दो-तीन पन्ने ख़ासी ऊँचाई से लिख मारे। फ़रवरी 1970 में पुस्तिका प्रकाशित हुई और कुछ महीने बाद ‘सिर्फ़’ में नन्द किशोर नवल ने कविता पर वाचस्पति उपाध्याय की ख़ासी लम्बी समीक्षा प्रकाशित की, जिसमें कविता को, इलाहाबादी शब्दावली में कहें तो, ‘धो कर रख दिया गया था।’ मैंने वह समीक्षा पढ़ी और ऐलान किया कि बनारसी कवि को अपना आसन डोलता नज़र आ रहा है। बनारसी कवि से आशय धूमिल से था, जिनके साथ-साथ वाचस्पति उन दिनों छाया की तरह लगे रहते थे। </span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);"> (आज, लेकिन, मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि वाचस्पति की समीक्षा से मुझे बहुत फ़ायदा हुआ। बाईस-तेईस साल की कच्ची उमर में लिखी गयी वह लम्बी कविता भले ही पुस्तिका के रूप में छप गयी थी, लेकिन मैंने बाद में भी उसे सुधारना-सँवारना जारी रखा था और इस काम में वाचस्पति की समीक्षा से मुझे काफ़ी मदद मिली और उसे मैंने बाद में ‘वयस्क होते हुए’ के शीर्षक से अपने कविता संग्रह ‘जंगल ख़ामोश है’ में संकलित किया। चूँकि तुलसीदास की उक्ति के अनुसार मुझे भी ‘निज कवित्त’ को ले कर एक मोह रहता ही है, इसलिए यह तो नहीं कह सकता कि कविता इन संशोधनों के बाद निर्दोष हो गयी - यूँ भी उसका एक बुनियादी ख़ाका तो बन ही चुका था - अलबत्ता, यह ज़रूर हुआ कि वह पहले से काफ़ी बेहतर हो गयी। इस नाते मैं वाचस्पति का बहुत कृतज्ञ हूँ।)</span><br /></div><div style="text-align: right;"><span style="color: rgb(255, 0, 0);">(जारी)</span><br /></div>Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3780821805422068162.post-7120397063284343532011-01-21T22:12:00.000-08:002011-01-21T22:13:32.789-08:00देशान्तर<span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 0, 0);"></span><br /><br /> <span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">नीलाभ के लम्बे संस्मरण की पांचवीं क़िस्त</span><br /><br /> <span style="font-weight: bold; color: rgb(0, 153, 0);">पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा</span><br /> <span style="font-weight: bold; color: rgb(0, 153, 0);">और एक लम्बी मैत्री की दास्तान</span><br /><br /> <span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);">ज्ञानरंजन के बहाने - ५</span><br /><br /><br /> <span style="font-weight: bold; color: rgb(0, 153, 0);"></span><br /><br /><br /><br /><br /><br /><div style="text-align: justify;"><span style="font-weight: bold; color: rgb(51, 51, 0);">कालिया</span><span style="font-weight: bold; color: rgb(51, 51, 0);"> के आने का असर जल्दी ही दिखायी देने लगा। सतीश जमाली अगर देसी विम्टो की बोतल था जिसके मुँह पर एक कंचा पँ सा होता था और जिसे अँगूठे या और किसी साधन से अन्दर ठेल कर लेमनसोडा पिया जाता था तो कालिया ख़ालिस कोकाकोला की बोतल जिसमें झाग भी ज़्यादा होता है और जिसका मेल शराब के साथ भी बैठता है और शबाब के साथ भी। बाज़ारवाद का प्रभाव भारतीय अर्थनीति पर पड़ने में अभी कई दशक बाक़ी थे, क्योंकि अभी तो नेहरूवियन मॉडेल के विफल होने का मातम मनाया जा रहा था। इसके बाद राजीव गाँधी, चिदम्बरम, मनमोहन सिंह, मोनटेक सिंह अहलूवालिया और नरसिम्हाराव के गिरोह के आने से पहले देश को राष्ट्रीयकरण, ग़रीबी हटाओ, हरित क्रान्ति, आपातकाल, जनता पार्टी की आराजकता और ’84 के दंगों, आदि से गुज़रना था। मगर बज़रिये कालिया साहित्य में उसके संकेत मिलने लगे थे और लूकरगंज को उसकी चपेट में आना ही था। हम चूँकि रानी मण्डी और लूकरगंज के दरम्यान ख़ुसरो बाग रोड के ‘नो मैन्स लैण्ड’ के बाशिन्दे थे, हमारा हश्र तो टोबा टेकसिंह जैसा ही हो सकता था, जो कि हुआ और एक तरह से आज तक जारी है।</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(51, 51, 0);"> जल्दी ही ज्ञान और कालिया में छनने लगी। कालिया का प्रेस रानी मण्डी में था और यह उस जगह के नाम की तासीर थी या माहौल की या फिर वाणिज्य-व्यापार की नगरी बम्बई में प्राप्त प्रशिक्षण की, कालिया ने साहित्य को भी मण्डी की-सी मानसिकता से लेना शुरू कर दिया। बल अब पैकेजिंग और मार्केटिंग पर आ गया। अक्सर कालिया सातवें दशक के कथाकारों के ख़िलाफ़ कमलेश्वर के तथाकथित षडयन्त्र का ज़िक्र करता और फिर उसकी काट ढूँढने का जुगाड़ बैठाता। चूँकि ‘नयी कहानी’ का आन्दोलन मन्द पड़ गया था, राकेश नाटकों की तरफ़ मुड़ गये थे, राजेन्द्र यादव ने ‘मन्त्र विद्ध’ जैसा फ्लॉप उपन्यास लिखने के बाद कहानी से भी हाथ खींच लिया था, इसलिए ‘नयी कहानी’ के तीसरे शहसवार कमलेश्वर ने ‘सचेतन कहानी’ का झण्डा बुलन्द कर रखा था, जो ले दे कर मधुकर सिंह, महीप सिंह और विश्वेश्वर या इब्राहिम शरीफ़ जैसे कथाकारों को ही आकर्षित कर पाया था। चूँकि धूम साठोत्तरी कथाकारों की थी, ‘अणिमा’ का ‘सातवें दशक का कथा विशेषांक’ प्रकाशित हो चुका था, इसलिए कमलेश्वर को जगह-जगह ‘सचेतन कहानी’ की गोष्ठियाँ करनी पड़ रही थीं। कभी पलामू में तो कभी हाथरस में, कभी झुंझुनू में तो कभी बक्सर में। चूँकि कालिया साहित्यिक आन्दोलनों के सिलसिले में पत्रिकाओं के महत्व को जानता था, यह बख़ूबी देख आया था कि धर्मवीर भारती ने ‘धर्मयुग’ के बल पर क्या-क्या मारके फ़तह किये थे, सो उसने भी एक खिचड़ी पकानी शुरू कर दी। कालिया ने ‘हिन्दी भवन’ के नारंग जी से जिस प्रेस को ख़रीदा था, उससे किसी ज़माने में एक पत्रिका छपा करती थी - ‘आधार,’ जिसके सम्पादक रामावतार चेतन थे जो ‘धर्मयुग’ में कालिया के सह-पीड़ित कन्हैयालाल नन्दन के सम्बन्धी थे - शायद साले या बहनोई। प्रेस के साथ इस पत्रिका को छापने का ज़िम्मा भी कालिया के कन्धों पर आया। ‘आधार’ पुरानी पत्रिका थी, शायद पचास के दशक के मध्य से प्रकाशित होना शुरू हुई थी। कला और साहित्य पर केन्द्रित थी। रामावतार चेतन ख़ुद भी चित्रकार थे और आरम्भिक जोश के ख़त्म हो जाने के बाद उसे अनियमित रूप से प्रकाशित किया करते थे। उनमें कुछ साहित्यिक विवेक अवश्य रहा होगा क्योंकि निकट का सम्बन्धी होने के बावजूद उन्होंने कन्हैया लाल नन्दन को, जो औसत से भी कम प्रतिभा और/या अपील के गीतकार थे, प्रश्रय नहीं दिया था। इधर ‘आधार’ के थकने के संकेत मिलने लगे थे। कालिया को चूँकि नारंग जी ने यह सुविधा दे रखी थी कि वह उनका पैसा उनकी किताबों की छपाई करके चुका दे, इसलिए वह उन दिनों निस्बतन निश्चिन्त था। उसकी पत्नी ममता, जो बम्बई के एस.एन.डी.टी. विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी पढ़ाती थी, अभी इलाहाबाद नहीं आयी थी, इसलिए 1969 की उन गर्मियों में कालिया को ख़रमस्तियों के लिए भी खुली छूट मिली हुई थी। 370, रानी मण्डी पर तरह-तरह के लोग जुटते - ‘दिनमान’ के मेधावी, लेकिन तबाहो-बरबाद पत्रकार रामधनी, सतीश जमाली, प्रभात, ज्ञान, मैं - लेकिन सब-के-सब साहित्य से जुड़े लोग। वह सन्दिग्ध क्राउड, जो बाद में कालिया की महफ़िलों में दिखने लगा, अभी नेपथ्य में था। प्रेस ख़रीदने के महीने-दो महीने बाद ही कालिया ने ‘आधार’ को पुनर्जीवित करने की योजना बनायी, नन्दन और चेतन जी से बातचीत करके उसका एक विशेष अंक प्रकाशित करने की सबील बैठायी और ज्ञान को उस विशेष अंक के सम्पादन के लिए राज़ी कर लिया। अब ज्ञान के लिए इलाहाबाद का मतलब ‘इलाहाबाद प्रेस’ हो गया और कालिया के प्रेस में सुबह से शाम तक बैठकी होने लगी। कालिया को यूँ भी कॉफ़ी हाउस और मुरारी’ज़ में कोई दिलचस्पी नहीं थी। वह धर्मवीर भारती का ‘दरबार’ देख आया था और वैसा ही दरबार रानी मण्डी में, जो भारती के मुहल्ले अतरसुइया से सटा हुआ था, लगाने का इच्छुक था। यह कोई छिपी हुई बात नहीं थी कि प्रभात और मैं ज्ञान ही की वजह से वहाँ जाते थे। अगर ज्ञान ने ‘इलाहाबाद प्रेस’ को अपना नया पेट्रोला न बनाया होता तो मुझे यकीन है, बहुत-से लोग कालिया के यहाँ न जाते - ख़ास तौर पर इलाहाबाद में जिनकी कुछ पूछ थी। कालिया को मालूम था कि पत्रिका, प्रेस और प्रकाशन में कितनी शक्ति है। इसलिए उसने पत्रिका के साथ-साथ कुछ और भी योजनाएँ बनायीं। मसलन ‘वर्ष-1’ के नाम से अमरकान्त पर केन्द्रित भारी-भरकम विशेषांक जिसका सम्पादन उसने ममता को सौंप दिया जो बम्बई से इस्तीफ़ा दे कर इलाहाबाद आ गयी थी। इसी के साथ उसने मेरे मामा को, जिन्होंने ‘रचना प्रकाशन’ नाम से नया-नया प्रकाशन खोला था और लोगों से पैसे ले कर उनके शोध-ग्रन्थ छापते थे, तैयार किया कि वे कुछ ‘पुण्य’ का काम भी करें और साठोत्तरी कहानीकारों की रचनाएँ छापें। सों, विजयमोहन सिंह की ‘टट्टू सवार’ के साथ-साथ ज्ञान, काशीनाथ सिंह, महेन्द्र भल्ला, दूधनाथ सिंह, गोविन्द मिश्र, आदि की एक कतार खड़ी हो गयी जिनका लायज़निंग अधिकारी कालिया था। वही काम जो बाद में ‘आधार प्रकाशन’ के सिलसिले में असद ज़ैदी और मंगलेश वग़ैरा ने किया या फिर ‘वाणी प्रकाशन’ के लिए विष्णु खरे ने।</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(51, 51, 0);"> इस सारे काम के साथ-साथ ‘आधार’ की तैयारी भी चलती रही। रचनाएँ मेरे ख़याल से ‘इलाहाबाद प्रेस’ के पते पर ही आती रहीं, क्योंकि ज्ञान ने मुझे सितम्बर 1969 के एक पत्र में लिखा था कि उसे तब तक ‘पूरी जानकारी’ नहीं थी। बहरहाल, अंक कोई हफ़्ते भर में तो तैयार न होता। विशेषांक था। सो, गर्मियों की कुल छुट्टियाँ ज्ञान ने ‘इलाहाबाद प्रेस’ ही में बितायीं। कालिया, ममता और ज्ञान मिल कर कमलेश्वर की साज़िश को नाकाम करने और सातवें दशक के कथाकारों को जमाने की मुहिम में जुट गये। कालिया और ममता को तो मैं बहुत जानता नहीं था, लेकिन ज्ञान का यह रूप मेरे लिए एकदम नया था। (यह भी सम्भव है कि इसके कुछ और भी कारण थे। सम्भव है, अचेतन रूप से ज्ञान को यह एहसास रहा हो कि वह अपना सर्वश्रेष्ठ दे चुका है। वह ‘घण्टा’ लिख कर ‘कथा’ के प्रवेशांक के लिए मार्कण्डेय को दे चुका था। उसके बाद उसने सिर्फ़ दो कहानियाँ लिखीं - ‘बहिर्गमन’ और ‘अनुभव।’ ‘बहिर्गमन’ हालाँकि ‘घण्टा’ के स्तर की नहीं है, लेकिन फिर भी वह ज्ञान के सामथ्र्य का पता देती है। ‘अनुभव’ तो बिलकुल फ्लॉप हुई। उपन्यास ज्ञान लिख नहीं पाया। इसलिए हो सकता है, मन की अनेक परतों के नीचे छिपे किसी अज्ञात भय का कोई हाथ रहा हो।) बहरहाल, मुझको इस सबसे बड़ी उलझन होती थी। मुझे लगता, ये कैसे साहित्यकार हैं। जम कर लिख रहे हैं, चर्चित हो रहे हैं, प्रकाशन की इन्हें कोई समस्या नहीं है, आर्थिक कठिनाइयाँ भी इनके सामने पिछली पीढ़ी के अनेक लेखकों जैसी नहीं हैं। फिर क्यों ये इतने आशंकित-आतंकित रहते हैं ? यह बात मैं कई बार ज्ञान और कालिया से कह भी देता था। उन्हें नागवार भी गुज़रती थी। दिलचस्प बात यह थी कि दूधनाथ इस बात से बिलकुल अलग-थलग बना हुआ था। उसे मैंने कभी अनाश्वस्त नहीं देखा। दरअस्ल, कालिया पर मोहन राकेश और धर्मवीर भारती का बहुत असर था। उसने इन दोनों से कहानी-कला का गुण कम सीखा था, गुट्टीबाज़ी और ताल-तिकड़म की कला ज़्यादा ग्रहण की थी। नतीजे के तौर पर कालिया के लिए साहित्य सामाजिक सरोकार की नहीं, वरन कैरियर की सीढ़ी थी। इसीलिए जैसे ही ‘आधार’ के विशेषांक का सम्पादन शुरू हुआ तो कालिया ने अपनी चोर चालें शुरू कर दीं।</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(51, 51, 0);"> उन दिनों अशोक वाजपेयी कलेक्टर हो कर सीधी आ गये थे और गाहे-बगाहे इलाहाबाद आया करते थे। धूमिल को उन्होंने उन्हीं दिनों डिस्कवर किया था, कविता में सपाट बयानी के गुण गाते थे, एक ‘मुक्तिबोध पुरस्कार’ की भी योजना उन्होंने बना रखी थी, जिसमें नेमिचन्द्र जैन, भारत भूषण अग्रवाल से ले कर नामवर सिंह आदि तक, निर्णायकों की पचमेल खिचड़ी थी, और पहला पुरस्कार वे धूमिल को देना चाहते थे। ‘आधार’ का सम्पादन चूँकि अब ‘सामुदायिक विकास योजना’ था इसलिए उनके और कालिया के कहने पर ज्ञान ने धूमिल की एक कविता अशोक वाजपेयी के वक़्तव्य के साथ प्रकाशित करने के लिए स्वीकृत की। दिलचस्प बात यह थी कि उसी अंक में ज्ञान ने विनोदकुमार शुक्ल की एक लम्बी कविता ‘लगभग जयहिन्द’ भी स्वीकृत की थी, और हालाँकि बाद में विनोद कुमार शुक्ल अशोक वाजपेयी के ख़ासमख़ास बने और अशोक उन्हें दसियों तरह लिये-लिये रहे, यहाँ तक कि अभी कुछ वर्ष पहले पोलिश कवि तादेउष रोज़ेविच के सिलसिले में अनेक हकदार लोगों को नज़रन्दाज़ करके शुक्ल जी को पोलैण्ड भी ले गये, पर ‘आधार’ के उस अंक में वक्तव्य अशोक ने धूमिल पर ही लिखा। यह भी रोचक है कि अकवियों को उनकी विचारशून्यता के लिए लताड़ने वाले अशोक वाजपेयी को धूमिल की कविता के वैचारिक अन्तर्विरोध नज़र नहीं आये। और यह भी कि कुछ ही साल बाद अशोक जी सपाट बयानी की लानत-मलामत करने लगे और पेड़-पौधा-फूल-बच्चा अन्वेषक मण्डल के रहबर बन गये।</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(51, 51, 0);"> ख़ैर, उन दिनों मैंने भी एक लम्बी कविता लिखी थी जो कई हादसों का शिकार हो गयी थी। दरअस्ल, कविता तो मैं 1967 के दिसम्बर में अपने संग्रह के प्रकाशित होने के बाद ही से लिखने लगा था और वह धीरे-धीरे रुक-रुक कर बढ़ती रही थी। जब कालिया नवम्बर में इलाहाबाद आया तो मैं कविता को मुकम्मल करने का इरादा बाँध रहा था। कालिया ने उसके कई अंश सुने थे और कहा था कि मैं उसे पूरा करूँ, वह ‘आधार’ का कुछ डौल बैठा रहा है, बैठ गया तो कविता छाप देगा। मैंने कविता पूरी करके उसका अन्तिम प्रारूप तैयार कर लिया। लेकिन ‘आधार’ का कुछ अता-पता ही नहीं था। तभी कानपुर से हृषीकेश आये और उन्होंने बताया कि वे ‘शतपथ’ के नाम से एक पत्रिका प्रकाशित करने जा रहे हैं, मैं यह कविता उन्हें प्रवेशांक के लिए दे दूँ। उन दिनों एक नये कवि के लिए यह प्रस्ताव कितना आकर्षक था, इसे आज के नये कवि जो छोटी-छोटी कविताएँ लिखते हैं, नहीं समझ सकते। कविता लगभग तीसेक पृष्ठ की थी और चूँकि हम लोगों ने सिर्फ़ छोटी पत्रिकाओं में ही लिखने का व्रत ले रखा था (मेरी कोई रचना ‘धर्मयुग’ या ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में नहीं छपी), इसलिए उसका छपना वैसे भी मुश्किल था क्योंकि बहुत-सी छोटी पत्रिकाएँ तो इतने ही पृष्ठों की होती थीं। आज तो ख़ैर सेठों की रंगीन, चिकनी, व्यावसायिक पत्रिकाओं का विरोध करने वाली लघु पत्रिकाएँ ख़ुद चिकनी, रंगीन और व्यावसायिक ही नहीं, स्थूलोदर भी हो गयी हैं, मगर वह ज़माना दूसरा था। यही नहीं, बल्कि अभी वह प्रथा भी शुरू नहीं हुई थी जब लघु पत्रिकाएँ लम्बी कविताओं को अलग से छोटी पुस्तिकाओं के रूप में छापने लगीं। लिहाज़ा, मैंने कविता हृषीकेश को दे दी। इसके कुछ ही दिन बाद मुझे नामवर जी का एक पत्र मिला कि उन्हें किसी ने बताया है कि मैंने एक लम्बी कविता लिखी है। अगर मैं चाहूँ तो उन्हें भेज दूँ, वे उसे ‘आलोचना’ में प्रकाशित करने की सोच सकते हैं। मैंने नामवर जी को सारी स्थिति से अवगत करा दिया। नामवर जी को शायद यह बात नागवार गुज़री कि हिन्दी के एक अदना-से कवि ने उनका आग्रह नहीं माना, क्योंकि दो-एक महीने बाद जब यह साफ़ हो गया कि हृषीकेश ‘शतपथ’ नहीं निकाल पायेंगे और मैंने कविता नामवर जी को भेजनी चाही और उन्हें पत्र लिखा तो नामवर जी ने उस पर विचार करने से भी मना कर दिया।</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(51, 51, 0);"> इस बीच ‘आधार’ की योजना बन चुकी थी। कालिया ने एक तीर से कई निशाने साधने के लिए उसका सम्पादन मूल योजना के अनुसार ख़ुद करने बजाय ज्ञान को सौंप दिया था। अब वह छाया-सम्पादन भी कर सकता था और ज्ञान को अपने साथ मिलाये भी रख सकता था। चूँकि ज्ञान और कालिया, दोनों मेरी कविता सुन चुके थे, सराह चुके थे, इसलिए जब ‘आधार’ के निकलने की बात पक्की हुई तो मुझे बड़ी आशा बँधी कि इसमें कविता छप जायेगी। ज्ञान ने एक अस्पष्ट-सी हामी भी भर दी थी। लेकिन जैसे-जैसे विशेषांक का काम बढ़ा, कालिया ने अपनी पैंतरेबाज़ी तेज़ कर दी। सबसे पहले तो उसने धूमिल और विनोदकुमार शुक्ल पर कसीदे कहने शुरू किये। इसमें किसी को क्या एतराज़ होता, पर उद्देश्य कुछ और ही था। यह चाल थी ज्ञान को प्रसन्न किये रखने की। फिर कालिया, ने बड़ी चाबुकदस्ती से इस बात का प्रबन्ध किया कि उसकी भी कहानी विशेषांक में शामिल हो और सिर्फ़ शामिल ही न हो, बल्कि उस पर भी, विशिष्ट रचना के नाते, वैसी ही टिप्पणी जाये जैसी धूमिल की कविता पर जा रही थी। (विडम्बना यह है कि धूमिल की कविता पर टिप्पणी अशोक लिख रहे थे, कालिया को कहानी पर टिप्पणी लिखने के लिए कौन मिला - कोई नया या सहकर्मी लेखक नहीं, बल्कि आबाल वृद्ध डॉ. बच्चन सिंह!) कालिया की यह फ़ितरत थी। उसके यहाँ अगर कोई लेख छपने के लिए आया होता, वह कहानी पर होता, तो कालिया उसमें अपना नाम जोड़ देता, या किसी विरोधी का नाम काट देता। इसे मैं ज्ञान की दोस्तनवाज़ी ही कहूँगा कि उसने विशेषांक के सम्पादन में कालिया की दस्तन्दाज़ी को चलने दिया। बाद में जब कालिया ने भैरव जी के साथ ऐसा करने की कोशिश की थी तो भैरव जी ने उसे बुरी तरह डपट दिया था। मगर ज्ञान यार-बाश था और कालिया के इन हस्तक्षेपों को सहयोगी स्पिरिट में लेता था। लेकिन इस सब का नतीजा यह हुआ कि ‘आधार’ की सामग्री का जब अन्तिम चयन होने लगा तो अंक छपने से ठीक पहले ज्ञान ने मेरी कविता यह कह कर वापस कर दी कि रचनाएँ बहुत आ गयी हैं, सब लम्बी हैं, पृष्ठ संख्या कम पड़ गयी है, मैं कोई छोटी रचना दे दूँ। इसमें ऑपरेटिव क्लॉज़ पृष्ठ संख्या का था, क्योंकि वही एक चीज़ थी जिस पर कालिया का पूरा नियन्त्रण था और जिसे वह अपनी-सी करवाने के लिए इस्तेमाल कर सकता था और बेदाग़ भी बना रह सकता था। मुझे बुरा इस बात का भी लगा कि ज्ञान एक दिन अचानक बिना बताये जबलपुर चला गया था और वहाँ से उसने मुझे पत्र लिख कर कविता के लिए मना कर दिया था। अगर सचमुच यह उसका अपना निर्णय होता तो भी शायद मुझे बुरा न लगता। लेकिन मैं तब तक कालिया की हिट लिस्ट में आ गया था और कालिया ने तय कर लिया था कि वह अगर ख़ुद मुझे धूल नहीं चटा सकता तो यह काम ज्ञान से कराके दोहरा प्रतिहिंसक आनन्द ले। उसने सामग्री और अंक की पृष्ठ संख्या के बारे में अन्त तक अलसेठ डाले रखी थी। मुझे इस बात का भी बहुत बुरा लगा था कि ज्ञान ने आमने-सामने बात करने की बजाय चिट्ठी-पत्री का सहारा लिया था। मैंने ज्ञान को पत्र लिख कर समझाया कि मित्र, तुम इस कविता के साथ गुज़रे हादसों से परिचित हो, इस कविता को सराह चुके हो, अगर तुम गुंजाइश न निकालोगे तो और कौन निकालेगा। ऐसे मरहलों पर दोस्त ही मददगार साबित होते हैं। यूँ भी ‘आधार’ में दस-बीस पृष्ठ बढ़ जाने से कोई कहर नहीं टूटने वाला था। रामावतार चेतन कालिया पर नालिश न करते। लेकिन कालिया ने ज्ञान के गिर्द ऐसी फ़ोर्स फ़ील्ड रच दी थी कि उस पर मेरे किसी तर्क का असर नहीं हुआ। मैं बहुत विक्षुब्ध हुआ और मैंने फ़ैसला किया कि ज्ञान को कोई रचना न दूँ। लेकिन तब मेरे पिता ने कहा कि ऐसा करना कालिया की साज़िश को पूरी तरह सफल होने देना होगा। मुझे ज्ञान पर क्रोध करने की बजाय उसे कोई और रचना दे देनी चाहिए। मैंने ज्ञान को दूसरी कविता दे दी जो ‘आधार’ के उस अंक में छपी। लेकिन मेरे दिल में खटक रह गयी। ज्ञान के साथ दोस्ती के दौरान यह दूसरा झटका था।</span><br /></div><div style="text-align: right;"><span style="font-weight: bold; color: rgb(255, 0, 0);">(जारी)</span><br /></div>Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3780821805422068162.post-69271520626142522032011-01-20T22:11:00.000-08:002011-01-20T22:13:39.782-08:00देशान्तर<div style="text-align: justify;"> <span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 0, 0);"></span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">नीलाभ के लम्बे संस्मरण की चौथी क़िस्त</span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(0, 102, 0);">पिछले</span><span style="font-weight: bold; color: rgb(0, 102, 0);"> 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा</span><br /> <span style="font-weight: bold; color: rgb(0, 102, 0);">और एक लम्बी मैत्री की दास्तान</span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(51, 0, 51);">ज्ञानरंजन के बहाने - ४</span><br /><br /><span style="color: rgb(204, 0, 0);"></span><br /><span style="color: rgb(204, 0, 0);"></span><br /><span style="color: rgb(204, 0, 0);"></span><br /><span style="color: rgb(51, 0, 0); font-weight: bold;">दरअसल, यह मध्यवर्गीय सामाजिक परिवेश की एक विडम्बना ही है कि जैसे-जैसे हम बचपन से किशोरावस्था और किशोरावस्था से यौवन और परिपक्वता की तरफ़ बढ़ते हैं, हम अपनी सहज अबोधता खोते चले जाते हैं। हमारी नैसर्गिक निश्छलता पर अनेक तरह की परतें चढ़ती चली जाती हैं और सम्बन्धों में भी जो पारदर्शिता रहनी चाहिए, वह नहीं रह पाती। मैं तब इस तथ्य से वाकिफ़ नहीं था और एक तरह से लगभग उसी मनोलोक में विचरण कर रहा था जिसका ख़ाका बच्चन जी ने ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’ में अपने और कर्कल और श्रीकृष्ण के सिलसिले में पेश किया है, या फिर जिसे अमरकान्त ने अपने अद्भुत लघु उपन्यास ‘सूखा पत्ता’ में चित्रित किया है। शायद यह भी इस सामाजिक अप्रेण्टिसशिप ही का तकाज़ा है कि हम ठोकरें खा कर ही सीखते हैं। ज्ञान के सिलसिले में मैं इतना निष्कवच, इतना वल्नरेबल था कि उसके साथ सम्बन्धों का यह जटिल शंक्वाकार चक्कर कई सोपानों से हो कर गुज़रा।</span><br /><span style="color: rgb(51, 0, 0); font-weight: bold;"> पहला झटका भूकम्प के संकेत जैसा बेहद हलका था। एक दिन ज्ञान के घर पहुँचने पर पता चला कि वह फ़रार है। कहाँ गया है, कब आयेगा, इसकी कोई सुन-गुन वह नहीं छोड़ गया था। दो-तीन तक ज्ञान का कुछ सही अता-पता नहीं चला। फिर धीरे-धीरे राज़ खुला कि ज्ञान ने सुनयना से शादी कर ली है। वह गुपचुप सुनयना से मिलता रहता था, यह बात मुझे मालूम थी। कई बार मैं उसके यहाँ जा रहा होता तो सुनयना उसके घर से लौटती हुई दिखाई देती। वह भी लूकरगंज ही में रहती थी। उसके पिता सूर्यनाथ नागर वैद्य थे और नरेश जी (कवि-कथाकार नरेश मेहता) की गली के सिरे पर उनका बड़ा-सा मकान था, हमारे घर और ज्ञान के घर के लगभग बीचों-बीच। लेकिन ज्ञान कायस्थ था और नागर जी को अपने गुजराती ब्राह्मण होने का गर्व। ऊपर से मुहल्ले का मामला और तमाम तरह के प्रवादों और हंगामों की आशंका। साठ के दशक का लूकरगंज अभी इतना आधुनिक नहीं हुआ था। वह प्रेम को तो बरदाश्त कर सकता था, बशर्ते कि वह गुपचुप हो। लेकिन उसकी स्वाभाविक परिणति यही होती थी कि प्रेमी-प्रेमिका परम चूतियाये से ‘एक प्राण दो शरीर’ और ‘अलग हो कर भी सदा सर्वदा तुम्हारा (या तुम्हारी)’ होने की क़समें खाते या ‘तुम मुझे भुला देना’ जैसे वाक्य दोहराते हुए, माता-पिता द्वारा तय किये गये रिश्तों को स्वीकार कर ‘सुखी जीवन’ बिताते हुए अन्त को प्राप्त होते। भागने-भगाने, प्राणों की आहुति देने या बंगालियों की प्रबल उपस्थिति के बावजूद देवदास बनने का कोई प्रकरण इस योजना में फ़िट नहीं बैठता था। इसीलिए हम सब उसके इस साहसिक प्रेम से रोमांचित होते रहते थे। मेरे मन में चूँकि शुरू ही से घर और स्कूल में यह बैठा दिया गया था कि दूसरों की निजी ज़िन्दगी में बहुत खोदा-खादी नहीं करनी चाहिए, इसलिए इस विषय में जितना कुछ ज्ञान बताता, मैं उससे ज़्यादा अपनी तरफ़ से उत्खनन करने का प्रयत्न न करता। लेकिन मुझे झटका इसलिए लगा क्योंकि इस राज़दारी की एक सीमा अचानक ही निर्धारित कर दी गयी थी और सीमा ज्ञान ने ‘बोल्ट फ़्रॉम द ब्लू’ की तरह आयद की थी। हो सकता है, जैसा कि मैंने कहा, मैं ख़ुद को ज्ञान के इतना क़रीब मानने लगा थ कि मुझे उम्मीद थी कि मैं अन्त तक उसके विश्वास का पात्र बना रहूँगा। मैं ख़ुद ज्ञान को बहुत-सी बातें बता देता था, जिन्हें मैंने सबसे छिपा कर मन में रखा होता। बहरहाल, ज्ञान और सुनयना का विवाह जल्द ही दोनों परिवारों को इतना भर स्वीकृत हो गया कि उन्हें छिपे रहने की ज़रूरत न पड़ी। बनारस और कुछ अन्य नगर घूम-घाम कर वे कुछ ही दिनों में वापस आ गये और खुल कर सबसे मिलने लगे। मगर मेरे सामाजिक प्रशिक्षण में यह एक इबरतनाक वाकया था।</span><br /><span style="color: rgb(51, 0, 0); font-weight: bold;"> चूँकि ज्ञान मुख्य रूप से इस कोर्टशिप की वजह से इलाहाबाद में डटा हुआ था, इसलिए विवाह के बाद उसने जबलपुर जा कर फिर से अध्यापन शुरू कर दिया। लेकिन इसके बावजूद उन तमाम वर्षों के दौरान - ग़ालिबन जब तक उसने ‘पहल’ का सम्पादन नहीं शुरू किया - वह अक्सर इलाहाबाद आता और दिनों-दिन बना रहता। जैसे पक्षी नये नीड़ बनाते वक़्त भी कुछ समय तक अपने पुराने घोंसलों की ओर पलट-पलट आते हैं, ज्ञान भी दौड़-दौड़ इलाहाबाद चला आता था। उसने मुझे एक पत्र में लिखा भी था कि इलाहाबाद से जबलपुर जाना वह भावनात्मक स्तर पर सह नहीं पा रहा था। इसलिए बीच-बीच में तरोताज़ा होने के लिए वह जबलपुर से इलाहाबाद चला आता। और उन दिनों, जब भी ज्ञान इलाहाबाद रहता, उसका वही पुराना मस्त रंग उभर आता। </span><br /><span style="color: rgb(51, 0, 0); font-weight: bold;"> 1960 के दशक का इलाहाबाद था भी बहुत जीवन्त। यह शहर का उत्कर्ष काल था - हर लिहाज़ से। लेकिन यह जीवन्तता बहुत दिनों तक कायम नहीं रहने वाली थी। कुछ तो सत्तर का दशक शुरू होने के बाद बदलती हुई सामाजिक-राजनैतिक और आर्थिक परिस्थितियों ने इसका ‘राम नाम सत्त’ कर दिया, रही-सही कसर बाहर से आने वाले कुछ ऐसे लोगों ने पूरी कर दी, जिन्हें यह अन्दाज़ा ही नहीं था कि वे किस चीज़ को नष्ट किये दे रहे हैं। बाहर से आने वालों में पहला नाम सतीश जमाली का था और दूसरा रवीन्द्र कालिया का। ताराशंकर बन्द्योपाध्याय ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘आरोग्य निकेतन’ में तरह-तरह की बीमारियों की चर्चा की है। कुछ बीमारियाँ तो अन्दर ही से पैदा होती हैं, पूर्वजों की देन हैं वे या फिर स्वयं अपने अमिताचार की। लेकिन कुछ बीमारियाँ वैशाख की आँधी की तरह बाहर से आती हैं। तारा बाबू ने इन्हें ‘आगन्तुक व्याधियों’ का नाम दिया है। इलाहाबाद के बहुत-से लोग सतीश जमाली और रवीन्द्र कालिया को उनके पीठ पीछे आगन्तुक व्याधियाँ ही कहा करते थे।</span><br /><span style="color: rgb(51, 0, 0); font-weight: bold;"> 0</span><br /><span style="color: rgb(51, 0, 0); font-weight: bold;">पठानकोट का सतीश स्याल उर्फ़ प्रिंस सतीश प्रेमी किन रासायनिक प्रक्रियाओं से होता हुआ सतीश जमाली बना, इसे उसके अलावा शायद और कोई नहीं जानता। लेकिन जनवरी 1968 में इलाहाबाद आने से ठीक पहले वह सोनीपत में ऐटलस साइकिल में काम करता था, अकवितावादियों की जमात में शामिल था और अकविता के झण्डाबरदारों से भी ज़्यादा वीभत्स, कुत्सित, अनास्था-भरी और विचारशून्य कविताएँ लिखता था। जगदीश चतुर्वेदी, नरेन्द्र धीर और सौमित्र मोहन, वग़ैरह ने तो ख़ैर एक ख़ास किस्म की सोच के तहत अकविता का आन्दोलन खड़ा किया था, जो नेहरू युग से मोहभंग का कृष्ण पक्ष था। मगर सतीश जमाली के सामने इस सोच-वोच का कुछ मतलब नहीं था। वह तो किसी तरह चर्चा में आना चाहता था, इसलिए उतनी ही झूठी और फ़े क ‘अकविताएँ’ लिखता था, जितनी फ़ेक और झूठी जनोन्मुख रचनाएँ उसने बाद में अचानक रातों-रात चोला बदल कर भैरव-मार्कण्डेय-अमरकान्त-शेखर जोशी के वामपन्थी ख़ेमे का पाँचवाँ सवार बनने के बाद लिखनी शुरू कीं। सतीश के इलाहाबाद आने से पहले ही यह ख़बर इलाहाबाद पहुँच चुकी थी कि श्रीपत जी रामनारायण शुक्ल की ख़ाली की हुई जगह को भरने के लिए ‘कहानी’ में सहायक सम्पादक के तौर पर उसे ला रहे हैं। उन्हीं दिनों दिसम्बर 1967 में जब मैं दिल्ली गया हुआ था और मेरे चाचा नरेन्द्र शर्मा ‘मेनस्ट्रीम’ के हिन्दी संस्करण ‘मुक्तधारा’ को निकालने की तैयारियाँ कर रहे थे जिसमें न केवल अश्क जी और मैंने दिल्ली आ कर हाथ बँटाने का वादा कर रखा था, बल्कि इलाहाबाद से अवध प्रताप सिंह और त्रिलोकी नाथ श्रीवास्तव जैसे युवा पत्रकारों को भी उसके सम्पादकीय विभाग में नियुक्त करवाने का बीड़ा ले रखा था, एक शाम कनाट प्लेस के टी हाउस के बाहर मुझे मझोले कद का एक पतला-छरहरा, गोरा युवक मिला, जिसके प्रेत-सरीखे निर्वर्ण चेहरे पर गहरी लाइनें पड़ी हुई थी। वह ड्रैकुला का हिन्दुस्तानी संस्करण जान पड़ता था। उसने बड़ी गर्मजोशी से हाथ मिलाते हुए बताया कि वह सतीश जमाली है और जल्द ही इलाहाबाद आ रहा है। मैंने उससे कहा कि वह चिन्ता न करे, यह ख़बर इलाहाबाद पहुँच चुकी है।</span><br /><span style="color: rgb(51, 0, 0); font-weight: bold;"> ‘मुक्तधारा’ के सिलसिले में अश्क जी को तीन-चार महीने दिल्ली रहना पड़ा, मैं भी दो-तीन बार गया-आया। आख़िरी बार मार्च में जब मैं अपनी सगाई कराके लौटा तो इस बीच सतीश जमाली इलाहाबाद आ कर जम चुका था और शुरू-शुरू में विश्वविद्यालय के पास ग़ालिबन कर्नलगंज के सामने ‘प्रभात होटल’ में रहता था। चूँकि ‘कहानी’ का कार्यालय सिविल लाइंस के चौराहे पर ‘सरस्वती प्रेस’ में था इसलिए उसका दफ़्तर भी हमारी यायावरी का एक पड़ाव हो गया। प्रभात का क़ारूरा तो ख़ैर, सतीश से बहुत नहीं मिला, लेकिन ज्ञान और मैं अक्सर ‘सरस्वती प्रेस’ की सीढ़ियाँ चढ़ कर ‘कहानी’ के दफ़्तर चले जाते जहाँ उस गोल कमरे में जिसकी खिड़कियाँ चौराहे की तरफ़ खुलती थीं सतीश बैठा ‘कहानी’ का काम कर रहा होता। उसी की बग़ल में उसके सहायक डॉ. धनंजय पाण्डे बैठे होते, जो ईश्वर शरण कॉलेज के हिन्दी विभाग में बतौर अध्यापक नियुक्त होने से पहले ‘कहानी’ में काम करते थे और डॉ. धनंजय के नाम से धड़ाधड़ समीक्षाएँ और आलोचनात्मक लेख लिख कर अपना सिक्का जमाने की कोशिशें कर रहे थे। कॉलेज में नियुक्त होने के बाद वे भी उन हज़ारों-हज़ार साहित्याकांक्षी युवकों की तरह हिन्दी विभाग द्वारा उदरस्थ कर लिये गये जो बड़े मंसूबे बाँध कर दुनिया फ़तह करने चलते हैं, मगर किसी कॉलेज या दफ़्तर या व्यापारिक संस्थान या बैंक में गुम हो जाते हैं। कभी-कभी सतीश काम ख़त्म करके पाँच-साढ़े पाँच बजे हमें कॉफ़ी हाउस या मुरारी’ज़ में आ मिलता। </span><br /><span style="color: rgb(51, 0, 0); font-weight: bold;"> मैंने तब तक प्रकाशन का काम देखना शुरू कर दिया था, लेकिन अभी मैं उसमें रमा नहीं था, इसलिए थोड़ा-सा बहाना मिलते ही भाग निकलता। कॉफ़ी हाउस उसी दरबारी बिल्डिंग में था जिसमें हमारा प्रकाशन। हमारे साथ ही ‘लोकभारती प्रकाशन’ था। दौ सौ क़दम के फ़ासले पर ‘सरस्वती प्रेस’ और उसी इमारत में नीचे मुरारी’ज़। लिहाज़ा दोपहर बाद से ही लोगों का जुटना शुरू हो जाता। प्रभात कल्याणी देवी पर रहता था। फ़ुलवक़्ती कवि था। (ज्ञानेन्द्रपति ने तो अपनी स्वाभाविक चतुराई से कारा कल्याण अधिकारी के पद पर दस साल काम करके और कुछ अन्य अनुल्लेखनीय तरीकों से ‘कविता का कार्यकर्ता’ बनने के लिए पेंशन आदि का जुगाड़ कर लिया और यूँ भी वह अत्यन्त सम्पन्न परिवार से है), लेकिन प्रभात हिन्दी कवियों की पुरानी परम्परा को भी एक क़दम आगे बढ़ाने के फेर में था। उसने निराला या शमशेर की तरह भी जीविकोपार्जन का कोई डौल कभी नहीं बिठाया था। मानव जी स्थानीय कॉलेज में अध्यापक थे और अध्यापन के अलावा भी किताबें वग़ैरा लिख कर आमदनी के साधन जुटाते थे। प्रभात के अलावा उनके और भी बच्चे थे। लेकिन प्रभात की कविताई में उन्हें जाने कैसी घातक आस्था थी कि न तो कभी उसके पढ़ाई छोड़ने पर उन्होंने कुछ कहा, न काम न करने पर। ऊपर से वे उसे रोज़ के ख़र्च के लिए कुछ पैसे भी देते थे। सस्ती का ज़माना था। चाय का कप दस पैसे में और कॉफ़ी चवन्नी में मिलती थी। प्रभात कल्याणी देवी से रोज़ पैदल कॉफ़ी हाउस आता।</span><br /><span style="color: rgb(51, 0, 0); font-weight: bold;"> सतीश उन दिनों इलाहाबाद के गणित को समझने की कोशिश कर रहा था और इलाहाबादी उसे परम ज़ायका तत्व मान कर उसका ‘भक्षण’ करते रहते। एक दिन ज्ञान और मैंने मिल कर उसे विश्वास दिला दिया कि दुर्दिन में बड़े-बड़े साहित्यकारों का स्खलन हुआ है और यह जो ‘भाँग की पकौड़ी’ के नाम से अश्लील साहित्य फ़ुटपाथों पर या सन्दिग्ध क़िस्म की किताबों की दुकानों पर मिलता है, उसकी बहुत-सी किताबें दरअस्ल कमलेश्वर ने लिखी हैं। कुछ दिन बाद दूधनाथ ने उससे कहा कि इलाहाबाद में हाल-चाल पूछने पर जवाब देने का एक ख़ास तरीका है। जब वह लोगों से मिले और लोग उसका हाल-चाल पूछें तो उसे कहना चाहिए - जी, मैं तो मउगड़ा हूँ।</span><br /><span style="color: rgb(51, 0, 0); font-weight: bold;"> उधर, सतीश ने अपना चर्ख़ा शुरू कर दिया। इलाहाबाद में थोड़े-बहुत पैर जमते ही उसने, दिल्ली के उसके दोस्तों की भाषा में कहें तो, गन्द फैलाना शुरू कर दिया। वह कई बार बड़े सीधेपन से दूसरे के मुँह पर बड़ी आपत्तिजनक बात कह जाता और कोई-न-कोई टुच्ची बात कह कर अगले आदमी को अप्रतिभ करने की कोशिश करता। इस चक्कर में वह कई बार पिटते-पिटते बचा। जब वह देखता कि ख़ुद कुछ नहीं कर पायेगा तो वह किसी और मूर्ख को बन्दूक की तरह इस्तेमाल करता। इसी तरह उसने एक बार डॉ. धनंजय से मेरे बारे में एक झूठा पत्र पटना से डॉ. गोपाल राय के सम्पादन में निकलने वाली ‘समीक्षा’ पत्रिका में छपवा दिया था, जिसके लिए डॉ. धनंजय को लिखित माफ़ी माँगनी पड़ी थी। दिल्ली में अगर सतीश ने अकविता का दामन थामा हुआ था तो इलाहाबाद में उसने कम्यूनिस्टों का दामन पकड़ लिया। वैसे, उसकी असलियत क्या थी, यह कोई नहीं जानता था। लोग उसे सी.आई.ए. के एजेंट से ले कर पाकिस्तान में भारत का जासूस तक मानते थे और वह भी इन अफ़वाहों को अपनी बातों और हरकतों से हवा देता रहता। एक तरफ़ उसकी बैठकी हम लोगों के साथ थी, दूसरी तरफ़ उसने भैरवप्रसाद गुप्त और उनकी मण्डली की सदस्यता ली हुई थी और तीसरी तरफ़ वह जालन्धर के मोटर पार्ट्स विक्रेता हरनाम दास सहराई के इलाहाबाद आने पर उसके साथ घूमता-फिरता पाया जाता। सहराई ने पंजाबी में बड़े मोटे-मोटे ऐतिहासिक उपन्यास लिख रखे थे और वृन्दावन लाल वर्मा को भी अपने सामने हेच समझता था। वह धन्धे के सिलसिले में तो इलाहाबाद आता ही था, लगे हाथ अपना कोई उपन्यास अनुवाद या प्रकाशन के लिए भी लिये रहता। बम्बई की प्रकाशन संस्था ‘वोरा एण्ड कम्पनी’ ने, जिसकी शाखा इलाहाबाद में थी, शायद उसके कुछ उपन्यास छापे थे, कुछ ‘लोकभारती’ ने। सतीश ने भी शायद उसके किसी उपन्यास का अनुवाद किया था। लेकिन सतीश की असली दिलचस्पी सहराई की मुफ़्त की दारू पीना था। सहराई अक्सर ज़्यादा पी लेता और टुन्न हो जाता। ऐसे में ही एक बार वह स्टेशन की सीढ़ियों से गिर गया और चोट खा गया तो अगले दिन उसने भयंकर गालियाँ हवा में फेंकते हुए लोगों को बताया कि सतीश उसे चोटिल हालत में ही छोड़ कर भाग गया था। </span><br /><span style="color: rgb(51, 0, 0); font-weight: bold;"> बहरहाल, वक़्त ने लकड़बग्घे की वह नकली खाल घिस डाली जो सतीश ने ओढ़ रखी थी और अन्दर से वह एक मरकहा मेढ़ा निकल आया। लोगों को सींग मारने की आदत तो उसकी नहीं गयी, पर धीरे-धीरे इलाहाबाद ने उसे एक क्रॉनिक बीमारी की तरह स्वीकार कर लिया। सतीश ने भी इसी शरण्य में डेरा जमा लिया। एक स्थानीय भटनागर परिवार में शादी की, ‘कहानी’ छोड़ कर हिन्दी की गौरवशाली लेखक-प्रकाशक परम्परा में अपना ‘चित्रलेखा प्रकाशन’ खोला, पत्रिका निकाली और दसियों तरह के पापड़ बेले। कहानियाँ वह अब भी यदा-कदा लिखता है, लेकिन गठिये ने उसे काफ़ी मन्द कर दिया है। </span><br /><span style="color: rgb(51, 0, 0); font-weight: bold;"> पठानकोट का प्रिंस सतीश ‘प्रेमी’ और दिल्ली-इलाहाबाद का सतीश जमाली अब अंग्रेज़ी मुहावरे के अनुसार ‘रिवर्सल टू टाइप’ की प्रक्रिया से सतीश कुमार स्याल बन गया है, जैसा कि उसके बेटे की शादी के कार्ड पर छपा था। हाल में, जब से हिन्दुस्तान में मीडिया ने आतंकवाद का भूत जगाना शुरू किया है, सतीश अब ‘जमाली’ से भी घबराने लगा है। पिछले दिनों यह सोच कर कि स्याल का उसका कुल नाम भी इधर के लोग समझें या न समझें, या कहीं रॉ के लोग यह न समझ लें कि उसने ’सतीश’ को तख़ल्लुस की तरह असली नाम के पहले जोड़ रखा है, उसने सतीश कुमार खत्री का नाम अपनाने की भी सोची। अपनी अकवितावादी रचनाओं को वह अब तस्लीम नहीं करता और बेटे की शादी में एक परम्परागत पंजाबी बना हुआ था। पिछले कई वर्षों से वह अपने संस्मरण लिख रहा है। </span><br /><span style="color: rgb(51, 0, 0); font-weight: bold;"> एक विफल रचनाकार कितना कटखना और द्वेषग्रस्त हो सकता है, इसका सबूत यह है कि वर्षों से सतीश ने नये लेखकों को निरुत्साहित करने का बीड़ा उठा रखा है। अपने ठेठ पठानकोटी लहजे में वह पूछता है, ‘लिखने से क्या होगा जी ? क्या मिलेगा ? देखो यशपाल को। मुक्तिबोध को देखो। क्या बना लिखने से ?’ वह एक के बाद दूसरा नाम गिनाता है और यह निष्कर्ष निकालता है कि साहित्य-वाहित्य सब बेकार का मशग़ला है। उसके साथ ऐसी ही एक मुलाक़ात के बाद युवा कवि अनिल सिंह मेरे पास काफ़ी त्रस्त-ध्वस्त आया था। और उसे नॉर्मल करने में मुझे दो घण्टे लग गये थे। </span><br /><span style="color: rgb(51, 0, 0); font-weight: bold;"> 0</span><br /><span style="color: rgb(51, 0, 0); font-weight: bold;">सतीश जमाली का आना अगर इलाहाबाद में आने वाली तब्दीलियों का संकेत था तो रवीन्द्र कालिया का आना उन तब्दीलियों का पहला चरण। यूँ तो मैं चार साल पहले 1964 में ‘परिमल’ के कहानी सम्मेलन के दौरान कालिया से मिल चुका था, लेकिन वह मिलना, बस मिलना ही था। अलबत्ता, अश्क जी से उसकी ख़तो-किताबत थी। कालिया भी जालन्धर ही का रहने वाला था, इस नाते ख़ुद को हमारा हमवतनी मानता था। चूँकि वह मोहन राकेश का शिष्य रह चुका था जिनसे हमारे गहरे पारिवारिक ताल्लुक़ात थे, इसलिए भी वह हमारे लिए क़ुरबत महसूस करता था। रहा हमारा परिवार, तो वह वैसे ही बहुत खुला था, ऊपर से अगर कोई जालन्धर का हुआ तो नैकट्य की अनुभूति और सघन हो जाती थी। लेकिन इस सबके बावजूद कालिया एक ‘आउटसाइडर’ ही था। जालन्धर से निकलने के बाद उसने कई तरह के पापड़ बेले थे। हिसार में अध्यापन, केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय में नौकरी और ‘धर्मयुग’ में धर्मवीर भारती के मातहत अपने जैसे दूसरे कई लोगों के साथ उप-सम्पादकी। कालिया ने कुछ चर्चित कहानियाँ लिखी थीं, जिनमें ‘नौ साल छोटी पत्नी’ की चर्चा कहानी की ख़ूबियों के कारण नहीं, बल्कि इसलिए रही थी कि कुमार विकल को शक गुज़रा था कि यह कहानी कालिया ने उस पर लिखी है और उसने कालिया की पिटाई कर दी थी। कालिया की शुरू की कहानियों पर एक ही साथ राकेश और हैमिंग्वे का असर था। उसकी कहानियों में अक्सर जुमलेबाज़ी के पैंतरे भी होते, मगर जिस जुमलेबाज़ी को ज्ञान अन्त तक शमशीर की तरह इस्तेमाल करता रहा, वह कालिया के हाथों में आ कर धीरे-धीरे कपड़े पीटने वाली मुँगरी बनती चली गयी और सामाजिक ताने-बाने के फूसड़े उड़ाने लगी। आगे चल कर यह ‘ए बी सी डी,’ और ‘रूप की रानी चोरों का राजा’ जैसी कहानियों के लद्धड़ गद्य में और ‘ग़ालिब छुटी शराब’ के अन्तर्दृष्टिविहीन छिछलेपन को प्राप्त होने वाली थी, जिसमें पिछले चालीस वर्षों के दौरान कालिया के उत्तरोत्तर स्खलन का भी हाथ है। लेकिन 1968 में इलाहाबाद आने से पहले कालिया अपने उस्ताद मोहन राकेश की साज़िश और इस साज़िश के चलते धर्मवीर भारती के परपीड़न का शिकार हो कर ‘धर्मयुग’ छोड़ चुका था और बम्बई ही में अपने किसी साथी की साझेदारी में ‘स्वाधीनता’ के नाम से एक प्रेस चला रहा था। दिल्ली और बम्बई की चेलागीरी ने उसे और कुछ सिखाया हो या नहीं, चाबुकदस्ती ज़रूर सिखा दी थी। दिल्ली से चलने से पहले उसने भारत भूषण अग्रवाल की भतीजी ममता से विवाह कर लिया था जो ख़ुद हिन्दी में कहानियाँ और अंग्रेज़ी में कविताएँ लिखती थी। हिन्दी साहित्य के स्थायी सिंहस्थ समधियाने को फलक पर आने में अभी वर्षों बाक़ी थे, लेकिन कालिया पहले ‘लूज़ निट’ समधियाने में शामिल हो गया था जिसके एक छोर पर नेमिचन्द्र जैन थे जिनकी बेटी रश्मि से अशोक वाजपेयी का विवाह हुआ था, दूसरे छोर पर रश्मि के मौसा भारत जी थे जिनकी भतीजी से कालिया का विवाह हुआ था। इसी दौर में कालिया ने केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय के अपने अकवितावादी मित्रों के प्रभाव में ‘अकहानी’ का नारा बुलन्द करने की कोशिश की थी जिसका हश्र उड़ान से पहले ही रनवे पर ठप्प हो जाने वाले विमान-सरीखा हुआ था। अलबत्ता, ‘धर्मयुग’ से निकाले जाने या निकलने के लिए विवश होने के बाद, बात एक ही है, कालिया ने सभी कमज़ोर लोगों की तरह अपनी व्यक्तिगत लड़ाई को सामूहिक लड़ाई बनाते हुए, हिन्दी की रंगीन, चिकनी व्यावसायिक पत्रिकाओं के ख़िलाफ़ एक आन्दोलन छेड़ दिया था और ‘धर्मयुग’ के प्रकाशक बेनेट कोलमैन एण्ड कं. के ख़िलाफ़ ‘बोरीबन्दर की बुढ़िया’ शीर्षक से एक लेख लिखा था। उन्हीं दिनों वह ‘धर्मयुग’ और धर्मवीर भारती पर ‘काला रजिस्टर’ के नाम से एक कहानी पर काम कर रहा था। चूँकि हिन्दी में फ़ण्टूश किस्म के लोगों की कभी कमी नहीं रही, लिहाज़ा कालिया के आह्नान पर बनारस में बैठे कंचन कुमार ने फ़ौरन अमल किया। कंचन किसी ज़माने में ‘सरिता’ में काम करता था, बनारस में कुछ दिन उसने महिलाओं के अन्तःवस्त्र बेचने वाली दुकान भी चलायी, बड़े सन्दिग्ध ढंग से वह एक नक्सलवादी धड़े से जुड़ा भी रहा और ‘आमुख’ नाम की पत्रिका निकालता था। उसने कालिया के आन्दोलन में कुछ पिपहरियाँ और जोड़ दीं और यों लघु पत्रिका आन्दोलन चल निकला। इस बीच अपने साझीदार से कालिया की खट गयी थी और उसने दो-चार बार पत्र लिख कर यह प्रस्ताव रखा था कि मैं बम्बई जा कर उसके प्रेस में पार्टनर बन जाऊँ। यह प्रस्ताव न तो मुझे मंज़ूर था, न मेरे घर वालों को। तभी अचानक एक दिन कालिया का एक अन्तर्देशीय मिला कि उसने प्रेस बेच दिया है और वह स्थायी रूप से बसने के लिए इलाहाबाद आ रहा है। अश्क जी के नाम जब रवि का यह अन्तर्देशीय पहुँचा तब घर में सिर्फ़ मैं था और हमारे परिवार में एक सदस्य की तरह रहने वाली अंगे्रेज़ महिला - आण्टी डेविस। घर के सब लोग बाहर थे, क्योंकि महीने भर बाद ही मेरी शादी थी; मेरी माँ और अश्क जी उसकी तैयारियों के लिए दिल्ली गये हुए थे, भाभी अपने मायके और भाई दौरे पर। मैं स्टेशन जा कर कालिया को घर ले आया और वह दो-तीन महीने हमारे घर ही रहा, जिस बीच वह ‘हिन्दी भवन’ के इन्द्रचन्द्र नारंग से उनका प्रेस खरीदने के नीरस ब्योरे तय करने और मेरे साथ प्रेस और रिहाइश के लिए मकान खोजने की मुहिम पर इलाहाबाद की ख़ाक छानने के साथ-साथ, मेरी शादी के हंगामे और इलाहाबाद के साहित्यिक जगत में पैर जमाने की विविध-रूपी गतिविधियों में सरगर्मी से जुटा रहा। अन्त में, अश्कजी के कहने पर नारंग जी इस बात पर राज़ी हो गये कि रवि उनका प्रेस ख़रीदने के साथ-साथ उनके मकान को भी किराये पर ले ले, वे तो दूर टैगोर टाउन में रहते हैं, रवि प्रेस के ऊपर रहने के लिए आ जायेगा तो सब को सुविधा होगी।</span><br /><span style="color: rgb(51, 0, 0); font-weight: bold;"> इस बीच मेरी शादी और कालिया के आने की ख़बर पा कर ज्ञान भी दिसम्बर ’68 के आरम्भ में इलाहाबाद आ गया और मेरी शादी से पहले दिसम्बर का पूरा महीना बड़ी गहमा-गहमी रही। मेरे पास आज भी आर्चीबॉल्ड मैक्लीश की किताब ‘पोएट्री ऐण्ड एक्सपीरिएन्स’ मौजूद है जो मैंने ठीक शादी के दिन ज्ञान और रवि के साथ सिविल लाइन्स में मटरगश्ती करते हुए पैलेस सिनेमा के साथ लगी ह्नीलर बुक शॉप में पसन्द की थी और जिस पर कालिया के हाथ से लिखा है - ‘नीलाभ के लिए शादी के दिवस पर विषयान्तर ज्ञान और रवि की ओर से।’ इससे भी ज़्यादा ऐतिहासिक वह चित्र है जिसमें शादी की अगली सुबह डोली के समय एक रिक्शे पर सुलक्षणा और मुझे और दूसरे पर सतवन्त आण्टी (श्रीमती राजेन्द्र सिंह बेदी) और मेरी माँ को बैठा कर ज्ञान और कालिया रिक्शे चलाते नज़र आते हैं।</span><br /><span style="color: rgb(204, 0, 0);"></span><br /><div style="text-align: right;"><span style="color: rgb(204, 0, 0);">(जारी)</span><br /></div><span style="color: rgb(204, 0, 0);"></span></div>Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3780821805422068162.post-38337302347623582332011-01-19T21:55:00.000-08:002011-01-19T21:56:41.766-08:00देशान्तर<span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">नीलाभ के लम्बे संस्मरण की तीसरी क़िस्त<br /><br /></span><span style="color: rgb(102, 0, 0); font-weight: bold;">पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा</span><br /><span style="color: rgb(102, 0, 0); font-weight: bold;">और एक लम्बी मैत्री की दास्तान</span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(0, 51, 0);">ज्ञानरंजन के बहाने - 3<br /><br /></span><br /><br /><br /><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(0, 51, 0);">इस</span><span style="font-weight: bold; color: rgb(0, 51, 0);"> सारे अर्से में ज्ञान की उपस्थिति उसी क्षीण-सी स्मृति के रूप में मन के आँगन के किसी ऐसे कोने में रखी प्रतिमा सरीखी बनी रही, जहाँ कभी-कभार ही जाना होता है। लेकिन तभी जब मैंने पुरानी शिक्षा-दीक्षा को किनारे करके, पुराने सहचरों-सम्पर्को से विलग हो कर विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र और वाणिज्य के पीपल से उड़ कर हिन्दी विभाग के बरगद पर नया ठौर ढूँढा; ऐडम स्मिथ, माल्थस, जॉन मिल और स्टैनली जेवन्स की जगह रामचन्द्र शुक्ल, निराला, तुलसीदास, मीरा, जायसी और मुक्तिबोध को घोखना शुरू किया; ज़ोर-शोर से कविताएँ लिखने लगा और एल चीको और क्वॉलिटी की बजाय कॉफ़ी हाउस में नियमित अड्डेबाज़ी शुरू की तो मेरे सुदूर अतीत के साथ-साथ निकट का अतीत भी एकबारगी बदल गया। </span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(0, 51, 0);"> दूधनाथ ने इस बीच अपने प्रेम के अंजाम तक पहुँच कर मलयज की बहन निर्मला से विवाह कर लिया था। शादी की रस्म हमारे ही घर पर हुई थी। इसके बाद उम्मीद एक हंगामे की थी, लेकिन शादी के तीसरे या चौथे दिन ही दूधनाथ, अश्क जी की आशंकाओं को सच साबित करता हुआ, यक्ष्मा की चपेट में आ कर तेलियरगंज के सैनेटोरियम में चला गया। उससे अब पाबन्द मुलाकातें ही होतीं, जब कभी मैं अकेले या फिर अपने बड़े भाई के स्कूटर पर निर्मला को बैठा कर उससे मिलने जाता। सुरेन्द्रपाल दूधनाथ की तीमारदारी और अपने जीवन-संघर्ष में फंसे हुए थे। चूँकि बघाड़ा से, जहाँ सुरेन्द्रपाल रहते थे, तेलियरगंज नज़दीक था, इसलिए सुविधा के लिए निर्मला की रिहाइश का प्रबन्ध सुरेन्द्रपाल के घर पर ही कर दिया गया था। बुद्धिसेन शर्मा अपने अबोध, सरल, निर्लिप्त भाव से दुनिया को एक विस्मित किशोर की तरह निहारते, लीडर प्रेस की नीरस नौकरी की काट अपने गीतों की सायास सरसता में ढूँढने की चेष्टाओं में लीन थे। यूँ भी विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के नये साथी-संगियों और नये परिवेश ने कई तरह की वीथिकाएँ और दीर्घाएँ मेरे सामने खोल दी थीं। ज़ाहिर है, पुरानी दुनिया मुझे एकबारगी ही कुछ छोटी महसूस होने लगी थी। </span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(0, 51, 0);"> तभी अचानक कॉफ़ी हाउस में मेरा परिचय हिन्दी के आलोचक विश्वम्भर मानव के बेटे और दूधनाथ के रक़ीब प्रभात रंजन से हुआ। प्रभात शायद दसवीं पास था, या जैसा कि अब लक्ष्मीधर मालवीय ने लिखा है, दसवीं पास भी नहीं था। कौन जाने। साहित्य में डिग्रियाँ कौन देखता है। लेकिन उसने दुनिया-जहान का साहित्य पढ़ रखा था और एज़रा पाउण्ड, रैम्बो और इब्ने सफ़ी का बयकवक़्त मुरीद था, रैम्बो और बॉदलेयर सरीखी बोहीमियन ज़िन्दगी जीना चाहता था, कई क़िस्म के नशे करता था। ज्योतिष में अच्छी-ख़ासी पकड़ रखने का दावा करता था, बहुत ही मार्मिक, गहरी, सम्वेदना से भरी कविताएँ लिखता था, और बड़ी ऊँचाई से दुनिया को देखता था। बहुत जल्द ही प्रभात और मैं हम-निवाला तो नहीं, हम-प्याला हो गये, प्याला चाहे चाय का हो या कॉफ़ी या फिर रम का। जहाँ दूधनाथ और सुरेन्द्रपाल मुझसे उमर में बहुत बड़े थे और बुद्धिसेन की अपनी सीमाएँ थीं, वहीं प्रभात आयु में भी और साहित्यिक रुचि में भी मेरे बहुत नज़दीक था। एज़रा पाउण्ड और फ़्रेंच डिकेडेण्ट कवि मेरी भी पसन्द थे। सो, हमारी ख़ूब छनने लगी और प्रभात ही के ज़रिये मेरा परिचय देवकुमार और ज्ञान से हुआ। देवकुमार भी कवि थे और दूधनाथ और प्रभात की मण्डली के एक सितारे। लेकिन अनेक कारणों से यह मण्डली छिन्न-भिन्न हो गयी थी। देवकुमार कविता और पुराने जीवन से धीरे-धीरे नाता तोड़ कर कुछ ज़रिया-ए-रोज़ो-शब की फ़िक्र में थे जो अन्ततः उन्हें ‘माया,’ ‘मनोहर कहानियाँ’ और ‘मनोरमा’ के सम्पादन विभाग में ग़र्क हो जाने की जानिब ले गयी। प्रभात ने पहले ज्ञान को खोजा और फिर मुझे, और फिर हम दोनों को मिलाया। कुछ महीने पहले, थोड़े-थोड़े अन्तर पर ज्ञान की कहानियाँ ‘शेष होते हुए’ और ‘फ़ेंस के इधर और उधर’ छपी थीं। उनका जादू किस तरह सबके सिर चढ़ कर बोल रहा था, इसे ज्ञान भी शायद आज बयान न कर पाये, न हम जैसे लोग जो उनके चामत्कारिक असर से मबहूत थे। नामवर जी ने भले ही अपनी अखाड़ेबाज़ शैली में उषा प्रियम्वदा आदि को आगे ला कर ‘नयी कहानी’ का नगाड़ा बजाना शुरू कर दिया था, लेकिन अपने स्वाभाविक आलसीपन की वजह से वे महफ़िल में तब पधारे थे जब विलम्बित भी अन्तिम चरण पर था और नया राग शुरू हुआ चाहता था। ज्ञान की कहानियों ने पहली बार मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर और मार्कण्डेय जैसे ‘नयी कहानी’ के अलमबरदारों को उनकी सीमाओं का एहसास कराया। (अब यह तो याद नहीं है कि मार्च 1964 में ‘परिमल’ के कहानी सम्मेलन में ज्ञान मौजूद था या नहीं, क्योंकि मेरे इम्तहान चल रहे थे और मैं ज़्यादा वक़्त उस सम्मेलन को नहीं दे पाया था। बस, इतना याद है कि उसी सम्मेलन के दौरान पहली बार मेरी मुलाकात रवीन्द्र कालिया और गंगा प्रसाद विमल से हुई थी। छै फ़ुट लम्बा रवीन्द्र और उससे छै इंच छोटा विमल आगे-पीछे चलते हुए बड़े दिलचस्प लगे थे, कुछ-कुछ डॉन क्विग्ज़ॉट और सांचो पांज़ा जैसे। यों तो कहानी सम्मेलन में रमेश बक्षी भी आया था, जिससे कुछ ही साल बाद मेरा गहरा परिचय हो जाने वाला था, क्योंकि नरेन्द्र धीर और जगदीश चतुर्वेदी के बाद पहला बड़ा ब्रेक मुझे ‘ज्ञानोदय’ में रमेश ही ने दिया था।) बहरहाल, उस कहानी सम्मेलन में नयी कहानी का बोरिया बँधता नज़र आ रहा था और जिस नये युगबोध का इतना हो-हल्ला ‘नयी कविता’ की तर्ज़ पर ‘नयी कहानी’ का झण्डा खड़ा करके एक नया अखाड़ा खोलने वाले मचा रहे थे, वह उनकी बजाय ज्ञान, कालिया, दूधनाथ और रमेश बक्षी की कहानियों में नज़र आ रहा था। बहरहाल, ज्ञान उस कहानी सम्मेलन में रहा हो या न रहा हो, इतना मुझे याद है कि उस सम्मेलन के कुछ ही महीने बाद मैं उससे मिला था, ‘शेष होते हुए’ और ‘फ़ेंस के इधर और उधर’ पढ़ने के दौरान। लेकिन ज्ञान की कहानियों से भी ज़्यादा उसके स्वभाव की गर्मजोशी ने मुझे खींचा। ज्ञान में जाने कैसी मोहिनी है कि आज भी, उसके साथ अनेक कटु प्रसंगों से गुज़रने के बाद भी, जब वह सामने आता और मुस्कराता है तो मन सारे गिले-शिकवे भूल जाता है। कभी-कभी सोचता हूँ कि अगर मेल-मुलाकात पहले की तरह अक्सर होती रहती तो शायद बात दूसरी होती, इतने गिले-शिकवे इकट्ठे ही न हो पाते। क्योंकि यह कहना भी मन को बहुत तसल्ली नहीं देता कि मैं बहुत भाव-प्रवण हूँ। इससे अहम्मन्यता के अलावा दूसरों के प्रति तिरस्कार भी झलकता है। और वैसे भी यह एक छल है जो हम ख़ुद से करते हैं। भावप्रवण तो सभी होते हैं। अलबत्ता, वयस्कता की मात्रा अलग-अलग हो सकती है जिससे धक्कों को सहने और शिकवों-शिकायतों को किनारे करने की शक्ति में अन्तर आता है। वैसे भी, अपने पुराने मित्र (मैं तो मित्र ही कहूँगा, बहरहाल) रामजी राय के साथ एक बार मैत्री पर बातचीत के दौरान यह बात सामने आयी थी कि यही एक रिश्ता है जिसे हम सायास बनाते हैं, बाक़ी नातेदारियाँ तो हमें जन्मना मिलती हैं। इसलिए भी मित्रताओं को बचा कर रखना चाहिए। मैं, शायद बचपन में बहुत अकेला रहने के कारण (मेरे भाई मुझसे ग्यारह वर्ष बड़े थे), मित्रता को ले कर कुछ अधिक ही सचेत और सम्वेदनशील रहा हूँ और इसीलिए ज्ञान की सहज ऊष्णता ने मुझे एकबारगी अपनी गिरफ़्त में ले लिया था। उन दिनों वह जबलपुर के सेकसरिया कॉलेज से (जहाँ वह हिन्दी न पढ़ाने की कोशिश करता था) लम्बी छुट्टी पर इलाहाबाद आया हुआ था। जहाँ तक मेरा ख़याल है, वह सुनयना से अपनी कोर्टशिप के दौर से गुज़र रहा था और इस प्रेम-प्रसंग को उसकी वाजिब मंज़िल तक पहुँचाने के प्रयास कर रहा था। बीच-बीच में वह जबलपुर जा कर कॉलेज में अपनी शकल दिखा आता था, मगर रहता वह ज़्यादा वक़्त इलाहाबाद में ही था। शायद जिस नाभिनाल से वह इलाहाबाद से जुड़ा हुआ था, वह अभी पूरी तरह कट नहीं पायी थी। ज़ाहिर है, ज्ञान के पास बहुत वक़्त ख़ाली था, जिसे वह सुनयना से प्रेम करने, इलाहाबाद की सड़कों पर मटरगश्ती करने, तीन पत्ती खेलने, कॉफ़ी हाउस और मुरारी स्वीट होम में अड्डेबाज़ी करने और इन सारे मशग़लों से वक़्त बचने पर कहानी लिखने में लगाता था। ज्ञान में उन दिनों अद्भुत जीवनी-शक्ति थी जिसके बल पर वह इन बहुविध गतिविधियों को एक साथ साध सकता था। वक़्त की मेरे पास भी भरमार थी और कविता मेरे लिए नये मुल्ले का प्याज़। जल्दी ही ज्ञान की और मेरी पट गयी और ज्ञान ने मुझे उन चीज़ों से परिचित कराना शुरू कर दिया जो उसकी दिनचर्या में शामिल थीं।</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(0, 51, 0);"> 0</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(0, 51, 0);">ज्ञान लूकरगंज में रहता था। साठ के दशक का लूकरंगज इलाहाबाद में अपनी तरह का अनोखा मुहल्ला था। दारागंज, अहियापुर, ख़ुशहाल पर्वत और अतरसुइया को देख कर बनारस की याद आती थी, तो ख़ुल्दाबाद, नख़ास कोहना, या रानी मण्डी को देख कर दिल्ली के चाँदनी चौक, बल्लीमारान और खारी बावली की। इलाहाबाद के अपने ख़ास मुहल्लों में लूकरगंज हिरावल दस्ते में शामिल था। खुली सड़कें, नफ़ासत से बने बँगले, साफ़-सुथरी फ़िज़ा और हरियाली। यहाँ कुछ पुराने ईसाई परिवार रहते थे, जो उन्नीसवीं सदी की अन्तिम चौथाई में यहाँ आ बसे थे जब रेलवे लाइन नैनी से जमुना पार करके दिल्ली की ओर बढ़ गयी थी; एक बंगाली टोला था और कुछ ठेठ क़िस्म के इलाहाबादी। 1947 से कुछ पहले या बाद में हालाँकि सिन्धियों ने भी यहाँ सदल-बल बसने का फ़ैसला किया था, पर वे भी इसे उस तरह शरणार्थी मुहल्ला नहीं बना पाये थे, जैसे मीरापुर को पंजाबी शरणार्थियों ने बना दिया था। लूकरगंज की फ़िज़ा शरणार्थियों की उद्वेलन-भरी उदग्रता और आगे बढ़ने की मारा-मारी से अछूती थी। </span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(0, 51, 0);"> वैसे तो यहाँ एक ज़माने में खड़ी बोली हिन्दी के पहले कवि माने जाने वाले श्रीधर पाठक रहा करते थे। लूकरगंज मैदान के पास ही उनकी ‘पद्मकोट’ नाम की कोठी थी और उनके बारे में क़िस्सा मशहूर था कि उनकी बग्घी कवि सुमित्रा नन्दन पन्त को लेने ऐलनगंज जाती थी। पन्त जी उस पर बैठ कर लूकरगंज आते थे और श्रीधर पाठक के साथ कुछ समय चर्चा में बिता कर, फिर बग्घी में बैठ ऐलनगंज लौट जाते थे। लेकिन श्रीधर पाठक की स्मृति क्षीण हो चुकी थी। हालाँकि उनका बँगला साठ और सत्तर के दशक तक मौजूद था। बाद में लूकरगंज के उत्तर-पूर्वी कोने में, जहाँ से लाटूश रोड शुरू होती है और आटा मिल होती हुई जी.टी. रोड में जा मिलती है, लीडर प्रेस में रायकृष्ण दास द्वारा स्थापित ‘भारती भण्डार’ बिरला बन्धुओं की मिल्कियत बन कर आ गया। वहीं से ‘संगम’ पत्रिका निकली जिसके सम्पादक इलाचन्द्र जोशी और सहायक सम्पादक धर्मवीर भारती और रमानाथ अवस्थी थे। </span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(0, 51, 0);"> शुरू-शुरू में लूकरगंज आ बसने वाले साहित्यकारों में ज्ञान के पिता और अपने ज़माने के जाने-माने साहित्यकार रामनाथ ‘सुमन’ और हमारा परिवार था। फिर भैरव प्रसाद गुप्त स्टैनली रोड छोड़ कर आये, शेखर जोशी आये, नरेश मेहता आये, नर्मदेश्वर चतुर्वेदी, दूधनाथ सिंह, नर्मदेश्वर उपाध्याय, प्रसिद्ध चित्रकार सुप्रभात नन्दन, सुरेश सिन्हा आदि प्रभृति साहित्यकार। अस्थायी निवासियों में रेणु, नागार्जुन और मोहन राकेश जैसे लोग थे। लूकरगंज एक विराट शरण्य था। एक समय ऐसा भी आया, जब लूकरगंज में एक साथ इतने साहित्यकार पाये जाते थे जितने इलाहाबाद के किसी और मुहल्ले में नहीं। और यह सब सहजिया भाव से हुआ था। यह नहीं कि सरकारी ग़ैर-सरकारी प्रयासों से एक कालोनी बसा दी, जैसा कि भोपाल में भदभदा रोड का नाम दुष्यन्तकुमार मार्ग करके उसके एक छोर पर निराला नगर बसाया गया है। लोगों को जिनका मुखड़ा देखना गवारा नहीं, उनका पिछवाड़ा देखना पड़ रहा है। हवा में सुनी न जा सकने वाली गालियों का कम्पन महसूस होता रहता है। इतनी सारी कला एक जगह। काल बनी हुई। बिम्ब और प्रतीक टकरा रहे हैं। वस्तु और रूप की चिनगारियाँ उड़ रही हैं। हर वक़्त कवियाए हुए लोग भात की तरह खदक रहे हैं। </span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(0, 51, 0);"> आज तो ख़ैर, वक़्त की मार ने लूकरगंज को काफ़ी जीर्ण-जर्जर कर दिया है, बँगले बिक गये हैं, उनकी प्लॉटिंग हो गयी है, नये-नये बाशिन्दे इतनी तेज़ी से आ कर बसे हैं कि उन्हें लूकरगंज की फ़िज़ा में दीक्षित करना ही सम्भव नहीं रहा और यह सब बेहद बदहवास बेतरतीबी से हुआ है, लोग और मकान एक-दूसरे पर गिरे पड़ रहे हैं, सड़कें ड्रॉइंग रूमों में घुसी चली आ रही हैं, ज़मीनों के दलाल लकड़बग्घों की तरह सूंघते फिरते हैं। शरण्य अब अरण्य बन गया है। लेकिन उन दिनों सड़कें भी सलामत थीं और सन्नाटा भी। इलाहाबाद अगर साहित्यिक राजधानी थी तो लूकरगंज उसका कैपिटल हिल। इलाहाबाद के लगभग सभी युगों की एक समग्र सांस्कृतिक झाँकी। </span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(0, 51, 0);"> ज्ञान के पूरे तेवर को निर्मित करने में लूकरगंज की वही भूमिका थी जो सिकन्दर के सिलसिले में एथेन्स की। ज्ञान से मेरी अभिन्नता के पीछे लूकरगंज का भी बहुत बड़ा हाथ था। एम.ए. की दहलीज़ पार कर लेने के बाद तो यह साथ सुबह से रात तक का हो गया था। अक्सर मैं सुबह उठ कर नाश्ते के बाद ज्ञान के घर चला जाता। कई बार नाश्ता भी वहीं करता। (सूजी का हलवा इतनी बार उसके यहां मैंने खाया कि उमर भर के लिए मन उससे भर गया, अब देखता हूँ तो बुख़ार आने लगता है।) वहीं साहित्य पर बातें होतीं, रचनाएँ सुनी-सुनायी जातीं, सिर्फ़ साहित्य ही पर नहीं, दुनिया-जहान की चीज़ों पर चर्चा होती। मैं इसी अर्से में ज्ञान की कहानियों ‘छलाँग’ और ‘सम्बन्ध’ का पहला पाठक बना, उसका किसी हद तक राज़दार भी। अक्सर हम सिविल लाइन्ज़ की तरफ़ निकल जाते, शुतुर-बे-मुहारों की तरह घूमते-फिरते, वहीं प्रभात आ मिलता और दूसरे साहित्यिक ग़ैर-साहित्यिक लोग, कॉफ़ी हाउस और मुरारी’ज़ में अड्डेबाज़ी होती। ज्ञान का स्वर उन दिनों बहुत अच्छा था। वह फ़ैज़ की ‘दस्ते-सबा’ की ग़ज़लें या ‘वंशी और मादल’ के गीत या केदार नाथ अग्रवाल की कविताएँ बड़े अन्दाज़ से सुनाता। कई बार मैं और वह एक-दूसरे का हाथ थामे, सिविल लाइन्ज़ के पत्थर गिरजे के गिर्द टहलते और ज्ञान ‘वंशी न बजाओ माझी मेरा मन डोलता’ या फिर ‘गुलों में रंग भरे बादे-नौबहार चले’ गा कर सुनाता।</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(0, 51, 0);"> 0</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(0, 51, 0);">आरम्भिक ज्ञानरंजन पर बीटनिक आन्दोलन का गहरा असर था। चारों तरफ़ के मध्यमवर्गीय छल-कपट, पाखण्ड और छद्म के विरुद्ध एक तीखा, काटता व्यंग्य उसका प्रमुख स्वर था। हालाँकि शुरुआत उसकी, लगभग सभी की तरह, रूमानीपन से हुई थी। मुझे उसकी कुछ कविताओं की झीनी-सी याद है जो ‘कादम्बिनी’ में छपी थीं। जिनमें ‘कत्थई शामों’ और ‘कितने यौवनों की दुलहनों की भादों की रात’ के बिम्ब थे और एक कहानी जिसमें शकुन नाम की किसी लड़की को सम्बोधित एक भावुक एकालाप था। मुझे इन रचनाओं को पढ़ कर अचरज नहीं हुआ था, वैसे ही जैसे ‘उत्कर्ष’ में मंगलेश डबराल का एक गीत ‘मंगलेश मयंक’ के नाम से छपा देख कर। उलटे एक तसल्ली ही मिली थी कि मैं कोई अकेला यायावर नहीं था जो भावुकता की सुरम्य घाटियों से यथार्थ के बीहड़ में चला आया था। इसीलिए शायद ज्ञान एक ओर फ़ैज़ और ठाकुर प्रसाद सिंह के रूमानीपन की ओर आकृष्ट होता, दूसरी ओर गिन्सबर्ग, कोर्सो, फ़रलिंगेटी, जैक केरुआक और विलियम बरोज़ के विद्रोही, लीक-तोड़ू तेवर की ओर। ‘एवरग्रीन रिव्यू’ जैसी पत्रिका से मेरा परिचय ज्ञान ही ने कराया था और उसके पुराने अंक मुझे दिये थे। आज तो कोई इनका नाम भी नहीं लेता, पर उन दिनों इनकी धूम थी। दिलचस्प बात यह है कि उस ज़माने में इन लेखकों ने और जोन बाएज़ और बॉब डिलन जैसे गायकों ने अमरीकी गुण्डागर्दी के ख़िलाफ़ एक बड़ी भूमिका अदा की थी। वियतनाम युद्ध, परमाणु-बम ऐसी अनेक अमरीकी करतूतों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठायी थी। उनमें जो अराजकता हम हिन्दी वालों को, जो अंग्रेज़ों की विक्टोरियन जकड़बन्दी और पाखण्ड-भरे शुद्धतावाद से उबर नहीं पाये थे, महसूस होती थी, वह भी एक ऐसी व्यवस्था के ख़िलाफ़ बग़ावत थी जो उत्तरोत्तर नृशंस, अमानवीय और दमनकारी होती जा रही थी। यह भी दिलचस्प है कि जहाँ ज्ञान को इन सबके व्यवस्था-विरोध ने आकर्षित किया, वहाँ उसके सहपाठी और सहकर्मी दूधनाथ सिंह को उनकी अराजकता और अनास्था ने। इसीलिए ‘शेष होते हुए’ से शुरू होने वाली ज्ञान की कहानियों में सामाजिक सरोकार की गहरी अन्तर्धारा मौजूद थी, जो दूधनाथ की उस समय की कहानियों और कविताओं में नहीं नज़र आती। ‘अमरूद का पेड़’ हो या ‘फ़ेंस के इधर और उधर,’ ज्ञान की उस समय की कहानियों में खीझ, अवसाद और विद्रोह-भरे अस्वीकार के बावजूद, समाज से एक गहरी संलग्नता झलकती थी। अकारण नहीं है कि जब साठ का दशक बीतते ही चीज़ें ज़्यादा साफ़ हुईं और ज्ञान और उसकी पीढ़ी के अनेक साहित्यकार वामपन्थी विचारधारा की ओर आये, यहाँ तक कि कम्यूनिस्ट पार्टियों में भी शामिल हुए, तो ज्ञान के सिलसिले में कम-से-कम मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ। प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस) तो जैसे वह पेट्रोला था जहाँ ज्ञान को अन्ततः पहुँचना ही था। यह अलग बात है कि कुन्दन सरकार की तरह वह किसी ‘गेलार्ड’ से निकाला नहीं गया था।</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(0, 51, 0);"> 0</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(0, 51, 0);">वैसे, ज्ञान का एक बहुत बड़ा मण्डल ठेठ ग़ैर-साहित्यिक लोगों का था। इनमें रज्जू, सन्त कुमार सक्सेना, देवदास, गणेश जैसे ज्ञान के सहपाठी या मुहल्ले के मित्र थे, जिनकी दिलचस्पी तीन पत्ती की साप्ताहिक फड़ या गाहे-बगाहे पीने-पिलाने, मौज उड़ाने और सामान्य रूप से धींगामस्ती करने में थी। कई बार तीन पत्ती की फड़ रात-रात भर चलती। एक बार जब ऐसी ही एक ‘गोष्ठी’ से मैं रात भर नहीं लौटा और मेरे भाई मुझे ढूंढते हुए सुबह के पाँच बजे दूधनाथ के घर गये, जो इस बीच रोग-मुक्त हो कर तेलियरगंज के सैनेटोरियम से लूकरगंज में डॉक्टर बैनर्जी की क्लिनिक के पीछे एक मकान में रहने लगा था, तो उसने मुँह से चादर हटाते हुए बस इतना कहा था कि घबराइए नहीं, वह ज्ञान के यहाँ जुए की फड़ पर बैठा होगा, पहुँच जायेगा। घर वाले अगर मेरे इस तरह ज्ञान के इर्द-गिर्द मंडरात्वे रहने को ले कर चिन्तित रहे हों तो कम-से-कम मुझे इसका आभास कभी नहीं मिला। वैसे, मुझे इसकी बहुत परवाह भी नहीं थी। मैं तो ज्ञान के यहाँ कुछ इस जा धमकता था जैसे वयःसन्धि की दहलीज़ पर खड़ा कोई युवक किंचित वयप्राप्त किसी युवती के इर्द-गिर्द प्रणय-भाव से मँडराता रहता है। ज्ञान के साथ-संग में साहित्यिक और साहित्येतर सक्रियता की ऐसी रोमांचक सनसनीख़ेज़ कॉकटेल पीने को मिलती थी कि इलाहाबाद का बाक़ी साहित्यिक समुदाय उन दिनों बरसात के ख़रबूज़े जैसा फीका मालूम देता था।</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(0, 51, 0);"> 0</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(0, 51, 0);">उन दिनों ज्ञान को खाने-पीने का बहुत शौक था। आज तो ख़ैर, तरह-तरह की बीमारियों ने उस पर दसियों बन्धन लगा दिये हैं, पर उन दिनों उसकी रसना एक बेलगाम छुट्टा बछेड़ा थी। कई बार वह सुबह-सवेरे आता और कहता चलो, और मुझे लोकनाथ ले जाता। गरम-गरम जलेबियाँ खिलाने। सर्दियों में गाजर के हलवे पर धावा बोला जाता। ज्ञान के लिए ये चीज़ें आवारागर्दी के बहाने थे, क्योंकि जलेबियाँ, गाजर का हलवा या ऐसी ही कोई और चीज़ खा कर घर लौटने की बजाय हम आगे की यायावरी पर निकल जाते - कभी भारती भवन पुस्तकालय के पास नगीने बेचने वाले मेरे सहपाठी डी.के. जौहरी उर्फ़ बब्बू भैया की लनतरानियाँ सुनते जो नगीने बेचने के पुश्तैनी काम से थोड़ा हट कर एक अधिक ‘सम्मानित’ पेशे के रूप में वकालत की डौल बिठा रहा था, लेकिन वक़्त पड़ने पर नगीने बेचने से ले कर पुराने सिक्के, ऐण्टीक झाड़-फ़ानूस, तलवारें, पियानो और फ़र्निचर बेचने, यहाँ तक कि हाथ की रेखाएँ देख कर भविष्य बताने तक, कई क़िस्म के सन्दिग्ध व्यवसाय करता था। कभी हम जानसेनगंज में ज्ञान के मित्र फ़ोटोग्राफ़र के यहाँ बैठकी जमाते। मेरा ख़याल है कि उसके स्टूडियो का नाम ‘स्वॉन स्टूडियो’ था और किसी ज़माने में ‘ग्लैमर स्टूडियो’ और ‘अर्गल फ़ोटोग्राफ़र्स’ की तरह उसकी भी बड़ी धाक थी। कभी उधर ही से हम सिविल लाइंस चले जाते।</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(0, 51, 0);"> 0</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(0, 51, 0);">अमरीकी उपन्यासकार जॉन स्टाइनबेक ने अपने एक आरम्भिक और बहुचर्चित उपन्यास ‘टॉर्टिया फ़्लैट’ में मेक्सिकन मूल के उन लोगों की तस्वीर खींची है जो ‘पैसानो’ कहलाते हैं। पैसानो यानी हमवतन, साथी। उपन्यास का नायक डैनी और उसके दोस्त ऐसे ही मस्त-मौला, फक्कड़ लोग हैं जो कैलिफ़ोर्निया की सालिनास घाटी में ‘टॉर्टिया फ़्लैट’ नामक कस्बे के छोटे-छोटे लकड़ी के मकानों में रहते हैं। लूकरगंज उन दिनों हमारे लिए टॉर्टिया फ़्लैट ही था और हमारी मध्यवर्गीय ख़रमस्तियाँ डैनी और उसके यारों की मज़दूरवर्गीय ख़रमस्तियों जैसी ही थीं। लूकरगंज का ज्ञानमण्डल एक जैव धड़कती इकाई था, जैसा कि फिर इलाहाबाद में नहीं देखा गया। लेकिन एक आलोचक ने समुद्री जीव-विज्ञान के आधार पर टॉर्टिया फ़्लैट का विश्लेषण करते हुए डैनी और उसकी बिन्दास मित्र-मण्डली को एक ‘ऑर्गनिज़्म’ के रूप में देखा है जिसका एक सुनिश्चित जीवन-चक्र होता है। यहाँ भी शायद कुछ वैसा ही था। सभी अच्छी चीज़ों की तरह इन अच्छे दिनों का अन्त तो होना ही था। हालाँकि मैं तीन-साढ़े तीन वर्ष के अल्प, लेकिन घनघोर, साहचर्य के चलते ख़ुद को ज्ञान के नज़दीक समझने लगा था, हक़ीक़त भर्तृहरि का श्लोक थी। सारी अन्तरंगता, ‘कैमाराडरी’ और सखा-भाव के बाद भी एक पर्दादारी थी जिसका मुझे अन्दाज़ा नहीं था। और जब अन्दाज़ा हुआ तो एक धक्का-सा लगा।</span><br /><div style="text-align: right;"><span style="font-weight: bold;">(जारी)</span><br /></div>Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3780821805422068162.post-41227602515080852372011-01-19T06:05:00.000-08:002011-01-19T06:08:10.884-08:00देशान्तर<span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 0, 0);"></span><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 0, 0);">देशान्तर </span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 0, 0);">नीलाभ के लम्बे संस्मरण की दूसरी किस्त</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(255, 102, 0);">पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(255, 102, 0);">और एक लम्बी मैत्री की दास्तान</span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(0, 0, 0);">ज्ञानरंजन के बहाने - २</span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(255, 0, 0);"></span><br /><br /><br /><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);">इसके बाद कई महीनों तक ज्ञान, शहर में रहते हुए भी, मेरे लिए ग़ैर-हाज़िर रहा। वैसे भी, उन दिनों मेरा ज़्यादा समय दूधनाथ, सुरेन्द्रपाल, और बुद्धिसेन शर्मा के साथ गुज़रता था। </span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);"> दिल्ली के नरक, और अपनी दुखद मृत्यु, की ओर जाने से पहले, सुरेन्द्रपाल लगभग रोज़ हरे रंग की अपनी रैले साइकिल पर, चमड़े का अक्सर प्रूफ़ों से भरा थैला हैण्डल से लटकाये, हमारे घर आते; प्रूफ़ पढ़ते; पाण्डुलिपियों की प्रेस-कॉपी तैयार करते, तरह-तरह की योजनाएँ बनाते, घण्टों गप्पें लड़ाते, और शहर के साहित्यिक जगत के बारे में गलचौर करते। इस सब फरफन्द के साथ सुरेन्द्रपाल रेलवे के हिन्दी अनुभाग में थे, जहाँ वे रेलवे कर्मचारियों को हिन्दी पढ़ाते थे। लेकिन इसे वे दिन में ही किसी समय निपटा देते थे। उनका एक कविता-संग्रह और आंचलिक शैली में लिखा गया एक उपन्यास ‘लोक लाज खोयी’ प्रकाशित हो चुका था, और वे भी हिन्दी के तमाम लेखक-प्रकाशकों की तरह अपना एक प्रकाशन शुरू करने की सोचते थे जो उन्होंने बाद में किया भी। मझोले क़द, गोल चेहरे, और बेहद साँवले रंग के इन्सान थे। चेहरे पर उनके माता के दाग़ थे जो थोड़ा और नुमायाँ होते अगर उनका रंग इतना साँवला न होता। सामने के दाँत थोड़ा-सा बाहर को निकले हुए थे, और पेट भी। अक्सर वे दिन में या शुरू शाम के समय कॉफ़ी हाउस या फिर कॉफ़ी हाउस परिसर में लोकभारती प्रकाशन या हमारे प्रकाशन पर चले आते। चूँकि कुलवक़्ती कलन्दर थे, इसलिए गप-शप, अफ़वाहबाज़ी, परनिन्दा - जिसे हम लोगों ने ‘रसों’ की सूची में शामिल कर दिया था - और छींटाकशी उनका शेवा था। यों, सुरेन्द्रपाल शहर के बहुत-से लोगों की चिढ़ थे। श्रीराम वर्मा ने एक बार तीखे व्यंग्य से कहा था कि सुरेन्द्रपाल हँसता है तो लगता है अफ़्रीकन दही खा रहा है।</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);"> दूधनाथ उन दिनों अपने मख़सूस तिलिस्मी अन्दाज़ में ‘चन्द्रकान्ता सन्तति’ के किसी ऐयार की तरह प्रेम में मुब्तिला था। उन दिनों वह शायद लीडर प्रेस में काम करता था और ख़ुल्दाबाद चौराहे से अन्दर को बसे मुहल्ले, पुरुषोत्तम नगर, से ख़ुसरो बाग़ रोड होते हुए ख़रामा-ख़रामा लीडर प्रेस आता-जाता नज़र आता। बीच में कई बार वह हमारे घर भी चला आता, किसी नयी कहानी पर अश्क जी से बात करता, मन्द-मन्द मुस्कराता और अपनी घनी बरौनियों वाली बड़ी-बड़ी आँखों की चमक से एक अजीब-सा प्रभाव डालता। पतला-छरहरा तो जैसा वह आज है, तब भी था, लेकिन उन दिनों उसके खुलते हुए गेंहुए रंग पर एक हलकी-सी पाण्डुर आभा बनी रहती थी। आज सोचते हुए यह कहना मुश्किल है कि उस समय दूधनाथ को सबसे ज़्यादा किस चीज़ ने अपनी गिरफ़्त में ले रखा था। प्रेम ने या यक्ष्मा ने, जिसके चिह्न दूधनाथ के अजाने ही उसके चेहरे पर झलकने लगे थे। अश्क जी ने कई बाद दूधनाथ की कलाई पकड़ कर उसकी हरारत को या फिर धँसे हुए कल्लों वाले वाले उसके पाण्डुर मुख को लक्ष्य कर उससे कहा था कि दूधनाथ, तुम अपना चेक-अप करवाओ। मैं ख़ुद इस मूज़ी रोग की चपेट में आ कर किसी तरह बचा हूँ। ग़फ़लत से काम लेना दानाई नहीं है। हर बार दूधनाथ अपनी धवल दन्त पंक्ति की दूधिया आभा बिखेरते हुए ग्लाइकोडिन टर्प वसाका, बेनाड्रिल या ऐसे ही किसी कॉफ़-मिक्सचर का हवाला देता, मानो आसन्न विपदा को बरबस, केवल इच्छा के बल पर टालने की कोशिश कर रहा हो, और फिर उसी तरह हल्के-हल्के क़दम रखता हुआ, ख़रामा-ख़रामा चला जाता। गणित की शब्दावली में दूधनाथ एक अज्ञात राशि था और यह उसकी महारत है कि वह आज तक एक अज्ञात राशि बना हुआ है। उसकी जीवनी एक भित्ति-चित्र की तरह नहीं, बल्कि एक मोज़ेक की तरह ही तैयार की जा सकती है, क्योंकि दूधनाथ को सिर्फ़ दूधनाथ ही जानता है। बाक़ियों के पास तो समय-समय पर उससे पाये ‘दर्शन’ ही हैं। उस समय बस इतना मालूम था कि उसने एम.ए. इलाहाबाद से किया था। उससे पहले वह अपने गाँव में और फिर बनारस रहा। स्थायी रूप से इलाहाबाद आने के पहले उसने कुछ समय कलकत्ते में भी बिताया। कभी वह अपना गाँव ग़ाज़ीपुर बताता, कभी बलिया। यह बात कि इलाहाबाद आने से पहले उसकी शादी हो चुकी थी और वह पत्नी से अलग हो गया था, अचानक पता चली थी जब उसकी कहानी ‘रक्तपात’ छपी थी और अश्क जी ने एक दिन उस पर दूधनाथ से लम्बी चर्चा की थी। कभी-कभार बातचीत के दौरान उसके एक मित्र विपिन का ज़िक्र आता (जिसे मैंने सिर्फ़ एक बार देखा था) या देवकुमार का जिससे मैं बाद में मिला। बाक़ी अधिकांश कोहरे में था। यह भी मुझे बाद में पता चला कि वह एम.ए. में ज्ञान का सहपाठी था, जब ज्ञान से मेरा परिचय हुआ। उस अर्से में दूधनाथ हमेशा की तरह एक रहस्य में लिपटा हुआ आता-जाता रहता। यों, इससे कोई फ़र्क भी नहीं पड़ता था, क्योंकि उन दिनों जब मैं इण्टर में था, मेरी दिलचस्पी ‘अभी और अब’ में थी।</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);"> बचे बुद्धिसेन शर्मा, तो वे विभूति थे। किसी हद तक आज भी हैं; गो, आज उनकी श्वेतकेशी, वरिष्ठ गीत-ग़ज़लकार वाली धजा को देख कर उस ज़माने के बुद्धिसेन शर्मा की कल्पना करना कठिन है। बुद्धिसेन शर्मा लीडर प्रेस में जॉब डिपार्टमेंट में प्रूफ़ रीडर थे। इसी नाते हमारे यहाँ आने-जाने लगे थे; प्रूफ़ पढ़ने और प्रेस-कॉपी तैयार करने लगे थे। जब उन्हें रिहाइश के लिए जगह की ज़रूरत पड़ी तो अश्क जी ने एक कमरे का प्रबन्ध उनके लिए कर दिया था, जिसमें वे लगभग साधुओं-सरीखी सादगी और किफ़ायतशारी बरतते हुए दिन गुज़ारते थे। बुद्धिसेन कानपुर के रहने वाले थे, जिस शहर से - बकौल सुरेश सिन्हा - दो ही विभूतियाँ पैदा हुई थीं - बाल कृष्ण शर्मा ‘नवीन’ और बुद्धिसेन शर्मा (प्राचीन)। यह तो हमें बहुत बाद में पता चला कि ‘नवीन’ जी ग्वालियर और शाजापुर होते हुए कानपुर पहुँचे और परवान चढ़े थे, कानपुर की मौलिक प्रतिभा तो बुद्धिसेन ही थे। बहरहाल, उन दिनों बुद्धिसेन शर्मा को ग़ज़ल का चस्का नहीं लगा था, वे धड़ल्ले से गीत और छन्दोबद्ध रचनाएँ करते थे, कभी-कभी स्वाद बदलने के लिए नयी कविता की तर्ज़ पर कविताएँ लिखते और ऑल इण्डिया रेडियो या फिर छोटे कवि-सम्मेलनों में सुनाते। मुझे भी वे एक बार डाक-तार विभाग द्वारा आयोजित एक कवि सम्मेलन में ले गये जहाँ उन्होंने एक गीत सस्वर सुनाया था और मैंने अपनी एक बेहद कच्ची कविता पढ़ी थी। यह ख़ुसरो बाग़ रोड की फ़िज़ा का असर था या अचानक इलाहाबाद में कहानी का चढ़ता हुआ बाज़ार, बुद्धिसेन अक्सर अपने कमरे में कहानियाँ लिखते भी पाये जाते। यूँ वे सुरेन्द्रपाल के अनुसार चटनी थे। चटनी यानी परम ज़ायका तत्व यानी नमक। ये तीन विशेषण लगभग एक ही अर्थ में ऐसे लोगों का वर्णन करने के लिए इस्तेमाल किये जाते, जिनकी नुमाइन्दगी शहर के इस हिस्से में बुद्धिसेन शर्मा करते थे। लीडर प्रेस से जुड़ी प्रकाशन संस्था ‘भारती भण्डार’ के स्थायी महन्त वाचस्पति पाठक उन्हें बुद्धि-से-न कहते। सरल इतने थे कि जब बनारस का बज्र बदमाश नागानन्द मुक्तिकण्ठ, जो कुछ दिन बीटनिकों के उस्ताद कवि ऐलन गिन्सबर्ग की चिलम-भराई का काम करके कुछ शोहरत बटोर चुका था, इलाहाबाद आया और उसने ठेठ बनारसी हरामीपन से दिन में चार-पाँच बार बुद्धिसेन को कभी बुद्धिदूत, कभी बुद्धिदेव, कभी बुद्धिदास, कभी बुद्धिचन्द्र कह कर सम्बोधित किया तो वे इसे नागानन्द के सहज, स्वाभाविक भुलक्कड़पने का ही सबूत मानते रहे।</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);"> मेरे शुरू के रचनात्मक जीवन पर इन तीनों का बहुत असर पड़ा। </span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);"> सुरेन्द्रपाल हृदय से चाहते थे कि मैं प्रशासनिक सेवाओं की भूल-भुलैयाँ अथवा चार्टर्ड अकाउण्टेन्सी के मरुस्थल में गुम हो जाने की बजाय कोई सार्थक काम करूँ। सार्थक काम से उनकी मुराद थी - साहित्य का पठन, पाठन, अध्यापन। यही वजह है कि जब मैंने बी. कॉम. करने के बाद आगे न पढ़ने की घोषणा की थी तो सुरेन्द्रपाल ने (अश्क जी के कहने पर, हालाँकि उसमें काफ़ी कुछ प्रेरणा ख़ुद सुरेन्द्रपाल की थी) मुझसे घण्टों बहस करके मुझे क़ायल किया था कि मुझे विश्वविद्यालय में दाख़िल हो जाना चाहिए, चाहे अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. करने के लिए, चाहे हिन्दी साहित्य में। दूधनाथ मुझे हर बार एक नये विदेशी साहित्यकार को पढ़ने की सलाह देता। उसी के सुझाव पर मैंने ओसामू दजाई का उपन्यास ‘द सेटिंग सन’ पढ़ा, कामू के उपन्यास पढ़े, सेफ़रिस की कविताओं से परिचित हुआ। आज यह स्वीकार करने में मुझे रत्ती भर हिचक नहीं है कि अगर सुरेन्द्रपाल और दूधनाथ न होते तो घर में साहित्य को ओढ़ना-बिछौना बनाने के बावजूद मैं शायद लेखन की ओर न जाता, सम्भव है एक प्रबुद्ध पाठक ही रह जाता। आज पीछे मुड़ कर उसे पूरे दौर को देखता हूँ तो भारी आश्चर्य होता है। मेरी आरम्भिक शिक्षा-दीक्षा जैसे हुई थी, उसके हिसाब से तो पहला विकल्प नैशनल डिफ़ेन्स अकैडेमी का ही था, जहाँ से मैं सेकेण्ड लेफ़्टिनेंट बन कर निकलता। दूसरा विकल्प प्रशासनिक सेवाओं का था। इसके बाद ही किसी और पेशे की बात सोची जा सकती थी। मेरे साथ दिक़्क़त यह थी कि मैं शुरू ही से कर्तव्य-पालन और अनुशासन-विरोध के बीच झूलता रहा। ‘अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए’ एक सुनहरा आप्त-वचन था। मुझे इससे कोई ऐसा एतराज़ भी नहीं था। लेकिन बचपन ही से मुझे ‘रेजिमेंटेशन’ से, ‘कला कला के लिए’ की तर्ज़ पर ‘अनुशासन या कठोर नियन्त्रण महज़ अनुशासन या कठोर नियन्त्रण के लिए’ से भी स्वभावगत चिढ़ थी। इसीलिए मैं मर्चेण्ट नेवी में एक ख़लासी बनना चाहता था। लूकरगंज के कुछ ऐंग्लो इण्डियन युवक, जिनसे मेरा रात-दिन का साथ था, मर्चेण्ट नेवी में ख़लासी बन गये थे और मेरी दिली ख़्वाहिश थी कि मैं भी मर्चेण्ट नेवी में चला जाऊँ। लेकिन उन दिन किसी भी नेवी में - वह फ़ौजी हो या ग़ैर फ़ौजी - नज़र का सही होना अज़हद ज़रूरी था। लेकिन मैं तो बारह साल की उमर ही से चश्मा पहन रहा था। इसलिए जब स्कूली जीवन पूरा करके मैं दिल्ली गया और मैंने अपने एक सम्बन्धी से पूछ-ताछ की और उन्होंने पक्के तौर पर कहा कि बतौर इंजीनियर तो शायद मैं मर्चेण्ट नेवी में ले भी लिया जाऊँ, ख़लासी के तौर पर असम्भव है, तो मैंने आशा छोड़ दी, क्योंकि नज़र के साथ-साथ मेरा गणित और भौतिक शास्त्र भी कमज़ोर था। दूसरा काम जो मुझे बहुत रुचता था, वह चिकित्सा का था। मैं डॉक्टर बनना चाहता था। लेकिन यहाँ भी वही दिक्कत थी। मात्र रसायन-शास्त्र और जीव-विज्ञान में प्रवीणता के बल पर डेढ़-दो सदी पहले तो शायद मैं डॉक्टर बन भी जाता, 1960 में यह अकल्पनीय था, क्योंकि इण्टर में तो मुझे गणित और भौतिक शास्त्र की वैतरणी पार करनी ही पड़ती। तब, ये दोनों रास्ते बन्द देख कर मैंने बग़ावती अन्दाज़ में एक अलग दिशा थामी, इण्टर की परीक्षा कॉमर्स ले कर पास करने का फ़ैसला किया, दो साल का पाठ्यक्रम एक साल में पूरा किया, उसके बाद रफ़्तार के धीमी होने से पहले बी.कॉम भी कर डाला। चूँकि पढ़ने-लिखने में ठीक-ठाक था, इसलिए नम्बर अच्छे मिलते गये। मगर अन्दर तो कुछ और ही पक रहा था। कुछ और ही बीज थे जो अँकुआने के लिए मुनासिब मौसम का इन्तज़ार कर रहे थे। इसीलिए शायद मुझे बीच-बीच में बड़ी शिद्दत से महसूस होता था कि कहीं कुछ है जो ठीक नहीं है। आज यही कह सकता हूँ कि सुरेन्द्रपाल और दूधनाथ ने शायद मेरे अन्दर की यह हलचल महसूस कर ली होगी और इन बीजों के अँकुआने का जाने-अजाने प्रबन्ध कर दिया होगा, क्योंकि पिता ने तो कभी सचेत रूप से साहित्य की ओर प्रवृत्त किया नहीं था। उनके लिए साहित्य व्यवसाय या कैरियर नहीं, बल्कि जीवन-शैली था और वे मानते थे कि हर व्यक्ति अपनी जीवन-शैली का चुनाव ख़ुद करता है। यह बात अलग है कि जब मैंने साहित्य के बैलट बॉक्स में अपना मत पत्र अन्तिम रूप से डाल ही दिया तो फिर उन्होंने पिता के आसन के साथ-साथ गुरु-सहकर्मी और सखा का आसन भी ग्रहण कर लिया। सुरेन्द्रपाल और दूधनाथ के साथ, या शायद एक ही अहाते में रहने और नित सुबह-शाम की मुलाक़ात के कारण उनसे भी ज़्यादा, बुद्धिसेन शर्मा ने मेरी उस आरम्भिक और कच्ची कविताई को झेला चूंकि मुझ पर कविता का एक जुनून-सा छाया हुआ था, इसलिए रोज़ दो-एक कविताएँ लिखता और सहज सुलभ बुद्धिसेन जी को जा सुनाता। वे भी माथे पर ज़रा भी शिकन लाये बग़ैर बहुत ध्यान से उन बेहद ख़राब कविताओं को सुनते, राय देते और हौसला-अफ़ज़ाई करते। </span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);"> आज उन कविताओं को देखता हूँ तो उनके अनगढ़ कच्चेपन पर हँसी आती है, साथ ही आश्चर्य भी होता है कि यह सब मेरा ही किया-कराया है। एक-डेढ़ संग्रह लायक कविताएँ तो होंगी ही, मगर आज वे अजीबो-ग़रीब और दिलचस्प लगती हैं। ‘अलिवृन्द गुंजित उपवनों में झूमता मधुमास’ के साथ-साथ ‘हमने तो माना था तुम्हें मुसहफ़े -एहसास-ए-तफ़सीर /अफ़सोस कि तुम शाम-ए-फ़रोज़ाँ न बन पाये’ जैसी पंक्तियाँ और नयी कविता के प्रभाव में लिखी गयी कविताओं के ‘नॉस्टैल्जिया,’ ‘मशीनी ज़िन्दगी,’ ‘श्रम,’ ‘मृत्यु के पूर्व,’ ‘अँधेरे की मौत,’ ‘प्रश्न और सम्बोधन’ जैसे शीर्षक 1963-64 के उस दौर की निशानदेही करते हैं, जब एक जुनून-सा छाया हुआ था और हर रास्ते पर कुछ क़दम चलने के बाद लगता था यह तो किसी और का रास्ता है और किसी और की मंज़िल पर मुझे ले जायेगा, जहाँ वह पहले ही से आसीन होगा, मेरे लिए जगह न होगी। </span><br /><br /><div style="text-align: right; color: rgb(255, 0, 0);">(जारी)<br /></div>Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3780821805422068162.post-48614091503804659802011-01-18T05:50:00.000-08:002011-01-18T05:52:50.022-08:00देशान्तर<span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 0, 0);"></span><br /><br /><span style="color: rgb(153, 0, 0);">नीलाभ के लम्बे संस्मरण की पहली किस्त</span><br /><span style="color: rgb(153, 0, 0);">पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा</span><br /><span style="color: rgb(153, 0, 0);">और एक लम्बी मैत्री की दास्तान</span><br /><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(51, 51, 0);">ज्ञानरंजन के बहाने - 1</span><br /><br /><br /><br /><br /><div style="text-align: right;"> ”लेट अस - सिन्स ऑल पासेस - पास<br /> आई शैल लुक बैक ओनली टू ऑफ़्टेन<br /> मेमोरीज़ आर हण्टिंग हॉर्न्स<br /> हूज़ साउण्ड डाइज़ अमंग द विण्ड"<br /> --अपॉलिनेयर<br /></div><br />ज्ञानरंजन की याद मेरे मन में जीवन में उस पहले प्यार-सरीखी बसी हुई है, जो विफल हो गया हो। अनेक लोगों के जीवन में प्रेम वसन्त के ऊष्ण, मादक, और आम्र-मंजरियों की मस्त कर देने वाली महक से भरे झँकोरे की तरह आता है, और विफल हो जाने के बाद, वर्षा अथवा शरद में पुरवाई के बहने पर टीसती चोट की तरह टीसता रहता है। ज्ञानरंजन की स्मृति इसी प्रेम की तरह मेरे हृदय में बसी हुई है। (हालाँकि मैं जानता हूँ, ज्ञान के मन में स्मृतियों को ले कर एक सन्देह जैसा भाव है। वह भरसक उनसे अलग-थलग रहने की कोशिश करता है। मुमकिन है, उसके मन में एक डर सरीखा कुछ हो कि स्मृतियों को छूट दी नहीं कि वे अपना जाल-बट्टा, अपना प्रपंच रचना शुरू कर देंगी, आपको अपनी गिरफ़्त में ले लेंगी, शिकंजे में जकड़ लेंगी, यूलिसीज़ की यूनानी पुरा-कथा की उन मायाविनी सुन्दरियों की तरह जो एक टापू पर बैठीं, अपने मधुर गीतों से नाविकों को लुभा कर बुलाती थीं और उनके जहाज़ तट की चट्टानों से टकरा कर चूर-चूर हो जाते थे। या फिर, सम्भव है, ज्ञान इसलिए स्मृतियों से घबराता हो क्योंकि उनसे कई बार अनावश्यक रूप से भावुक करने का काम लिया जाता है जो उचित ही ऊब और खीझ पैदा करता है। ज्ञान के अपने दो समकालीन-मित्रों ने कुछ वर्ष पहले अच्छा-ख़ासा स्मृति-प्रपंच रचा था, जिसमें उनके अपने-अपने स्वभावों के अनुरूप काफ़ी कुछ ट्रैजी-कॉमिक, स्वाँग-विद्रूप का लुत्फ़ था, अगर उससे आप लुत्फ़ ले सकते तो, हद तक कि ज्ञान को गज-ग्राह की इस खींचा-तानी में हस्तक्षेप करना पड़ा था, जैसा कि इनमें से एक को लिखे गये पत्र से प्रकट होता है। यह भी स्मृतियों के प्रति उसकी शंका का कारण हो सकता है।) <br /> 0<br />वैसे, स्मृतियों का संसार बड़ा विचित्र और रहस्यमय है। उनसे बड़ा बहुरूपिया और कोई नहीं होता। स्मृतियों का लोक एक हलचल-भरा, उद्विग्न, व्याकुल, अस्थिर, एकाकी लोक होता है। स्वप्नों ही की तरह मन के जाने किन कोटरों में अपना साम्राज्य फैलाये, किसी विशाल वृक्ष की तरह शाखाएँ-प्रशाखाएँ पसारे। घटनाएँ निरन्तर वहाँ अपना बसेरा ढूँढती रहती हैं और ज़रा-सी ठौर मिल जाने पर अपना एक अलग कुनबा, एक अलग संसार रचने लगती हैं। एक अपना ही जीवन जीने लगती हैं। (स्मृतियों के संसार का यह विलक्षण पहलू है कि साथ बिताये गये समय की स्मृति भी दो लोगों में एक-सी नहीं होती। स्मृतियाँ फ़ोटो ऐल्बम नहीं होतीं, स्थिर, निर्जीव, ठहरी हुईं। वे नदी के प्रवाह की तरह गतिशील और चंचल होती हैं, नदी के प्रवाह की तरह जीवन को शस्य-श्यामल बनाती हुईं - और कई बार काफ़ी उजाड़ और तबाही भी पैदा करती हुईं। और, एक दार्शनिक प्रपत्ति के अनुसार उसी नदी में स्नान करना असम्भव है। इसीलिए शायद सारे संस्मरण अन्ततः अपने बारे में होते हैं। और, चाहे सब कुछ वैसे-का-वैसा बयान करने की कितनी ही कोशिश की जाय, या इसका कितना ही दम भरा जाय, अन्ततः स्मृतियों पर बहुत निर्भर नहीं किया जा सकता, उनका बहुत भरोसा नहीं किया जा सकता।) एक बार अस्तित्व में आते ही वे आपकी पकड़ से बाहर हो जाती हैं। कम्प्यूटर की स्मृति की तरह उन्हें ‘ईरेज़’ करना, मिटा देना, साफ़ कर देना सम्भव नहीं। मन-मस्तिष्क पर उनका साम्राज्य सतत, अविचल और निरंकुश है। कौन-सी घटना, कौन-सा व्यक्ति, कौन-सा प्रसंग कहाँ टँका हुआ है, कोई नहीं जानता। कोई नहीं जानता कि क्या वक्त के साथ धुँधला होता चला गया है, दीवार पर लगी पुरखों की तस्वीर की तरह, और क्या दिनों-दिन चमकीला, पहँटे हुए चाकू की तरह। क्या कब उभर आयेगा, इसे भी बताना बहुत मुश्किल है।<br /> 0<br />ज्ञान से पहली-पहली मुलाकात कब हुई, यह कहना कठिन है। एक क्षीण-सी स्मृति वक्त के धुँधलके को चीर कर उतराती है। शायद 1963-64 की बात है, या उससे भी एकाध वर्ष पहले की, हमारे घर से चार मकान आगे लीडर प्रेस के बड़े-से मैदान में बनी छोटी-सी बँगलिया को एक दफ़्तर में तब्दील कर दिया गया था। ‘कादम्बिनी’ वहाँ से नयी-नयी निकलने लगी थी, बालकृष्ण राव उसके सम्पादक थे और बहुत ही सुरुचिपूर्ण ढंग से पत्रिका का सम्पादन करते थे। बाद में, जब राव साहब हिन्दी साहित्य सम्मेलन से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘माध्यम’ के सम्पादक हो कर चले गये तो उसी बँगलिया में राव साहब की जगह कार्यकारी, फिर पूरी तरह, सम्पादक बन कर रामानन्द दोषी आये। <br /><br /> साठ के दशक के इलाहाबाद को याद करें तो लगता है कि उस समय यहाँ वसन्त का स्थायी डेरा था। शहर तो उन दिनों वैसे भी बेहद ख़ूबसूरत था, लेकिन इसकी इमारतों, सड़कों से भी बढ़ कर इसका आकर्षण यहाँ के सांस्कृतिक-राजनैतिक माहौल का था। शहर एक ज़िन्दा धड़कती हुई उपस्थिति थी और एक अर्से तक बनी रही। तेवर चूँकि यहाँ का न तो बनारस जैसा था - अपनी फक्कड़ई और पिछड़ेपन में मगन - और न लखनऊ जैसा - पुराने ठाठ और जी-हुज़ूरी में खोया हुआ - बल्कि सचेत बौद्धिक विरोध का, इसलिए गहमा-गहमी भी इलाहाबाद में ज़्यादा थी। आज के बड़े-बड़े अखाड़िये और नामवर पहलवान इलाहाबाद के अखाड़ों की मिट्टी ही देह में लगवा कर लड़ैया बने। इलाहाबाद की इन्हीं सिफ़तों की वजह से स्थायी-अस्थायी रूप से लोगों का खिंच कर इलाहाबाद आना बना हुआ था। ख़ूब गोष्ठियाँ होतीं। ‘परिमल’ और ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ की पैंतरेबाज़ी तो अब इतिहास में दर्ज हो चुकी है। काफ़ी हाउस, मलानी कैफ़े, जगाती का रेस्तराँ, बी.एन.रामा के बाहर तिकोना लॉन - साहित्यकारों की महफ़िलें कई ठिकानों पर जगती-जमती थीं।<br /> <br /> हमारे घर पर भी बराबर साहित्यकारों का जमावड़ा रहता था। आज तो ख़ैर कोई साहित्यकार बिना पैसे लिये अपने मुहल्ले के बाहर भी नहीं जाता, मगर उन दिनों लेखक अकेले या अन्य लेखकों के साथ अपने पैसे ख़र्च करके यात्राएँ करते थे और मित्र-परिचितों के यहाँ ही टिकते थे, होटलों में नहीं। मित्रों का आना घर भर को अस्वस्ति नहीं, हर्ष से भर देता था। इलाहाबाद तो यों भी एक साहित्यिक तीर्थस्थली बना हुआ था, सो बहुत-से लोग मत्था टेकने ही चले आते थे और उनका आना एक और गोष्ठी का सबब बन जाता था। बीच-बीच में बड़ी जम्बूरियाँ भी होती थीं। 1957 के लेखक सम्मेलन की बहसें जब ठण्डी पड़ने लगीं तो फिर एक नये समागम का समाँ बँधने लगा। उन दिनों बड़े सम्मेलन या गोष्ठियाँ भले ही ऐनी बेसेण्ट हॉल या इलाहाबाद विश्वविद्यालय के विजयानगरम हॉल में होती रही हों, नियमित गोष्ठियाँ लेखकों के घरों पर ही होती थीं। ग़ालिबन 1964 के कहानी सम्मेलन की तैयारियाँ ज़ोरों पर थीं। इसी सिलसिले में अलग-अलग साहित्यकारों के घर पर बैठकें भी हो रही थीं। ऐसी ही एक बैठक में पहली बार मैंने ज्ञान को अपने यहाँ देखा था। वह गोष्ठी में पीछे की तरफ़ ख़ामोश बैठा रहा था और गोष्ठी ख़त्म होने पर वैसे ही चुपचाप निकल जाने के फेर में था कि मेरे पिता ने (जिन्हें मैं और मेरे सभी मित्र ‘पापा जी’ कहते थे) उसे रोक कर कुछ देर उससे बातें की थीं। इतने वर्षों बाद इससे ज़्यादा और कुछ याद नहीं कि बैठक के दरवाज़े के पास ज्ञान की साँवली, छरहरी आकृति की उपस्थिति उसके चले जाने के बाद भी बहुत देर तक बनी रही थी।<br /><br /><div style="text-align: right;">(जारी)<br /></div><br /><br />see this on http://neelabhkamorcha.blogspot.com/Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3780821805422068162.post-7222927725189016142011-01-17T06:11:00.000-08:002011-01-17T06:13:44.017-08:00<span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 0, 0);">देशान्तर</span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 102, 0);">में</span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 102, 0);">जल्द आ रही है</span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 0, 0);">नीलाभ के लम्बे संस्मरण की पहली किस्त</span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">ज्ञानरंजन के बहाने </span><br /><br /><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 0, 0);">पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 0, 0);">और एक लम्बी मैत्री की दास्तान</span><br /><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 0, 0);">ज्ञान के मन में स्मृतियों को ले कर एक सन्देह जैसा भाव है। वह भरसक उनसे अलग-थलग रहने की कोशिश करता है। मुमकिन है, उसके मन में एक डर सरीखा कुछ हो कि स्मृतियों को छूट दी नहीं कि वे अपना जाल-बट्टा, अपना प्रपंच रचना शुरू कर देंगी, आपको अपनी गिरफ़्त में ले लेंगी, शिकंजे में जकड़ लेंगी, यूलिसीज़ की यूनानी पुरा-कथा की उन मायाविनी सुन्दरियों की तरह जो एक टापू पर बैठी, अपने मधुर गीतों से नाविकों को लुभा कर बुलाती थीं और उनके जहाज़ तट की चट्टानों से टकरा कर चूर-चूर हो जाते थे। या फिर, सम्भव है, ज्ञान इसलिए स्मृतियों से घबराता हो क्योंकि उनसे कई बार अनावश्यक रूप से भावुक करने का काम लिया जाता है जो उचित ही ऊब और खीझ पैदा करता है। ज्ञान के अपने दो समकालीन-मित्रों ने कुछ वर्ष पहले अच्छा-ख़ासा स्मृति-प्रपंच रचा था, जिसमें उनके अपने-अपने स्वभावों के अनुरूप काफ़ी कुछ ट्रैजी-कॉमिक, स्वाँग-विद्रूप का लुत्फ़ था, अगर उससे आप लुत्फ़ ले सकते तो, हद तक कि ज्ञान को गज-ग्राह की इस खींचा-तानी में हस्तक्षेप करना पड़ा था, जैसा कि इनमें से एक को लिखे गये पत्र से प्रकट होता है। यह भी स्मृतियों के प्रति उसकी शंका का कारण हो सकता है।</span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 0, 0);">(एक अंश) </span>Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3780821805422068162.post-9929806265497229702011-01-12T17:58:00.000-08:002011-01-12T17:59:18.069-08:00<span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 0, 0);">देशान्तर</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 0, 0);">में शमशेर</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 0, 0);">१९११-९३</span><br /><br />१३ जनवरी शमशेर जी का जन्मदिन है। आज अगर वे होते तो पूरे १०० साल के हो गये होते। वैसे तो किसी कवि को याद करने के लिए जन्मदिनों या शतवार्षिकियों की ज़रूरत नहीं होती, लेकिन ये कुछ ऐसे अवसर होते हैं जब हम थोड़ा ठहर कर अपने पुरखों को याद करते हैं ताकि हममें वह अनिवार्य विनम्रता और विनय बरक़रार रहे जिसकी मदद से हम भटकें नहीं, अपनी रचनात्मकता के नशे में मख़मूर न हो जायें। इस मौक़े पर आज देशान्तर में हम शमशेर जी के निधन के फ़ौरन बाद १९९३ में लिखी नीलाभ की एक संस्मरणात्मक टिप्पणी दे रहे हैं।<br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 0);">सघन तम की आँख बन मेरे लिए</span><br /><br /> १.<br /><br />शमशेर जी से आख़िरी मुलाक़ात बरसों पहले हुई थी। इमरजेंसी का ज़माना था शायद या शायद इमरजेंसी हटी-हटी ही थी। वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय के किसी कार्यक्रम में भाग लेने के लिए आये हुए थे और मेरे मित्र और साथी अजय सिंह भी उनके साथ थे। याद पड़ता है कि मैं अपनी मोटर साइकिल पर शमशेर जी को बैठा कर कटरा के बाज़ार से होता हुआ वहाँ पहुँचाने गया था, जहाँ वे ठहरे हुए थे। संक्षिप्त-सी मुलाकात थी - कुछ घण्टों की - मगर ढेरों बातें हुई थीं- माओ त्से तुंग के निधन के बाद चीन के बदलते स्वरूप से ले कर अजय के हठी स्वभाव और एज़रा पाउण्ड तक जो शमशेर जी के भी पसन्दीदा कवियों में थे - दुनिया-जहान की बातें। ऐसी बातें, जिन्हें आप बाद में शब्द-शब्द जोड़ कर पुनर्निमित नहीं कर सकते, मगर जो आपकी चेतना और एहसास में जज़्ब हो कर उन्हें समृद्ध कर जाती हैं। यही शमशेर जी का ख़ास अन्दाज़ था।<br /> अपनी एक कविता में शमशेर जी ने लिखा है -<br /> कबूतरों ने एक ग़ज़ल गुनगुनायी.....<br /> मैं समझ न सका रदीफ़-काफ़िये क्या थे<br /> इतना ख़फ़ीफ़, इतना हल्का, इतना मीठा उनका दर्द था।<br />शमशेर जी के बारे में सोचते हुए मुझे हमेशा ही ये पंक्तियाँ याद आ जाती है। उनकी ज़िन्दगी और उनकी कविता के भी रेशे, उसके ताने-बाने, ऐसे ही ख़फ़ीफ़, हल्के मीठे दर्द से रचे गये थे।<br /><br /> २.<br /><br />शमशेर जी के साथ मेरी बहुत घनिष्ठता नहीं थी। यानी ऐसी घनिष्ठता, जो संग-साथ पर निर्भर हो। मुलाक़ातें भी ज़्यादा नहीं कही जा सकतीं। लेकिन आज से लगभग तीस साल पहले जब मैंने कविता लिखना शुरू किया तो मेरे लिए और मेरी पीढ़ी के और बहुत-से कवियों के लिए शमशेर जी एक अनिवार्य कवि थे। आज हालाँकि यह बात बड़ी अजीब लग सकती है, लेकिन उस ज़माने को पीछे मुड़ कर देखें तो आप समझ पायेंगे कि मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ। वह ज़माना नयी कविता के बिखराव और अ-कविता के क्षणिक उबाल का था। मुक्तिबोध का पहला संग्रह ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ अभी आया नहीं था। त्रिलोचन, नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल फ़िर से खोजे जाने का इन्तज़ार कर रहे थे। कविता की हिम-मण्डित चोटियों पर अज्ञेय आसीन थे। ऐसी हालत में तराई और मैदानों के वर्षातप को झेल रहे नये कवियों को शमशेर जी में सहजता और अपनापन मिला हो तो आश्चर्य की बात नहीं।<br /> सच यही है कि शमशेर जी के व्यक्तित्व की तरह उनकी कविता में भी गर्माहट और शीतलता एक साथ हासिल होती थी। सर्दियों की धूप की गुनगुनी गर्माहट और गर्मियों की बहार में घने बरगद की छाँह की शीतलता। तब तक शमशेर जी के दो ही संग्रह प्रकाशित हुए थे- ‘कुछ कविताएँ’ और ‘कुछ और कविताएँ,’ लेकिन एक कवि के तौर पर शमशेर जी कभी संग्रहों के मुहताज नहीं रहे। न पहले और न बाद में। न वे इस बात के मुहताज थे कि वे दूसरे सप्तक के कवि हैं। सच तो यह है कि मुक्तिबोध की तरह शमशेर जी भी सप्तकों की सीमित प्रभा के बहुत बाहर तक फैले हुए कवि थे। और रहेंगे। बल्कि मुझे तो कभी-कभी यह भी लगता है कि दूसरा सप्तक में शामिल होना शमशेर जी को कहीं-न-कहीं सीमित भी कर गया। इसकी वजह शायद यह हो कि अपने साथी मुक्तिबोध की तरह शमशेर जी का मिज़ाज भी अज्ञेय के सम्पादकत्व में निकलने वाले सप्तकों से मेल नहीं खाता था। वे ऐसी ताक़तवर धातु के बने हुए थे जो अक्सर सतह पर नहीं दिखती। इसी चीज़ ने सन उन्नीस सौ साठ के दशक में नये कवियों का ध्यान अपनी तरफ़ खींचा।<br /> हर पीढ़ी अपने से पहले की पीढ़ी को इस लिहाज़ से भी जाँचती है कि पहले की पीढ़ी ने अपने पूर्वजों के बारे में क्या लिखा है, उन्हें किस तरह याद किया है। शमशेर जी के पहले कविता संग्रह की पहली ही कविता ‘निराला के प्रति’ - उनके दृष्टिकोण को स्पष्ट कर देती है -<br /> भूल कर जब राह जब-जब राह.......भटका मैं<br /> तुम्हीं झलके, हे महाकवि,<br /> सघन तम की आँख बन मेरे लिए<br />ज़ाहिर है, हम नये कवियों को, जिनकी सबसे बड़ी कोशिश अकविता के भटकाव से बाहर आने की थी, शमशेर जी की इन पंक्तियों से बहुत बल मिला। न सिर्फ़ इस कविता की अनूठी बिम्ब-योजना के कारण, बल्कि इस कारण भी कि भटकाव और भटकाव से सही राह पर वापसी ऐसे अनुभव नहीं है जिन्हें हम ही झेल रहे हों। यह ढाढ़स बँधाने वाली बात थी कि हमसे पहले भी लोग भटके हैं और उनके लिए कुछ लोगों ने ‘सघनतम की आँख’ बनने का काम किया है। ऐसी ही ‘सघनतम की आँखें’ हमें भी हासिल होंगी, जो हमें फ़िर सही रास्ते पर लायेंगी। और अगर मैं कहूँ कि मेरे तईं अकविता के घटाटोप के बीच शमशेर जी की कविता ऐसी ही आँख का काम करती रही तो बहुत ग़लत न होगा। ये पंक्तियाँ लिखते हुए मुझे अचानक रब्बी की कविता - ‘शमशेर’- याद हो आयी है -<br /> मैं नंगे पाँव धूप में चल रहा था<br /> काँटों भरी डगर पर<br /> एक विशाल वट-वृक्ष के नीचे बैठ गया<br />हम में से बहुत-से लोगों को शमशेर जी ऐसे ही वट-वृक्ष की तरह लगे हैं। कड़ी धूप में, कंकड़-काँटों से भरी राह पर चलते हुए, शमशेर जी की कविता एक घने, पत्तेदार वट-वृक्ष जैसी ही लगती है। यह अलग बात है कि शमशेर जी की कविता पर अभी तक क़ायदे से, मुक़म्मल तौर पर, विचार नहीं हो पाया है। और यह तथ्य आज के साहित्यिक जगत पर दुखद टिप्पणी भी है। या तो कुछ लोग शमशेर जी को पीर-औलिया बना कर भुनाते रहे हैं, या उन्हें ‘चुका हुआ’ मान कर विस्मृत कर चुके हैं। या फ़िर अपने-अपने ढंग से उन्हें अज्ञेयवादी, नयी कवितावादी, प्रयोगवादी या प्रगतिवादी या ‘कवियों के कवि’ या ‘कवियों में चित्रकार और चित्रकारों में कवि’ कह कर स्वीकारते-नकारते रहते हैं। जबकि शमशेर जी महज़ कवि हैं। न कम, न ज़्यादा। न तो वे ‘कवियों के कवि’ हैं, जैसा कि अक्सर हिन्दी के प्राध्यापकीय आलोचक अपनी अक्षमता के कारण कह दिया करते हैं, और न वे उस तरह के ‘जन कवि’ हैं, जिनकी कविताएँ अख़बार का काम करती हैं। यह टिप्पणी शमशेर जी की कविता की विशद व्याख्या करने का अवसर नहीं है, लेकिन उन्हें याद करते हुए जो सबसे बड़ी बात देखने की है - और यह सिर्फ़ पाठकों के लिए नहीं, बल्कि अन्य कवियों के लिए भी देखने की है - कि जीवन किस तरह कवि के व्यक्तित्व से छन कर उसकी कविता में उतरता है। शमशेर जी ने लिखा है -<br /> जो मैं हूँ -<br /> मैं कि जिसमें सब कुछ है.....<br /> क्रान्तियाँ कम्यून,<br /> कम्युनिस्ट समाज के<br /> नाना कला विज्ञान और दर्शन के<br /> जीवन्त वैभव से समन्वित<br /> व्यक्ति मैं।<br />शमशेर जी की कविता इसी व्यक्ति की दस्तावेज़ है, जो अपने समय की हलचलों से निर्मित हुआ है और सतत होता जा रहा है।<br /><br /><br /> ३.<br /><br />यही वे ख़ूबियाँ हैं, जिन्होंने शमशेर जी की कविता के प्रति लोगों में बराबर दिलचस्पी जगाये रखी है। हर नयी पीढ़ी जब पीछे मुड़ कर अपनी परम्परा का जायज़ा लेती रही है तो राह के विशाल वट-वृक्ष की तरह शमशेर जी को हमेशा पत्ते डोलाते पाती रही है। लेकिन उस सुकून के बावजूद, जो इस विशाल वट-वृक्ष की छाँह-तले बैठ कर मिलता है, शमशेर की कविता के बारे में सरे-राहे कुछ भी कहना सम्भव नहीं है। इस लिहाज़ से शमशेर ‘मुश्किल’ कवि हैं। लेकिन इसका यह अर्थ न लगाया जाय - जैसा कि अक्सर लोग लगाते हैं - कि वे कठिनाई से समझ में आने वाले कवि हैं। अबूझ कवि हैं। ऐसा बिलकुल नहीं है। वे उतना ही कठिन या सरल हैं, जितना कि कोई औसत मनुष्य होता है। उनकी कविता को पढ़ते हुए हमें बराबर इस बात का एहसास होता है कि शमशेर नाम का व्यक्ति जीवन को जिस तरह देखता है - उनकी कविता इसका लेखा-जोखा पेश करती है। इसीलिए अगर उनकी कुछ कविताएँ हमें समझ में नहीं आतीं तो हैरत नहीं, क्योंकि मनुष्य भी तो बहुत बार हमें समझ में नहीं आता है। ख़ुद अपना आप हमारे लिए कई बार एक अबूझ पहेली बन जाता है। लेकिन तब तो हमें चिन्ता नहीं होती। फ़िर क्या कारण है कि शमशेर या मुक्तिबोध पर हम ‘दुरूहता’ का लेबल चिपका कर उन्हें ख़ारिज करने को उतारू हो जाते हैं। इसकी वजह शायद यह है कि साहित्य और कला के प्रति हम एक सही नज़रिया नहीं विकसित कर पाये हैं। शायद हमने साहित्य को ज़िन्दगी के सवालों की एक बनी-बनायी कुंजी समझ लिया है, जो हर ताले को एक-सी सहजता से खोलती चली जायेगी। जबकि अक्सर ऐसा नहीं होता।<br /> बहरहाल, शमशेर की कविता की यह एक ख़ूबी ही कही जायेगी कि वह आपको उस अनुभव में शिरकत करने के लिए आमन्त्रित करती है, जिसे शमशेर ने प्राप्त किया है और अपनी कविता में व्यक्त किया है। इसीलिए शमशेर की कविता में हमें 1947 के पहले का संघर्ष-भरा आशावादी स्वर भी मिलता है और 1947 के बाद के मोह-भंग की उदासी भी। हमें जन-जीवन के चित्र भी मिलते हैं और व्यक्ति की निजी उलझनों के अँधेरे-उजाले कोने-अँतरे भी।<br />शमशेर की कविता को आज जब हम समग्रता में देखते हैं तो हम पाते हैं कि अपने ढंग से उन्होंने उन तमाम चिन्ताओं के इर्द-गिर्द अपनी कविता को रचा है, जिन्हें आज हम अपने समय की प्रमुख चिन्ताओं में शुमार करते हैं - मिसाल के तौर पर हिन्दी-उर्दू की मिली-जुली परम्परा का मसला, साम्प्रदायिकता की समस्या, श¨षण और उत्पीड़न के विरुद्ध लड़ाई जारी रखने का सवाल और व्यक्ति और समाज, पार्टी और व्यक्ति के बीच एक बेहतर तालमेल स्थापित करने की जद्दो-जेहद और यह काम शमशेर जी ने एक ऐसे समय में किया, जब इन सवालों को नज़रन्दाज़ किया जा रहा था। इसीलिए शायद हमारे लिए शमशेर जी की कविताएँ इस तेज़ी से बदलते दौर में महत्वपूर्ण बनी रही हैं। फ़िर वह चाहे काव्य-चेतना के सन्दर्भ में हो या निजी व्यवहार के सन्दर्भ में।<br /><br /><br /> ४.<br /><br />शमशेर जी ने ‘अज्ञेय से’ शीर्षक कविता में लिखा है -<br /> जो नहीं है<br /> जैसे कि सुरुचि<br /> उसका ग़म क्या<br /> वह नहीं है<br />सुरुचि का मामला भी शमशेर जी के लिए एक अहम मामला था। उनके लिए सुरुचि सजी-बजी बैठकों और तथाकथित सांस्कृतिक ताम-झाम में नहीं, बल्कि इस बात में थी कि आप अपने इर्द-गिर्द के लोगों से किस तरह पेश आते हैं। नर्म लबो-लहजा, दूसरों की भावनाओं का आदर करना, उन पर नाहक ही चोट न करना- यह सब शमशेर जी के व्यक्तिव का हिस्सा था। और इसके साथ-साथ थी एक मुहब्बत - अपने साथियों के प्रति ही नहीं, बल्कि अपने से उमर में छोटे लोगों के लिए भी।<br /> मुझे याद आता है सन 1974 की गर्मियों में मैं अपनी पत्नी और चार साल के बेटे के साथ दिल्ली गया हुआ था। शमशेर जी उन दिनों अजय और शोभा के साथ अमर कालोनी के एक छोटे-से फ़्लैट में रहते थे और मीलों की मंज़िल मार कर उर्दू शब्दकोष पर काम करने के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय जाया करते थे। एक दिन हम शाम के समय अजय के यहाँ पहुँचे। थोड़ी देर में शमशेर जी भी आ गये। गप-शप होने लगी। शोभा चाय का इन्तज़ाम करने लगी। मैं शमशेर जी के साथ अपने बचपन की बातें करने लगा और शमशेर जी मेरी पत्नी सुलक्षणा को मेरे बचपन के कुछ प्रसंग बताने लगे। बातों-बातों में बिस्कुटों का ज़िक्र छिड़ा और मैंने कहा कि मुझे बचपन में ब्रिटैनिया के ‘नाइस’ बिस्कुट बहुत पसन्द थे - जिनमें बिस्कुटों पर चीनी के दाने लगे होते हैं। शमशेर जी ने कहा कि उन्हें भी वे बिस्कुट बहुत अच्छे लगते हैं। तभी सुलक्षणा ने उन्हें बताया कि हमारे बेटे को भी वे बिस्कुट बहुत अच्छे लगते हैं। इसी बीच चाय आ गयी और बातों का सिलसिला दूसरी तरफ़ मुड़ गया। अभी हमने चाय शुरू ही की थी कि शमशेर जी ग़ायब। ख़याल आया कि शायद हाथ-वाथ धोने गये होंगे। पाँच मिनट बाद शमशेर जी सीढ़ियाँ चढ़ कर आते दिखायी दिये। कमरे में आ कर उन्होंने अपने मख़सूस शर्मीले अन्दाज़ में मुस्कुराते हुए ब्रिटैनिया के उन्हीं नाइस बिस्कुटों का डिब्बा मेज़ पर रखा और उसे खोल कर मेरे बेटे को बिस्कुट खिलाने लगे। प्रसंग बहुत छोटा-सा है, किसी हद तक मामूली भी, लेकिन मेरे लिए यह शमशेर जी के पूरे व्यक्तित्व को - प्रदर्शन से परे रहने वाली उनकी मुहब्बत और गर्मजोशी को - साकार कर देता है।<br /><br /><br /> ५.<br /><br />एक लम्बे अर्से से शमशेर जी कभी मध्य प्रदेश तो कभी गुजरात रहे। मुलाक़ातें पहले ही गाहे-बगाहे होती थीं। अब बिलकुल ख़त्म-सी हो गयीं। कभी-कभार अजय के ज़रिये शमशेर जी का हाल-चाल मिल जाता था। इस दौरान शमशेर जी बहुत बीमार भी रहे। तो भी दिल को तसल्ली थी कि हमारे परिवार के एक बुज़ुर्गवार अब भी हमारे बीच हैं। जैसा कि मैंने कहा शमशेर जी के साथ निकटता का पैमाना उनके साथ होने वाली मेल-मुलाक़ात से तय नहीं होता था। वे एक ऐसे ज़माने के आदमी थे, जब लेखकों की बिरादरी में कहीं अधिक अपनापा और घनिष्ठता थी। वर्षों न मिलने के बाद भी जब मुलाक़ात होती तो ऐसा लगता कि बीच में कोई व्यवधान ही नहीं पड़ा। इसीलिए जब अचानक यह ख़बर मिली कि शमशेर जी नहीं रहे तो यह ख़याल नहीं आया कि हिन्दी के एक बड़े कवि का देहान्त हो गया है, बल्कि यही लगा कि जैसे अपने परिवार के किसी बड़े-बुज़ुर्ग का निधन हो गया है।Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3780821805422068162.post-39711166187380286322011-01-10T06:11:00.000-08:002011-01-10T06:16:38.479-08:00देशान्तर<span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 0);">देशान्तर</span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 0, 0);">आज के कवि : सुकान्त भट्टाचार्य</span><br /><br /><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(255, 0, 0);">पारपत्र</span><br /> <br />जिस बच्चे ने जन्म लिया है आज रात<br />उसी के मुँह से मिली है ख़बर,<br />उसे मिला है एक पारपत्र<br />नये विश्व के द्वार पर।<br />इसीलिए जताती है अधिकार<br />जन्म लेते ही उसकी चीख़-पुकार।<br />नन्हीं-सी देह, असहाय फिर भी उसके हाथों की बँधी हुई मुट्ठियाँ<br />तनी हुई हैं जाने कौन-सी दुर्बोध प्रतिज्ञा में।<br /><br />उस भाषा को कोई नहीं समझता<br />कोई हँसता है, कोई देता है मीठी झिड़की।<br />मैं लेकिन मन-ही-मन समझ रहा हूँ उसकी भाषा।<br />पायी है उसने आने वाले युग की नयी चिट्ठी -<br />पढ़ता हूँ नये जन्मे बच्चे का परिचय-पत्र,<br />उसकी अस्पष्ट धुन्ध-भरी आँखों में।<br /><br />आया है नया मेहमान<br />जिसके लिए छोड़ना होगा स्थान।<br />चले जाना होगा हमें<br />पुरानी पृथ्वी के व्यर्थ, मरे हुए और नष्ट ढेर पर। चला जाऊँगा -<br />फिर भी जब तक हैं देह में प्राण<br />जी-जान से हटाता रहूँगा पृथ्वी का जंजाल<br />बना जाऊँगा दुनिया को इस बच्चे के रहने योग्य<br />नये जन्मे के प्रति यह है मेरी दृढ़ प्रतिज्ञा<br />अन्त में सब काम निपटा कर<br />अपनी देह के रक्त से नये शिशु को<br />दे जाऊँगा आशीर्वाद।<br /><br />तब बनूँगा इतिहास<br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 102, 0);">हे महाजीवन</span><br /><br />हे महाजीवन, अब और यह कविता नहीं।<br />इस बार कठिन, कठोर गद्य लाओ।<br />मिट जाये पद्य-लालित्य की झंकार।<br />गद्य के कठोर हथौड़े से आज करो चोट।<br />चाहिए नहीं आज कविता की स्निग्धता।<br /><br />कविता आज तुझे छुट्टी दी।<br /><br />भूख के राज्य में पृथ्वी गद्यमय है।<br />पूर्णिमा का चाँद जैसे झुलसी हुई रोटी है।<br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 102, 51);">गान </span> <br /><br />जिस तरह खींचता है जल को ताप<br />उसी तरह खींचता हूँ तुम्हें<br />लगातार रोज़-रोज़।<br />तुम मुझे पहचान लो<br />छोड़ कर अपना तमाम छल।<br /><br />जानता हूँ तुम्हें कुछ कहना व्यर्थ है।<br />तुम मेरी और मैं तुम्हारा हूँ मित्र।<br />बन्द द्वार खोल कर<br />आओगी न कभी तुम भूल कर।<br />रुकेगा न कभी मेरा आना-जाना।<br /><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(51, 204, 0);">आगामी</span><br /><br />जड़ नहीं, मृत नहीं, नहीं हूँ अन्धकार का खनिज,<br />मैं हूँ जीवन्त प्राण, हूँ एक अंकुरित बीज :<br />मिट्टी में पला हुआ, भीरु,<br />जिसने खोली हैं अपनी शंकाकुल आँखें आज।<br /><br />आकाश के बुलावे पर,<br />सपनों ने घेर रखा है मुझ को।<br /><br />हालाँकि नगण्य हूँ मैं, तुच्छ हूँ वट-वृक्षों के समाज में<br />तो भी मेरी इस नन्हीं-सी देह में बजती है छुपी हुई मर्मर ध्वनि<br />चीरी है मिट्टी मैंने, देखा है उजाले का आना-जाना,<br />इसीलिए मेरी जड़ों में है जंगल की विशाल चेतना।<br /><br />आज सिर्फ़ फूटे हैं अंकुर,<br />लेकिन मुझे पता है,<br />कल नन्हे-नन्हे पत्ते<br />उद्दाम हवा की ताल पर सिर हिलायेंगे। <br />उसके बाद फैला दूँगा सबके सामने<br />अपनी मज़बूत डालियाँ,<br />प्रस्फुटित कर दूँगा विस्मित फूल<br />पड़ोसी पेड़ों के मुँह पर।<br />तेज़ तूफ़ान में भी दृढ़ता से जमी हुई है प्रत्येक जड़ :<br />हर डाल कर रही प्रतिरोध,<br />जानता हूँ पराजित होगा अन्तत: तूफ़ान :<br />जितने भी मेरे नये-नये साथी हैं माथे पर ले कर मेरा आह्वान<br />जानता हूँ मुखरित होंगे जंगल के नये गीत सरीखे।<br />अगले वसन्त में लेकिन मैं मिल जाऊँगा बड़ों की क़तार में,<br />कोंपलों की जयध्वनि में सब स्वागत करेंगे मेरा।<br />नन्हा हूँ मैं, पर तुच्छ नहीं हूँ मैं, जानता हूँ मैं भावी वनस्पति हूँ<br />वर्षा और मिट्टी के रस में पाता हूँ मैं इसी की स्वीकृति।<br />उस दिन मेरी छाया में आना,<br />फिर अगर तुम वार भी करोगे मुझ पर तेज़ कुल्हाड़ी से<br />तो भी मैं तुम्हें बुलाऊँगा बार-बार हाथ हिला कर<br />फल दूँगा, फूल दूँगा, दूँगा मैं पंछियों का कलरव<br />एक ही मिट्टी पर पला हुआ तुम्हारा अपना साथी।<br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(0, 0, 0);">ख़बर</span><br /><br />ख़बर आती है<br />दिशा-दिशा से, विद्युतवाहिनी ख़बर ।<br />युद्ध, विप्लव, बाढ़, अकाल, आँधी -<br />यहाँ पत्रकारिता की रात का सन्नाटा।<br />रात गहरी होती है यन्त्रों के बजते हुए छन्द में - प्रकाश की व्यग्रता में;<br />जब तुम्हारे जीवन में निद्रा-डूबी मध्य रात्रि,<br />आँखों में स्वप्न और घर में अन्धकार होता है।<br />अतुल अदृष्य बातों के समुद्र से नि:शब्द उठ आते हैं शब्द<br />अभ्यस्त हाथों से ख़बरें सजाता हूँ -<br />अनुवाद करते-करते कभी-कभी चौंक उठता हूँ<br />देखता हूँ युग को बदलते हुए।<br />कभी हाथ काँप उठते हैं ख़बर लिखते हुए<br />श्रावण की बाईसवीं या जून की बाईसवीं तिथि को।<br />तुम्हारी नींद के अँधेरे रास्ते को पार कर<br />ख़बरों की परियाँ यहाँ आती हैं तुम लोगों से पहले<br />उन्हें पा कर कभी कण्ठ में उभरता है दर्द और कभी उभरता है गान<br />सुबह के उजाले में जब वे तुम्हारे पास पहुँचती हैं<br />तब तक हमारी आँखों में झर गये होते हैं उनके पंख।<br />तुम लोग ख़बर पाते हो,<br />सिर्फ़ ख़बर नहीं रखते किसी की उनिद्र आँखों और चौकन्ने कानों की<br />वह कम्पोज़िटर क्या कभी चौंक उठता है त्रुटिहीन यान्त्रिकता के<br />किसी अवसर पर ?<br />पुराने टूटे हुए चश्मे से धुँधली ऩजर आती है दुनिया -<br />नौ अगस्त को असम सीमान्त के हमले पर ?<br />क्या कभी वह जल उठता है<br />स्टालिनग्राद के गतिरोध में, महात्मा जी की मुक्ति में,<br />पेरिस के अभ्युत्थान पर ?<br />बुरी ख़बर नहीं लगती क्या<br />काले अक्षरों के लिबास में किसी की शवयात्रा ?<br />जो ख़बरें प्राणों के पक्षपात की आभिषिक्त हैं<br />वे क्या बड़े हरफ़ों में ख़ुद को प्रकाशित नहीं करतीं सम्मान से ?<br />यह सवाल अव्यक्त, अनुच्चरित रहता है<br />सुबह के अख़बार की सा़फ़-सुथरी तहों में।<br />केवल हम लोग लिखते हैं दैनन्दिन इतिहास<br />तब भी इतिहास नहीं रखेगा हमें याद<br />कौन याद रखेगा नवान्न के दिन काटे गये धान के गुच्छों को<br />लेकिन याद रखना तुम लोगों से पहले ही<br />हम लोग पाते हैं ख़बर - मध्य रात्रि के अँधेरे में<br />तुम्हारी तन्द्रा के जाने बिना भी<br />इसलिए तुम लोगों से पहले ही ख़बर-परियाँ आती हैं<br />हमारी चेतना के पथ को पार करते हुए<br />मेरी हृत्तन्त्री पर चोट लग कर बज उठती हैं कई एक बातें -<br />पृथ्वी मुक्त हुई - जनता की विजय हुई अन्तिम संघर्ष में।<br />तुम्हारे घर में आज भी अँधेरा, आँखों में स्वप्न,<br />लेकिन जानता हूँ, एक दिन वह सुबह ज़रूर आयेगी<br />जब यह ख़बर पाओगे, तुम हर एक के चेहरे पर<br />सुबह की रोशनी में, घास-घास में, पत्तों-पत्तों में।<br /><br />फ़िलहाल तो तुम लोग नींद में हो।<br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(51, 102, 255);">यूरोप के प्रति</span><br /><br />वहाँ अभी मई का महीना है, बर्फ़ के गलने के दिन,<br />यहाँ आग बरसाता वैशाख है, निद्राहीन।<br />शायद वहाँ शुरू हो गयी है मन्थर दक्खिनी हवा,<br />यहाँ वैशाखी लू के थपेड़े धावा बोलते हैं।<br />यहाँ-वहाँ फूल उगते हैं आज तुम्हारे देश में,<br />कैसे-कैसे रंग, कितनी विचित्र रातें देखने को मिलती हैं,<br />सड़कों पर निकल पड़े हैं कितने लड़के-लड़कियाँ घर छोड़ कर<br />इस वसन्त में, कितने उत्सव हैं, कितने गीत गाये जा रहे।<br />यहाँ तो सूख गये हैं फूल, मटमैली धूल में;<br />चीख़-पुकार करता है सारा देश, चैन ख़त्म हो चुका है,<br />कड़ी धूप के डर से लड़के-लड़कियाँ बन्द हैं घरों में,<br />सब ख़ामोश : शायद जागेंगे वैसाखी तूफ़ान में,<br />बहुत मेहनत, बहुत लड़ाई करने के बाद।<br />चारों ओर क़तार-दर-क़तार हैं तुम्हारे देश में फूलों के बा़ग़,<br />इस देश में युद्ध, महामारी, दुर्भिक्ष जलता है हड्डी-हड्डी में,<br />इसीलिए आग बरसाते ग्रीष्म के मैदान में छीन लेती है नींद<br />बेपरवाह प्राणों को; आज दिशा-दिशा में लाखों-लाख लोग होते हैं इकट्ठा --<br />तुम्हारे मुल्क में मई का महीना है, यहाँ तूफ़ानी वैशाख।<br /><br />प्रस्तुत<br /><br />काली मौतों ने आज बुलाया है स्वयंवर में<br />कई दिशाओं में कई हाथों को हिलते देखता हूँ इस बड़ी-सी दुनिया में<br />डरा हुआ मन खोजता है आसान रास्ता, निष्ठुर नेत्र;<br />इसलिए ज़हरीले स्वाद से भरी इस दुनिया में<br />सिर्फ़ मन के द्वन्द्व निरन्तर फैलाते हैं आग।<br /><br />अन्त में टूटे हैं भ्रम, आया है ज्वार मन के कोने में<br />तेज़ भौहें तनी हैं कुटिल फूलों के वन में<br />अभिशापग्रस्त वे सभी आत्माएँ आज भी हैं बेचैन<br />उनके सम्मुख लगाया है प्राणों का मज़बूत शिविर<br />ख़ुद को मुक्त किया है आत्म-समर्पण में।<br /><br />चाँद के सपने में धुल गया है मन जिस समय के दौरान<br />उसे आज दुश्मन जान कर लिया है पहचान<br />धूर्तों की तरह शक्तिशाली नीच स्पर्द्धाएं<br />मौक़ा पाने पर आज भी मुझे झपट सकती हैं<br />इसीलिए सतर्क हूँ, मन को गिरवी नहीं रखा मैंने।<br /><br />बीते हैं असंख्य दिन प्राणों के व्यर्थ रुदन में<br />नर्म सोफ़े पर बैठ कर क्रान्तिकारी चेतना के उद्बोधन में<br />आज लेकिन जनता के ज्वार में आयी है बाढ़<br />प्यासे मन में रक्तिम पथ के अनुसरण की कामना,<br />कर रही है पृथ्वी पहले की राह का संशोधन।<br /><br />उठाया है हथियार अब सामने दुश्मन चाहिए<br />क्योंकि महामारण का निर्दयी व्रत लिया है हमने आज<br />जटिल है संसार, जटिल है मन का सम्भाषण<br />उनके प्रभाव में रखा नहीं मन में कोई आसन,<br />आज उन्हें याद करना भूल होगी यह जानता हूँ मैं।<br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 51, 204);">प्रार्थी</span><br /><br />ओ सूरज! सर्दियों के सूरज!<br />हम बर्फ़-सी ठण्डी रात के दौरान<br />तुम्हारी ही प्रतीक्षा करते रहते हैं।<br />जैसे प्रतीक्षा करती रहती हैं किसानों की चंचल आँखें<br />धान की कटाई के रोमांचकारी दिनों की।<br /><br />ओ सूरज! तुम्हें तो पता है<br />हमारे पास गरम कपड़ों का कितना अभाव है<br />कितनी दिक़्क़त से हम सर्दी को रोकते हैं<br />सारी रात घास-फूस जला कर<br />कपड़े के एक टुकड़े से अपने कान ढँकते हुए<br /><br />सुबह की धूप का एक टुकड़ा<br />सोने के एक टुकड़े से भी ज़्यादा क़ीमती लगता है<br />धूप के एक टुकड़े की प्यास में<br />हम घर छोड़ इधर-उधर भागते-फिरते हैं<br /><br />ओ सूरज!<br />तुम हमारी सीली नम कोठरियों को<br />गर्मी और रोशनी देना<br />और गर्मी देना<br />रास्ता-किनारे के उस नंगे लड़के को।<br /><br />ओ सूरज! तुम हम लोगों को गर्मी देना<br />सुना है तुम एक जलते हुए अग्नि-पिण्ड हो,<br />तुम से गर्मी पा कर<br />शायद हम सब एक दिन एक-एक जलते हुए<br />अग्नि-पिंड में बदल जायें।<br />उसके बाद उस गर्मी में जल जाये हमारी जड़ता<br />तब शायद गरम कपड़े से ढँक सकेंगे हम<br />रास्ता किनारे के उस नंगे लड़के को<br />आज मगर हम प्रार्थी हैं तुम्हारे अकृपण उत्ताप के।<br /><br />इस नवान्न में<br /><br />इस हेमन्त में धान की कटाई होगी<br />फिर ख़ाली खलिहान से फ़सल की बाढ़ आयेगी<br />पौष के उत्सव में प्राणों के कोलाहल से भरेगा श्मशान-सा नीरव गाँव<br />फिर भी इस हाथ से हंसिया उठाते रुलाई छूटती है<br />हलकी हवा में बीती हुई यादों को भूलना कठिन है<br />पिछले हेमन्त में मर गया है भाई, छोड़ गयी है बहन,<br />राहों-मैदानों में, मड़ई में मरे हैं इतने परिजन,<br />अपने हाथों से खेत में धान बोना,<br />व्यर्थ ही धूल में लुटाया है सोना,<br />किसी के भी घर धान उठाने का शुभ क्षण नहीं आया -<br />फ़सल के अत्यन्त घनिष्ठ हैं मेरे-तुम्हारे खेत।<br />इस बार तेज़ नयी हवा में<br />जययात्रा की ध्वनि तैरती हुई आती है,<br />पीछे मृत्यु की क्षति का ख़ामोश बयान -<br />इस हेमन्त में फ़सलें पूछती हैं : कहाँ हैं अपने जन ?<br />वे क्या सिर्फ़ छिपे रहेंगे,<br />अक्षमता की गलानि को ढँकेंगे,<br />प्राणों के बदले किया है जिन्होंने विरोध का उच्चारण ?<br /><br />इस नवान्न में क्या वंचितों को नहीं मिलेगा निमन्त्रण?<br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 102, 0);">बयान</span><br /><br />अन्त में हमारे सोने के देश में उतरता है अकाल,<br />जुटती है भीड़ उजड़े हुए नगर और गाँव में<br />अकाल का ज़िन्दा जुलूस<br />हर भूखा जीव ढो कर ले आता है अनिवार्य समता।<br /><br />आहार के अन्वेषण में हर प्राणी के मन में है आदिम आग्रह<br />हर रास्ते पर होता है हर रोज़ नंगा समारोह<br />भूख ने डाला है घेरा रास्ते के दोनों ओर,<br />विषाक्त होती है हवा यहाँ-वहाँ व्यर्थ की लम्बी साँसों से<br />मध्यवर्ग का धूर्त सुख धीरे-धीरे होता है आवरणविहीन<br />बुरे दिनों की घोषणा करता है नि:शब्द।<br />सड़कों पर झुण्ड-दर-झुण्ड डोलती हुई चलती है कंगालों की शोभा-यात्रा<br />आतंकित अन्त:पुरों से उठती है दुर्भिक्ष की गूँज।<br />हर दरवाज़े पर बेचैन उपवासी प्रत्याशियों के दल,<br />निष्फल प्रार्थना-क्लान्त, भूख ही है अन्तिम सम्बल;<br />राजपथ पर देख कर लाशों को भरी दोपहरी में<br />विस्मय होता है अनभ्यस्त अँखों को।<br />लेकिन इस देश में आज हमला करता है ख़ूँख़ार दुश्मन,<br />असंख्य मौतों का स्रोत खींचता है प्राणों को जड़ से<br />हर रोज़ अन्यायी आघात करता है जराग्रस्त विदेशी शासन,<br />क्षीणायु कुण्डली में नहीं है ध्वंस-गर्भ के संकट का नाश।<br />सहसा देर गयी रात में देशद्रोही हत्यारे के हाथों में<br />देशप्रेम से दीप्त प्राण ढालते हैं अपना रक्त, जिसका साक्षी है सूरज;<br />फिर भी प्रतिज्ञा तैरती है हवा में अकेले,<br />यहाँ चालीस करोड़ अब भी जीवित हैं,<br />भारत भूमि पर गला हुआ सूरज झरता है आज -<br />दिग-दिगन्त में उठ रही है आवाज़,<br />रक्त में सु़र्ख टटकी हुई लाली भर दो,<br />रात की गहरी टहनी से तोड़ लाओ खिली हुई सुबह<br />उद्धत प्राणों के वेग से मुखर है आज मेरा यह देश,<br />मेरे उध्वस्त प्राणों में आया है आज दृढ़ता का निर्देश।<br />आज मज़दूर भाई देश भर में जान हथेली पर लिये<br />कारख़ाने-कारख़ाने में उठा रहे तान।<br />भूखा किसान आज हल के नुकीले फाल से<br />निर्भय हो रचना करता है जंगी कविताएँ इस माटी के वक्ष पर।<br />आज दूर से ही आसन्न मुक्ति की ताक में है शिकारी,<br />इस देश का भण्डार जानता हूँ भर देगा नया यूक्रेन।<br />इसीलिए मेरे निरन्न देश में है आज उद्धत जिहाद,<br />टलमल हो रहे दुर्दिन थरथराती है जर्जर बुनियाद।<br />इसीलिए सुनता हूँ रक्त के स्रोतत में आहट<br />विक्षुब्ध टाइ़फून-मत्त चंचल धमनी की।<br />सुनता हूँ बार-बार विपन्न पृथ्वी की पुकार,<br />हमारी मज़बूत मुट्ठियाँ उत्तर दें उसे आज।<br />वापस हों मौत के परवाने द्वार से,<br />व्यर्थ हों दुरभिसन्धियाँ लगातार जवाबी मार से।<br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">शत्रु एक है</span><br /><br />आज यह देश विपन्न है; निरन्न है जीवन आज,<br />मौत का निरन्तर साथ है, रोज़-रोज़ दुश्मनों के हमले<br />रक्त की अल्पना आँकते हैं, कानों में गूँजता है आर्तनाद;<br />फिर भी मज़बूत हूँ मैं, मैं एक भूखा मज़दूर।<br />हमारे सामने आज एक शत्रु है : एक लाल पथ है,<br />शत्रु की चोट और भूख से उद्दीप्त शपथ है।<br />कठिन प्रतिज्ञा से स्तब्ध हमारे जोशीले कारख़ाने में<br />हर गूँगी मशीन प्रतिरोध का संकल्प बताती है।<br />मेरे हाथ के स्पर्श से हर रोज़ यन्त्र का गर्जन<br />याद दिलाता है प्रण की, धो डालता है अवसाद,<br />विक्षुब्ध यन्त्र के सीने में हर रोज़ युद्ध की जो घोषणा है<br />वह लड़ाई मेरी लड़ाई है, उसी की राह में रुक कर गिनने हैं दिन।<br />निकट के क्षितिज में आता है दौड़ता हुआ दिन, जयोन्मत्त पंखों पर -<br />हमारी निगाह में लाल प्रतिबिम्ब है मुक्ति की पताका का<br />अन्धी रफ़्तार से हरकतज़दा मेरा हाथ लगातार यन्त्र का प्रसव<br />प्रचुर-प्रचुर उत्पादन, अन्तिम वज्र की सृष्टि का उत्सव।।<br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">हरकारा</span><br /><br />हरकारा दौड़ चला, दौड़ चला,<br />बजती है रात में इसीलिए घण्टी की रुनझुन!<br />हरकारा चल दिया बोझ लिये ख़बरों का हाथ में।<br />हरकारा चल दिया है, हरकारा,<br />रात की राहों में चलता है हरकारा, मानता नहीं वह निषेध कोई मन में,<br />दिग से दिगन्त तक दौड़ चला हरकारा,<br />नयी ख़बर लाने का ज़िम्मा है उस पर।<br /><br />हरकारा! हरकारा!<br />जाने-अनजाने का<br />बोझ आज काँधे पर<br />चल रहा है हरकारा चिट्ठी और ख़बरों से लदा हुआ जहाज़ एक,<br />हरकारा चल रहा है, शायद हो जाय भोर।<br />और भी तेज़ी से, और भी तेज़ी से, यह हरकारा दुर्जय दुर्वार आज,<br />उसके जीवन के सपने सरीखा सरकता है वन, पीछे छूटता।<br />बाक़ी है, शेष है राह अभी - होता है लाल शायद पूरब का वह कोना।<br />नि:स्तब्ध रात के सितारे झमकते हैं नभ में,<br />कितनी तेज़ी से भागता है यह हरकारा हिरन की तरह।<br />कितने गाँव, कितने रास्ते छूट-छूट जाते हैं<br />हरकारा भोर में पहुँच ही जायेगा शहर।<br />हाथ की लालटेन करती है टुन-टुन-टुन जुगनू देते हैं आकाश,<br />डरो मत हरकारे! रात की कालिमा से अब भी भरा है आकाश!<br /><br />इसी तरह जीवन के बहुत-से वर्षों को पीछे छोड़ कर,<br />पृथ्वी का बोझ भूखे हरकारे ने पहुँचा दिया "मेल" पर,<br />थकी हुई साँस से छुआ है आकाश, भीगी है मिट्टी पसीने से,<br />जीवन की सारी रातें ख़रीदीं हैं उन्होंने बहुत सस्ते में।<br />बड़े दुख में, वेदना में, अभिमान और अनुराग से<br />घर में उसकी प्रिया जागती है अकेली उनींदे बिस्तर पर।<br />रानार! रानार!<br />कब होंगे शेष ये बोझ ढोने के दिन<br />कब बीतेगी रात, उदित होगा सूरज?<br />घर में है अभाव, इसीलिए पृथ्वी लगती है काला धुआं<br />पीठ पर रुपयों का बोझ, फिर भी यह धन कभी नहीं जायेगा छुआ,<br />निर्जन है रात, रास्ते में हैं कितनी ही आशंकाएँ, फिर भी दौड़ता है हरकारा।<br />डाकू का डर है, उससे भी ज़्यादा डर जाने कब सूरज उग आये<br />कितनी चिट्ठियाँ लिखते हैं लोग -<br />कितनी सुख में, प्रेम में, आवेग में, स्मृति में, कितने दुख और शोक में,<br />मगर इसके दुख की चिट्ठी मैं जानता हूँ कोई कभी नहीं पढ़ पायेगा,<br />इसके जीवन का दुख जानेगी सिर्फ़ रास्ते की घास,<br />इसके दुख की कथा नहीं जानेगा कोई शहर और गाँव में,<br />इसकी कथा ढँकी रह जायेगी रात के काले लिफ़ाफ़े में।<br />हमदर्दी से तारों की आँखें टिमटिमाती हैं -<br />यह कौन है जिसे भोर का आकाश भेजेगा सहानुभूति की चिट्ठी -<br />रानार! रानार! क्या होगा यह बोझा ढो कर ?<br />क्या होगा भूख की थकान में क्षय हो -हो कर ?<br />रानार! रानार! भोर तो हुई है - आकाश हो गया है लाल,<br />उजाले के स्पर्श से कब कट जायेगा यह दुख का काल ?<br /><br />हरकारे! गाँव के हरकारे!<br />समय हुआ है नयी ख़बर लाने का।<br />शपथ की चिट्ठी ले चलो आज,<br />कायरता को पीछे छोड़,<br />पहुँचा दो यह नयी ख़बर<br />प्रगति की ’मेल‘ में।<br />दिखेगा शायद अभी-अभी प्रभात<br />नहीं, देर मत करो और,<br />दौड़ चलो, दौड़ चलो और तेज़ी से<br />ओ दुर्दम हरकारे!<br />__________________________________________________________________<br /><br /><span style="color: rgb(0, 0, 0);">सुकान्त भट्टाचार्य ( 15 अगस्त 1926 - 13 मई 1947) की गिनती बांग्ला भाषा के अत्यन्त सम्मानित कवियों में होती है. हालांकि सुकान्त का अकाल निधन 21 वर्ष की छोटी-सी उमर में हुआ, लेकिन उनकी उर्वर रचनाशीलता और तीखे प्रगतिशील स्वर के कारण पाठक और आलोचक उन्हें बांग्ला के एक और क्रान्तिकारी कवि नज़रुल इस्लाम से जोड़ कर "किशोर विद्रोही कवि" और "युवा नज़रुल" कहने लगे थे। अंग्रेज़ी राज की निरंकुशता और पूंजीवादियों के शोषण के खिलाफ़ सुकान्त ने सदा मुखर और निर्भीक आवाज़ उठायी। यह एक विडम्बना ही है कि बंगाल के मौजूदा मुख्य मन्त्री बुद्धदेव भट्टाचार्य, जिनके कार्यकाल में और जिनकी सत्ताधारी मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी द्वारा नन्दीग्राम, सिंगुर और लालगढ़ में जनविरोधी हिंसा देखने में आयी है, बांग्ला के इसी जनवादी कवि के भतीजे हैं।</span><br /><br /><span style="color: rgb(0, 0, 0);"> सुकान्त का पैत्रिक निवास कोटालीपाड़ा, गोपालगंज (अब बांग्लादेश ) में उन्शिया नामक गांव में था, लेकिन उनक जन्म कलकत्ता में अपने चाचा के घर में हुआ। उनके पिता निवारण चन्द्र भट्टाचार्य पुस्तकों का प्रकाशन और वितरण करने वाली संस्था -- सरस्वती लाइब्रेरी -- के मालिक थे। सुकान्त 1944 में कम्यूनिस्ट पार्टी के सदस्य बन गये और उसी वर्ष उन्होंने एक कविता संकलन "अकाल" का सम्पादन किया। 1945 में वे बेलेघाटा देशबन्धु हाई स्कूल से प्रवेश परीक्षा के लिए बैठे लेकिन विफल रहे. पार्टी के दैनिक समाचार-पत्र "दैनिक स्वाधीनता" के शुरू होने के समय, 1946 ही से वे उसके युवा विभाग "किशोर सभा" के सम्पादक बने। 1947 में तपेदिक से जादवपुर टी.बी. हस्पताल में सुकान्त का निधन हुआ। </span><br /><br /><span style="color: rgb(0, 0, 0);"> सुकान्त की उर्वर रचनात्मकता उनकी ज़िन्दगी ही में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में सामने आयी, मगर "छाड़पत्र" को छोड़ कर उनके बाक़ी सभी कविता संग्रह -- "घूम नेई," (1954) "पूर्वाभास" (1950) और "मीठे-कौड़ो" (1951) और नाटक "अभियान" (1953) -- उनके निधन के बाद ही प्रकाशित हुए.</span><br /><br /><span style="color: rgb(0, 0, 0);"> अपनी अकाल मृत्यु के अन्तिम क्षणों तक सुकान्त का यही मानना था कि "कवि से बड़ी बात है कि मैं कम्यूनिस्ट हूं।" इस निष्ठा को उन्होंने पूरी तरह अपनी कविता में ही व्यक्त किया और यों आने वाले कवियों के लिए एक आलोक स्तम्भ निर्मित कर गये जो उनका दिशानिर्देश करता रहेगा.</span>Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3780821805422068162.post-74776662712526347712011-01-05T06:20:00.000-08:002011-01-05T06:30:28.180-08:00देशान्तर<span style="font-weight: bold; color: rgb(0, 51, 0);"></span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 0, 204);">आज एक कहानी : नाडीन गोर्डिमर की</span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">लूट</span><br /><br /> <br /><br />हमारे समय में एक बार भूचाल आया : लेकिन जब से रिक्टर स्केल की ईजाद ने हमारे लिए प्राकृतिक चेतावनियों को नापना मुमकिन बना दिया, यह भूचाल रिकॉर्ड किये गये भूचालों में सबसे शक्तिशाली था.<br /><br />उसने एक महाद्वीप के कगार को झुका दिया. ऐसे कम्पन से अक्सर बाढ़ें आ जाती हैं; लेकिन इस भयानक भूचाल ने इसका उलट किया, लम्बी साँस लेने की तरह सागर को पीछे खींच लिया. हमारी दुनिया का सबसे गोपनीय हिस्सा उघड़ गया - समुद्र तल में डूबे ध्वस्त जहाज़, मकानों के मुहारे, नाच-घर के फ़ानूस, शौचालय की चिलमची, समुद्री डाकुओं का बक्सा, टी0वी0, डाक-गाड़ी, हवाई जहाज़ का ढाँचा, तोप, संगमरमर की मूर्ति का धड़, कलाश्निकॉव, पर्यटकों से भरी बस की धातु का खोल, बपतिस्मे का कुण्ड, बर्तन धोने की ऑटोमैटिक मशीन, कम्प्यूटर, समुद्री कीड़ों में लिपटी तलवारें, पत्थर बन गये सिक्के. चकित निगाह इन चीज़ों पर दौड़ती चली गयी; जो आबादी अपने ढहते मकानों से सागर-तट के पहाड़ों पर भाग गयी थी, दौड़ती हुई नीचे आयी. जहाँ भूचाल की घन-गरज और शोर ने उन्हें आतंकित कर दिया था, वहाँ निपट सन्नाटा था. सागर की लार इन चीज़ों पर चमक रही थी; यह मानी हुई बात थी कि यहाँ नीचे, जहाँ अतीत और वर्तमान की सामग्री ऐसे पड़ी हुई है, बिना किसी कालक्रम के, समय का कोई अस्तित्व नहीं होता, न कभी था, सब एक-सा है, सब कुछ नहीं है - या सब कुछ तत्काल हथियाया जा सकता है.<br /><br />लोग भागे लेने, लेने, लेने के लिए. यह क़ीमती था - कब, हरदम, कभी-न-कभी; वह उपयोगी हो सकता था, यह क्या था, ख़ैर किसी-न-किसी को पता होगा, यह ज़रुर अमीरों का रहा होगा, अब मेरा है, जो भी वहाँ है अगर तुम उसे झपट न लोगे तो कोई और झपट लेगा, पैर समुद्री सिवार पर फिसले, सरके, और दलदली रेत में धँस गये, हाँफती हुई समुद्री वनस्पति उनके सामने मुंह बाये थी, किसी ने ज़िक्र नहीं किया कि मछलियाँ थीं ही नहीं, इस अ-पृथ्वी के जीवित निवासी पानी के साथ बहा ले जाये गये थे. राजनैतिक उथल-पुथल के दौरान दुकानों को लूटने का जो मामूली-सा मौक़ा लोगों के ढर्रे में शामिल था, उसकी तुलना इससे नहीं की जा सकती थी. आदमियों, औरतों और उनके बच्चों को उन्मत्त उत्साह ने लेस-भरे कीचड़ और रेत से वह सब खींच निकालने की ताक़त दे दी थी जो वे नहीं जानते थे कि उन्हें चाहिए था, यहाँ से वहाँ निरखने-परखने के दौरान उसने उसकी लड़खड़ाती चाल को तेज़ कर दिया था, और यह संयोग से लाभ उठाने से कहीं ज़्यादा था, यह कुदरत की उस ताक़त को लूटने की तरह था जिसके आगे वे असहाय भाग खड़े हुए थे. लो, उठा लो; झपटते हुए वे अपने ध्वस्त मकानों और वहाँ रखे अर्सा पुराने साज-सामान के नुक़सान को भूलने में सफल हो गये. उन्होंने एक-दूसरे को चीख़-चिल्ला कर पुकारते हुए ख़ामोशी को तार-तार कर दिया था और अनुपस्थित सागर-पाखियों की पुकारों जैसी इन पुकारों में उन्होंने तेज़ हवा की तरह बढ़ते शोर का दूर से आना नहीं सुना. और फिर सागर ने आ कर उन्हें अपने ख़ज़ाने में शामिल करने के लिए घेर लिया.<br /><br />यही है जिसकी जानकारी है; टेलिविजन समाचारों में जिनके पास दरअसल गहराइयों की जस्ते जैसी चमड़ी के सिवा दिखाने को और कुछ नहीं था - उन थोड़े-से भीरु, दुर्बल या होशियार लोगों से रेडियो पर की गयी भेंट-वार्ताओं में जो पहाड़ों से नीचे नहीं आये थे, और उन लाशों के बारे में समाचार-पत्रों की टिप्पणियों में, जिन्हें किसी कारण से समुद्र ने ठुकरा दिया था, तट पर कहीं आगे लहरों के साथ ला कर पटक दिया था.<br /><br />लेकिन लेखक को कुछ ऐसा मालूम है, जिसका पता किसी को नहीं है; कल्पना का रुपान्तरण.<br /> <br />अब सुनिए, एक आदमी है जो एक ख़ास चीज़ (क्या) के लिए सारी ज़िन्दगी ललकता रहा है. उस के पास ढेर सारी-चीज़ें-हैं, जिनमें से कुछ पर उसकी निगाह अक्सर पड़ती रहती है, लिहाज़ा उसे पसन्द होंगी, कुछ पर उसका ध्यान नहीं जाता, जान-बूझ कर, जिन्हें शायद उसे हासिल नहीं करना चाहिए था, लेकिन जिन्हें वह फेंक नहीं पाता, एक नयी चाल का लैम्प है जिसकी रोशनी में वह पढ़ता है, और उसके पलँग के सिरहाने के ऊपर, दीवार पर, एक जापानी छापा है, एक होकूसाई, ‘महा तरंग,’ वह दरअसल पूर्वी माल का संग्रह नहीं करता, हालाँकि अगर वह सामने की दीवार पर होता तो शायद वह कमरे के साज-सामान का हिस्सा होने से अधिक होता, वह बरसों से वह उसके सिर के पीछे ओझल रहा है. ये सारी-चीज़ें-मगर वह एक नहीं.<br />वह अवकाश-प्राप्त आदमी है, अर्से से तलाक़-शुदा, जिसने उस जगह के तौर पर समुद्र-तट के पहाड़ों में एक पुरानी, लेकिन सुसज्जित कोठी चुनी जहाँ से वह शहर के हमले की तरफ़ पीठ फेर सके. गाँव से एक औरत आ कर खाना पकाती और साफ़-सफ़ाई करती है और किसी और बातचीत से तंग नहीं करती. ज़िन्दगी किसी वरदान की तरह उत्तेजना से रहित है, वह उस तरह की हलचल, सुखद हो या नहीं, से अघा चुका है, लेकिन उसके निरीक्षण स्थल से वह दृश्य, जो कभी घटित नहीं हो सकता था, यहाँ तक कि कभी सोचा भी नहीं जा सकता था, हुक्म-सरीखा है. वह उनमें है जो दौड़ते हुए चमकते समुद्र-तल की तरफ़ जा रहे हैं, उघाड़ कर नंगे कर दिये अतीत की तरफ़, मलबा-ख़ज़ाना, एक ही चीज़ है.<br /> <br />दूसरे लुटेरों की तरह, जिनमें वह घुलता-मिलता नहीं, जिनसे उसका कोई साम्य नहीं है, वह एक चीज़ से दूसरी चीज़ की तरफ़ भागता है, रंगीन चीनी मिट्टी की चीज़ों के ठीकरे, विनाश, परित्याग और ज़ंग से गढ़े गये मूर्ति-शिल्प, खारे पानी से पुराने बने मदिरा के पीपे, डूबी हुई रेसिंग मोटर-साइकिल, दन्दानसाज़ की कुर्सी उलटता-पलटता; उसके क़दम इन्सानी पसलियों और पैरों की हड्डियों को कचरते हुए जिन्हें वह पहचान नहीं पाता. लेकिन दूसरों के विपरीत वह कुछ नहीं लेता - जब तक कि : वहाँ, समुद्री सिवार की नारंगी-भूरी अलकों से अलंकृत, सीपियों और लाल प्रवाल के दँतीले किनारों में मज़बूती से जकड़ी वह चीज़ है. (एक आईना?) मानो असम्भव सच हो गया है; वह जानता था वह कहाँ थी, सागर के नीचे, इसीलिए उसे मालूम नहीं था कि वह क्या थी, पहले कभी खोज नहीं पाया था. वह सिर्फ़ उसी चीज़ से उजागर हो सकती थी जो पहले कभी नहीं हुई थी, रिक्टर स्केल पर दर्ज किये गये हमारी पृथ्वी के सबसे ज़बर्दस्त आवेग से.<br /> <br />वह उठा लेता है, उस चीज़ को, उस आईने को, रेत उससे सरक जाती है, पानी जो उस आईने के पास बची अन्तिम चमकदार निगाह है, उससे बह जाता है, वह उसे अपने साथ ले जा रहा है, आख़िरकार उस पर क़ब्ज़ा करता हुआ.<br /> <br />और उसके पलँग के सिरहाने से वह विशाल तरंग आती है और उसे ले जाती है.<br /> <br />पिछले निज़ाम के हलकों में जाना-माना उसका नाम बचने वालों में नहीं है. ताज़ा शिकारों के कंकालों के बीच उसके साथ, पुराने समुद्री-डाकुओं और मछुआरों समेत, वे भी हैं जो तानाशाही के दौर में हवाई जहाज़ों से नीचे फेंके गये थे ताकि सागर की साँठ-गाँठ से वे कभी खोजे नहीं जायेंगे. उस रोज़ किसने उन्हें पहचाना, जहाँ वे पड़े हैं?<br /> <br />कोई लाल फूल या गुलाबों की तैरती हुई माला नहीं.<br />पूरे बीस हाथ नीचे.<br /><br />अनुवाद : नीलाभ<br /><br /><br /><br />___________________________________________________________________________________<br /><br />नाडीन गौर्डिमर<br />20 नवम्बर 1923, दक्षिण अफ्रीका<br /><br />लेखिका और राजनीतिक कार्यकर्ता<br />नस्लवाद, रंगभेद, निरंकुश शासन तंत्र के विरोध में अपने महाकाव्यात्मक लेखन के कारण जानी जाती हैं.<br />बुकर और नोबेल पुरस्कार से सम्मानित<br /><br /><br /><br /><br />nadine gordimer :<br /><br />उपन्यास-<br />The Lying Days (1953)<br />A World of Strangers (1958)<br />Occasion for Loving (1963)<br />The Late Bourgeois World (1966)<br />A Guest of Honour (1970)<br />The Conservationist (1974) - Joint winner of the Booker prize in 1974<br />Burger's Daughter (1979)<br />July's People (1981)<br />A Sport of Nature (1987)<br />My Son's Story (1990)<br />None to Accompany Me (1994)<br />The House Gun (1998)<br />The Pickup (2001)<br />Get a Life (2005)<br /> कहानी संग्रह-<br />Face to Face (1949)<br />Town and Country Lovers<br />The Soft Voice of the Serpent (1952)<br />Six Feet of the Country (1956)<br />Friday's Footprint (1960)<br />Not for Publication (1965)<br />Livingstone's Companions (1970)<br />Selected Stories (1975)<br />No Place Like: Selected Stories (1978)<br />A Soldier's Embrace (1980)<br />Something Out There (1984)<br />Correspondence Course and other Stories (1984)<br />The Moment Before the Gun Went Off (1988)<br />Once Upon a Time (1989)<br />Jump: And Other Stories (1991)<br />Why Haven't You Written: Selected Stories 1950-1972 (1992)<br />Something for the Time Being 1950-1972 (1992)<br />Loot: And Other Stories (2003)<br />Beethoven Was One-Sixteenth Black (2007)<br /><br />निबन्ध संग्रह –<br />The Essential Gesture: Writing, Politics and Places (1988)<br />The Black Interpreters (1973)<br />Writing and Being: The Charles Eliot Norton Lectures (1995)<br />नाटक –<br />The First Circle (1949) pub. in Six One-Act Plays<br />सम्मान-<br />W. H. Smith Commonwealth Literary Award (England) (1961)<br />James Tait Black Memorial Prize (Scotland) (1972)<br />Booker Prize for The Conservationist (1974)<br />CNA Prize (Central News Agency Literary Award), South Africa (1974, 1975, 1980, 1991)<br />Grand Aigle d'Or (France) (1975)<br />Orange Prize shortlisting; she rejected<br />Scottish Arts Council Neil M. Gunn Fellowship (1981)<br />Modern Language Association Award (United States) (1982)<br />Bennett Award (United States) (1987)<br />Premio Malaparte (Italy) (1985)<br />Nelly Sachs Prize (Germany) (1986)<br />Anisfield-Wolf Book Award (1988, A Sport of Nature)<br />Nobel Prize for Literature (1991)<br />Laureate of the International Botev Prize (1996)<br />Commonwealth Writers' Prize for the Best Book from Africa (2002; for The Pickup)<br />Booker Prize longlist (2001; for The Pickup)<br />Legion of Honour (France) (2007)[35]<br />Hon. Member, American Academy of Arts and Sciences<br />Hon. Member, American Academy and Institute of Arts and Letters<br />Fellow, Royal Society of Literature (Britain)<br />Patron, Congress of South African Writers<br />Commandeur de l'Ordre des Arts et des Lettres (France)<br /><br /><br />नीलाभ<br />(१६-८-१९४५), मुंबई<br />एम. ए. इलाहबाद से, 1980 में चार वर्ष बी.बी.सी. की विदेश प्रसारण सेवा में प्रोड्यूसर<br />काव्य <br />संस्मरणारम्भ, अपने आप से लम्बी बातचीत, जंगल खामोश है, उत्तराधिकार, चीजें उपस्थित हैं, शब्दों से नाता अटूट है,शोक का सुख, खतरा अगले मोड़ की उस तरफ है और ईश्वर को मोक्ष<br />गद्य<br />प्रतिमानों की पुरोहिती और पूरा घर है कविता<br />शेक्सपियर, ब्रेष्ट तथा लोर्का के नाटकों के रूपान्तर इनके अलावा,मृच्छकटिक’ का रूपान्तर सत्ता का खेल के नाम से.<br />जीवनानन्द दास, सुकान्त, भट्टाचार्य, एजरा पाउण्ड, ब्रेष्ट, ताद्युश रोजश्विच, नाजिम हिकमत, अरनेस्तो कादेनाल, निकानोर पार्रा और पाब्लो नेरूदा की कविताओं के अलावा अरुन्धती राय के उपन्यास के गॉड आफ स्माल थिंग्स और लेर्मोन्तोव के उपन्यास हमारे युग का एक नायक का अनुवाद<br /><br />रंगमंच के अलावा टेलीविजन, रेडियो, पत्रकारिता, फि्ल्म, ध्वनि-प्रकाश कार्यक्रमों तथा नृत्य-नाटिकाओं के लिए पटकथाएँ और आलेख<br />फि्ल्म, चित्रकला, जैज तथा भारतीय संगीत में ख़ास दिलचस्पी<br />ई-पता : neelabh1945@gmail.comNeelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3780821805422068162.post-21154301380180085152011-01-02T03:53:00.000-08:002011-01-02T04:06:05.396-08:00देशान्तर<span style="font-weight: bold; color: rgb(0, 102, 0);"><span style="color: rgb(102, 0, 0);"></span><br /><br /><br />आज के कवि : अरनेस्तो कार्देनाल</span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 51);">कुछ उक्तियां</span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">हमारी कविताएं अभी प्रकाशित नहीं हो सकतीं.</span><br /><br />हमारी कविताएं अभी प्रकाशित नहीं हो सकतीं.<br />वे हाथ-दर-हाथ बढ़ायी जाती हैं, लिख कर<br />या साइक्लोस्टाइल हो कर. लेकिन एक दिन आयेगा, बहरहाल,<br />जब उस तानाशाह का नाम जिस पर वे चोट करती हैं<br />भुला दिया जायेगा,<br />और वे उसके बाद भी पढ़ी जाती रहेंगी.<br /><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">क्या तुमने पढ़ा नहीं है </span><br /><br />क्या तुमने पढ़ा नहीं है नोवेदादेज़ में :<br /><br />शान्ति का पहरुआ, मज़दूरों का मसीहा<br />अमरीकी लोकतन्त्र का अलमबरदार<br />अमरीकी कैथोलिकवाद का रक्षक<br />जनता का मुहाफ़िज़<br /> दयानिधान ?<br /><br />वे जनता की भाषा को तहस-नहस करते हैं,<br />अवमूल्यन करते हैं जनता के शब्दों का.<br />(ठीक जनता की मुद्रा सरीखा.)<br />इसीलिए हम कवि प्रकाशित करते हैं कविताएं बड़ी सावधानी से.<br />इसीलिए मेरी प्रेम-कविताएं महत्वपूर्ण हैं.<br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">सोमोज़ा </span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">सोमोज़ा स्टेडियम में </span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">सोमोज़ा की प्रतिमा का अनावरण करता है</span><br /><br />ऐसा नहीं है कि मैं यक़ीन करता हूं कि लोगों ने<br />यह प्रतिमा मेरे सम्मान में बनायी है,<br />तुम्हारी तरह<br />मुझे भी मालूम है कि मैंने इसे बनाने का आदेश दिया .<br />न मैं इससे अमरता की उम्मीद करता हूं :<br />मैं जानता हूं कि लोग एक दिन इसे नष्ट कर देंगे.<br />न मैंने जीते-जी अपना वह स्मारक बनाने की कोशिश की<br />जो तुम मेरे मरने के बाद नहीं बनाओगे :<br />बल्कि मैंने इसे बनवाया यह जानते हुए कि तुम इससे नफ़रत करते हो.<br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">जब तुम मेरे साथ रहो</span><br /><br />जब तुम मेरे साथ रहो, क्लौडिया, तो ध्यान रखो<br />तुम कैसे व्यवहार करती हो :<br />तुम्हारी हल्की-सी हरकत, शब्द या सांस--<br />हां, क्लौडिया की छोटी-सी भूल--<br />हो सकता है<br />एक दिन ज्ञानी लोगों की नुक़्ताचीनी का<br />निशाना बने,<br />और यह नृत्य, क्लौडिया,<br />सदियों तक याद किया जाता रहे.<br />क्लौडिया : तुम्हें होशियार कर दिया गया है!<br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">प्रोपर्टियस की नक़ल में</span><br /><br />मैं स्टालिनग्राड कई रक्षा के गीत नहीं गाता<br />न रेगिस्तान में लड़े गये युद्ध के<br />न सिसली में फ़ौजों के जा उतरने के<br />न आइज़नहावर द्वारा राइन नदी को पार करने के ही.<br /><br />मैं गीत गाता हूं एक लड़की को जीत लेने के.<br /><br />जोयेरिया मोरलौक के क़ीमती नगीनों से नहीं<br />न ड्रेफ़स के इत्रों से<br />न प्लास्टिक के ख़ोल में रखे गुलाबों से ही<br />न कैडिलैक मोटरकार से<br />बल्कि महज़ अपनी कविताओं से जीत लिया मैंने उसे.<br /><br />और वह मुझ ग़रीब को चाहती है<br />सोमोज़ा के लाखों की बनिस्बत<br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">कुछ गोलियां कल रात</span><br /><br />कुछ गोलियां सुनायी दीं कल रात.<br />क़ब्रिस्तान की तरफ़.<br />कोई नहीं जानता किन्हें मारा उन्होंने--<br />या कितने मारे गये.<br />कोई कुछ नहीं जानता.<br />कुछ गोलियां सुनायी दीं कल रात.<br />बस इतना ही.<br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">गाड़ीवान गाते हैं</span><br /><br />कोस्टा रीका में गाड़ीवान गाते हैं.<br />रास्तों पर मैंडोलिन लिये आदमी.<br />और तोतों की तरह चमकती बैल-गाड़ियां.<br />और रंगीन फ़ीतों, घण्टियों और सींगों में फूलों से सजे बैल.<br /><br />कोस्टा रीका में कॉफ़ी की फ़सल के समय.<br />जब सारी गाड़ियां कॉफ़ी की फलियों से लदी होती हैं.<br /><br />और गांवों के चौक में बैण्ड-बाजे बजते हैं.<br />और सान होज़े के छज्जे और झरोखे<br />लड़कियों और फूलों से भरे होते हैं.<br />और लड़कियां बाग़ों में सैर के लिए जाती हैं.<br />और सान होज़े में राष्ट्रपति भी पैदल निकल सकता है.<br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">अदोल्फ़ो बाएज़ बोने के लिए </span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">समाधि-लेख</span><br /><br />उन्होंने तुम्हें मार दिया. कभी नहीं बताया<br />तुम्हें कहां दफ़्न किया उन्होंने.<br />तब से ख़ुद हमारा देश तुम्हारी क़ब्र है. या, कहा जाये,<br />जहां भी तुम्हें दफ़्न नहीं किया गया,<br />तुम फिर से उठ खड़े होते हो.<br /><br />उनकी ख़याल था उन्होंने तुम्हें "फ़ायर" के आदेश पर मार दिया था!<br />उनका ख़याल था कि उन्होंने तुम्हें दफ़्न कर दिया था. जबकि :<br />जो उन्होंने दफ़्नाया था वह दरअसल एक बीज था.<br /><br /><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">मैरिलिन मनरो के लिए प्रार्थना</span><br /> <br />प्रभु इस कन्या को शरण दो<br />जिसे पूरी दुनिया मैरिलिन मनरो के नाम से जानती है<br />हालाँकि यह इसका नाम नहीं था<br />(पर तुम तो इसका असली नाम जानते हो,<br />इस अनाथ लड़की का नाम<br />जिसके साथ नौ साल की उम्र में बलात्कार किया गया,<br />जो सोलह की थे और सेल्स-गर्ल थी एक दुकान में<br />जब इसने आत्म हत्या करने की कोशिश की)<br />जो अब तुम्हारे सम्मुख जा रही है मेकप के बिना<br />बिना अपने प्रेस-एजेंट के<br />न अपने चित्रों के साथ<br />न अपने चाहने वालों को हस्ताक्षर बाँटती दाँये-बाँयें<br />बिल्कुल अकेली<br />जैसे सुदूर अनन्त के अँधियारे का रुख़ करता अन्तरिक्ष-यात्री<br />जब यह लड़की थी, इसने सपना देखा था कि<br />यह नंगी खड़ी है गिरजे में<br />(‘टाइम’ मैगज़ीन के मुताबिक़)<br />और इसके सामने बिछी हुई है अपार भीड़<br />सिर धरती पर नवाये,<br />जो इसे पंजों के बल बढ़ना है उन तमाम सिरों को बचाते हुए<br />तुम हमारे सपनों को<br />किसी भी मनोचिकित्सक से बेहतर जानते हो, प्रभु<br />गिरजा, घर या गुफा --<br />ये सब गर्भ की निरापद सुरक्षा के प्रतीक हैं<br />मगर इससे भी कुछ ज़्यादा ...<br />झुके हुए सिर तो प्रशंसक हैं, इतना तो साफ़ है<br />(स्क्रीन पर केन्द्रित रोशनी के शहतीर के नीचे<br />हाल के अँधेरे में दर्शकों के सिरों का हुजूम)<br />लेकिन वह मन्दिर ट्वेंटिएथ सेंचुरी फ़ाक्स का स्टूडियो नहीं<br />वह मन्दिर -- संगमरमर और सोने से बना मन्दिर --<br />उसकी देह का है<br />जिसमें आदमी का बेटा हाथ में कोड़ा लिये खड़ा है<br />ट्वेंटिएथ सेंचुरी फ़ाक्स के सूदख़ोरों को खदेड़ता हुआ<br />जिन्होंने तुम्हारे उपासना-गृह को चोरों का अड्डा बना दिया था।<br />प्रभु, इस दुनिया में<br />जो रेडियो--धर्मिता और पाप,<br />दोनों से समान रूप में दूषित है<br />निश्चय ही तुम इस सेल्स-गर्ल को दोषी नहीं ठहराओगे<br />जो (आम बिक्री-सहायिकाओं की तरह)<br />फ़िल्मी सितारा बनने का सपना लेती थी।<br />और इसका सपना ‘सच्चाई’ बन गया (टेक्निकलर सच्चाई)<br />इसने बस यही किया है कि हमारी दी हुई पटकथा पर चलती रही<br />जो दरअसल हमारी अपनी ज़िन्दगियों की थी, लेकिन अर्थहीन थी,<br />इसे क्षमा करो प्रभु, और साथ-साथ हमें भी,<br />हमारी इस बीसवीं सदी के लिए,<br />और इस विराट सुपर-प्रोडक्शन के लिए<br />जिसके निर्माण में हम सब ने योग दिया।<br />यह प्यार की भूखी थी और हमने इसे<br />नसों को शान्त करने वाली दवाइयाँ पेश कीं।<br />हम सन्त नहीं हैं -- इस ज्ञान से उपजी उदासी के लिए<br />उन्होंने इसे मनोचिकित्सा का सुझाव दिया।<br />याद करो, प्रभु, कैमरे के प्रति इसका बढ़ता हुआ आतंक<br />और मेकप के प्रति इसकी नफ़रत (फिर भी हर दृश्य के लिए<br />नये सिरे से मेकप करवाने पर इसका आग्रह।)<br />और किस तरह यह आतंक बढ़ता गया<br />और किस तरह बढ़ता गया स्टूडियो पहुँचने में इसका विलम्ब।<br />दुकान में काम करने वाली आम सेल्स-गर्ल की तरह<br />यह फ़िल्मी सितारा बनने का सपना देखती थी<br />और इसकी ज़िन्दगी उस सपने जितनी ही अवास्तविक थी<br />जिसे मनोचिकित्सक एक नज़र देख कर<br />फ़ाइल-बन्द कर देता है।<br />इसके प्रेम-सम्बन्ध आँखें मूँद कर दिये गये चुम्बन थे<br />जो आँखें खुलने पर<br />फ़िल्मी बत्तियों के नीचे खेले गये नाटक सरीखे जान पड़ते हैं।<br />लेकिन बत्तियाँ तो बुझ चुकी हैं<br />और कमरे की दो दीवारें (वह एक सेट था)<br />हटायी जा रही हैं<br />और इस बीच निर्देशक हाथ में नोट-बुक लिये<br />दृश्य को सही--सलामत फ़िल्माने के बाद<br />जा रहा है किसी दूसरी तरफ़।<br />या फिर इसके प्रेम-सम्बन्ध नौका-विहार जैसे थे,<br />एक चुम्बन सिंगापुर में,<br />एक नाच रियो में, एक जश्न विंडसर के<br />राजा--रानी के प्रासाद में --<br />जो देखा जा रहा हो किसी सस्ते-से फ़्लैट की मनहूस तड़क-भड़क में।<br />आख़िरी चुम्बन से पहले ही ख़त्म हो गयी फ़िल्म।<br />उन्होंने इसे बिस्तर पर मृत पाया फ़ोन पर हाथ रखे।<br />और जासूसों की रत्ती-भर इमकान नहीं था<br />कि यह किसे फ़ोन करने को थी।<br />मानो किसी ने एकमात्र मित्रता-भरी आवाज़ को फ़ोन मिलाया था<br />और सुनी थी उत्तर में<br />पहले से टेप की गयी एक आवाज़ -- ‘ग़लत नम्बर,’<br />या जैसे गुण्डों के हाथों घायल हो कर कोई व्यक्ति<br />बढ़ाता हो हाथ उस फ़ोन की तरफ़<br />जिसकी तार पहले की काट दी गयी हो।<br />प्रभु, जो भी वह रहा हो<br />जिसे यह फ़ोन करने जा रही थी<br />मगर कर नहीं पायी (शायद कोई था भी नहीं<br />या शायद कोई ऐसा नाम<br />जो लास ऐंजिलीज़ की फ़ोन-निर्देशिका में नहीं है)<br />प्रभु, तुम दे दो इस फ़ोन का जवाब।<br /><br />________________________________________________<br /><br />एर्नेस्टो कार्डिनाल मार्टीनेज़ (20 जनवरी 1925) लातीनी अमरीका के जाने-माने क्रान्तिकारी कवियों में शुमार किये जाते हैं. मानागुआ, मेक्सिको और न्यू यार्क में शिक्षा पाने के बाद वे निकारागुआ लौटे और उन्होंने 1954 में अनास्तासियो सोमोज़ा गार्सिया के ख़िलाफ़ "अप्रैल क्रान्ति" में हिस्सा लिया. क्रान्ति के विफल होने और बहुत-से साथियों के मारे जाने के बाद कार्डिनाल अमरीका जा कर कवि-पादरी टौमस मर्टन के मार्ग दर्शन में खुद भी पादरी बन गये और 1965 में उन्हें विधिवत पादरी बना कर निकारागुआ भेज दिया गया जहां उन्होंने सोलेन्तिनामे द्वीप समूह में लगभग एक मठ सरीखी बस्ती वहां के आदिवासियों और किसानों के बीच बनायी. बाद मे उन्होंने वहीं एक आदिवासी सांस्कृतिक समुदाय भी गठित किया. लेकिन सोलेन्तिनामे के बहुत-से किसान अनास्तासियो सोमोज़ा देबएल की तानाशाही के ख़िलाफ़ मार्क्सवादी हथियारबन्द सान्दीनीस्ता राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चे के सदस्य थे और 1977 में एक समय ऐसा भी आया जब तानाशाह <span>सोमोज़ा</span> के नैशनल गार्ड ने सोलेन्तिनामे की बस्ती को जला कर ख़ाक कर दिया और कार्देनाल को भाग कर कोस्ता रीका में पनाह लेनी पड़ी. इस बीच वैटिकन में बैठे ईसाई महन्त और पोप यह नहीं समझ पा रहे थे कि अगर सचमुच अर्नेस्तो कार्देनाल अपना धर्म निभायें तो लामुहाला उन्हें तानाशाह सोमोज़ा और उसके अमरीकी धनाधीशों का विरोध करना ही पड़ेगा जो आम ईसाई जनता के हर अधिकार को कुचलने पर आमादा थे. नौबत यहां तक आयी कि कैथोलिक चर्च नें कार्देनाल को पादरी पद से बहिष्कृत कर दिया. यों भी कार्देनाल ने अपने मार्क्सवादी रुझान को कभी गुप्त नहीं रखा था.सोमोज़ा के पतन और सान्दीनीस्ता दल के सत्ता संभालने के बाद वे 1979 से 1987 तक निकारागुआ के पहले संस्कृति मन्त्री भी रहे. हालांकि दानियल ओर्तेगा के नेतृत्व संभालने पर कार्देनाल 1994 में सान्दीनीस्ता राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चे से अलग हो गये लेकिन उन्होंने अपनी मार्क्सवादी प्रतिबद्धता बरक़रार रखी है.Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3780821805422068162.post-86459767306169944122011-01-01T03:22:00.000-08:002011-01-01T03:23:48.441-08:00देशान्तर<span style="color: rgb(51, 51, 0); font-weight: bold;"></span><br /><br /><span style="color: rgb(204, 0, 0); font-weight: bold;">आज के कवि : चे गुएवारा</span><br /><br /><br /><span style="color: rgb(153, 51, 0); font-weight: bold;">फ़िदेल के लिए एक गीत</span><br /><br />आओ चलें,<br />भोर के उमंग-भरे द्रष्टा,<br />बेतार से जुड़े उन अमानचित्रित रास्तों पर<br />उस हरे घड़ियाल को आज़ाद कराने<br />जिसे तुम इतना प्यार करते हो।<br /><br />आओ चलें,<br />अपने माथों से<br />--जिन पर छिटके हैं दुर्दम बाग़ी नक्षत्र--<br />अपमानों को तहस--नहस करते हुए।<br /><br />वचन देते हैं<br />हम विजयी होंगे या मौत का सामना करेंगे।<br />जब पहले ही धमाके की गूंज से<br />जाग उठेगा सारा जंगल<br />एक क्वाँरे, दहशत-भरे, विस्मय में<br />तब हम होंगे वहाँ,<br />सौम्य अविचलित योद्धाओ,<br />तुम्हारे बराबर मुस्तैदी से डटे हुए।<br /><br />जब चारों दिशाओं में फैल जायेगी<br /> तुम्हारी आवाज़ :<br />कृषि-सुधार, न्याय, रोटी, स्वाधीनता,<br />तब वहीं होंगे हम, तुम्हारी बग़ल में,<br />उसी स्वर में बोलते।<br /><br />और जब दिन ख़त्म होने पर<br />निरंकुश तानाशाह के विरुद्ध फ़ौजी कार्रवाई<br />पहुंचेगी अपने अन्तिम छोर तक,<br />तब वहाँ तुम्हारे साथ-साथ,<br />आख़िरी भिड़न्त की प्रतीक्षा में<br />हम होंगे, तैयार।<br /><br />जिस दिन वह हिंस्र पशु <br />क्यूबाई जनता के बरछों से आहत हो कर<br />अपनी ज़ख़्मी पसलियाँ चाट रहा होगा,<br />हम वहाँ तुम्हारी बग़ल में होंगे,<br />गर्व-भरे दिलों के साथ।<br /><br />यह कभी मत सोचना कि<br />उपहारों से लदे और<br />शाही शान-शौकत से लैस वे पिस्सू<br />हमारी एकता और सच्चाई को चूस पायेंगे।<br />हम उनकी बन्दूकें, उनकी गोलियाँ और<br />एक चट्टान चाहते हैं। बस,<br />और कुछ नहीं।<br /><br />और अगर हमारी राह में बाधक हो ईस्पात<br />तो हमें क्यूबाई आँसुओं का सिर्फ़ एक<br />कफ़न चाहिए<br />जिससे ढँक सकें हम अपनी छापामार हड्डियाँ,<br />अमरीकी इतिहास के इस मुक़ाम पर।<br />और कुछ नहीं।Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3780821805422068162.post-45384378016827851942010-12-31T05:03:00.001-08:002010-12-31T05:03:52.100-08:00मिले नया दम<span style="color: rgb(204, 0, 0); font-weight: bold;"></span><span style="color: rgb(51, 51, 0);"><br /><br /><br />नये साल की पहली सुबह तुम्हें क्या दूं मैं ?</span><br /><span style="color: rgb(51, 51, 0);"> एक फूल अमन के लिए,</span><br /><span style="color: rgb(51, 51, 0);"> एक बन्दूक आज़ादी के लिए,</span><br /><span style="color: rgb(51, 51, 0);"> एक किताब संग-साथ के लिए ?</span><br /><span style="color: rgb(51, 51, 0);"> तुम्हारी आंखों के लिए नयी चमक ?</span><br /><span style="color: rgb(51, 51, 0);"> तुम्हारे ख़ून के लिए नयी गरमी,</span><br /><span style="color: rgb(51, 51, 0);"> तुम्हरे प्रेम के लिए नयी नरमी,</span><br /><span style="color: rgb(51, 51, 0);"> दिल के लिए नयी आशा, संघर्ष के लिए नयी भाषा ?</span><br /><span style="color: rgb(51, 51, 0);"> नये वर्ष में दूर हों ग़म,</span><br /><br /><span style="color: rgb(51, 51, 0);"> नये वर्ष में मिटें सितम,</span><br /><span style="color: rgb(51, 51, 0);"> नये वर्ष में दुख हों कम,</span><br /><span style="color: rgb(51, 51, 0);"> सिर झुकें नहीं, बांहें थकें नहीं,</span><br /><span style="color: rgb(51, 51, 0);"> टूटें सभी बेड़ियां, मिले नया दम.</span><br /><br /><span style="color: rgb(51, 51, 0);"> --नीलाभ</span>Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3780821805422068162.post-69352804381457053092010-12-30T21:49:00.000-08:002010-12-30T21:57:11.614-08:00देशान्तर<span style="color: rgb(51, 0, 0); font-weight: bold;"><br /><br /><br /><br /><br /><span style="color: rgb(153, 0, 0);">आज के कवि : पाब्लो नेरूदा</span><br /><br /><span style="color: rgb(0, 51, 0);">संघर्षरत जनता के कवि</span><br /><br />आज जब हमारे देश में भी अमरीका की शह पर मुनाफ़े के सौदागरों, तानाशाही तरीक़ों से काम लेने वालों, युद्ध-लाटों का शिकंजा कसता जा रहा है, लोकतन्त्र को कट्घरे में खड़ा कर दिया गया है, लोकतान्त्रिक संस्थाएं या तो ख़ारिज होने के कगार पर पहुंच गयी हैं या ताक़त और दौलत की दासियां बना दी गयी हैं, नेरूदा की कविता और उनका संघर्ष-कामी स्वर हमारे लिए और भी ज़रूरी हो गया है। यहां उनकी कविताओं का एक छोटा-सा चयन पेश है।<br /><br /><br /><span style="color: rgb(204, 0, 0);">नेरूदा की अन्तिम कविता</span><br /><br />निक्सन, फ़्रेई और पिनोशे<br />आज की तारीख़ तक, सन 1973 के<br />इस कड़वे हृदय-विदारक महीने तक<br />बॉर्दाबेरी, गारास्ताज़ू और बांज़र के साथ<br />भूखे लकड़बग्घे हमारे इतिहास के,<br />चूहे कुतरते हुए उन परचमों को<br />जिन्हें जीता गया इतने सारे ख़ून और इतनी सारी आग से<br /><br />बागानों में कीचड़ से लथपथ<br />नारकीय लुटेरे, हज़ार बार ख़रीदे-बेचे गये क्षत्रप<br />न्यू यॉर्क के भेड़ियों द्वारा उकसाये गये<br />डॉलरों की भूखी मशीनें<br />अपने शहीदों की क़ुरबानी के धब्बों वाली<br /><br />अमरीकी रोटी और हवा के भड़वे सौदागर<br />हत्यारे दलदल, रण्डियों के दलाल मुखियों के गिरोह,<br />लोगों पर कोड़ों की तरह भूख और यातना बरसाने के अलावा<br />और किसी भी क़ानून से रहित।<br /><br /><span style="color: rgb(204, 0, 0);">उन्हें चीले के ख़िलाफ़ निर्देश प्राप्त होते हैं</span><br /><br />लेकिन हमें इन सबके पीछे नज़र डालनी चाहिए,<br />इन ग़द्दारों और कुतरने वाले चूहों के पीछे कुछ है,<br />एक साम्राज्य जो दस्तरख़्वान बिछाता है<br />और पेश करता है आहार और गोलियाँ<br /><br />वे यूनान में अपनी महान सफलता को दोहराना चाहते हैं<br />भोज में यूनानी छैले, और पहाड़ों में लोगों के लिए<br />बन्दूक की गोलियाँ : हमें सामोथ्रेस की नयी<br />विजय की नयी उड़ान को नष्ट करना होगा, हमें<br />फाँसी चढ़ाना होगा, उन आदमियों को मारना होगा,<br />न्यू यॉर्क से हमारी तरफ़ बढ़ाये गये हत्यारे चाकू को<br />दफ़्न करना होगा,<br />हमें आग से उस आदमी के मनोबल को तोड़ना होगा<br />जो सभी देशों में उभर रहा था<br />मानो ख़ून छिड़की धरती से जन्म ले रहा हो।<br /><br />हमें हथियार बन्द करना है च्यांग को और ख़ूँख़ार विदेला को<br />देना है उन्हें धन कारागारों के लिए, पंख<br />ताकि वे बम बरसा सकें अपनी आबादियों पर, देना है<br />उन्हें एक अनुदान, कुछ डॉलर, और बाक़ी सब वे<br />ख़ुद कर लेंगे,<br /><br />वे झूठ बोलते हैं, रिश्वतें देते हैं, नाचते हैं मुर्दा जिस्मों पर<br />और उनकी बेगमें पहनती हैं बेशक़ीमती किमख़्वाब के लबादे<br />लोगों की तकलीफ़ों की कोई अहमियत नहीं है<br />ताँबे के सौदागरों को इस क़ुरबानी की ज़रूरत है<br /><br />हक़ीक़त हक़ीक़त है<br />युद्ध-लाट फ़ौज से अवकाश लेते हैं और<br />चुक्वीकामाता ताँबा कम्पनी के उपाध्यक्षों के पद<br />पर आसीन होते हैं<br />और नाइट्रेट कारख़ाने में चीले का युद्ध-लाट<br />अपनी तलवार बाँधे तय करता है<br />वेतन-वृद्धि की अर्ज़ियों में जनता<br />कितनी रक़म का ज़िक्र कर सकती है<br /><br />इस तरह वे ऊपर से तय करते हैं,<br />डॉलरों की रफ़्तार से,<br />इस तरह बौने ग़द्दार को उसके निर्देश प्राप्त होते हैं,<br />और युद्ध-लाट पुलिस के रूप में काम करते हैं,<br />और देश के वृक्ष का तना सड़ता है।<br /><br /><br /><span style="color: rgb(204, 0, 0);">"मैं सज़ा की माँग करता हूँ" से</span><br /><br />मैं यहाँ रोने नहीं आया जहाँ वे गिरे<br />मैं आया हूँ बात करने तुमसे जो अब भी ज़िन्दा हो।<br />मेरे शब्द सम्बोधित हैं तुम्हें और अपने आपको।<br /><br />दूसरे भी मरे हैं इससे पहले, याद है ?<br /><br />हाँ, तुम्हें याद है, इन्हीं जैसे दूसरे, तुम जैसे,<br />उन्हीं-उन्हीं नामों वाले<br />बरसाती लॉनक्वीमे में, सान ग्रेगोरियो में,<br />बंजर रानक्विल में उड़ाऊ हवा की ख़रोंचे खा कर,<br />धुँए की रेखा और वर्षा की रेखा के साथ-साथ<br />ऊँचे मैदानों से द्वीप-समूहों तक<br />दूसरे आदमी भी क़त्ल हुए हैं,<br />तुम्हारी तरह ऐन्टोनियो सरीखे नाम वाले दूसरे<br />मछुआरे, लोहार, तुम्हारे जैसे कारीगर।<br /><br />चीले का हाड़-माँस: चेहरे<br />हवा के कोड़ों के निशान-लगे, घास के मैदानों<br />जैसे सूखे चटियल, पीड़ा के हस्ताक्षर लिये।<br /> <br /> 2<br /><br />हमारे वतन की फ़सीलों के साथ-साथ<br />बर्फ़ की कोरी, काँच सरीखी चमक के छोर पर दमकती<br />हरी शाखाओं वाली नदी की भूल भुलैयाँ के पीछे छिपे,<br />नाइट्रेट के नीचे, फूटते बीज के अंकुर के नीचे,<br />मैंने पाया अपने लोगों के ख़ून की छितरी बूँदों का घना जमाव<br />और हर बूँद जल रही थी एक लपट की तरह।<br /> <br /> 4<br /><br />यह अपराध घटित हुआ ठीक खुले चौक में।<br />किसी जंगल में नहीं बहाया गया था यह ख़ून बेक़सूरों का।<br /><br />पाम्पास की प्यासी छुपा लेने वाली रेत में नहीं<br />किसी ने उसे ढाँकने की कोई कोशिश नहीं की<br /><br />यह अपराध देश के हृदय में किया गया...<br /> <br /> 6<br /><br />लोगो, यहाँ तुमने पाम्पास के झुके हुए मज़दूरों की तरह<br />हाथ बढ़ाने का फ़ैसला किया; तुमने उत्तर दिया उन्हें,<br />तुमने बुलाया उन्हें, आदमी औरत और बच्चा,<br />एक साल पहले इस चौक में,<br />और यहाँ तुम्हारा ख़ून फूट पड़ा,<br />देश के ठीक बीचों-बीच वह बहाया गया,<br />महल के सामने, सड़क के ठीक बीच में<br />और कोई उसे पोंछ न पाया<br />तुम्हारे लाल धब्बे यहीं रहे<br />सितारों की तरह<br />अटल और अनम्य<br /><br />तभी जब चिली का एक के बाद दूसरा हाथ<br />अपनी उँगलियाँ पाम्पास की तरफ़ बढ़ा रहा था<br />और तुम्हारे शब्द आ रहे थे हृदय से, एकता के घोष में<br />लोगो, तभी जब तुम अपने चौक में<br />आँसुओं और आशा और दुख-भरे<br />गीतों को गाते हुए चल रहे थे जुलूस में<br />तभी जल्लाद के हाथ ने चौक को शराबोर कर दिया ख़ून से।<br /> <br /> 7<br /><br />इसी तरह बनाया गया था हमारे देश का झण्डा:<br />अपने दुख के चिथड़ों से सिला था उसे लोगों ने;<br />प्रेम के चमकते धागे से उस पर कशीदाकारी की थी;<br />अपनी कमीज़ों से या शायद आकाश की तह से<br />काट कर निकाला था वह नीला टुकड़ा चौकोर,<br />अपने देश के सितारे को टाँकने के लिए<br />और उत्सुक हाथों से उसे सजाया था वहाँ एक नगीने की तरह।<br /><br />बूँद-दर-बूँद उसका रंग सुर्ख़ टटका लाल हो रहा है<br />वे जो इस चौक में आये थे भरी बन्दूकें लिये,<br />वे जो आये थे बेरहमी से मारने के हुक्म पर,<br />उन्हें मिली यहाँ महज़ एक भीड़ गाते हुए लोगों की<br />एक भीड़ जिसे प्रेम और कर्तव्य ने तब्दील कर दिया था।<br /><br />और एक पतली-दुबली लड़की सहसा गिरी अपने बैनर को थामे,<br />एक युवक ने चक्कर खाया अपनी पसलियों में बने छेद से खाँसते हुए।<br />ख़ामोशी के उस धमाके में लोग उन्हें गिरते हुए ताकते रहे<br />और धीरे-धीरे उनके दुख की लहर उठी और सर्द<br />ग़ुस्से की शक्ल में जम गयी।<br />बाद में उन्होंने अपने बैनर ख़ून में डुबोये<br />और उन्हें हत्यारों को चेहरों के सामने फहरा दिया<br /> <br /> 10<br /><br />अपने इन्हीं दिवंगतों के नाम पर<br />मैं सज़ा की माँग करता हूँ<br /><br />जिन्होंने हमारे वतन को ख़ून से छिड़का, उनके लिए<br />मैं सज़ा की माँग करता हूँ<br />उसके लिए जिसके हुक्म पर यह जुर्म किया गया<br />मैं माँगता हूँ सज़ा<br />उस ग़द्दार के लिए जो इन देहों पर कदम रखता<br />सत्ता में आया, मैं सज़ा की माँग करता हूँ<br />उन क्षमाशील लोगों के लिए जिन्होंने इस जुर्म को माफ़ किया<br />मैं सज़ा की माँग करता हूँ<br /><br />मैं नहीं चाहता हर तरफ़ हाथ मिलाना और भूल जाना,<br />मैं उनके ख़ून सने हाथ नहीं छूना चाहता।<br />मैं सज़ा की माँग करता हूँ।<br />मैं नहीं चाहता वे कहीं राजदूत बना कर भेज दिये जायें,<br />न यहाँ देश में ढँके-छुपे रह जायें<br />जब तक कि यह सब गुज़र नहीं जाता।<br />मैं चाहता हूँ न्याय हो<br />यहाँ खुली हवा में ठीक इसी जगह।<br /><br />मैं उन्हें सज़ा दिये जाने की माँग करता हूँ।<br /><br /><br /><span style="color: rgb(204, 0, 0);">मैं कुछ चीज़ें समझाता हूँ</span><br /><br />तुम पूछोगे कहाँ हैं गुलबकावली के फूल ?<br />और गुलेलाला से छिटका हुआ अध्यात्म ?<br />और वह वर्षा अपनी अनवरत टपटपाहट से रचती हुई<br />चुप्पियों और चिड़ियों से भरे हुए शब्द ?<br /><br />मैं तुम्हें बताऊँगा क्या गुज़री है मेरे साथ।<br /><br />मैं रहता था माद्रिद के एक मुहल्ले में<br />घण्टियों और घड़ियों और पेड़ों के बीच।<br />वहाँ से दिखायी देता था स्पेन का सुता हुआ चेहरा<br />चमड़े के सागर सरीखा।<br />मेरे घर को वे फूलों का घर कहते थे<br />क्योंकि हर दरार से फूट पड़ते थे जिरेनियम।<br />बड़ी गुलज़ार जगह थी मेरा घर<br />हँसते हुए बच्चों और कूदते हुए कुत्तों के साथ।<br /><br />याद है राओल ?<br />क्यों रफ़ेल, याद है ?<br />याद है फ़ेदेरीको ?<br />क़ब्र के अन्दर से क्या तुम्हें याद हैं<br />मेरे घर के छज्जे जहाँ जून का प्रकाश<br />तुम्हारे मुँह में फूलों को डुबो देता था ?<br /><br />भाई, मेरे भाई!<br />हर चीज़<br />आलीशान, ऊँची आवाज़ें नमकीन सौदा-सुल्फ़,<br />धड़कती हुई रोटियों के अम्बार,<br />बाज़ार मेरे उस आर्गुएलेस मुहल्ले के,<br />उसकी प्रतिमा जैसे मछलियों के बीच<br /> एक ख़ाली फीकी दवात,<br />कड़छुलों में बहता हुआ तेल,<br />हाथों और पैरों की एक गहरी चीख़-पुकार<br />उमड़ती थी सड़कों में,<br />मीटर, लीटर, ज़िन्दगी की तीखी नाप-जोख,<br />मछलियों के ढेर,<br />सर्द धूप में छतों की बिनावट जिस पर<br />हवा सूचक मुर्ग़ थकान से भर जाता है,<br />शुद्ध उन्मत्त हाथी दाँत जैसे आलू,<br />समुद्र तक लहर-दर-लहर टमाटरों का विस्तार।<br /><br />और एक सुबह लपटों में भड़क उठा यह सब।<br />एक सुबह अलाव फूट पड़े धरती से,<br />लोगों को निगलते हुए।<br />और तब से सिर्फ़ आग,<br />सिर्फ़ बारूद जब से,<br />और तब से सिर्फ़ ख़ून।<br /><br />मराकशों और हवाई जहाज़ों के साथ वे लुटेरे,<br />अँगूठियों और बेगमों के साथ वे लुटेरे,<br />काले लबादों में अशीष देते पादरियों के साथ वे लुटेरे<br />टूट पड़े आसमान से<br />बच्चों का क़त्ल करने के लिए<br />और सड़कों पर बच्चों का ख़ून<br />बहा जैसे बहता है बच्चों का ख़ून<br /><br />लकड़बग्घे जिन्हें लकड़बग्घे भी ठुकरा दें।<br />पत्थर जिन्हें भटकटैया भी चख कर थूक दे।<br />साँप जिनसे साँप भी घृणा करें।<br />तुमसे रू-ब-रू मैं ने देखा है<br />स्पेन के रक्त को एक ज्वार की तरह उठते हुए<br />तुम्हें चुनौतियों और चाकुओं की लहर में डुबोने के लिए।<br /><br />ग़द्दार जरनैलो :<br />देखो मेरे निर्जीव घर को<br />देखो टूटे हुए स्पेन को।<br /><br />लेकिन हर मरे हुए घर से<br />फूलों की जगह आता है जलता हुआ फ़ौलाद,<br />स्पेन के हर गड्ढे से बाहर आता है स्पेन,<br />हर मारे गये बच्चे से निकलती है<br />आँखों वाली एक राइफ़ल,<br />तुम्हारे हर गुनाह से जन्म लेते हैं कारतूस,<br />जो एक दिन तुम्हारे सीनों में खोज लेंगे तुम्हारे दिल।<br /><br />और तुम पूछोगे : तुम्हारी कविताएँ<br />अब सपनों और पत्तियों के गीत क्यों नहीं गातीं<br />तुम्हारी धरती के ज्वालामुखियों के।<br /><br />आओ और देखो सड़कों पर बिखरा हुआ ख़ून,<br />आओ और देखो<br />सड़कों पर बहता हुआ ख़ून,<br />आओ और देखो सड़कों पर ख़ून।<br /><br /><span style="color: rgb(204, 0, 0);">"माच्चू पिच्चू के शिखर" से</span><br /><br />10<br />पत्थर-दर-पत्थर, और मनुष्य, कहाँ था वह ?<br />हवा-दर-हवा, और मनुष्य कहाँ था वह?<br />काल-दर-काल, और मनुष्य कहाँ था वह?<br /><br />क्या तुम भी थे टूटे हुए नन्हे-से खण्ड,<br />अधूरे मनुष्य के, भूखे उक़ाब के,<br />जो आज की सड़कों से,<br />पुरानी राहों और निर्जीव शरद की पत्तियों के बीच से,<br />रौंदता चला जाता है आत्मा को क़ब्र के अन्दर तक ?<br /><br />आह दीन हाथ, दीन पैर, दीन-हीन जीवन.......<br /><br />ये सुलझी हुई रोशनी के दिन<br />तुम्हारे अन्दर, जैसे अनवरत वर्षा गिरती हुई<br />उत्सवी बर्छियों पर ;<br />बख़्शा क्या उन्होंने पँखुड़ी-दर-पँखुड़ी<br />ऐसे रिक्त मुख को अपना काला आहार ?<br />अकाल, जनता का असंख्य-रन्ध्री प्रवाल वृक्ष,<br />भूख, रहस्यमय पौधा, लकड़हारों का स्रोत,<br />दुर्भिक्ष, क्या तुम्हारी दाँतेदार सागर-शिला की कौंध<br />लपकी थी इन ऊँची, उन्मुक्त मीनारों तक ?<br /><br />मैं पूछता हूँ तुमसे, राजपथों के नमक,<br />दिखाओ मुझे वह कन्नी,<br />अनुमति दो स्थापत्य,<br />एक छोटी-सी छड़ी से पत्थर के पुंकेसरों को छेड़ने की,<br />हवा की सारी सीढ़ियाँ चढ़ कर शून्य तक पहुँचने की,<br />आँतों को कुरेदने की, जब तक कि छू न लूँ मनुष्य को मैं।<br /><br />माच्चू पिच्चू, उठाये क्या तुमने<br />पत्थर-पर-पत्थर, चिथड़ों की नींव पर ?<br />कोयले-पर-कोयला, और तल की गहराई में आँसू ?<br />क्या पैदा की तुमने सोने में आग<br />और उसके भीतर,<br />ख़ून की लरज़ती सुर्ख़ बूँदों का स्थूलोदर विधाता ?<br /><br />लौटा दो मुझे वह ग़ुलाम, जिसे तुमने दफ़्नाया था यहाँ !<br />झटक लेने दो मुझे इन ज़मीनों से बदनसीबों की बासी सख़्त रोटी,<br />दिखाओ मुझे उस ग़ुलाम के तार-तार कपड़े और उसका झरोखा ।<br />बताओ मुझे : जब वह ज़िन्दा था तो कैसे सोता था,<br />बताओ: क्या नींद में ख़र्राटे भरता था वह<br />थकान से दीवार में बन गये काले ज़ख़्म-सरीखे अधखुले मुँह से ।<br /><br />वह दीवार, वह दीवार !<br />बताओ : क्या उसकी नींद पर बोझ बन जाती थी<br />पत्थर की हर मंज़िल और क्या वह उनके नीचे<br />शिथिल हो ढह जाता था, मानो चाँद के नीचे,<br />उस सारी नींद के साथ !<br /><br />प्राचीन अमरीका, समुद्री घूँघट से झाँकती वधू,<br />तुम्हारी उँगलियाँ भी,<br />अरण्य छोरों से देवताओं की विरल ऊँचाई तक,<br />प्रकाश और प्रतिष्ठा की विवाह-पताकाओं के नीचे,<br />नगाड़ों और नेज़ों की गरज में शरीक होती हुईं,<br />तुम्हारी उँगलियाँ, तुम्हारी उँगलियाँ भी,<br />जिन्होंने अमूर्त गुलाब को और शीत की रेखा को,<br />जिन्होंने नये अनाज के रक्त-रँगे उर को परिणत किया<br />कान्तिमय तत्व की बुनावट में, दुर्भेद्य पथरीले कोटरों में,<br />उन्हीं से, उन्हीं उँगलियों से ओ दफ़्न अमरीका,<br />उस गहनतम गर्त में, पित्त-भरी आँतों में,<br />क्या तुम छिपा कर पाल रहे थे भूख के उकाब को ?<br /><br />11<br /><br />वैभव के उलझेरे के पार,<br />पथराई हुई रात के पार, मुझे डुबोने दो हाथ<br />और हज़ार वर्षों से क़ैद उस पखेरू,<br />उन बिसरा दिये गये लोगों के बूढ़े हृदय को मेरे अन्दर फड़फड़ाने दो,<br />आज मुझे भूल जाने दो यह सुख, यह आह्लाद,<br />जो सारे समुद्र से ज़्यादा विशाल है,<br />क्योंकि मनुष्य सारे समुद्र और उसके द्वीपों से विशालतर है,<br />और हमें डुबकी लगानी होगी उसके अन्दर, जैसे किसी कुएँ में,<br />ताकि हम ला सकें वापस उसकी गहराई से<br />भेद-भरे पाताली जल और जल-मग्न सच्चाइयों की स्रोतस्विनी ।<br /><br />भूल जाने दो मुझे : यह पत्थर का विस्तार, सशक्त अनुपात,<br />लोकोत्तर माप, छत्तों-जैसी तहख़ानेदार नींवें,<br />और गुनिये से मेरे हाथ को फिसलने दो आज<br />तल्ख़ ख़ून और टाट के अदृश्य कर्ण पर नीचे तक ।<br /><br />जब, घोड़े की मुरचायी नाल जैसी लाल पंख-मंजूषाओं-सरीखा,<br />क्रोधान्ध गिद्ध उड़ने के क्रम में मेरी कनपटियों पर करता है प्रहार<br />और उसके ख़ूँख़ार परों का तूफ़ान बुहार ले जाता है<br />ढलवाँ ज़मीनों की स्याह गर्द,<br />तब मैं देखता नहीं इस पाशविक की झपट,<br />नहीं देख पाता उसके पंजों की अन्धी दराँती,<br />मैं देखता हूँ उस पुरातन प्राणी, उस ग़ुलाम को,<br />खेतों में सोये हुए उस निद्रामग्न को<br />देखता हूँ मैं एक शरीर, हज़ारों शरीर, एक मर्द, हज़ारों औरतें,<br />काली आँधी के थपेड़े खातीं, वर्षा और रात से सँवलाई हुईं,<br />मूर्तियों के दुस्सह भार से पथरायी हुईं :<br /><br />ओ संगतराश जुआन, विराकोचा के पुत्र,<br />शीतभक्षक जुआन, इस हरे नक्षत्र के वंशज,<br />नंगे पैरोंवाले जुआन, फ़ीरोज़े के पौत्र,<br />उठो, जन्म लो मेरे साथ, मेरे सहजात !<br /><br />12<br /><br />उठो, जन्म लो मेरे साथ, मेरे सहजात !<br /><br />बढ़ाओ मेरी ओर अपना हाथ उन अगाध गहराइयों से<br />बोये गये हैं जिनमें तुम्हारे दुख ।<br />लौटोगे नहीं तुम इस चट्टानी कारा से ।<br />उबरोगे नहीं तुम भूमिगत अतीत से ।<br />वापस नहीं आयेगी तुम्हारी खरखराती सख़्त आवाज़ ।<br />न उदित होंगे तुम्हारे बिंधे हुए मर्माहत नेत्र अपने कोटरों से ।<br /><br />देखो मेरी ओर धरती की गहराइयों से,<br />हरवाहे, जुलाहे, ख़ामोश चरवाहे :<br />विघ्नहर्ता ऊँटों के पालक :<br />ख़तरनाक पाड़ों पर चढ़े हुए राजगीर :<br />एण्डीज़ के आँसुओं के कहार :<br />कुचली उँगलियों वाले मणिकार :<br />अँखुवाते बिरवों में लरज़ते किसान :<br />अपनी माटी में बिखरे कुम्हार :<br />इस नयी ज़िन्दगी के प्याले तक लाओ<br />अपने पुराने दबे पड़े दुख ।<br /><br />दिखाओ मुझे अपना लहू और अपनी झुर्रियाँ,<br />कहो मुझसे : यहाँ हुए मुझ पर कशाघात<br />क्योंकि एक रत्न रह गया था मन्द-प्रभ,<br />या धरती दे नहीं पायी समय पर पत्थर या अनाज।<br /><br />दिखाओ मुझे वह पत्थर, जिससे ठोकर खा तुम लड़खड़ाये थे,<br />और वह शहतीर, जिस पर उन्होंने तुम्हें सूली चढ़ाया था।<br />पुराने चकमकों को रगड़ कर, जला दो<br />पुराने चिराग़, रोशन कर दो<br />शताब्दियों से अपने ज़ख़्मों से चिपके हुए कोड़े<br />और अपने ख़ून से रँगी चमकती कुल्हाड़ियाँ।<br /><br />मैं आया हूँ तुम्हारे निस्पन्द मुखों की ओर से बोलने ।<br /><br />जमा हो जायँ धरती पर सर्वत्र बिखरे वे मौन मृत अधर,<br />और इन गहराइयों से बुनते रहो मेरे लिए सारी बात, सारी रात,<br />मानो मैं लंगर डाले यहाँ तिरता रहा हूँ तुम्हारे साथ।<br /><br />बताओ मुझे सब कुछ, बेड़ी-दर-बेड़ी,<br />बन्द-दर-बन्द, कदम-दर-कदम।<br />सँजो कर रखी हुई अपनी कटारों पर सान चढ़ा कर<br />उतार दो उन्हें मेरे हृदय में और मेरे हाथों में,<br />स्वर्णाभ किरणों की वेगवती धारा की तरह,<br />दफ़्न चीतों के प्रचण्ड प्रवाह की तरह,<br />और मुझे बिलखने के लिए छोड़ दो, घण्टों, दिनों, वर्षों,<br />अन्धे युगों, तारकीय शताब्दियों तक।<br /><br />और दो मुझे मौन, जल दो, आशा दो ।<br /><br />दो मुझे संघर्ष, ईस्पात और ज्वालामुखी ।<br /><br />मेरी देह के चुम्बक से आ चिपकें शरीर ।<br /><br />लपको मेरी शिराओं और मेरे मुख तक।<br /><br />बोलो मेरी वाणी और मेरे रक्त के माध्यम से ।।<br /><br /><span style="color: rgb(204, 0, 0);">शराब</span><br /><br />वसन्त की शराब...शराब पतझड़ की, शराब<br />और हमप्याला साथी, शरद की पत्तियों से<br />अटी हुई मेज़ के गिर्द, दुनिया की विशाल नदी<br />हमारे गीतों के शोर से इतनी दूर बहने पर कुम्हलाती हुई।<br /><br />मैं एक मस्त पियक्कड़ हूँ।<br />तुम यहाँ इसलिए नहीं आये कि मैं फाड़ लूँ<br />तुम्हारी ज़िन्दगी का एक टुकड़ा। जब तुम जाओ<br />तो मेरे जीवन का एक हिस्सा लेते जाओ : कुछ गुलाब<br />या बादाम या जड़ों का ठौर<br />किसी साथी के साथ बाँटने के लिए।<br /><br />तुम गा सकते हो मेरे साथ जब तक कि<br />हमारा प्याला छलक कर मेज़ को उन्नाबी न कर दे।<br />यह मदिरा तुम्हारे होंटों के लिए<br />आयी है सीधी धरती से, दाख के धूसर गुच्छों से।<br />कितनी परछाइयाँ मेरे गीतों की गुज़र गयीं :<br />पुराने साथियो, मैं ने प्यार किया आमने-सामने,<br />जीवन से ढालते हुए यह ओज-भरा अप्रतिम विज्ञान<br />जिसे बाँटता हूँ मैं :<br />भाईचारा, बीहड़ कोमलता का कुंज।<br /><br />लाओ, दो मुझे अपना हाथ, मेरे साथ आओ<br />सरलता से और मत खोजो मेरे शब्दों में कुछ भी<br />जो किसी पौधे से नहीं आता, जन्म लेता।<br /><br />मुझसे क्यों पूछते हो एक मज़दूर से ज़्यादा ? तुम्हें मालूम है<br />मैंने अपना ज़मींदोज़ लोहारख़ाना आग में तपा कर<br />चोट-दर-चोट बनाया<br />और अपनी ज़बान के सिवा और किसी तरह बोलना नहीं चाहता।<br />जाओ वैद्यों को खोजो अगर तुम हवा को बरदाश्त नहीं कर सकते।<br /><br />आओ धरती की खुरदरी शराब के गीत गायें हम,<br />पतझड़ के प्यालों से मेज़ को बजायें<br />जब एक गिटार या एक मौन लाता रहता है हम तक<br />प्रेम की पंक्तियाँ, अस्तित्वहीन नदियों की भाषा<br />या अद्भुत छन्द जिनका कोई अर्थ न हो।<br /><br /><span style="color: rgb(204, 0, 0);">हम अनेक हैं</span><br /> <br />उन सभी लोगों में, जो मैं हूँ, जो हम हैं<br />मैं किसी एक के बारे में तय नहीं कर पाता।<br /><br />वे कपड़ों की ओट में मुझसे ओझल हो गये हैं<br />वे किसी और शहर के लिए रवाना हो चुके हैं।<br /><br />जब हर चीज़ मुझे एक बुद्धिमान व्यक्ति के रूप में<br />पेश करने के लिए तैयार जान पड़ती है<br />वह बेवकूफ़, जिसे मैं अपने भीतर छिपाये चलता हूँ<br />मेरी बातों का सिरा थाम लेता है<br />और मेरे मुँह पर क़ब्ज़ा जमा लेता है।<br />दूसरे मौक़ों पर, मैं उल्लेखनीय लोगों के बीच<br />बैठा झपकियाँ ले रहा होता हूँ।<br />और जब मैं पुकारता हूँ अपने साहसी रूप को<br />तो मुझसे क़तई अनजान एक कायर<br />लपेट देता है मेरे असहाय ढाँचे को<br />हज़ारों नन्हीं हिचकिचाहटों से।<br /><br />जब एक शानदार मकान लपटों में फूट पड़ता है<br />तब उस दमकलवाले की जगह, जिसे मैं बुलाता हूँ,<br />एक आगज़नी करने वाला आ धमकता है<br />और वह मैं होता हूँ। मैं कुछ भी नहीं कर पाता।<br /><br />क्या करूँ मैं जिससे ख़ुद को पहचान सकूं ?<br />कैसे करूँ अपने को व्यवस्थित ?<br /><br />सारी किताबें जो मैं पढ़ता हूँ,<br />आत्म-विश्वास से भरपूर<br />चमकीले नायकों की प्रशस्तियों से भरी होती हैं।<br />मैं ईर्ष्या से जल-भुन कर राख हो जाता हूँ।<br />और फ़िल्मों में जहाँ गोलियाँ सनसनाती हैं हवा में<br />मैं घुड़सवारों से रश्क करता रह जाता हूँ।<br />यहाँ तक कि घोड़े भी मेरी प्रशंसा जीत लेते हैं।<br />लेकिन जब मैं आवाज़ देता हूँ अपने जांबाज़ रूप को<br />तो बाहर निकल आता है वही पुराना सुस्तराम।<br /><br />और यों मैं कभी नहीं जान पाता कि दरअस्ल में हूँ कौन,<br />न यह कि हम कितने हैं, न यही कि हम अब क्या होंगे।<br /><br />काश, मैं घण्टी बजा कर बुला सकता<br />अपना असली रूप, वह जो सचमुच मैं हूँ।<br />क्योंकि अगर मुझे सचमुच अपने सच्चे रूप की ज़रूरत हो<br />तो मुझे अपने आपको ग़ायब नहीं होने देना चाहिए।<br /><br />जब मैं लिख रहा होता हूँ, तब मैं होता हूँ कहीं दूर<br />और जब मैं लौटता हूँ, तब तक मैं जा चुका होता हूँ।<br /><br />मैं यह देखना चाहूँगा कि दूसरे लोगों के साथ भी<br />क्या वही होता है जो मेरे साथ।<br />देखना चाहूँगा कितने लोग मेरे जैसे हैं<br />और वे भी क्या ख़ुद को वैसे ही नज़र आते हैं।<br /><br />जब इस समस्या की खूब छान-बीन कर ली जाय<br />तब मैं इतनी अच्छी तरह चीज़ों की जानकारी हासिल करूँगा<br />कि जब मैं अपनी उलझनों को समझाने की कोशिश करूँ<br />तो मेरी बातें ख़ुद अपने बारे में न हो कर<br />सारी दुनिया के बारे में हों।<br /><br /><span style="color: rgb(204, 0, 0);">इतने सारे नाम</span><br /> <br />सोमवार उलझे हुए हैं मंगलवारों से<br />और हफ़्ता समूचे साल से।<br />समय को तुम्हारी थकी हुई कैंचियों से<br />काटा नहीं जा सकता<br />और दिन के सभी नाम<br />धुल जाते हैं रात के जल में।<br /><br />कोई दावा नहीं कर सकता कि उसका नाम पेद्रो है,<br />न कोई रोज़ा है, न मारिया,<br />हम सब धूल हैं या रेत<br />हम सब वर्षा के नीचे वर्षा हैं।<br /><br />उन्होंने ज़िक्र किया है मुझसे वेनेज़ुएला का,<br />चीले का और पैरागुए का,<br />मुझे नहीं पता उनका मतलब क्या है,<br />मैं तो सिर्फ़ धरती की त्वचा जानता हूँ<br />और जानता हूँ उसका कोई नाम नहीं।<br /><br />जब मैं रहता था जड़ों के बीच<br />वे मुझे फूलों से भी ज़्यादा भाती थीं<br />और जब मैं किसी पत्थर से बात करता<br />वह घण्टी की तरह टुनटुनाता।<br /><br />कितना लम्बा है यह वसन्त<br />जो जारी रहता है पूरी सर्दियाँ।<br />समय खो चुका अपने जूते,<br />एक साल क़ायम रहता है चार सदियाँ।<br /><br />हर रात जब मैं सोता हूँ<br />क्या होता है, या नहीं होता, मेरा नाम ?<br />और जागने पर कौन होता हूँ मैं<br />अगर मैं नहीं था ‘मैं’ नींद के दौरान।<br /><br />कहने का मतलब है कि<br />ज़िन्दगी में उतरते ही<br />हम जैसे नया जन्म लेते हैं।<br />हमें अपने मुँह को नहीं भरना चाहिए<br />इतने सारे लड़खड़ाते नामों से,<br />इतने सारे थकाऊ शिष्टाचार से,<br />इतने सारे गूँजते अक्षरों से,<br />इतने सारे तेर-मेर से,<br />इतनी सारी काग़ज़ी कारगुज़ारियों से।<br /><br />मन करता है चीज़ों को उलझा दूँ,<br />उन्हें एकमेक कर दूँ, उन्हें जन्म दूँ,<br />गड्ड-मड्ड कर दूँ, निर्वसन कर दूँ उन्हें,<br />जब तक कि दुनिया का प्रकाश<br />समुद्र जैसा एकसार न हो जाय --<br />एक उदार, विपुल सम्पूर्णता और<br />एक चटचटाती हुई गन्ध में न बदल जाय।<br /><br /><span style="color: rgb(204, 0, 0);">मैं वापस आऊँगा</span><br /><br />किसी समय,<br />आदमी या औरत, मुसाफ़िर<br />बाद में,<br />जब मैं ज़िन्दा न रहूँ,<br />यहाँ देखना, खोजना मुझे यहाँ<br />पत्थरों और सागर के बीच<br />फेन में तूफ़ान की तरह उमड़ती रोशनी में<br />यहाँ देखना, खोजना, मुझे यहाँ<br />क्योंकि यही वह जगह है जहाँ मैं आऊँगा,<br />कुछ न कहता हुआ, कोई आवाज नहीं, मुँह नहीं,<br />शुद्ध।<br /><br />यहाँ मैं फिर हूँगा पानी की हलचल,<br />उसके उद्दाम हृदय की,<br />यहाँ मैं दोनों हूँगा खोया भी और पाया भी,<br />यहाँ मैं हूँगा शायद पत्थर भी और ख़ामोशी भी।<br /><br /><span style="color: rgb(204, 0, 0);">"बीस प्रेम कविताएं और हताशा का एक गीत" से</span><br /><br />हर रोज़ तुम खेलती हो ब्रह्माण्ड के प्रकाश से<br />रहस्यमयी आगन्तुक, तुम आती हो फूल में और पानी में।<br />तुम इस सफ़ेद सिर से कहीं अधिक हो जिसे मैं कस<br />कर थामे रहता हूँ, फूलों के गुच्छे की तरह, हर रोज़ अपने हाथों में।<br /><br />तुम किसी की तरह नहीं हो क्योंकि मैं तुम्हें प्यार करता हूँ।<br />आओ, मैं फैला दूँ तुम्हें सुनहरी मालाओं के बीच।<br /><br />कौन लिखता है तुम्हारा नाम धुँए के अक्षरों में<br />दक्षिणी सितारों के बीच ?<br /><br />आह याद करने दो मुझे तुमको जैसे तुम थीं<br />अपने अस्तित्व से पहले।<br /><br />सहसा हवा चीख़ती है और मेरी बन्द खिड़की खटखटाती है।<br />आसमान एक जाल है<br />छाया सरीखी मछलियों से ठसाठस भरा हुआ<br />यहाँ सारी हवाएँ साथ छोड़ देती हैं, देर सबेर,<br />सारी की सारी हवाएँ<br />अपने कपड़े उतार देती है वर्षा।<br />चिड़ियां गुज़रती जाती हैं, उड़ती हुईं।<br />हवा! आह! हवा।<br /><br />सिर्फ़ मैं लोहा ले सकता हूँ आदमियों की सत्ता से।<br />आँधी नचाती है साँवली पत्तियाँ<br />और उन सारी नावों को खोल देती है जो पिछली रात आकाश से बँधी थीं।<br />तुम यहाँ हो। आह, तुम नहीं भागतीं यहाँ से।<br />तुम मेरी अन्तिम पुकार का जवाब दोगी<br />लिपट जाओगी मेरे गिर्द मानो तुम डरी हुई थीं।<br /><br />फिर भी, एक अजीब छाया कभी तुम्हारी आँखों से हो कर दौड़ती थी<br />अब, अब भी, नन्हीं, तुम लाती हो मेरे लिए मधुमालती लता<br />और तुम्हारी छातियों से भी उसकी सुगन्ध आती है।<br /><br />उस समय जब उदास हवा तितलियों को हताहत करती जाती है,<br />मैं तुम्हें प्यार करता हूँ और मेरी ख़ुशी तुम्हारे मुँह के आलूचे कुतरती है।<br /><br />कितनी तकलीफ़ पायी होगी तुमने मुझसे परिचित होने के दौरान<br />मेरी उद्दाम, एकाकी आत्मा, मेरा नाम जिसे सुन कर वे सब भड़क उठते हैं,<br />कितनी बार हमने देखा है सुबह के सितारे को जलते हुए, हमारी आँखों को चूमते,<br />और अपने सिरों के ऊपर सलेटी प्रकाश को घूमते हुए,<br />पंखों की शक्ल में अपने बल खोलते,<br />मेरे शब्द बरसते तुम पर, तुम्हें सहलाते हुए,<br />बहुत दिनों तक मैंने प्यार किया है धूपधुली सीपी तुम्हारी देह को<br />यहां तक कि मुझे यह भी विश्वास हो गया है कि तुम ब्रह्माण्ड की स्वामिनी हो।<br /><br />मैं लाऊँगा तुम्हारे लिए पहाड़ों से प्रसन्न पुष्प,<br />नीलवर्णी फूल, गहरे पिंगल फूल, और चुम्बनों की उद्दाम टोकरी।<br /><br />मैं चाहता हूँ तुम्हारे साथ करना<br />जो वसन्त करता है चेरी वृक्षों के साथ<br /><br /><span style="color: rgb(204, 0, 0);">आज की रात</span><br /><span style="color: rgb(51, 102, 102);">"बीस प्रेम कविताएं और हताशा का एक गीत" से</span><br /> <br />आज की रात में लिख सकता हूँ अपने सबसे उदास गीत।<br /><br />लिख सकता हूँ, मसलन, रात है तारों-भरी<br />और दूर, फासले पर, काँपते हैं नीले सितारे।<br />रात की हवा आकाश में नाचती और गाती है।<br />आज की रात में लिख सकता हूँ अपने सबसे उदास गीत।<br /><br />मैं उसे प्यार करता था, और कभी-कभी वह भी करती थी मुझसे प्यार।<br />ऐसी रातों को मैं बाँध लेता था अपनी बाँहों में उसे,<br />अन्तहीन आकाश के नीचे उसे चूमता था बार-बार।<br />वह मुझे प्यार करती थी, कभी-कभी मैं भी उसे करता था प्यार।<br /><br />कैसे कोई उसकी विशाल अविचल आँखों से प्यार न करता।<br /><br />आज की रात में लिख सकता हूँ अपने सबसे उदास गीत।<br />यह सोचना कि वह मेरे पास नहीं है। यह महसूस करना कि मैं उसे खो चुका हूँ।<br />बेकिनार रात को सुनना, उसके बिना और भी बेकिनार।<br />और आत्मा पर झरते हैं छन्द, जैसे ओस चारागाह पर।<br /><br />क्या फ़र्क पड़ता है कि उसे बाँध न सका मेरा प्यार<br />रात तारों-भरी है और वह मेरे पास नहीं है।<br />बस इतनी ही है बात। दूर कोई गा रहा है। फ़ासले पर।<br />मेरी आत्मा अतृप्त है उसे खो कर<br />मेरी नज़रें खोजती हैं उसे मानो उसे पास खींच लाने के लिए।<br />मेरा हृदय उसे ढूँढता है और वह मेरे पास नहीं है।<br /><br />वही रात, उन्हीं वृक्षों को रुपहला बनाती हुई।<br />हम, उसी समय के, अब वैसे नहीं रह गये हैं।<br />मैं अब उसे प्यार नहीं करता, यह तय है, लेकिन मैं उसे कितना प्यार करता था।<br />मेरी आवाज़ हवा को हेरती थी ताकि पहुँच सके उसके कानों तक।<br /><br />किसी और की, अब वह होगी किसी और की। जैसे वह थी मेरे चुम्बनों से पहले।<br />उसकी आवाज़, उसकी शफ़्फ़ाफ़ देह। उसकी निस्सीम आँखें।<br /><br />मैं अब उसे प्यार नहीं करता, यह तय है, लेकिन मैं उसे कितना प्यार करता था।<br />प्यार कितना क्षणिक है और भूलना कितना दीर्घ।<br />चूँकि ऐसी रातों में बाँध लेता था मैं अपनी बाँहों में उसे,<br />मेरी आत्मा अतृप्त है उसे खो कर<br />भले ही यह आखिरी पीड़ा हो जो मैं उससे पाऊँ<br />और यह आख़िरी गीत मैं रचूँ उसके लिए।<br /><br />_______________________________________________________<br /><br />पाब्लो नेरूदा का जन्म 1904 में दक्षिणी चिली के पर्राल नामक स्थान में हुआ, लेकिन उनका बचपन तेमूको में बीता, जो एक छोटा-सा प्रान्तीय कस्बा था। नेरूदा का वास्तविक नाम नेफ़्ताली रिकार्दो रेयेज़ था, लेकिन अपने सम्बन्धियों के उपहास के डर से वे पाब्लो नेरूदा के नाम से लिखने लगे -- नेफ़्ताली को पाब्लो में बदल कर और 19वीं सदी के एक चेक लेखक नेरूदा का नाम उसके आगे जोड़ कर। अपनी प्रारम्भिक कविताओं ही से नेरूदा सान्तियागो (चिली) में अपने सहपाठियों के बीच काफ़ी प्रसिद्ध हो गये थे, लेकिन व्यापक ख्याति उन्हें अपनी दूसरी पुस्तक -- ‘बीस प्रेम कविताएँ और हताशा का एक गीत’ (1924) -- से मिली।<br /> लातीनी अमरीका के अन्य देशों की तरह चिली भी कभी-कभार अपने कवियों को राजनयिक पद दे कर सम्मानित करता है। 1927 में नेरूदा वाणिज्य-दूत के रूप में रंगून आये। अगले पाँच वर्ष उन्होंने दक्षिण-पूर्व एशिया के विभिन्न दूतावासों में बिताये और इस दौरान, दो परस्पर विरोधी संस्कृतियों के दबावों की वजह से, एकाकीपन का वह एहसास, जो उनकी प्रारम्भिक प्रेम-कविताओं में नज़र आता है, एक वीरान, सर्द फीकेपन में परिणत हो गया। उनकी कविता आत्मकेन्द्रित और आत्मोन्मुखी होती चली गयी। लेकिन नेरूदा की यह मनःस्थिति ज़्यादा दिनों तक क़ायम नहीं रही। 1934 में उन्हें बार्सेलोना (स्पेन) भेज दिया गया और अगली फ़रवरी में मैद्रिद -- जहाँ अपने सरकारी काम-काज से उन्हें इतना वक्त मिल जाता था कि वे कविताएँ लिख सकें, मैद्रिद की सँकरी सड़कों पर घूम सकें और मित्रों से गप-शप कर सकें। इन मित्रों में सुप्रसिद्ध स्पेनी कवि फ़ेदेरिको गार्सिया लोर्का भी थे।<br /> तभी नेरूदा की ज़िन्दगी और उनके काव्य का वह युग शुरू हुआ, जिसकी गूँज -- उनकी अन्य वैचारिक और भावनात्मक चिन्ताओं के बावजूद -- ज़िन्दगी के अन्त तक सुनायी देती रही। मैद्रिद की सड़कें फ़ासिस्त बूटों की धमक से गूँज उठीं और जुलाई 1936 में स्पेनी गृहयुद्ध ने, लोर्का की हत्या के हादसे के साथ मिल कर उस आत्मोन्मुखी मनःस्थिति को तोड़ दिया, जिसके प्रभाव में उनकी कविता आत्मकेन्द्रित हो गयी थी। 1936 से वे लगातार साम्यवाद के निकट आते चले गये (हालाँकि साम्यवादी दल की सदस्यता उन्होंने लगभग नौ वर्ष बाद ग्रहण की)। ‘प्रतिबद्ध’ कविताओं के उनके पहले कविता-संग्रह -- ‘हृदय में स्पेन’ (1937) -- में एक सीधी-सपाटता और तीखापन है, जो अब तक लिखी गयी उनकी कविताओं में नहीं था।<br /> नेरूदा और उनकी स्पेनी भाषा का संसार, स्पेन और यूरोप से उस हद तक नहीं जुड़ा है, जिस हद तक चिली से -- लातीनी अमरीका से। अपनी प्राणहारी जड़ें उन्होंने चिली और लातीनी अमरीका के लोक-काव्य में उतारीं और वहीं से अपने काव्य की ताज़गी और शक्तिमन्त अभिव्यक्ति प्राप्त की।<br /> अपनी कविता के बारे में नेरूदा ने कहा था ‘दुनिया बदल गयी है और मेरी कविता भी बदल गयी है’ और इस परिवर्तन का प्रमाण उन्होंने कोरे शब्दों से नहीं, वरन अपनी सक्रियता से और अपनी अभिव्यक्ति के माध्यम से दिया। स्पेनी गृहयुद्ध के बाद नेरूदा की कविताओं में जनवादी स्वर बराबर मौजूद दिखायी देता चाहे वे नितान्त निजी भावनाओं को व्यक्त कर रहे हों। इसी जनवादी रुझान के कारण उन्हें कई बार चिली के तानाशाहों के कोप का शिकार भी बनना पड़ा और कुछ समय तक वे भूमिगत भी हुए। पहले दौर में गॉन्ज़ालेज़ विदेला की तानाशाही का कोप-भाजन बनने पर भूमिगत होने के बाद उन्होंने आर्जेण्टाइना के पत्र ‘ला होरा’ को दिये गये इण्टर्व्यू में कहा था -- "ऐसा लेखक, जो राजनीति से अलग-थलग खड़ा रहे, कोरी कल्पना है -- पूँजीवाद द्वारा गढ़ी गयी और सम्पोषित। दान्ते के ज़माने में ऐसे लेखक नापैद थे। ‘कला, कला के लिए’ का सिद्धान्त बड़े व्यापार ने प्रतिपादित किया है। थियोफ़ील गॉतिये ने अमीर व्यापारियों और शोषकों के आदर्शों और मान्यताओं का गुणगान किया था। लेखकों ने ऐसे विचारों को अपना लिया -- इससे उभरते हुए पूँजीवाद की विजय हुई। ईथियोपिया की ओर उस महान विद्रोही --आर्थर रैंबो -- का पलायन, शार्लेविल के सॉसेज-व्यापारियों की निर्विवाद जीत थी।.....यह नाम -- ‘पश्चिमी संस्कृति’ --उन चालाक जल्लादों -- हिटलर और गोएबल्स -- ने गढ़ा और प्रचारित किया था। उन्होंने इस आसव को तैयार किया और बोतलों में भरा; और आज इसे स्टैण्डर्ड ऑयल या उड़न-क़िलों के निर्माताओं पर आश्रित -- मार्शल, फ़ोर्ड मोटर्स, कोका कोला और ऐसे ही दूसरे तटस्थ दार्शनिकों द्वारा वितरित किया जा रहा है।....हाल तक मैं एक नये युद्ध की कोई सम्भावना नहीं देखता था, लेकिन वॉल स्ट्रीट में भाड़े के सिपाहियों के जो सरदार हैं -- सीनों में बम छुपाये -- वे आशंका उपजाते हैं..."<br /> नेरूदा के इन शब्दों को पढ़ते हुए, उनकी गहरी राजनीतिक समझ का एहसास तो होता ही है, द्रष्टा के रूप में समय के धुँधलकों के पार देखने वाली उनकी नज़र का भी पता चलता है।<br /> इस पहली जलावतनी के वर्षों बाद नेरूदा ने साल्वादोर आयेन्दे की समाजवादी सरकार के सहयोगी के रूप में कुछ साल निस्बतन सुख-शान्ति से गुज़ारे लेकिन फिर 1973 में औगस्तो पिनोशे द्वारा आयेन्दे का तख़्ता पलटे जाने के दौरान हुई उथल-पुथल में दिल के दौरे से उनका निधन हो गया। लेकिन उनका सन्देश -- ‘मैं आया हूँ तुम्हारे निस्पन्द मुखों की ओर से बोलने’ -- उसी तरह ज़िन्दा रहेगा, जिस तरह उनकी कविताएँ। क्योंकि जनता से, ख़ास तौर पर अभावग्रस्त, तकलीफ़-ज़दा जनता से उनका गहरा सम्पर्क था कि उनके स्रोत धरती और उसके जन-समुदाय में थे। अपनी ज़िन्दगी, अपने कर्म और अन्त में अपनी मृत्यु में नेरूदा ने सिद्ध कर दिया कि वे शोषित मानवता के, संघर्षरत जनता के, कवि हैं, और रहेंगे। और इसी संघर्षरत जनता के पक्षधर के रूप में उनकी सार्थकता मृत्यु के बाद भी रहेगी।<br /><br /><br /><br /></span>Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3780821805422068162.post-58982029982072187242010-12-28T05:34:00.000-08:002010-12-28T05:37:24.345-08:00देशान्तर<span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 0);"></span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 0, 0);">आज के कवि : तादेऊष रोज़ेविच</span><br /><br /><br /><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">वे बोझ उतारते हैं</span><br /><br />वह तुम्हारे पास आता है<br />और कहता है<br />तुम ज़िम्मेदार नहीं हो<br />न तो दुनिया के लिए<br />न दुनिया के अन्त के लिए<br />यह भार उठा लिया गया है तुम्हारे कन्धों से<br />तुम बच्चों और चिड़ियों की तरह हो<br />जाओ, खेलो<br /><br />और वे खेलते हैं<br />भूल जाते हैं वे<br />कि समकालीन कविता का मतलब है<br />साँस के लिए संघर्ष<br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">एक जीवनी से</span><br /><br />जन्म तिथि<br />जन्म स्थान<br />रादोम्स्को 1921<br /><br />हाँ<br />मेरे बेटे की स्कूली कापी के<br />इस पन्ने पर<br />दर्ज है मेरी जीवनी<br /><br />थोड़ी-सी जगह अब भी बाकी बची है<br />कुछ हिस्से ख़ाली हैं<br />मैंने सिर्फ़ दो वाक्य काटे हैं<br />लेकिन एक जोड़ दिया है<br />थोड़ी देर में<br />मैं कुछ शब्द और लिख दूँगा<br /><br />तुम पूछते हो<br />मेरी ज़िन्दगी की ज़्यादा महत्वपूर्ण घटनाओं और<br />तारीख़ों के बारे में<br />यह दूसरों से पूछो<br /><br />मेरी जीवनी लगभग ख़त्म हो चली थी<br />कई मौक़ों पर<br />कुछ अच्छे कुछ ख़राब<br /><br /><br /><span style="color: rgb(204, 0, 0); font-weight: bold;">चुटिया</span><br /><br />जब काफ़िले की सारी औरतों के सिर<br />मूँड़ दिये गये<br />चार मज़दूरों ने चीड़ की टहनियों के<br />झाड़ुओं से<br />बुहार कर इकट्ठा किया<br /><br />साफ़ शफ़्फ़ाफ़ शीशे के पीछे<br />पड़े हैं रूखे कड़े बाल<br />उनके जो गैस की भट्ठियों में<br />दम घोंट कर मारी गयीं<br />क्लिप और कंघियाँ भी हैं<br />इन बालों में<br /><br />रोशनी में लिश्कारा नहीं मारते ये बाल<br />हवा नहीं छितराती इन्हें<br />नहीं छूता इन्हें कोई हाथ<br />या बारिश या होंट<br /><br />बड़े-बड़े काँच-जड़े बक्सों में<br />सूखे बालों के बादल<br />उनके जो दम घोंट कर मारी गयीं<br />और एक फीके पड़ गये रिबन से बंधी<br />कुम्हलाई चुटिया<br />जिसे स्कूल में खींच कर भागते थे<br />शरारती लड़के<br /> (संग्रहालय, आउश्वित्ज़, 1948)<br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">मेरी कविता</span><br /><br />कुछ नहीं समझाती<br />कुछ नहीं स्पष्ट करती<br />कोई क़ुरबानी नहीं करती<br />सर्वव्यापक नहीं है<br />किसी आशा पर खरी नहीं उतरती<br />खेल के नये नियम ईजाद नहीं करती<br />कोई हिस्सा नहीं लेती खेल में<br />उसकी एक सुनिश्चित जगह है<br />जिसे उसको भरना है<br /><br />अगर वह कोई गूढ़ भाषा नहीं है<br />अगर वह कोई मौलिक बात नहीं कहती<br />अगर उसमें कोई आश्चर्य नहीं छिपा<br />तो प्रकट रूप से यही होना भी चाहिए<br /><br />अपनी ज़रूरतों,<br />अपनी सीमा और विस्तार के अनुसार<br />चलती हुई<br />वह ख़ुद अपने से भी हार जाती है<br />वह किसी और कविताई की जगह नहीं हड़पती<br />न कोई और कविताई ले सकती है उसकी जगह<br /><br />सबके लिए खुली<br />रहस्य से रहित<br />उसके सामने बहुत-से कर्तव्य हैं<br />जिन्हें वह कभी पूरा नहीं कर पायेगी<br /><br /><br /><br /><br /><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">मैं देखता हूँ पागलों को</span><br /><br />मैं देखता हूँ पागलों<br />जो चले थे समुद्र पर<br />अन्त तक विश्वास करते हुए<br />और डूब गये<br /><br />अब भी वे डगमगाते हैं<br />मेरी अस्थिर नाव<br /><br />बेरहमी से ज़िन्दा<br />मैं परे धकेलता हूँ<br />वे कड़े हठीले हाथे<br />परे धकेलता रहता हूँ उन्हें<br />साल-दर-साल<br /><br /><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">बच निकलने वाला</span><br /><br />मैं चौबीस का हूँ<br />वध को ले जाया गया<br />जीवित बच निकला<br /><br />नीचे दिये गये शब्द खोखले पर्याय हैं :<br /> आदमी और जानवर<br /> प्यार और नफ़रत<br /> दोस्त और दुश्मन<br /> अँधेरा और रोशनी<br /><br />मनुष्यों और पशुओं को मारने का तरीक़ा एक-सा है<br />मैंने देखा है यह :<br />ट्रकों में भरे बोटी-बोटी किये गये लोग<br />जो बचाये नहीं जा सकेंगे<br /><br />विचार महज़ शब्द हैं :<br /> सदाचार और अपराध<br /> सच और झूठ<br /> सौन्दर्य और साहस<br /> कायरता और कुरुपता<br />सदाचार और अपराध का वज़न बराबर है<br />मैंने देखा है इसे :<br />ऐसे आदमी में जो एक साथ<br />अपराधी भी था और सदाचारी भी<br /><br />मैं खोजता हूँ एक गुरु और साईं<br />जो लौटा दे मेरी नज़र<br />मेरी सुनने और बोलने की ताक़त<br />जो एक बार फिर विचारों और वस्तुओं को नाम दे<br />जो अलग कर दे अँधेरे को रोशनी से<br /><br />मैं चौबीस का हूँ<br />वध के लिए ले जाया गया<br />बच निकला जीवित<br /><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">शुद्धि</span><br /><br />आँसुओं पर लजाओ मत<br />मत लजाओ आँसुओं पर युवा कवियो<br />विस्मय से देखो चाँद को<br />चाँदनी रात को<br />विस्मय करो निष्कलंक प्रेम और बुलबुल के गीत पर<br />स्वर्ग जाने से डरो मत<br />हाथ बढ़ाओ नक्षत्रों की तरफ़<br />आँखों की तुलना करो सितारों से<br /><br />पीले फूल को, नारंगी तितली को<br />सूर्य के उगने और डूबने को देख कर<br />लरज़ने दो हृदय<br /><br />भोले-भाले कबूतरों को चुग्गा दो<br />एक मुस्कान के साथ निरखो<br />कुत्ते इंजन फूल और गैंडे<br />बात करो आदर्शों की<br />जवानी के लिए एक गीत गाओ<br />भरोसा करो अजनबी राहगीर पर<br /><br />निष्कपट तुम विश्वास करने लगोगे सौन्दर्य पर<br />स्पन्दित हो कर विश्वास करने लगोगे तुम इन्सान पर<br /><br />आँसुओं पर लजाओ मत<br />मत लजाओ आँसुओं पर युवा कवियो<br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">वापसी</span><br /><br />अचानक खिड़की खुलेगी<br />और माँ पुकारेगी<br />भीतर आने का वक्त हो गया है<br /><br />दीवार फट जायेगी<br />मैं प्रवेश करूँगा स्वर्ग में<br />मिट्टी-सने जूते पहने<br /><br />मेज़ तक आऊँगा<br />और रुखाई से सवालों का जवाब दूँगा<br />मैं बिलकुल ठीक हूँ मेरा पीछा छोड़ो<br /><br />हाथों में सिर दिये मैं<br />बैठा रह जाता हूँ। कैसे बताऊँ मैं उन्हें<br />उस लम्बे और पेचीदा<br />रास्ते के बारे में<br /><br />यहाँ स्वर्ग में माँएँ<br />बुन रही हैं हरे गुलूबन्द<br />मक्खियाँ भिनभिनाती हैं<br />छै दिन की मेहनत के बाद<br />पिता सिगड़ी के पास झपकी ले रहे हैं<br /><br />नहीं --यक़ीनन मैं उन्हें<br />नहीं बता सकता कि<br />लोग एक-दूसरे का<br />गला काटने पर उतारू हैं<br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">मुलाक़ात</span><br /><br /><br />जब मैं यहाँ अन्दर आया<br />मैं उसे पहचान नहीं सका<br />ठीक भी है<br />इस बेढंगे गुलदान में<br />सलीके से इन फूलों को सजाने में<br />इतना समय लगना सम्भव है<br /><br />‘इस तरह मेरी तरफ़ मत देखो’<br />उसने कहा<br />मैं उसके कतरे बालों वाले सिर पर<br />फेरता हूं अपना खुरदुरा हाथ<br />‘उन्होंने मेरे बाल काट दिये,’ वह कहती है,<br />‘देखो ज़रा क्या किया है उन्होंने मेरे साथ’<br /><br />अब फिर से वह आसमानी-नीला सोता<br />फड़कने लगता है उसकी गर्दन की पारदर्शी त्वचा के चीचे<br />हमेशा की तरह<br />जब वह घूँटती है अपने आँसू<br />इस तरह क्यों घूरती है वह<br />मैं सोचता हूँ<br /><br />’ख़ैर मुझे जाना होग’<br />मैं ज़रूरत से ज़्यादा ऊँचे स्वर में कहता हूँ<br />और कण्ठ में एक गोला-सा लिये<br />जाता हूँ उसे छोड़ कर<br /><br /><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">कैसी ख़ुशकिस्मती</span><br /><br />कैसी ख़ुशकिस्मती है<br />मैं बीन सकता हूँ जंगल में बेर<br />मेरा ख़याल था न कहीं कोई<br />जंगल है न बेर<br />कैसी ख़ुशकिस्मती है<br />लेट सकता हूँ मैं पेड़ की छाया में<br />मेरा ख़याल था<br />अब छाया नहीं देते पेड़<br />कैसी ख़ुशकिस्मती है<br />तुम्हारे साथ हूँ मैं<br />किस कदर धड़कता है मेरा दिल<br />मेरा ख़याल था<br />आदमी के दिल नहीं होता<br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">साक्षी</span><br /><br />मेरी जान, तुम्हें पता है मैं घर में हूँ<br />लेकिन अचानक मत आओ<br />मेरे कमरे में<br />हो सकता है तुम देखो मुझे<br />ख़ामोश<br />कोरी चादर पर पड़ा हुआ<br /><br />क्या तुम लिख सकते हो<br />प्रेम के बारे में<br />जब तुम्हें सुनाई दे रही हों<br />कत्ल और बेइज़्ज़त किये लोगों की चीख़ें<br /><br />क्या तुम मौत के बारे में<br />लिख सकते हो<br />बच्चों के नन्हे चेहरों में<br />झाँकते हुए<br /><br />मेरे कमरे में<br />अचानक मत जाओ<br />तुम देखोगी<br />प्रेम का<br />एक गूँगा और शपथ-बंधा साक्षी<br />मौत से पराजित<br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">छोड़ दो हमें</span><br /><br />भूल जाओ हमें<br />हमारी पीढ़ी को<br />इन्सानों की तरह जियो<br />हमें भूल जाओ<br /><br />हमने ईर्ष्या की<br />पौधों और पत्थरों से<br />हमें कुत्तों से रश्क रहा<br /><br />काश मैं चूहा होता<br />मैंने उससे तब कहा था<br /><br />काश मैं पैदा ही न हुई होती<br />काश मैं सो सकती<br />और युद्ध ख़त्म होने पर जागती<br />उसने आँखें मूंदे कहा था<br /><br />भूल जाओ हमें<br />मत पूछो हमारी जवानी के बारे में<br />हमें अकेला छोड़ दो<br /> <br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">वापसी</span><br /><br />अपनी कुछ कविताओं से<br />मैं कभी समझौता नहीं कर पाता<br />वर्ष बीतते हैं<br />मैं उनसे समझौता नहीं कर पाता<br />तो भी मैं उन्हें नकार नहीं सकता<br />वे ख़राब हैं लेकिन मेरी हैं वे<br />मुझ से दूर वे अपनी ज़िन्दगी बसर करती हैं<br />उदासीन और मृत<br /><br />लेकिन एक क्षण ऐसा आयेगा जब वे सब-की-सब<br />मेरे पास भागती हुई लौट आयेंगी<br />सफल और विफल<br />लँगड़ी और साबुत<br />जिनकी हँसी उड़ी और जो अस्वीकृत हुईं<br />सब मिल कर एक हो जायेंगी<br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">बूढ़ी औरतों का क़िस्सा</span><br /><br /><br />मुझे पसन्द हैं बूढ़ी औरतें<br />बदसूरत औरतें<br />बुरी औरतें<br /><br />वे इस धरती का नमक हैं<br /><br />इन्सानी कचरे से<br />उन्हें घिन नहीं आती<br />वे जानती हैं<br />प्यार और विश्वास के<br />सिक्के की<br />दूसरी तरफ़ क्या है<br /><br />वे आती हैं वे जाती हैं<br />तानाशाह भड़ैती करते रहते हैं<br />मनुष्य के ख़ून से रँगे हाथ लिये<br /><br />बूढ़ी औरतें तड़के उठती हैं<br />गोश्त फल रोटी ख़रीदती हैं<br />सफ़ाई करती हैं खाना बनाती हैं<br />खड़ी रहती हैं सड़क पर<br />हाथ बाँधे ख़ामोश<br />बूढ़ी औरतें अमर हैं<br /><br />हैमलेट जाल में घिरा ग़ुस्से से<br />पगलाता है<br />फ़ाउस्ट निभाता है<br />हास्यास्पद रूप से नीच भूमिका<br />रास्कॉल्निकॉव कुल्हाड़ी से वार करता है<br /><br />बूढ़ी औरतें<br />अनश्वर हैं<br />वे रहम से मुस्कराती हैं<br /><br />एक देवता मरता है<br />बूढ़ी औरतें हमेशा की तरह उठती हैं<br />रोटी शराब मछली ख़रीदती हैं<br />सभ्यता मरती है<br />बूढ़ी औरतें भोर में उठती हैं<br />खिड़कियाँ खोलती हैं<br />कचरा बहाती हैं<br /><br />आदमी मरता है<br />वे शव को नहलाती हैं<br />दफ़नाती हैं मृतकों को<br />फूल लगाती हैं<br /><br />मुझे पसन्द हैं बूढ़ी औरतें<br />बदसूरत औरतें<br />बुरी औरतें<br />वे अनन्त जीवन में विश्वास करती हैं<br />वे धरती का नमक हैं<br />पेड़ की छाल हैं वे<br />और पशुओं की विनम्र आँखें<br />कायरता और वीरता<br />महानता और नीचता<br />देखती हैं वे सही परिप्रेक्ष्य में<br />रोज़मर्रा की ज़रूरतों के<br />पैमाने से<br /><br />उनके बेटे अमरीका की खोज करते हैं<br />थर्मोपाइले के युद्ध में काम आते हैं<br />चढ़ते हैं सूलियों पर<br />जीत लेते हैं ब्रह्माण्ड<br /><br />बूढ़ी औरतें सुबह-सवेरे<br />दूध रोटी गोश्त ख़रीदने निकलती हैं<br />वे शोरबे में मसाला डालती हैं<br />खिड़कियाँ खोलती हैं<br /><br />सिर्फ़ मूर्ख हँसते हैं<br />बूढ़ी औरतों पर<br />बदसूरत औरतों पर<br />बुरी औरतों पर<br />क्योंकि ये खूबसूरत औरतें हैं<br />अच्छी औरतें हैं<br />बूढ़ी औरतें हैं<br /><br />वे कोख में बढ़ता बीज हैं<br />रहस्य से रहित रहस्य हैं वे<br />वह गोला जो लुढ़कता है<br />बूढ़ी औरतें<br />पवित्र बिल्लियों के<br />परिरक्षित शव हैं<br />वे नन्हें झुर्रीदार फल हैं<br />सूखते हुए जलाशय हैं<br />या गदराये<br />अण्डाकार बुद्ध<br /><br />जब वे मरती हैं<br />एक आँसू<br />आँख से बहता है<br />और घुल जाता है<br />एक नन्हीं लड़की के होंटों पर<br />खिली मुस्कान में<br /><br /><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">संशोधनार्थ</span><br /><br /><br />मौत नहीं सुधारेगी<br />कविता की एक भी पंक्ति<br />वह कोई प्रूफ़-रीडर नहीं है<br />वह कोई हमदर्द<br />महिला-सम्पादक नहीं है<br /><br />एक ख़राब रूपक अनश्वर है<br /><br />एक घटिया दिवंगत कवि<br />महज़ एक घटिया दिवंगत कवि है<br /><br />ऊबाऊ आदमी<br />मौत के बाद भी ऊब पैदा करता है<br />मूर्ख क़ब्र के पार से भी जारी रखता है<br />अपनी मूर्खतापूर्ण बकवास<br /><br />बहुत-से कामों में व्यस्त हो कर<br /><br />बहुत ज़रूरी कामों में व्यस्त हो कर<br />मैं भूल गया<br />हमें<br />मरना भी होता है<br />ग़ैर ज़िम्मेदारी से<br />मैं इस कर्तव्य को टालता रहा<br />या उसे निभाता रहा<br />लापरवाही से<br /><br />कल से<br />सिलसिला दूसरा होगा<br />मैं मरना शुरू करूँगा सलीक़े से<br />सियानेपन से<br />उम्मीद के साथ<br />बिना समय ज़ाया किये<br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(204, 0, 0);">सम्बोधन</span><br /><br />भावी पीढ़ियों को नहीं<br />यह बेमानी होगा<br />क्या पता है वे सब दानव हों<br />उच्च आयोग ने<br />शासकों, शक्तियों और फ़ौजी दफ़्तरों ने<br />साफ़ चेतावनी दी है<br />कि अब दानव आयेंगे<br />जिनके दिमाग़ नहीं होगा<br /><br />इसलिए भावी पीढ़ियों को नहीं<br />बल्कि उनको<br />जो ठीक इसी क्षण<br />आंखें मूंदे अपनी संख्या बढ़ा रहे हैं<br />भावी पीढ़ियों को नहीं सम्बोधित कर रहा<br />मैं इन शब्दों से<br /><br />मैं मुख़ातिब हूं नेताओं से<br />जो मुझे नहीं पढ़ेंगे<br />धर्म गुरुओं से<br />जो मुझे नहीं पढ़ेंगे<br />सेना नायकों से<br />जो मुझे नहीं पढ़ेंगे<br />मैं मुख़ातिब हूं<br />तथाकथित "आम लोगों" से<br />जो मुझे नहीं पढ़ेंगे<br /><br />मैं उन सबसे कहूंगा<br />जो मुझे पढ़ते नहीं<br />न सुनते हैं, न जानते हैं<br />न मेरी ज़रूरत महसूस करते हैं<br /><br />उन्हें मेरी ज़रूरत नहीं<br />पर म्झे उनकी ज़रूरत है<br />__________________________________________________________________<br /><br />तादेऊष रोज़ेविच का जन्म 1921 में पोलैण्ड के रादोम्स्क नगर में हुआ. वे उस पीढ़ी के लोगों में से हैं जिनकी शिक्षा दूसरे महायुद्ध के कारण्क बीच ही में रुक गयी थी. वैसे जहां तक ख़ुद रोज़ेविच का सवाल है, उन्होंने 1938 में ही आर्थिक कठिनाइयों के चलते पढ़ाई छोड़ दी थी. युद्ध के दौरान रोज़ेविच आजीविका के लि, छिटपुट मज़दूरी करते रहे. पोलैण्ड पर जर्मनी के क़ब्ज़े के समय वे एक कारख़ाने में काम कर रहे थे. 1943-44 में वे अपने भाई जानुश के साथ हिटलर विरोधी छापामारों में शामिल हो गये और इसी गुप्त सैनिक संगठन में सक्रिय रहते हुए उन्होंने लड़ाई के साथ-साथ शिक्षा और कविता जारी रखी. हालांकि छापामार संघर्ष से रोज़ेविच बच निकले, उनके भाई को गोली मार दी गयी थी. लड़ाई ख़त्म होने के बाद उन्होंने पोलैण्ड के प्रसिद्ध क्रैकाओ विश्वविद्यालय में कला के इतिहास का अध्ययन किया.<br /><br /> रोज़ेविच का पहला कविता संग्रह "चिन्ता" 1947 में प्रकाशित हुआ. अब तक वे बीस से ज़्यादा कविता संग्रह और कई नाटक प्रकाशित कर चुके हैं. इसके अलावा उन्होंने कुछ फ़िल्म पटकथाएं और विविध गद्य भी लिखा है. 1966 में उन्हें पोलैण्ड का सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार दिया गया, लेकिन उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि 1971 में पोलैण्ड के चुने हुए युवा कवियों द्वारा देश के सबसे महत्वपूर्ण जीवित कवि घोषित करके सम्मानित किया जाना था.<br /><br /> रोज़ेविच की कविता युद्ध और अमानवीयता के ख़िलाफ़ मनुष्य के बुनियादी विवेक की वकालत करती है. उनका स्वर अण्डरटोन्ज़ का स्वर है, लेकिन वे उसे इस तरह काम में लाते हैं कि युद्ध और अमानवीयता और भी भयावह रूप से मुखर हो जाती है. पीड़ा और विनाश के चित्र अंकित करते हुए रोज़ेविच की नज़र करुणा और मानवीयता के उन जज़्बों पर बराबर टिकी रहती है जो दमन और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ मनुष्य के अथक संघर्ष में उसका साथ देती है. इसीलिए, उनकी कविता में पारदर्शी निश्छलता और मार्मिक वक्रता की धाराएं एक साथ मौजूद रहती हैं.<br /><br />see these poems on http://neelabhkamorcha.blogspot.com/Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3780821805422068162.post-90953130366239295582010-12-27T06:34:00.000-08:002010-12-27T06:41:09.647-08:00देशान्तर<span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 0, 0);"></span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(0, 51, 51);">आज के कवि : जीवनानन्द दास</span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 0, 0);">"ऋणी है मनुष्य पृथ्वी का ही</span>"<br />आज कविता जहाँ पहुंची है, वहाँ से पीछे मुड़ कर देखते हुए निश्चय ही जीवनानन्द दास की कविताएँ पुरातन लगती हैं, वैचित्र्यपूर्ण भी। आज की कविता बहुत हद तक रवीन्द्रनाथ की बजाय नज़रुल इस्लाम से और जीवनानन्द दास की बजाय सुकान्त भट्टाचार्य से प्रेरणा और शक्ति पाती है। इसके बावजूद बांग्ला कविता में जीवनानन्द दास का महत्व है और रहेगा। उनकी कविता तीव्र अन्तर्विरोधों और समाज से सामंजस्य न बैठा पाने की कविता है। अपने चारों ओर के समाज की पतनशीलता से विमुख हो कर जीवनानन्द दास ने या तो धुर बंगाल के ग्रामीण परिवेश में शरण ली या फिर हिन्दुस्तान, मिस्र, असीरिया और बैबिलौन के धूसर अतीत में। इसीलिए उनकी कविता में आक्रोश की जगह अवसाद का पुट अधिक गहरा है। वे बेहतर समाज की इच्छा तो करते हैं, पर उसकी राहों का सन्धान करने की जद्दोजहद उनकी कविता में नहीं है। इसीलिए सरसरी नज़र से पढ़ने वाले को ऐसा महसूस हो सकता है कि उनकी कविता पलायन की कविता है; लेकिन उनकी कविता में मनुष्य और उसके सुख-दुख, हर्ष-विषाद की निरन्तर उपस्थिति इस बात को झुठलाती है और उसे यों ही ख़ारिज नहीं किया जा सकता। इस अर्थ में उनकी कविता की प्रासंगिकता बनी रहेगी। "एक अद्भुत अँधेरा" जैसी कविता तो मानो आज का दस्तावेज़ है।<br /><br /> वैसे अपनी कविता के बारे में जीवनानन्द दास ने काफ़ी खुल कर लिखा है और वे अपनी कविता पर लगे लगभग सभी आरोपों से परिचित भी थे। उनका कहना है - ‘‘मेरी कविता पर या ऐसी कविताओं के कवि पर निर्जन या निर्जनतम होने का आरोप है। कोई इन्हें मूलतः प्रकृति की कविताएँ कहता है, कोई इन्हें मूलतः इतिहास और समाज चेतना की कविताएँ मानता है, कुछेक को ये चेतनाशून्य भी लगती हैं। किसी के विश्लेषण में ये महज़ प्रतीकों की, अवचेतन मन की, सुर्रियलिस्ट कविताएँ हैं। और भी कई तरह के विश्लेषणों से मैं अवगत हूँ। कमोबेश सभी मत, आरोप, विश्लेषण सही हैं, मगर किसी कविता-विशेष या वाक्यांश-विशेष के लिए सही हैं -- मेरी समग्र कविताओं के लिए नहीं। बहरहाल, कविता लिखने और पढ़ने का सम्बन्ध अन्ततः मनुष्य से है; इसीलिए पाठकों और आलोचकों के विचारों और निष्कर्षों में इतना तारतम्य नज़र आता है। पर इस तारतम्य की एक सीमा भी है जिसे पार करने में बड़े आलोचकों के लिए एक ख़तरा हो सकता है।’’<br /> <br /> जीवनानन्द दास का जन्म 17 फ़रवरी 1893 को बारिशाल, पूर्वी बंगाल में हुआ और निधन 22 अक्तूबर 1954 को कलकत्ता में एक ट्राम दुर्घटना में।<br /><br /><br /><br /><br /><span style="color: rgb(153, 0, 0);">एक अद्भुत अँधेरा</span><br /><br /><br />एक अद्भुत अँधेरा आया है इस पृथ्वी पर आज,<br />जो सबसे ज़्यादा अन्धे हैं आज वे ही देखते हैं उसे।<br />जिनके हृदय में कोई प्रेम नहीं, प्रीति नहीं,<br /> करुणा की नहीं कोई हलचल<br />उनके सुपरामर्श के बिना भी पृथ्वी आज है अचल।<br /><br />जिन्हें मनुष्य में गहरी आस्था है आज भी,<br />आज भी जिनके पास स्वाभाविक लगती है<br />कला या साधना अथवा परम्परा या महत सत्य,<br />सियार और गिद्ध का भोजन है आज उनका हृदय।<br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 0, 0);">बनलता सेन</span><br /> <br />हजार वर्षों से मैं मुसाफिर हूँ पृथ्वी की राहों का,<br />सिंहल समुद्र से रात के अँधेरे में मलय-सागर तक<br />बहुत घूमा हूँ मैं; बिम्बिसार और अशोक के धूसर जगत में<br />भी था मैं; और सुदूर अन्धकार में डूबी विदर्भ नगरी में;<br />मैं थका हुआ प्राणी एक, चारों ओर जीवन के सागर की लहरों का फेन,<br />मुझे दो घड़ी शान्ति दे गयी थी नाटोर की बनलता सेन !<br /><br />केश उसके जाने कब के विदिशा की<br />निशा के अन्धकार से हो गये एकाकार,<br />मुख उसका श्रावस्ती की नक्काशी में;<br />सुदूर समुद्र के पार खो कर पतवार<br />जो नाविक दिशा भूल चुका है<br />वह जैसे निहारता है हरी घास के प्रदेश दालचीनी के द्वीप में,<br />वैसे ही देखा है मैंने उसे अन्धकार में; कहा उसने -- कहाँ रहे इतने दिन ?<br />पक्षी के नीड़ सरीखी आँखें उठा कर बोली नाटोर की बनलता सेन।<br /><br />समस्त दिनों के अन्त में शिशिर के शब्द की तरह<br />आती है सन्ध्या; डैनों से धूप की गन्ध को झाड़ देती है चील;<br />पृथ्वी के सब रंग बुझ जाने पर पाण्डुलिपि करती है आयोजन<br />जब कहानी के लिए जुगनुओं के रंग झिलमिलाते हैं;<br />घर आते हैं पाखी सब -- सारी नदियाँ --<br />चुकता होता है इस जीवन का सब लेन-देन<br />रहता है केवल अन्धकार, सम्मुख रहती है केवल बनलता सेन।<br /><br />हज़ार वर्ष सिर्फ़ खेलती है<br /><br />हज़ार वर्ष सिर्फ़ खेलती है अन्धकार में जुगनुओं की तरह;<br />चारों ओर पिरामिड; कफ़नों की गन्ध;<br />रेत के विस्तार पर चाँदनी; खजूरों की छाया यहाँ वहाँ<br />भग्न स्तम्भ की तरह; असीरया -- रुका हुआ मृत, म्लान;<br />हमारे शरीरों में परिरक्षित शवों की गन्ध --<br /> पूरा हो चुका है जीवन का लेन-देन<br />‘याद है ?’ उसने स्मरण कराया, किया याद मैंने केवल ‘बनलता सेन।’<br /><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 0, 0);">लोकेन बोस का रोज़नामचा</span><br /><br />सुजाता से प्रेम करता था मैं --<br />क्या अब भी करता हूँ प्रेम ?<br />यह तो फ़ुरसत में सोचने की बात है,<br />लेकिन फ़ुरसत नहीं है।<br />शायद एक दिन सर्दियों के आने पर मौक़ा मिलेगा।<br />अभी शेल्फ़ पर चार्वाक, फ्रायड, प्लेटॊ, पावलोव सोचते हैं<br />कि सुजाता से मुझे प्रेम है या नहीं।<br /><br />कुछ फ़ाइलें हैं पुरानी चिट्ठियों की :<br />जो सुजाता ने लिखी थीं मुझे,<br />बारह, तेरह, बीस साल पहले की वे बातें;<br />कैसे छोटे किरानी का काम है फ़ाइल छूना;<br />नहीं छूऊँगा मैं,<br />छूने से किसको क्या लाभ।<br /><br />लगता है मानो अमिता सेन के साथ सुबल की दोस्ती है<br />क्या केवल सुबल के ही साथ ? हालांकि मैं उसको --<br />मतलब यह -- यह जिसको मैं अमिता कह कर रहा हूँ मैं --<br />लेकिन यह बात रहने दो<br />मगर फिर भी --<br />अब और पथिक नहीं बनना चाहता हृदय आज।<br />नारी अगर मृगतृष्णा जैसी है तो<br />किस तरह मन बनेगा कारवाँ अब<br /><br />प्रौढ़ हृदय, तुम<br />उस सारी मृगतृष्णा के ताल में, हलकी सिमूम में<br />शायद कभी भुतहा मरुभूमि हो,<br />हृदय, हृदय तुम।<br />इसके बाद तुम अपने अन्दर लौट कर भी चुपचाप<br />मरीचिका को विजयी बनाते हो विनयी जो भीषण नामरूप है<br />वहाँ रेत की सारी ख़ामोशी हू-हू करती है<br />प्रेम नहीं फिर भी सिर्फ़ प्रेम की तरह।<br />सुबल क्या अमिता सेन से प्यार करता है,<br />अमिता क्या ख़ुद भी उसे ?<br />फ़ुरसत पाने पर सोचा जायेगा,<br />ढेर फुरसत चाहिए;<br />सुदूर ब्रह्माण्ड को खींच कर तिल में समाहित करना होगा,<br />अभी तो जाना है टेनिस खेलने,<br />फिर लौट कर रात को क्लब<br />जाने कब समय होगा ?<br /><br />हेमन्त की घास पर नीले फूल फूटे हैं --<br />दिल धड़कता है जाने क्यों,<br />‘प्यार करता था’ -- स्मृति उत्ताप पाप में<br />तर्क में क्यों फंसा रहता है वर्तमान<br />क्या वह भी मुझे --<br /> सुजाता क्या मुझे प्यार करने लगी थी ?<br />आज भी क्या प्यार नहीं करती ?<br />इलेक्ट्रॉन अपने गुण-दोषों के साथ घूमते रहेंगे,<br />किसी अन्तिम टूटे हुए आकाश में<br /> क्या इसका उत्तर मिलेगा ?<br /><br />सुजाता अभी भुवनेश्वर में है;<br />और अमिता क्या मिहीजाम में।<br />बहुत दिन से अता-पता न जानना<br /> अच्छा ही हुआ है।<br /><br />घास में नीले-सफ़ेद फूल खिलते हैं<br /> हेमन्त के राग में<br />एक ओर समय का यह ठहराव<br />फिर भी नहीं है स्थिर<br />हर दिन के नये जीवाणु स्थापित होते हैं फिर-फिर<br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 0, 0);">यात्री</span><br /><br />लगता है प्राणों ने किसी सुदूर स्वच्छ सागर-तट पर<br />कभी जन्म लिया था;<br />पीछे मृत्युहीन, जन्महीन और अचीन्हे<br />कुहासे का जो इशारा था<br />वह सब धीरे-धीरे भूल कर कोई और ही अर्थ पाया था<br />यहाँ जन्म लेने पर;<br />प्रकाश, जल और आकाश के आकर्षण से;<br />क्या पता किसके प्रेम में।<br /><br />मृत्यु और जीवन का श्वेत-श्याम<br />हृदय से बाँध कर यात्री लोग<br />आये हैं इस पृथ्वी पर।<br />कंकाल लाल-स्याह<br />चारों ओर रक्त के भीतर अन्तहीन करुण इच्छा के चिह्न देख कर<br />पथ पहचान इस धूल में अपने जन्म के चिह्न दिखाने आया हूँ;<br />मगर किसे ? पृथ्वी को ? आकाश को ?<br />आकाश में जो सूर्य प्रज्वलित है, उसे ?<br />धूल के कणों, अणु-परमाणुओं, छाया, बारिश के जल कणों को ?<br />नगर, बन्दरगाह, राष्ट्र, ज्ञान और अज्ञान से भरी दुनिया को ?<br /><br />यही कुज्झटिका थी जन्म और सृष्टि से पहले, और<br />वह सब कुहासा ख़त्म हो जायेगा एक दिन<br />उसका अँधेरा आज प्रकाश के छल्ले में आ पड़ता है पल-पल;<br />नीलिमा की ओर मन जाना चाहता है प्रेम में;<br />सनातन काले महासागर की तरफ़ जाने को कहता है।<br /><br />तब भी प्रकाश पृथ्वी की तरफ़<br />रोज़ सूर्य को अपने साथ लाता है<br />लाता है वह मौसम, वह तारीख़, वह जीवन, वह मृत्यु की रीति,<br />महाइतिहास आ कर अब भी नहीं जान पाया जिसका मतलब<br /><br />उसी तरफ जाते हैं लोग ग्लानि प्रेम क्षय को<br />रोज़ पदचिह्न की तरह साथ ले कर<br />नदी और मनुष्य का दौड़ता हुआ धूसर हृदय<br />भोर में बदलने वाली रात - कहानी की तरह कितनी सैकड़ों सुबहें<br />नया सूर्य नये पाखी नये चिह्न नगर में रहते हैं<br />नये-नये यात्रियों के साथ मिल जाती है<br />प्राणलोक यात्रियों की भीड़;<br />हृदय के चलने की गति गीत प्रकाश है,<br />कूलरहित मनुष्य की पृष्ठभूमि ही शाश्वत यात्री की है<br /><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 0, 0);">वह</span><br /><br />उसने मुझे आवाज़ दे कर बुला लिया था,<br />कहा था : "इस नदी का जल<br />तुम्हारी आँखों की तरह म्लान बेत फल;<br />सारी थकान रक्त से स्निग्ध रखती है पृष्ठभूमि;<br />यही नदी तुम हो।<br /><br />"इसका नाम क्या धानसिड़ि है ?"<br />माछरांगा से कहा मैंने;<br />गम्भीर लड़की ने आ कर दिया था नाम।<br />आज भी मैं ढूँढता हूँ उस लड़की को।<br />जल की अनेक सीढ़ियों को तय करते हुए<br />कहाँ चली गयी वह लड़की।<br /><br />समय की अविरल स्याह और सफ़ेद<br />बुनावट के सीने तक आ कर<br />मछली और मन और माछरांगा को प्यार करके<br />बहुत दिन पहले नारी एक --<br />लेकिन आँखों को चौंधियाने वाले प्रकाश से प्रेम करके<br />सोलह आना नागरिक न हो कर<br />होता अगर धानसिड़ि नदी।<br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 0, 0);">नग्न निर्जन हाथ</span><br /><br />फिर से आसमान में अँधेरा घिर आया<br />प्रकाश के रहस्यमय सहोदर की तरह यह अन्धकार<br /><br />जिसने मुझे हमेशा प्यार किया<br />मगर जिसका चेहरा मैंने कभी नहीं देखा,<br />उसी नारी की तरह<br />फाल्गुन के आकाश पर अँधेरा घिर उठा है।<br />लगता है किसी विलुप्त नगरी का क़िस्सा<br />उसी नगरी के एक धूसर प्रासाद का रूप जगाता है हृदय में।<br /><br />हिन्द महासागर के तीर पर<br />अथवा भूमध्यसागर के किनारे<br />या फिर टायर नदी के पार<br />आज नहीं है, पर कभी एक नगरी थी,<br />कोई एक प्रासाद था, बेशक़ीमती सामान से भरा एक प्रासाद --<br />ईरानी ग़ालीचे, कश्मीरी शॉल, बहरीन की तरंगों से निकले मोती और प्रवाल,<br />मेरा खोया हुआ हृदय, मेरे निष्प्राण नेत्र, मेरी खोयी हुई आकांक्षा और स्वप्न<br />और तुम नारी --<br />यह सब था उस दुनिया में एक दिन।<br /><br />ढेर सारी नारंगी धूप थी,<br />बहुत-से काकातूआ कबूतर थे,<br />मोहोगनी की सघन छाया और पत्ते थे ढेरों,<br />ढेर सारी नारंगी धूप थी,<br />ढेर सारी नारंगी धूप,<br />और तुम;<br />तुम्हारे चेहरे का रूप कितनी शत-शताब्दियों से मैंने नहीं देखा,<br />नहीं खोजा।<br /><br />फाल्गुन का अन्धकार ले आता है<br />समुद्र पार का यही क़िस्सा,<br />अपरूप बुर्ज और गुम्बदों की वेदनामय रेखा,<br />खोयी हुई नाशपाती की गन्ध,<br />असंख्य हिरनों और सिंहों की खाल की धूसर पाण्डुलिपियाँ,<br />इन्द्रधनुषी काँच की खिड़की,<br />मोर के पंखों की तरह रंगीन पर्दों से<br />कमरे-दर-कमरे से हो कर<br />सुदूर कमरे-दर-कमरों का क्षणिक आभास,<br />आयुहीन स्तब्धता और विस्मय,<br />पर्दों और ग़ालीचों में रक्तिम धूप का छिटका हुआ पसीना,<br />रक्तिम पात्र में तरबूज़ी शराब,<br />तुम्हारा नग्न निर्जन हाथ।<br /><br />तुम्हारा नग्न निर्जन हाथ।<br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 0, 0);">शंखमाला</span><br /><br />सघन वन के पथ को छोड़ कर सन्ध्या के अन्धकार में<br />जाने किस नारी ने आ कर पुकारा मुझे<br />बोली - मुझे तुम चाहिए:<br /><br />मैंने तुम्हारी बेत के फल की तरह नीली व्यथित<br />आँखों को ढूँढा है नक्षत्रों में -- कुहासे के पंख में --<br />सांझ को जुगनू की देह से हो कर<br />नदी के जल में उतरता है जो प्रकाश -- ढूँढा है तुम्हें वहीं --<br />मटमैले घुग्घू की तरह पंख फैला कर अगहन के अँधेरे में<br />धानसिड़ि नदी पर तिरते हुए<br />सोने की सीढ़ियों की तरह धान और धान में<br />तुम्हें खोजा है मैंने एकाकी घुग्घू जैसे प्राण में<br /> <br /> देखी है देह उसकी शोकाकुल पक्षी के रंग से रंजित :<br /> जो पकड़ा जाता है सन्ध्या के अन्धकार में भीगे<br /> शिरीष की डाल पर,<br /> टेढ़ा-बांका चाँद टंगा रहता है जिसके माथे पर,<br /> सींग की तरह तिरछा नीला चाँद सुनता है जिसका स्वर।<br /><br />कौड़ियों की तरह सफ़ेद मुखड़ा उसका;<br />हिम की तरह उसके दोनों हाथ;<br />हिजल की लकड़ी सरीखी रक्तिम चिता जलती है<br />उसकी आंखों में :<br />दक्खिन की ओर सिर किये शंखमाला<br />जैसे जल जाती है उस आग में हाय।<br /><br />आँखें उसकी<br />जैसे सौ शताब्दियों का नीला अन्धकार;<br />स्तन उसके<br />करुण शंख सरीखे -- दूध से भीगे हुए --<br />जाने कब की शंखिनीमाला के;<br />यह पृथ्वी एक बार पाती है उसको, फिर नहीं पाती।<br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 0, 0);">घास</span><br />कच्चे नींबू के पत्ते की तरह नरम हरी रोशनी से<br /> पृथ्वी भर गयी है इस भोर की बेला में;<br />कच्चे चकोतरे की तरह हरी घास -- वैसी ही महकदार --<br /> हिरन जिसे कुतर रहे हैं दाँतों से<br />मेरी भी इच्छा होती है --<br />इस घास की गन्ध को एक-एक गिलास करके पीता रहूँ<br /> हरी मदिरा की तरह<br />इस घास के शरीर को मसलता रहूँ -- उसकी आँखों पर आँखें घिसूँ,<br />इस घास के डैनों पर है मेरे पंख,<br />घास के भीतर घास हो कर जन्म लूँ।<br />किसी एक सघन घास-माँ के शरीर के<br />सुस्वादु अँधेरे से उतर कर।<br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 0, 0);">बीस साल बाद</span><br /><br />फिर बीस बरस बाद उससे मुलाकात हो अगर !<br />फिर बीस साल बाद --<br />कार्तिक के महीने में --<br />शायद धान की बाली के पास --<br />जब साँझ के समय कौए घर लौटते हैं --<br />जब नदी हो जाती है पीली,<br />नरम हो उठते हैं सब कास और सरपत -- मैदानों में।<br /><br />अथवा खेत में नहीं है और धान;<br />व्यस्तता नहीं है और,<br />झरते हैं<br />हंस के घोंसले से तिनके;<br />पक्षियों के नीड़ से तिनके;<br />लाल मुनिया के घर में दाख़िल होती है<br /> रात, शीत और ओस।<br />जीवन चला गया है हम लोगों का बीस बरस पार --<br />तब अचानक अगर सोंधी पगडण्डी पर पाऊं तुम्हें फिर एक बार !<br /><br />आया है चाँद शायद आधी रात को पत्तों के झुण्ड के पीछे<br />पतली-पतली काली-काली टहनियों-शाखाओं को<br /> मुंह में दबाये,<br />शिरीष अथवा जामुन की, झाऊ की -- आम की;<br />बीस साल बाद<br />लेकिन भूल चुका हूं मैं तुम्हें।<br /><br />जीवन चला गया है हम लोगों का बीस बरस पार --<br />तब अचानक अगर हो हमारी-तुम्हारी मुलाक़ात फिर एक बार !<br /><br />तब शायद मैदान में घुग्घू उतर कर चलते हैं --<br />बबूल की क़तार के अंधेरे में<br />बरगद के झरोखों की फाँक में<br />कहाँ छुपाते हैं अपने आप को<br />आँखों की पलकों की तरह मुंद कर चुपचाप<br /> कहाँ रुकते हैं चील के डैने --<br />सोनल-सोनल चील -- शिशिर ले गया उसे करके शिकार --<br />बीस साल बाद उसी कोहरे में सहसा तुम्हें पाऊँ यदि फिर एक बार !<br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 0, 0);">सुचेतना</span><br /><br />सुचेतना, तुम एक सुदूर द्वीप हो<br />सांझ के नक्षत्र के पास;<br />वहीं दालचीनी की झाड़ी की फाँक में<br />है निर्जनता का निवास;<br />यही पृथ्वी के रण रक्त की सफलता<br />सत्य, लेकिन अन्तिम सत्य नहीं;<br />एक दिन कल्लोलिनी तिलोत्तमा होगा कलकत्ता,<br />तब भी रहेगा मेरा हृदय तुम्हारे पास वहीं।<br /><br />आज प्रचण्ड धूप में घूमते हुए<br />प्राणों से मनुष्य को मनुष्य की तरह<br />प्यार करते हुए भी देखता हूं<br />शायद मेरे ही हाथों से मारे गये<br />भाई-बहन, मित्र-परिजन बिखरे पड़े हैं;<br />पृथ्वी का गहरे-से-गहरा दुख-दैन्य है अभी<br />तब भी ऋणी है मनुष्य पृथ्वी का ही।<br /><br />देखा है मैंने हमारे बंदरगाह की धूप में<br />बार-बार जहाज़ अनाज लिये आ उतरते हैं;<br />वही अनाज अगणित मनुष्यों के शब हैं;<br />शव से निकलता स्वर्ण का विस्मय --<br />हमारे पिता बुद्ध और कन्फ़्यूशियस की तरह --<br />हमारे प्राणों को भी चुप कराये रखता है;<br />फिर भी है चारों ओर रक्तक्लान्त कार्य का आह्नान।<br /><br />सुचेतना, इसी पथ में जोत जगा कर --<br />इसी पथ पर क़दम-दर-क़दम पृथ्वी की मुक्ति होगी;<br />यह अनेक शताब्दियों के मनीषियों का काम है;<br />परम सूर्य की किरणों से कितनी उद्भासित है यह हवा,<br />प्रायः उतनी दूर है भले मनुष्यों का समाज<br />हमारे जैसे थके हुए अनथक नाविकों के हाथ से;<br />गढ़ दूँगा, आज नही, बहुत दिनों बाद अन्तिम प्रभात में।<br /><br />माटी और धरती के आकर्षण से<br />मनुष्य योनि में कबका आया हूं मैं,<br />न आता तो अच्छा होता ऐसा अनुभव करके;<br />आने पर जो ढेरों लाभ हुआ<br />वह सब जानता हूँ<br />शिशिर शरीर छू कर समुज्ज्वल भोर में;<br />देखा है मैंने जो हुआ<br /> होगा मनुष्य का<br />होना नहीं है जो --<br />शाश्वत रात के सीने पर<br />सकल अनन्त सूर्योदय !Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3780821805422068162.post-66126580501594000912010-12-25T03:38:00.000-08:002010-12-25T03:39:41.048-08:00देशान्तर<span style="color: rgb(153, 51, 153); font-weight: bold;">आज के कवि : नाज़िम हिकमत</span><br /><br /><br /><br /><span>देशान्तर</span> <span>में</span> <span>आज</span> <span>हम</span> <span>भारी</span> <span>मन</span> <span>से</span> <span>आप</span> <span>सभी</span> <span>से</span> <span>मुखातिब</span> <span>हैं</span>. <span>जैसा</span> <span>कि</span> <span>मौजूदा</span> <span>सत्ता</span>-<span>समीकरण</span> <span>से</span> <span>अन्देशा</span> <span>था</span> <span>छत्तीसगढ़</span> <span>की</span> <span>एक</span> <span>अदालत</span> <span>ने</span> <span>डाक्टर</span> <span>विनायक</span> <span>सेन</span> <span>और</span> <span>दो</span> <span>अन्य</span> <span>लोगों</span> <span>को</span> <span>देश</span>-<span>द्रोह</span> <span>के</span> <span>आरोप</span> <span>में</span> <span>उमर</span> <span>क़ैद</span> <span>की</span> <span>सज़ा</span> <span>सुनायी</span> <span>है</span>. <span>अभी</span> <span>कुछ</span> <span>ही</span> <span>दिन</span> <span>पहले</span> <span>विनायक</span> <span>सेन</span> <span>दो</span> <span>वर्ष</span> <span>तक</span> <span>हिरासत</span> <span>में</span> <span>रखे</span> <span>जाने</span> <span>के</span> <span>बाद</span> <span>आरोपों</span> <span>से</span> <span>बरी</span> <span>हो</span> <span>कर</span> <span>रिहा</span> <span>हुए</span> <span>थे</span>. <span>ज़ाहिर</span> <span>है</span> <span>कि</span> <span>मौजूदा</span> <span>सत्ताधारी</span> - <span>उनका</span> <span>रंग</span> <span>चाहे</span> <span>जो</span> <span>भी</span> <span>हो</span>, <span>भगवे</span> <span>से</span> <span>ले</span> <span>कर</span> <span>हरा</span> <span>और</span> <span>सफ़ेद</span> - <span>विनायक</span> <span>सेन</span> <span>को</span> <span>सलाख़ों</span> <span>के</span> <span>पीछे</span> <span>ही</span> <span>रखना</span> <span>चाहते</span> <span>हैं</span>. <span>इसलिए</span> <span>उन</span> <span>पर</span> <span>झूठे</span> <span>आरोप</span> <span>लगा</span> <span>कर</span> <span>उन्हें</span> <span>क़ैद</span> <span>में</span> <span>रखे</span> <span>रहने</span> <span>की</span> <span>साज़िश</span> <span>की</span> <span>जा</span> <span>रही</span> <span>है</span>. <span>असलियत</span> <span>यह</span> <span>है</span> <span>कि</span> <span>डाक्टर</span> <span>विनायक</span> <span>सेन</span> <span>छत्तीसगढ़</span> <span>में</span> <span>अत्यन्त</span> <span>लोकप्रिय</span> <span>हैं</span>. <span>उन्होंने</span> <span>न</span> <span>केवल</span> <span>वहां</span> <span>आदिवासियों</span> <span>और</span> <span>आम</span> <span>जनता</span> <span>को</span> <span>ऐसे</span> <span>समय</span> <span>चिकित्सा</span> <span>उपलब्ध</span> <span>करायी</span> <span>है</span> <span>जब</span> <span>सरकारी</span> <span>तन्त्र</span> <span>नाकारा</span> <span>साबित</span> <span>हुआ</span> <span>है</span>, <span>बल्कि</span> <span>आदिवासियों</span> <span>की</span> <span>हत्या</span> <span>करने</span> <span>वाले</span> <span>सरकार</span> <span>समर्थित</span> <span>गिरोह</span> <span>सल्वा</span> <span>जुडुम</span> <span>का</span> <span>कड़ा</span> <span>विरोध</span> <span>भी</span> <span>किया</span> <span>है</span>. <span>ध्यान</span> <span>रहे</span> <span>कि</span> <span>जहां</span> <span>विनायक</span> <span>सेन</span> <span>जैसी</span> <span>मेधा</span> <span>और</span> <span>गुणों</span> <span>वाले</span> <span>डाक्टर</span> <span>समृद्धि</span> <span>की</span> <span>सीढ़ियों</span> <span>का</span> <span>सन्धान</span> <span>करते</span> <span>हैं</span> <span>वहां</span> <span>विनायक</span> <span>सेन</span> <span>ने</span> <span>स्वेच्छा</span> <span>से</span> <span>तकलीफ़ों</span> <span>वाला</span> <span>मार्ग</span> <span>चुना</span> <span>है</span>. <span>लेकिन</span> <span>सच्चे</span> <span>देशभक्तों</span> <span>को</span> <span>अक्सर</span> <span>देशद्रोही</span> <span>क़रार</span> <span>दे</span> <span>कर</span> <span>सज़ाएं</span> <span>दी</span> <span>जाती</span> <span>रही</span> <span>हैं</span>. <span>इसलिए</span> <span>हालांकि</span> <span>आज</span> <span>हमारा</span> <span>इरादा</span> <span>बांग्ला</span> <span>के</span> <span>सुप्रसिद्ध</span> <span>कवि</span> <span>जीवनान्द</span> <span>दास</span> <span>की</span> <span>कविताओं</span> <span>के</span> <span>अनुवाद</span> <span>पेश</span> <span>करने</span> <span>का</span> <span>था</span> <span>हम</span> <span>तुर्की</span> <span>के</span> <span>महान</span> <span>कवि</span> <span>नाज़िम</span> <span>हिकमत</span> <span>की</span> <span>वह</span> <span>मशहूर</span> <span>कविता</span> <span>पेश</span> <span>कर</span> <span>रहे</span> <span>हैं</span> <span>जो</span> <span>उन्होंने</span> <span>तुर्की</span> <span>की</span> <span>तानाशाही</span> <span>द्वारा</span> <span>क़ैद</span> <span>किये</span> <span>जाने</span> <span>की</span> <span>दसवीं</span> <span>सालगिरह</span> <span>पर</span> <span>लिखी</span> <span>थी</span>. <span>यह</span> <span>कविता</span> <span>हम</span> <span>साथी</span> <span>विनायक</span> <span>सेन</span> <span>को</span> <span>समर्पित</span> <span>करते</span> <span>हैं</span>.<br /><br /><br /><span style="color: rgb(51, 0, 51); font-weight: bold;">जब से मुझे इस गड्ढे में फेंका गया</span><br /> <br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">जब</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">से</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">मुझे</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">इस</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">गड्ढे</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">में</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">फेंका</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">गया</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">पृथ्वी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">सूरज</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">के</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">गिर्द</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">दस</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">चक्कर</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">काट</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">चुकी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">है</span><br /><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">अगर</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">तुम</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">पृथ्वी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">से</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">पूछो</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">, </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">वह</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">कहेगी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> -</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">‘</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">यह</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">ज़रा</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">-</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">सा</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">वक़्त</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">भी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">कोई</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">चीज़</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">है</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">भला</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">!’</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">अगर</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">तुम</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">मुझसे</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">पूछो</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">, </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">मैं</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">कहूँगा</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> -</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">‘</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">मेरी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">ज़िन्दगी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">के</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">दस</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">साल</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">साफ़</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">!’</span><br /><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">जिस</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">रोज़</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">मुझे</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">कैद</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">किया</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">गया</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">एक</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">छोटी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">-</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">सी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">पेंसिल</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">थी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">मेरे</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">पास</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">जिसे</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">मैंने</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">हफ़्ते</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">भर</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">में</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">घिस</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">डाला।</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">अगर</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">तुम</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">पेंसिल</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">से</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">पूछो</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">, </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">वह</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">कह</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">कहेगी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> -</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">‘</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">मेरी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">पूरी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">ज़िन्दगी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">!’</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">अगर</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">तुम</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">मुझसे</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">पूछो</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">, </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">मैं</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">कहूँगा</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> -</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">‘</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">लो</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">भला</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">, </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">एक</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">हफ़्ता</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">ही</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">तो</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">चली</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">!’</span><br /><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">जब</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">मैं</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">पहले</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">-</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">पहल</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">इस</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">गड्ढे</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">में</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">आया</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> -</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">हत्या</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">के</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">जुर्म</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">में</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">सज़ा</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">काटता</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">हुआ</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">उस्मान</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">साढ़े</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">सात</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">बरस</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">बाद</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">छूट</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">गया।</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">बाहर</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">कुछ</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">अर्सा</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">मौज</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">-</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">मस्ती</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">में</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">गुज़ार</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">फिर</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">तस्करी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">में</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">धर</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">लिया</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">गया</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">और</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">छै</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">महीने</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">बाद</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">रिहा</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">भी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">हो</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">गया।</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">कल</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">किसी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">ने</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">सुना</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> - </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">उसकी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">शादी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">हो</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">गयी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">है</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">आते</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">वसन्त</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">में</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">वह</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">बाप</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">बनने</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">वाला</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">है</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">।</span><br /><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">अपनी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">दसवीं</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">सालगिरह</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">मना</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">रहे</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">हैं</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">वे</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">बच्चे</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">जो</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">उस</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">दिन</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">कोख</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">में</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">आये</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">जिस</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">दिन</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">मुझे</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">इस</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">गड्ढे</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">में</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">फेंका</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">गया।</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">ठीक</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">उसी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">दिन</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">जनमे</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">अपनी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">लम्बी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">छरहरी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">टाँगों</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">पर</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">काँपते</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">बछेड़े</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">अब</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">तक</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">चौड़े</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">कूल्हे</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">हिलाती</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">आलसी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">घोड़ियों</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">में</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">तबदील</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">हो</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">चुके</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">होंगे।</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">लेकिन</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">ज़ैतून</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">की</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">युवा</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">शाख़ें</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">अब</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">भी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">कमसिन</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">हैं</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">अब</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">भी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">बढ़</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">रही</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">हैं।</span><br /><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">वे</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">मुझे</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">बताते</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">हैं</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">नयी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">-</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">नयी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">इमारतें</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">और</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">चौक</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">बन</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">गये</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">हैं</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">मेरे</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">शहर</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">में</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">जब</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">से</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">मैं</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">यहाँ</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">आया</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">और</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">उस</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">छोटे</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">-</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">से</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">घर</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">मेरा</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">परिवार</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">अब</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">ऐसी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">गली</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">में</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">रहता</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">है</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">,</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">जिसे</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">मैं</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">जानता</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">नहीं</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">,</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">किसी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">दूसरे</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">घर</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">में</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">जिसे</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">मैं</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">देख</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">नहीं</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">सकता।</span><br /><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">अछूती</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">कपास</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">की</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">तरह</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">सफ़ेद</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">थी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">रोटी</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">जिस</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">साल</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">मुझे</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">इस</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">गड्ढे</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">में</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">फेंका</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">गया</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">फिर</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">उस</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">पर</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">राशन</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">लग</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">गया</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">यहाँ</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">, </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">इन</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">कोठरियों</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">में</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">काली</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">रोटी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">के</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">मुट्ठी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">भर</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">चूर</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">के</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">लिए</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">लोगों</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">ने</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">एक</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">-</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">दूसरे</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">की</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">हत्याएँ</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">कीं।</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">अब</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">हालात</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">कुछ</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">बेहतर</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">हैं</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">लेकिन</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">जो</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">रोटी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">हमें</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">मिलती</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">है</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">,</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">उसमें</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">कोई</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">स्वाद</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">नहीं।</span><br /><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">जिस</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">साल</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">मुझे</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">इस</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">गड्ढे</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">में</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">फेंका</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">गया</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">दूसरा</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">विश्वयुद्ध</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">नहीं</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">शुरू</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">हुआ</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">था</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">,</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">दचाऊ</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">के</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">यातना</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">शिविरों</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">में</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">गैस</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">-</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">भट्ठियाँ</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">नहीं</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">बनी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">थीं</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">,</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">हीरोशिमा</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">में</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">अणु</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">-</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">विस्फोट</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">नहीं</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">हुआ</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">था।</span><br /><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">आह</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">, </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">समय</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">कैसे</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">बहता</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">चला</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">गया</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">है</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">क़त्ल</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">किये</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">गये</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">बच्चे</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">के</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">रक्त</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">की</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">तरह।</span><br /><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">वह</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">सब</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">अब</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">बीती</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">हुई</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">बात</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">है।</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">लेकिन</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">अमरीकी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">डालर</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">अभी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">से</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">तीसरे</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">विश्वयुद्ध</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">की</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">बात</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">कर</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">रहा</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">है।</span><br /><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">तिस</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">पर</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">भी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">, </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">दिन</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">उस</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">दिन</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">से</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">ज़्यादा</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">उजले</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">हैं</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">जबसे</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">मुझे</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">इस</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">गड्ढे</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">में</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">फेंका</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">गया।</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">उस</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">दिन</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">से</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">अब</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">तक</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">मेरे</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">लोगों</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">ने</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">ख़ुद</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">को</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">कुहनियों</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">के</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">बल</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">आधा</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">उठा</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">लिया</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">है</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">पृथ्वी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">दस</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">बार</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">सूरज</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">के</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">गिर्द</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">चक्कर</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">काट</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">चुकी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">है</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">...</span><br /><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">लेकिन</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">मैं</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">दोहराता</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">हूँ</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">उसी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">उत्कट</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">अभिलाषा</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">के</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">साथ</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">जो</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">मैंने</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">लिखा</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">था</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">अपने</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">लोगों</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">के</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">लिए</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">दस</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">बरस</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">पहले</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">आज</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">ही</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">के</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">दिन</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> :</span><br /><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">‘</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">तुम</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">असंख्य</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">हो</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">धरती</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">में</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">चींटियों</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">की</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">तरह</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">सागर</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">में</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">मछलियों</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">की</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">तरह</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">आकाश</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">में</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">चिड़ियों</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">की</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">तरह</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">कायर</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">हो</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">या</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">साहसी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">, </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">साक्षर</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">हो</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">या</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">निरक्षर</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">,</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">लेकिन</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">चूँकि</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">सारे</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">कर्मों</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">को</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">तुम्हीं</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">बनाते</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">या</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">बरबाद</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">करते</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">हो</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">,</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">इसलिए</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">सिर्फ़</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">तुम्हारी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">गाथाएँ</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">गीतों</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">में</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">गायी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">जायेंगी।</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">’</span><br /><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">बाक़ी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">सब</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">कुछ</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">जैसे</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">मेरी</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">दस</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">वर्षों</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">की</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">यातना</span><br /><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">फ़ालतू</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">की</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">बात</span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;"> </span><span style="color: rgb(102, 51, 51); font-weight: bold;">है।</span><br /><br />_____________________________________________________<br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 102, 51);">नाज़िम हिकमत (1902-63) की कविता तुर्की ही नहीं, दुनिया की सारी शोषित मानवता के दुख-सुख, कशमकश और संघ्र्ष को वाणी देती है. सभी सच्चे कवियों की तरह नाज़िम ने अपने देश की सतायी गयी जनता के हक़ में आवाज़ बुलन्द की थी और उन लोगों की गाथाओं को अपनी कविता में अंकित किया था जो उन्हीं के शब्दों में "धरती में चींटियों की तरह, सागर में मछलियों की तरह और आकाश में चिड़ियों की तरह" असंख्य हैं, जो वास्तव में सारे कर्मों के निर्माता हैं।</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 102, 51);"> नाज़िम की कविता उस व्यापक संघर्ष के दौर की कविता है, जिसमें उन्होंने अपने साथियों के संग तुर्की के तानाशाही निज़ाम का विरोध किया और इसकी क़ीमत बरसों क़ैद रह कर चुकायी। इसीलिए नाज़िम की कविता में शोषण के विरोध का स्वर धरती के बेटों की ज़बान में व्यक्त हुआ है। हैरत नहीं कि नाज़िम की रचनाएं तानाशाहों के लिए ख़तरे की घण्टी जान पड़ी होंगी. और उन्होंने सभी निरंकुश सत्ताओं की तरह इस आवाज़ को क़ैद कर देना ही सबसे सरल उपाय समझा. कुल मिला कर अपनी 61 बरस की ज़िन्दगी में नाज़िम ने 28 बरस सलाख़ों के पीछे गुज़ारे जिसमे सबसे बड़ी अवधि 13 वर्ष थी जिसके दसवें साल उन्होंने यह कविता लिखी थी.</span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 102, 51);"> नाज़िम की इस कविता को पढ़ते हुए हमें सहज ही उन तमाम न्याय-वंचित लोगों का ध्यान हो आता है जो दमन और उत्पीड़न पर टिके मौजूदा पूंजीवादी-सामन्ती शासन का विरोध करने के "अपराध" में जैलों में ठूंस रखे गये हैं; जो नाज़िम ही की तरह अपने देश की जनता के दुख-दर्द से विचलित हो कर एक बेहतर समाज बनाने की जद्दोजेहद में लगे हुए हैं। एक समय था कि हिन्दुस्तान की जेलों में लगभग 40,000 क़ैदी नक्सलवाद के नाम पर क़ैद थे. आज हो सकता है यह संख्या कम हो लेकिन सत्ता के इरादे और ख़ूंख़ार हुए हैं, फ़र्ज़ी मुठभेड़ों में हज़ारों लोग मार दिये गये हैं, पेशेवर हत्यारों की-सी मानसिकता वाले सशस्त्र बल तैयार किये गये हैं, मीडिया को फ़र्ज़ी ख़बरें फैलाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है, लेखकों और बुद्धिजीवियों को या तो ख़रीदा जा रहा है या धमकाया जा रहा है।</span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 102, 51);"> ऐसे अघोषित आपात काल के माहौल में नाज़िम हिकमत की कविता हौसलों को बुलन्द करती है और वह पुराना लेकिन सच्चा और कारगर सन्देश याद कराती है : अब उनके पास खोने के लिए सिर्फ़ बेड़ियां हैं और एक दुनिया है हासिल करने के लिए।</span><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 102, 51);"> बेड़ियां तोड़ने और दुनिया हासिल करने की यह लडाई </span><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 102, 51);">जारी</span><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 102, 51);"> है -- दस्त-ब-दस्त -- और दिनों दिन तेज़ हो रही है। </span>Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3780821805422068162.post-22098076040201209332010-12-24T03:01:00.000-08:002010-12-24T03:04:10.314-08:00देशान्तर<span style="font-weight: bold;"></span><br /><br /><span style="font-weight: bold;">आज के कवि : एज़रा पाउण्ड</span><br /><br />एज़रा पाउण्ड ( 1885-1972) अंग्रेज़ी के उन कवियों मे शुमार किये जा सकते हैं जो 19वीं और 20वीं सदियों की दहलीज़ को लांघ कर एक नये मुहावरे के साथ सामने आये और जिन्होंने आधुनिक सम्वेदना को समृद्ध किया. पाउण्ड की एक खूबी यह भी है कि उन्होंने अंग्रेज़ी के काव्य-प्रेमियों को चीनी कविता से भी परिचित कराया. यहां पाउण्ड द्वारा की गयी कुछ चीनी कविताओं की पुनर्रचनाएं प्रस्तुत हैं. इन चीनी कविताओं की विशेषता है संकेतों में बात कहना और एक हलके-से अवसाद का माहौल रच देना.<br /><br /><br />चीनी कविताएँ<br /><br /><span style="font-weight: bold;">तो-एम-माई का टिका हुआ बादल</span><br /><br /> "बसन्त में झड़ी," तो-एम-माई कहता है,<br /> "बगिया में वसन्त की झड़ी।"<br /><br />1. बादल घिर आये हैं, घिर आये हैं और बूँदें गिरती है, गिरती है<br /> आकाश की आठों तहें सिमट कर एक अन्धकार में बदल गयी हैं,<br /> और दूर तक फैली दिखायी देती है चौड़ी, सपाट सड़क।<br /> मैं थिर हो कर रुकता हूँ अपने पूरब की ओर कमरे में, ख़ामोश, ख़ामोश,<br /> थपथपाता हूँ मदिरा की नयी सुराही।<br /> मेरे दोस्त अब दोस्त नहीं रहे या चले गये हैं दूर,<br /> सिर झुकाता हूँ मैं और खड़ा रहता हूँ निश्चल।<br />2. वर्षा, वर्षा, और बादल घिर आये हैं<br /> आकाश की आठों तहें अँधेरे में बदल गयी हैं,<br /> सपाट धरती बन गयी है दरिया<br /> मदिरा, मदिरा, यह रही मदिरा,<br /> मैं पीता हूँ पूरब की खिड़की के पास।<br /> सोचता हूँ बातचीत और इन्सान के बारे में,<br /> और कोई नाव, कोई गाड़ी आती नहीं दिखती।<br />3. पूरब की ओर मेरी बगिया के पेड़<br /> नयी कोंपलों में फूट पड़े हैं,<br /> वे नयी चाहत जगाने की कोशिश करती हैं,<br /> और लोग कहते हैं कि चाँद और सूरज बराबर चलते रहते हैं<br /> क्य¨ंकि उन्हें कोई नरम आसरा नहीं मिलता।<br /> चिड़ियाँ फड़फड़ाती हुई मेरे पेड़ पर आराम करने उतारती हैं<br /> और मेरा खयाल है मैंने उन्हें यह कहते सुना है:<br /> ऐसा नहीं है कि दूसरे लोग न हों<br /> लेकिन हमें यही आदमी पसन्द है,<br /> मगर चाहे जितना भी हम बात करना चाहें<br /> इसे हमारे दुख का पता नहीं चल सकता।<br /> <span style="font-style: italic;"> (ताओ युआन मिंग 365-427 ई)</span><br /><br /><span style="font-weight: bold;">शू के तीरन्दाज़ों का गीत</span><br /><br />यहाँ हैं हम, साग की पहली-पहली कोंपलें तोड़ते<br />और कहते: कब लौटेंगे हम अपने देश ?<br />हम यहाँ हैं क्योंकि केन-निन क़बाइली हमारे दुश्मन हैं<br />इन मंगोलों की वज़ह से हमें जरा भी आराम नहीं।<br /><br />साग की नरम कोपलों पर ज़िन्दा हैं हम,<br />जब कोई कहता हैं वापसी, दूसरों में उमड़ता है दुख।<br />दुखी हैं मन, दुख प्रचण्ड है, हम भूखे और प्यासे हैं।<br />हमारी सुरक्षा की पाँत अभी सुनिश्चित नहीं की गयी,<br />कोई अपने मित्र को लौटने नहीं दे सकता।<br />साग के पुराने डण्ठलों पर ज़िन्दा हैं हम।<br />हम कहते हैं : क्या हमें अक्तूबर में लौटने दिया जायेगा ?<br />राज-काज में कोई आराम नहीं,<br />हमें ज़रा भी चैन नहीं।<br />कटु है हमारा दुख, पर हम लौट नहीं सकते अपने देस।<br />कौन-सा फूल खिला होगा ?<br /><br />किसका रथ ? सेनापति का है।<br />घोड़े, उसके घोड़े भी, थक गये हैं। कभी वे तगड़े थे।<br />हमें कोई आराम नहीं, महीने-भर में तीन-तीन लड़ाइयाँ<br />क़सम से, उसके घोड़े थक गये हैं।<br />सेनापति उन पर सवार हैं, सैनिक उनके साथ-साथ पैदल।<br />घोड़े अच्छी तरह सिखाये हुए हैं, सेनापति के पास<br />हाथी-दाँत के तीर हैं और मछली के चमड़े से मढ़े हुए तरकश<br />दुश्मन तेज़ है, हमें सावधान रहना है।<br />जब हम निकले थे, सरो के गाछ वसन्त से झुक आये थे,<br />हम लौटते हैं बर्फ़ को रौंदते हुए,<br />धीमी है हमारी गति, हम भूखे और प्यासे हैं,<br />दुख से बोझल हैं हमारे मन, हमारे दुख के बारे में कौन जानेगा,<br /> <span style="font-style: italic;"> (बुन्नो कथित रूप से 1100 ई.पू.)</span><br /><br /><span style="font-weight: bold;">विदा की चार कविताएँ</span><br /><br />हलकी धूल पर हो रही है हलकी बारिश<br />सराय के आंगन में सरो के पेड़<br />लगातार, हरे, और हरे होते जायेंगे<br />लेकिन आप, श्रीमान, विदा होने से पहले<br />मदिरा ले लें<br />क्योंकि आपके गिर्द कोई मित्र नहीं रह जायेगा<br />जब पहुँचेंगे आप गो के द्वारों के पास<br /> <span style="font-style: italic;"> (रिहाकू या ओगाकित्सू)</span><br /><br /><span style="font-weight: bold;">कियांग नदी पर बिछोह</span><br /><br />को-काकू-रो से जा रहा है पच्छिम को-जिन,<br />नदी पर धूम्र-पुष्प धुँधले हो गये हैं।<br />उसके एकाकी पाल के पीछे छिप गया है दूर का आकाश।<br />और अब मुझे दिखती है केवल नदी,<br />यह लम्बी कियांग नदी, स्वर्ग तक पहुँचती हुई।<br /> <span style="font-style: italic;"> (रिहाकू)</span><br /><br /><br /><span style="font-weight: bold;">मित्र से विदा लेते हुए</span><br /><br />नगर प्राचीरों के उत्तर में नीले पहाड़<br />सफ़ेद नदी उनमें मँडराती हुई;<br />यहाँ हमें बिदा लेनी है<br />और मुरझाई घास से हो कर<br />हज़ार मील जाना है।<br /><br />तैरते हुए चौड़े बादल की तरह मन,<br />सूर्यास्त जैसे पुराने मित्रों का बिछुड़ना<br />जो दूर से अपने हाथ जोड़े नमन करते हैं।<br />हमारी विदाई के समय<br />हमारे घोड़े एक-दूसरे से हिनहिनाते हैं।<br /> <span style="font-style: italic;"> (ली पो)</span><br /><br /><span style="font-weight: bold;">शोकू के पास विदाई</span><br /><br /> "शोकू के राजा सांसो ने सड़कें बनवायीं."<br /><br />कहते हैं सांसो की बनवायी सड़कें चढ़ाईदार हैं<br />खड़ी जैसे पहाड़।<br />दीवारें उठती हैं आदमी के चेहरे की तरफ़<br />बादल उगते हैं पहाड़ से<br />उसके घोड़े की लगाम तक<br />शिन के पक्के रास्ते पर महकदार पेड़ हैं,<br />उनके तने सड़क के पत्थरों को फोड़ कर निकले हैं,<br />और पहाड़ी नाले अपनी बर्फ़ से फूट रहे हैं<br />शोकू के बीचों-बीच, जो एक गर्वीला नगर है<br />इन्सानों का नसीबा पहले से तय हो चुका है,<br />ज्योतिषियों, से पूछने की कोई ज़रूरत नहीं। <br /> <span style="font-style: italic;"> (ली पो)</span>Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3780821805422068162.post-55342569695629944342010-12-23T05:04:00.000-08:002010-12-23T05:05:26.023-08:00देशान्तर<span style="font-weight: bold; color: rgb(102, 51, 102);">आज के कवि : बर्टोल्ट ब्रेख़्ट</span><br /><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 0, 0);">निर्णय के बारे में</span><br /><br /><span>तुम</span> <span>जो</span> <span>कलाकार</span> <span>हो</span><br /><span>और</span> <span>प्रशंसा</span> <span>या</span> <span>निन्दा</span> <span>के</span> <span>लिए</span><br /><span>हाज़िर</span> <span>होते</span> <span>हो</span> <span>दर्शकों</span> <span>के</span> <span>निर्णय</span> <span>के</span> <span>लिए</span><br /><span>भविष्य</span> <span>में</span> <span>हाज़िर</span> <span>करो</span> <span>वह</span> <span>दुनिया</span> <span>भी</span><br /><span>दर्शकों</span> <span>के</span> <span>निर्णय</span> <span>के</span> <span>लिए</span><br /><span>जिसे</span> <span>तुमने</span> <span>अपनी</span> <span>कृतियों</span> <span>में</span> <span>चित्रित</span> <span>किया</span> <span>है</span><br /><br /><span>जो</span> <span>कुछ</span> <span>है</span> <span>वह</span> <span>तो</span> <span>तुम्हें</span> <span>दिखाना</span> <span>ही</span> <span>चाहिए</span><br /><span>लेकिन</span> <span>यह</span> <span>दिखाते</span> <span>हुए</span> <span>तुम्हें</span> <span>यह</span> <span>भी</span> <span>संकेत</span> <span>देना</span> <span>चाहिए</span><br /><span>कि</span> <span>क्या</span> <span>हो</span> <span>सकता</span> <span>था</span> <span>और</span> <span>नहीं</span> <span>है</span><br /><span>इस</span> <span>तरह</span> <span>तुम</span> <span>मददगार</span> <span>साबित</span> <span>हो</span> <span>सकते</span> <span>हो</span><br /><span>क्योंकि</span> <span>तुम्हारे</span> <span>चित्रण</span> <span>से</span><br /><span>दर्शकों</span> <span>को</span> <span>सीखना</span> <span>चाहिए</span><br /><span>कि</span> <span>जो</span> <span>कुछ</span> <span>चित्रित</span> <span>किया</span> <span>गया</span> <span>है</span><br /><span>उससे</span> <span>वे</span> <span>कैसा</span> <span>रिश्ता</span> <span>कायम</span> <span>करें</span><br /><br /><span>यह</span> <span>शिक्षा</span> <span>मनोरंजक</span> <span>होनी</span> <span>चाहिए</span><br /><span>शिक्षा</span> <span>कला</span> <span>की</span> <span>तरह</span> <span>दी</span> <span>जानी</span> <span>चाहिए</span><br /><span>और</span> <span>तुम्हें</span> <span>कला</span> <span>की</span> <span>तरह</span> <span>सिखाना</span> <span>चाहिए</span><br /><span>कि</span> <span>चीज़ों</span> <span>और</span> <span>लोगों</span> <span>के</span> <span>साथ</span><br /><span>कैसे</span> <span>रिश्ता</span> <span>कायम</span> <span>किया</span> <span>जाय</span><br /><span>कला</span> <span>भी</span> <span>मनोरंजक</span> <span>होनी</span> <span>चाहिए</span><br /><br /><span>वाक़ई</span> <span>तुम</span> <span>अँधेरे</span> <span>युग</span> <span>में</span> <span>रह</span> <span>रहे</span> <span>हो।</span><br /><span>तुम</span> <span>देखते</span> <span>हो</span> <span>बुरी</span> <span>ताक़तें</span> <span>आदमी</span> <span>को</span><br /><span>गेंद</span> <span>की</span> <span>तरह</span> <span>इधर</span> <span>से</span> <span>उधर</span> <span>फेंकती</span> <span>हैं</span><br /><span>सिर्फ़</span> <span>मूर्ख</span> <span>चिन्ता</span> <span>किये</span> <span>बिना</span> <span>जी</span> <span>सकते</span> <span>हैं</span><br /><span>और</span> <span>जिन्हें</span> <span>ख़तरे</span> <span>का</span> <span>कोई</span> <span>अन्देशा</span> <span>नहीं</span> <span>है</span><br /><span>उनका</span> <span>नष्ट</span> <span>होना</span> <span>पहले</span> <span>ही</span> <span>तय</span> <span>हो</span> <span>चुका</span> <span>है</span><br /><br /><span>प्रागैतिहास</span> <span>के</span> <span>धुँधलके</span> <span>में</span> <span>जो</span> <span>भूकम्प</span> <span>आये</span><br /><span>उनकी</span> <span>क्या</span> <span>वक़अत</span> <span>है</span> <span>उन</span> <span>तकलीफ़ों</span> <span>के</span> <span>सामने</span><br /><span>जो</span> <span>हम</span> <span>शहरों</span> <span>में</span> <span>भुगतते</span> <span>हैं</span> ? <span>क्या</span> <span>वक़अत</span> <span>है</span><br /><span>बुरी</span> <span>फ़सलों</span> <span>की</span> <span>उस</span> <span>अभाव</span> <span>के</span> <span>सामने</span><br /><span>जो</span> <span>नष्ट</span> <span>करता</span> <span>है</span> <span>हमें</span><br /><span>विपुलता</span> <span>के</span> <span>बीच</span><br /><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 0, 0);">आलोचनात्मक रवैये पर</span><br /><br /><span>बहुत</span>-<span>से</span> <span>लोगों</span> <span>को</span><br /><span>आलोचनात्मक</span> <span>रवैया</span> <span>कारगर</span> <span>नहीं</span> <span>लगता</span><br /><span>ऐसा</span> <span>इसलिए</span> <span>कि</span> <span>वे</span> <span>पाते</span> <span>हैं</span><br /><span>सत्ता</span> <span>पर</span> <span>उनकी</span> <span>आलोचना</span> <span>का</span> <span>कोई</span> <span>असर</span> <span>नहीं</span> <span>पड़ता।</span><br /><br /><span>लेकिन</span> <span>इस</span> <span>मामले</span> <span>में</span> <span>जो</span> <span>रवैया</span> <span>कारगर</span> <span>नहीं</span> <span>है</span><br /><span>वह</span> <span>दरअसल</span> <span>कमज़ोर</span> <span>रवैया</span> <span>है।</span><br /><br /><span>आलोचना</span> <span>को</span> <span>हासिल</span> <span>कराये</span> <span>जायँ</span><br /><span>अगर</span> <span>हाथ</span> <span>और</span> <span>हथियार</span><br /><span>तो</span> <span>राज्य</span> <span>नष्ट</span> <span>किये</span> <span>जा</span> <span>सकते</span> <span>हैं</span> <span>उससे</span><br /><br /><span>नदी</span> <span>को</span> <span>बाँधना</span><br /><span>फल</span> <span>के</span> <span>पेड़</span> <span>की</span> <span>छँटाई</span> <span>करना</span><br /><span>आदमी</span> <span>को</span> <span>सिखाना</span><br /><span>राज्य</span> <span>को</span> <span>बदलना</span><br /><span>ये</span> <span>सब</span> <span>हैं</span> <span>कारगर</span> <span>आलोचना</span> <span>के</span> <span>नमूने</span><br /><span>साथ</span> <span>ही</span> <span>कला</span> <span>के</span> <span>भी।</span><br /><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(255, 0, 0);">तेरह भजन</span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 0, 0);">बसन्त का भजन</span><br /><br />1. <span>मैं</span> <span>अब</span> <span>गर्मियों</span> <span>की</span> <span>ताक</span> <span>में</span> <span>हूँ</span> <span>दोस्तो।</span><br />2. <span>हमने</span> <span>जमा</span> <span>कर</span> <span>ली</span> <span>है</span> <span>ख़ूब</span> <span>सारी</span> <span>रम</span> <span>और</span> <span>गिटार</span> <span>पर</span> <span>चढ़ा</span> <span>लिये</span> <span>हैं</span> <span>नये</span> <span>तार।</span><br /> <span>बस</span>, <span>सफ़ेद</span> <span>कमीज़ें</span> <span>जुटाना</span> <span>बाक़ी</span> <span>है</span><br />3. <span>हमारे</span> <span>अंग</span> <span>गर्मियों</span> <span>की</span> <span>घास</span> <span>तरह</span> <span>बढ़ते</span> <span>है</span> <span>और</span> <span>अगस्त</span> <span>के</span> <span>मध्य</span> <span>में</span><br /> <span>ग़ायब</span> <span>हो</span> <span>जाती</span> <span>हैं</span> <span>कुँआरी</span> <span>कन्याएँ।</span> <span>यह</span> <span>वक़्त</span> <span>है</span> <span>बेपनाह</span> <span>मस्ती</span> <span>का।</span><br />4. <span>दिन</span> <span>पर</span> <span>दिन</span> <span>आकाश</span> <span>में</span> <span>भर</span> <span>जाती</span> <span>है</span> <span>एक</span> <span>सुकोमल</span> <span>आभा</span> <span>और</span><br /> <span>रात</span> <span>हमारी</span> <span>नींद</span> <span>उड़ा</span> <span>ले</span> <span>जाती</span> <span>है।</span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 0, 0);">ईश्वर का सायंकालीन गीत</span><br /><br /><span>जब</span> <span>शाम</span> <span>की</span> <span>धुन्ध</span> <span>भरी</span> <span>नीली</span> <span>हवा</span> <span>परमपिता</span> <span>ईश्वर</span> <span>को</span> <span>जगाती</span> <span>है</span><br /><span>वह</span> <span>देखता</span> <span>है</span> <span>अपने</span> <span>ऊपर</span> <span>तने</span> <span>आकाश</span> <span>को</span> <span>निरवर्ण</span> <span>होते</span> <span>और</span><br /><span>आनन्दित</span> <span>होता</span> <span>है</span> <span>इस</span> <span>पर।</span> <span>फिर</span> <span>सृष्टि</span> <span>का</span> <span>महान</span> <span>कीर्तन</span><br /><span>तरोताजा</span> <span>करता</span> <span>है</span> <span>उसक</span> <span>कानों</span> <span>को</span> <span>और</span> <span>आहलाद</span> <span>से</span> <span>भर</span> <span>देता</span> <span>है</span> <span>उसे</span> :<br /><span>डूबने</span> <span>के</span> <span>कगार</span> <span>पर</span> <span>बाढ़</span> <span>ग्रस्त</span> <span>वनों</span> <span>की</span> <span>चीख़</span><br /><span>लोगों</span> <span>और</span> <span>साज</span>-<span>सामान</span> <span>के</span> <span>बेपनाह</span> <span>बोझ</span> <span>से</span> <span>दबे</span><br /><span>पुराने</span>, <span>धूसर</span> <span>मकानों</span> <span>की</span> <span>कराह।</span><br /><span>जिनकी</span> <span>ताक़त</span> <span>छीन</span> <span>ली</span> <span>गयी</span> <span>है</span><br /><span>उन</span> <span>चुके</span> <span>हुए</span> <span>खेतों</span> <span>की</span> <span>हलक़</span>-<span>चीरती</span> <span>खाँसी।</span><br /><span>धरती</span> <span>पर</span> <span>प्रागैतिहासिक</span> <span>हाथी</span> <span>की</span> <span>कठिन</span> <span>और</span> <span>आनन्द</span>-<span>भरी</span> <span>ज़िन्दगी</span> <span>के</span><br /><span>अन्त</span> <span>को</span> <span>चिह्नित</span> <span>करने</span> <span>वाली</span> <span>पेट</span> <span>की</span> <span>विराट</span> <span>गड़गड़ाहट।</span><br /><span>महापुरुषों</span> <span>की</span> <span>माताओं</span> <span>की</span> <span>चिन्तातुर</span> <span>प्रार्थनाएँ।</span><br /><span>बर्फीले</span> <span>एकान्त</span> <span>में</span> <span>आमोद</span>-<span>प्रमोद</span> <span>करते</span> <span>श्वेत</span> <span>हिमालय</span> <span>के</span><br /><span>दहाड़ते</span> <span>हिमनद।</span><br /><span>और</span> <span>बर्टोल्ट</span> <span>ब्रेश्ट</span> <span>की</span> <span>वेदना</span> <span>जिसके</span> <span>दिन</span> <span>ठीक</span> <span>नहीं</span> <span>गुजर</span> <span>रहे</span><br /><span>और</span> <span>इसी</span> <span>के</span> <span>साथ</span>:<br /><span>वनों</span> <span>में</span> <span>बढ़ते</span> <span>हुए</span> <span>पानी</span> <span>के</span> <span>पगलाये</span> <span>गीत।</span><br /><span>फ़र्श</span> <span>के</span> <span>पुराने</span> <span>तख़्तों</span> <span>पर</span> <span>झूलते</span>, <span>नींद</span> <span>में</span> <span>डूबे</span> <span>लोगों</span> <span>की</span> <span>धीमी</span> <span>साँसें।</span><br /><span>अनाज</span> <span>के</span> <span>खेतों</span> <span>की</span> <span>हर्ष</span> <span>भरी</span> <span>बुदबुदाहट</span>, <span>अन्तहीन</span> <span>प्रार्थनाओं</span> <span>मे</span> <span>अम्बार</span> <span>लगाती</span> <span>हुई</span><br /><span>महापुरुषों</span> <span>के</span> <span>महान</span> <span>भजन।</span><br /><span>और</span> <span>बर्टोल्ट</span> <span>ब्रेश्ट</span> <span>के</span> <span>शानदार</span> <span>गीत</span>, <span>जिसके</span> <span>दिन</span> <span>ठीक</span> <span>नहीं</span> <span>गुजर</span> <span>रहे</span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 0, 0);">प्रेमिका का गीत</span><br /><br />1. <span>मैं</span> <span>जानता</span> <span>हूँ</span>, <span>मेरी</span> <span>जान</span>, <span>मेरी</span> <span>बीहड़</span> <span>ज़िन्दगी</span> <span>की</span> <span>वजह</span> <span>से</span> <span>मेरे</span> <span>बाल</span><br /> <span>झड़</span> <span>रहे</span> <span>हैं</span> <span>और</span> <span>मुझे</span> <span>पत्थरों</span> <span>पर</span> <span>सोना</span> <span>पड़ता</span> <span>है।</span> <span>तुम</span> <span>मुझे</span> <span>ठर्रा</span> <span>पीते</span> <span>देखती</span><br /> <span>हो</span> <span>और</span> <span>मैं</span> <span>हवा</span> <span>में</span> <span>उघाड़े</span> <span>बदन</span> <span>घूमता</span> <span>फिरता</span> <span>हूँ।</span><br />2. <span>लेकिन</span> <span>एक</span> <span>समय</span> <span>था</span>, <span>मेरी</span> <span>जान</span>, <span>जब</span> <span>मैं</span> <span>निष्पाप</span> <span>था।</span><br />3. <span>मेरी</span> <span>एक</span> <span>औरत</span> <span>थी</span> <span>जो</span> <span>मुझसे</span> <span>ज़्यादा</span> <span>ताक़तवर</span> <span>थी</span>, <span>जैसे</span> <span>घास</span> <span>बैल</span> <span>से</span><br /> <span>ज़्यादा</span> <span>ताक़तवर</span> <span>होती</span> <span>है</span> - <span>वह</span> <span>फिर</span> <span>सीधी</span> <span>तन</span> <span>जाती</span> <span>है।</span><br />4. <span>वह</span> <span>जानती</span> <span>थी</span> <span>कि</span> <span>मैं</span> <span>दुष्ट</span> <span>हूँ</span> <span>और</span> <span>मुझसे</span> <span>प्यार</span> <span>करती</span> <span>थी।</span><br />5. <span>उसने</span> <span>कभी</span> <span>नहीं</span> <span>पूछा</span> <span>वह</span> <span>रास्ता</span> <span>वहाँ</span> <span>जाता</span> <span>था</span> <span>और</span> <span>उसका</span> <span>रास्ता</span> <span>था</span><br /> <span>और</span> <span>शायद</span> <span>वह</span> <span>नीचे</span> <span>को</span> <span>उतरता</span> <span>था।</span> <span>जब</span> <span>वह</span> <span>मुझे</span> <span>अपनी</span> <span>देह</span><br /> <span>सौंपती</span> <span>तो</span> <span>कहती</span>-<span>बस।</span> <span>और</span> <span>उसकी</span> <span>देह</span> <span>मेरी</span> <span>देह</span> <span>बन</span> <span>जाती।</span><br />6. <span>अब</span> <span>वह</span> <span>कहीं</span> <span>नहीं</span> <span>है।</span> <span>वर्षा</span> <span>के</span> <span>बाद</span> <span>बादल</span> <span>सरीखी</span> <span>वह</span> <span>गायब</span> <span>हो</span> <span>गयी।</span><br /> <span>मैंने</span> <span>उसे</span> <span>छोड़</span> <span>दिया</span> <span>और</span> <span>वह</span> <span>नीचे</span> <span>गिरती</span> <span>चली</span> <span>गयी</span> <span>क्योंकि</span> <span>वही</span><br /> <span>उसका</span> <span>रास्ता</span> <span>था।</span><br />7. <span>लेकिन</span> <span>कभी</span>-<span>कभार</span> <span>रात</span> <span>को</span> <span>जब</span> <span>तुम</span> <span>मुझे</span> <span>शराब</span> <span>पीते</span> <span>देखती</span> <span>हो</span>,<br /> <span>मुझे</span> <span>उसका</span> <span>चेहरा</span> <span>नज़र</span> <span>आता</span> <span>है</span> - <span>हवा</span> <span>में</span> <span>विवर्ण</span>, <span>मज़बूत</span> <span>और</span> <span>मेरी</span> <span>तरफ़</span> <span>मुख़ातिब</span><br /> <span>और</span> <span>मैं</span> <span>हवा</span> <span>में</span> <span>झुक</span> <span>कर</span> <span>उसे</span> <span>सलाम</span> <span>करता</span> <span>हूँ।</span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 0, 0);">पत्नी का गीत</span><br /><br />1. <span>कभी</span> <span>कभी</span> <span>शाम</span> <span>के</span> <span>समय</span> <span>नदी</span> <span>किनारे</span> <span>झाड़ियों</span> <span>के</span> <span>अँधेरे</span> <span>सीने</span> <span>में</span> <span>मुझे</span> <span>फिर</span> <span>उसका</span><br /> <span>चेहरा</span> <span>दिखायी</span> <span>देता</span> <span>है।</span> <span>उस</span> <span>औरत</span> <span>का</span> <span>चेहरा</span> <span>जिसे</span> <span>मैं</span> <span>प्यार</span> <span>करता</span> <span>था।</span> <span>मेरी</span> <span>बीवी।</span> <span>जो</span> <span>अब</span> <span>नहीं</span> <span>है।</span><br />2. <span>यह</span> <span>बरसों</span> <span>पहले</span> <span>की</span> <span>बात</span> <span>है</span> <span>और</span> <span>बाज़</span> <span>वक्त</span> <span>मुझे</span> <span>उसकी</span> <span>कोई</span> <span>याद</span> <span>नहीं</span> <span>रहती</span><br /> <span>जो</span> <span>कभी</span> <span>सब</span> <span>कुछ</span> <span>थी</span>, <span>मगर</span> <span>सब</span> <span>कुछ</span> <span>बीत</span> <span>जाता</span> <span>है।</span><br />3. <span>और</span> <span>वह</span> <span>मेरे</span> <span>भीतर</span> <span>थी</span> <span>जैसे</span> <span>मंगोलिया</span> <span>के</span> <span>मैदानों</span> <span>पर</span> <span>नन्हीं</span> <span>ज़ूनिपर</span> <span>की</span> <span>झाड़ी</span>,<br /> <span>धुनषाकार</span>, <span>हल्के</span> <span>पीले</span> <span>आकाश</span> <span>और</span> <span>गहरी</span> <span>उदासी</span> <span>के</span> <span>साथ</span><br />4. <span>नदी</span> <span>किनारे</span> <span>की</span> <span>एक</span> <span>काली</span>-<span>सी</span> <span>झोंपड़ी</span> <span>हमारा</span> <span>घर</span> <span>थी।</span> <span>मच्छर</span> <span>अक्सर</span> <span>उसकी</span> <span>गोरी</span><br /> <span>देह</span> <span>को</span> <span>काटते</span> <span>और</span> <span>मैं</span> <span>सात</span> <span>बार</span> <span>अख़बार</span> <span>पढ़ता</span> <span>या</span> <span>कहता</span> - ‘<span>तुम्हारे</span> <span>बालों</span> <span>का</span><br /> <span>रंग</span> <span>मिट्टी</span> <span>जैसा</span> <span>है</span>’ <span>या</span> - ‘<span>तुम</span> <span>हृदयहीन</span> <span>हो।</span>’<br />5. <span>लेकिन</span> <span>एक</span> <span>दिन</span> <span>जब</span> <span>मैं</span> <span>झोंपड़ी</span> <span>में</span> <span>अपनी</span> <span>कमीज़</span> <span>धो</span> <span>रहा</span> <span>था</span>, <span>वह</span> <span>दरवाज़े</span> <span>तक</span><br /> <span>गयी</span> <span>और</span> <span>उसने</span> <span>मेरी</span> <span>तरफ</span> <span>देखा</span> <span>बाहर</span> <span>जाने</span> <span>की</span> <span>इच्छा</span> <span>से।</span><br />6. <span>और</span> <span>उसने</span>, <span>जो</span> <span>उसे</span> <span>थक</span> <span>जाने</span> <span>की</span> <span>हद</span> <span>तक</span> <span>पीटता</span> <span>था</span>, <span>कहा</span> - ‘<span>प्राणेश्वरी।</span>’<br />7. <span>और</span> <span>वह</span>, <span>जिसने</span> <span>कहा</span> <span>था</span>, ‘<span>मैं</span> <span>तुम्हें</span> <span>प्यार</span> <span>करता</span> <span>हूँ</span>’ - <span>उसे</span> <span>बाहर</span> <span>ले</span> <span>गया</span><br /> <span>और</span> <span>उसने</span> <span>मुस्कराते</span> <span>हुए</span> <span>आकाश</span> <span>को</span> <span>देख</span> <span>कर</span> <span>मौसम</span> <span>की</span> <span>तारीफ़</span> <span>की</span> <span>और</span> <span>उससे</span> <span>हाथ</span> <span>मिलाया।</span><br />8. <span>अब</span> <span>जबकि</span> <span>वह</span> <span>बाहर</span> <span>खुली</span> <span>हवा</span> <span>में</span> <span>थी</span> <span>और</span> <span>झोंपड़ी</span> <span>में</span> <span>उदासी</span> <span>छा</span> <span>गयी</span><br /> <span>थी</span>, <span>उसने</span> <span>दरवाजा</span> <span>बन्द</span> <span>किया</span> <span>और</span> <span>अख़बार</span> <span>खोल</span> <span>कर</span> <span>बैठ</span> <span>गया।</span><br />9. <span>तब</span> <span>से</span> <span>मैंने</span> <span>उसे</span> <span>फिर</span> <span>नहीं</span> <span>देखा।</span> <span>अपने</span> <span>पीछे</span> <span>वह</span> <span>बस</span> <span>एक</span> <span>हल्की</span>-<span>सी</span><br /> <span>चीख़</span> <span>छोड़</span> <span>गयी</span> <span>जब</span> <span>सुबह</span> <span>दरवाजे</span> <span>पर</span> <span>आ</span> <span>कर</span> <span>उसने</span> <span>बन्द</span> <span>पाया।</span><br />10. <span>अब</span> <span>झोंपड़ी</span> <span>ढह</span> <span>चुकी</span> <span>है</span> <span>और</span> <span>मेरे</span> <span>सीने</span> <span>में</span> <span>अखबार</span> <span>ठुँसे</span> <span>हुए</span> <span>हैं</span> <span>और</span> <span>मैं</span><br /> <span>शामों</span> <span>को</span> <span>नदी</span> <span>किनारे</span> <span>झाड़ियों</span> <span>के</span> <span>अँधेरे</span> <span>विवर</span> <span>में</span> <span>लेटा</span> <span>रहता</span> <span>हूँ</span> <span>और</span> <span>याद</span> <span>करता</span> <span>हूँ।</span> <br />11 <span>हवा</span> <span>के</span> <span>बालों</span> <span>में</span> <span>घास</span> <span>की</span> <span>महक</span> <span>है</span> <span>और</span> <span>पानी</span> <span>ईश्वर</span> <span>से</span><br /> <span>शान्ति</span> <span>की</span> <span>अन्तहीन</span> <span>गुहार</span> <span>लगाता</span> <span>है</span> <span>और</span> <span>मेरी</span> <span>ज़बान</span> <span>पर</span> <span>हरदम</span> <span>रहता</span> <span>है</span> <span>एक</span> <span>कड़वा</span> <span>स्वाद।</span><br /> <br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 0, 0);">भजन</span><br /><br />1. <span>हमने</span> <span>पलक</span> <span>तक</span> <span>नहीं</span> <span>झपकायी</span> <span>जब</span> <span>सफ़ेद</span> <span>पानी</span> <span>हमारे</span> <span>गले</span> <span>तक</span> <span>चढ़</span> <span>आया।</span><br />2. <span>जब</span> <span>गहरी</span> <span>भूरी</span> <span>शामें</span> <span>हमें</span> <span>कुतरती</span> <span>रहीं</span> <span>हम</span> <span>सिगार</span> <span>पीते</span> <span>रहे।</span><br />3. <span>हमने</span> <span>इनकार</span> <span>नहीं</span> <span>किया</span> <span>जब</span> <span>हम</span> <span>आकाश</span> <span>में</span> <span>डूब</span> <span>गये।</span><br />4. <span>पानी</span> <span>ने</span> <span>किसी</span> <span>को</span> <span>नहीं</span> <span>बताया</span> <span>कि</span> <span>वह</span> <span>हमारे</span> <span>गले</span> <span>तक</span> <span>चढ़</span> <span>आया</span> <span>है।</span><br />5. <span>अख़बारों</span> <span>में</span> <span>कुछ</span> <span>भी</span> <span>नहीं</span> <span>था</span> <span>हमारे</span> <span>कुछ</span> <span>न</span> <span>कहने</span> <span>के</span> <span>बारे</span> <span>में।</span><br />6. <span>आकाश</span> <span>नहीं</span> <span>सुनता</span> <span>उन</span> <span>लोगों</span> <span>की</span> <span>चीख़ें</span> <span>जो</span> <span>डूब</span> <span>रहे</span> <span>होते</span> <span>हैं।</span><br />7. <span>लिहाज़ा</span> <span>हम</span> <span>बैठे</span> <span>रहे</span> <span>बड़ी</span> <span>चट्टानों</span> <span>पर</span> <span>ख़ुशक़िस्मत</span> <span>लोगों</span> <span>की</span> <span>तरह।</span><br />8. <span>लिहाज़ा</span> <span>हमने</span> <span>मार</span> <span>डालीं</span> <span>वे</span> <span>सोनचिरैयाँ</span> <span>जो</span> <span>हमारे</span> <span>मौन</span> <span>चेहरों</span> <span>की</span> <span>चर्चा</span> <span>करती</span> <span>थीं।</span> <br />9. <span>कौन</span> <span>बात</span> <span>करता</span> <span>है</span> <span>चट्टानों</span> <span>के</span> <span>बारे</span> <span>में</span> ?<br />10. <span>और</span> <span>किसे</span> <span>परवाह</span> <span>है</span> <span>कि</span> <span>पानी</span>, <span>शाम</span> <span>और</span> <span>आकाश</span> <span>का</span> <span>हमारे</span> <span>लिए</span> <span>क्या</span> <span>मतलब</span> <span>है</span> ?<br /> <br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 0, 0);">चौथा भजन</span><br /><br />1. <span>अब</span> <span>वे</span> <span>मुझसे</span> <span>क्या</span> <span>चाहते</span> <span>हैं</span> ? <span>मैं</span> <span>ताश</span> <span>की</span> <span>सभी</span> <span>बाज़ियाँ</span> <span>खेल</span> <span>चुका</span> <span>हूँ</span>, <span>सारी</span> <span>शराब</span> <span>थूक</span> <span>चुका</span> <span>हूँ</span>, <span>सारी</span> <span>किताबें</span> <span>चूल्हे</span> <span>में</span> <span>झोंक</span> <span>चुका</span> <span>हूँ</span>, <span>सारी</span> <span>औरतों</span> <span>को</span> <span>उस</span> <span>हद</span> <span>तक</span> <span>प्यार</span> <span>कर</span> <span>चुका</span> <span>हूँ</span> <span>जब</span> <span>तक</span> <span>कि</span> <span>वे</span> <span>मगरमच्छ</span> <span>की</span> <span>तरह</span> <span>गँधाने</span> <span>नहीं</span> <span>लगीं।</span> <br /><span>अभी</span> <span>से</span> <span>मैं</span> <span>एक</span> <span>महान</span> <span>सन्त</span> <span>हो</span> <span>गया</span> <span>हूँ</span>, <span>मेरा</span> <span>कान</span> <span>सड़</span> <span>गया</span> <span>है</span> <span>कि</span> <span>बहुत</span> <span>जल्द</span> <span>झड़</span> <span>जायेगा।</span><br /><span>तब</span> <span>फिर</span> <span>क्यों</span> <span>कोई</span> <span>चैन</span> <span>नहीं</span> <span>है</span> ? <span>क्यों</span> <span>लोग</span> <span>अहाते</span> <span>में</span> <span>कचरे</span> <span>की</span> <span>पेटियों</span> <span>की</span> <span>तरह</span> <span>खड़े</span> <span>रहते</span> <span>हैं</span>, <span>चन्दे</span> <span>की</span> <span>उम्मीद</span> <span>में</span>? <span>मैंने</span> <span>यह</span> <span>साफ़</span> <span>कर</span> <span>दिया</span> <span>है</span> <span>कि</span> <span>अब</span> <span>मुझसे</span> <span>यह</span> <span>अपेक्षा</span> <span>नहीं</span> <span>रखी</span> <span>जा</span> <span>सकती</span> <span>कि</span> <span>मैं</span> <span>वह</span> <span>गीतों</span> <span>का</span> <span>सरताज</span> <span>गीत</span> <span>रच</span> <span>ही</span> <span>दूँगा।</span> <span>मैंने</span> <span>पुलिस</span> <span>को</span> <span>उन</span> <span>हज़रात</span> <span>के</span> <span>पीछे</span> <span>लगा</span> <span>दिया</span> <span>है।</span> <span>तुम्हें</span> <span>जिसकी</span> <span>भी</span> <span>तलाश</span> <span>हो</span>, <span>मैं</span> <span>वह</span> <span>बन्दा</span> <span>नहीं</span> <span>हूँ।</span><br />2. <span>अपने</span> <span>भाइयों</span> <span>में</span> <span>मैं</span> <span>सबसे</span> <span>ज़्यादा</span> <span>दुनियादार</span> <span>हूँ</span> - <span>और</span> <span>मेरा</span> <span>ही</span> <span>सर</span> <span>सबसे</span> <span>पहले</span> <span>क़लम</span> <span>किया</span> <span>जाता</span> <span>है।</span> <span>मेरे</span> <span>भाई</span> <span>क्रूर</span> <span>थे</span>, <span>मैं</span> <span>क्रूरतम</span> <span>हूँ</span> - <span>और</span> <span>रात</span>-<span>रात</span> <span>भर</span> <span>रोता</span> <span>हूँ</span> <span>मैं।</span><br />3. <span>पवित्र</span> <span>आचार</span> <span>संहिता</span> <span>के</span> <span>साथ</span> <span>पापों</span> <span>का</span> <span>भी</span> <span>बण्टाढार</span> <span>हो</span> <span>गया</span> <span>है।</span> <span>यहाँ</span> <span>तक</span> <span>कि</span> <span>अपनी</span> <span>बहन</span> <span>के</span> <span>साथ</span> <span>सोने</span> <span>में</span> <span>भी</span> <span>अब</span> <span>कोई</span> <span>मज़ा</span> <span>नहीं</span> <span>रहा।</span> <span>बहुतों</span> <span>के</span> <span>लिए</span> <span>हत्या</span> <span>एक</span> <span>बड़ी</span> <span>ज़हमत</span> <span>है</span>, <span>कविता</span> <span>लिखना</span> <span>बेहद</span> <span>आम।</span> <span>सारे</span> <span>रिश्तों</span> <span>की</span> <span>असुरक्षा</span> <span>के</span> <span>इस</span> <span>माहौल</span> <span>में</span> <span>बहुत</span>-<span>से</span> <span>लोग</span> <span>सच</span> <span>बोलना</span> <span>पसन्द</span> <span>करते</span> <span>हैं</span> - <span>इसके</span> <span>ख़तरों</span> <span>से</span> <span>बिलकुल</span> <span>अनजान।</span> <span>रण्डियाँ</span> <span>सर्दियों</span> <span>के</span> <span>लिए</span> <span>गोश्त</span> <span>का</span> <span>अचार</span> <span>डाल</span> <span>रही</span> <span>हैं</span> <span>और</span> <span>शैतान</span> <span>ने</span> <span>अपने</span> <span>सबसे</span> <span>वफ़ादार</span> <span>लोगों</span> <span>को</span> <span>गुहारना</span> <span>बन्द</span> <span>कर</span> <span>दिया</span> <span>है।</span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 0, 0);">ईश्वर के लिए भजन</span><br /><br />1. <span>गहरी</span> <span>अँधेरी</span> <span>घाटियों</span> <span>में</span> <span>भूखे</span> <span>लोग</span> <span>मर</span> <span>रहे</span> <span>हैं।</span> <span>तुम</span> <span>सिर्फ़</span> <span>उन्हें</span> <span>रोटी</span> <span>दिखाते</span><br /> <span>हो</span> <span>और</span> <span>मरने</span> <span>के</span> <span>लिए</span> <span>छोड़</span> <span>देते</span> <span>हो।</span> <span>तुम</span> <span>सिर्फ़</span> <span>राज</span> <span>करते</span> <span>हो</span> <span>अनन्त</span><br /> <span>अदृश्य।</span> <span>इस</span> <span>अन्तहीन</span> <span>योजना</span> <span>पर</span> <span>क्रूरता</span> <span>से</span> <span>मुस्कुराते</span> <span>हुए।</span> <br />2. <span>तुम</span> <span>नौजवानों</span> <span>को</span> <span>मरने</span> <span>देते</span> <span>हो</span> <span>और</span> <span>उनको</span> <span>भी</span> <span>जोज़िन्दगी</span> <span>का</span> <span>मज़ा</span> <span>लेते</span><br /> <span>हैं।</span> <span>लेकिन</span> <span>जो</span> <span>मरना</span> <span>चाहते</span> <span>थे</span> <span>उन्हें</span> <span>तुमने</span> <span>स्वीकार</span> <span>नहीं</span> <span>किया।</span> <span>बहुत</span><br /> <span>से</span> <span>लोग</span> <span>जा</span> <span>अब</span> <span>पड़े</span> <span>सड़</span> <span>रहे</span> <span>हैं।</span> <span>तुम</span> <span>में</span> <span>विश्वास</span> <span>करते</span> <span>थे</span><br /> <span>और</span> <span>पूरी</span> <span>तरह</span> <span>महफ़ूज़</span> <span>मरे</span> <br />3. <span>तुम</span> <span>ग़रीबों</span> <span>को</span> <span>साल</span>-<span>ब</span>-<span>साल</span> <span>गरीब</span> <span>रहने</span> <span>देते</span> <span>हो</span><br /> <span>इस</span> <span>एहसास</span> <span>के</span> <span>साथ</span> <span>कि</span> <span>उनकी</span> <span>इच्छाएँ</span> <span>तुम्हारे</span> <span>स्वर्ग</span> <span>से</span> <span>ज़्यादा</span> <span>मधुर</span> <span>हैं।</span> <br /> <span>अफ़सोस</span> <span>इससे</span> <span>पहले</span> <span>कि</span> <span>तुम</span> <span>उन</span> <span>तक</span> <span>रोशनी</span> <span>ला</span> <span>सको</span> <span>वे</span> <span>सिधार</span> <span>गये।</span><br /> <span>तो</span> <span>भी</span> <span>वे</span> <span>आनन्द</span> <span>से</span> <span>सिधारे</span> - <span>और</span> <span>तत्काल</span> <span>सड़</span> <span>गये।</span><br /> <br />4. <span>हममें</span> <span>से</span> <span>बहुत</span> <span>से</span> <span>कहते</span> <span>हैं</span> <span>तुम</span> <span>नहीं</span> <span>हो</span> -<br /> <span>और</span> <span>यही</span> <span>भला</span> <span>है</span> <span>लेकिन</span> <span>वह</span> <span>चीज़</span><br /> <span>जो</span> <span>रच</span> <span>सकती</span> <span>है</span> <span>ऐसा</span> <span>प्रपंच</span> <span>नहीं</span> <span>कैसे</span> <span>हो</span> <span>सकती।</span><br /> <span>अगर</span> <span>इतना</span> <span>कुछ</span> <span>तुम्हारे</span> <span>सहारे</span> <span>ज़िन्दा</span> <span>है</span><br /> <span>और</span> <span>मर</span> <span>नहीं</span> <span>सकता</span> <span>तुम्हारे</span> <span>बिना</span> <span>तो</span><br /> <span>बताओ</span> <span>ज़रा</span> <span>इससे</span> <span>क्या</span> <span>फ़र्क</span><br /> <span>पड़ता</span> <span>है</span> <span>कि</span> <span>तुम</span> <span>नहीं</span> <span>हो</span> ?<br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 0, 0);">माँ के लिए</span><br /><br /><span>और</span> <span>जब</span> <span>वह</span> <span>ख़त्म</span> <span>हो</span> <span>गयी</span> <span>उन्होंने</span> <span>दफ़्न</span> <span>कर</span> <span>दिया</span> <span>उसे</span><br /><span>फूल</span> <span>उगते</span> <span>रहे</span> <span>उसके</span> <span>ऊपर</span>, <span>तितलियाँ</span> <span>मँडराती</span> <span>रहीं</span> <span>उस</span> <span>पर</span><br /><span>इतनी</span> <span>हल्की</span> <span>थी</span> <span>वह</span>, <span>मुश्किल</span> <span>से</span> <span>दबा</span> <span>पायी</span> <span>धरती</span> <span>को</span><br /><span>कितनी</span> <span>तकलीफ़ों</span> <span>से</span> <span>गुज़र</span> <span>कर</span> <span>हुई</span> <span>होगी</span> <span>वह</span> <span>इतनी</span> <span>हल्की।</span><br /><br /><span style="font-weight: bold; color: rgb(153, 0, 0);">बेचारे बी.बी. के बारे में</span><br /><br /> <br /><span>मैं</span>, <span>बर्टोल्ट</span> <span>ब्रेख़्ट</span>, <span>काले</span> <span>जंगलों</span> <span>से</span> <span>आया।</span><br /><br /><span>मेरी</span> <span>माँ</span> <span>मुझे</span> <span>शहरों</span> <span>में</span> <span>लायी</span> <span>जब</span> <span>मैं</span> <span>उसके</span> <span>देह</span> <span>के</span> <span>भीतर</span> <span>था</span><br /><span>और</span> <span>मरते</span> <span>दम</span> <span>तक</span> <span>मेरी</span> <span>भीतर</span> <span>रहेगी</span> <span>जंगलों</span> <span>की</span> <span>ठण्ड।</span><br /> <br /><span>डामर</span> <span>की</span> <span>सड़कों</span> <span>वाले</span> <span>शहर</span> <span>मेरा</span> <span>ठिकाना</span> <span>हैं</span> <span>शुरू</span> <span>ही</span><br /><span>से</span> <span>उन्होंने</span> <span>मुझे</span> <span>हर</span> <span>अन्तिम</span> <span>संस्कार</span> <span>प्रदान</span><br /><span>किया</span> - <span>अख़बार</span> <span>और</span> <span>तम्बाकू</span> <span>और</span> <span>शराब</span><br /><br /><span>अन्त</span> <span>तक</span> <span>शक्की</span>, <span>काहिल</span> <span>और</span> <span>सन्तुष्ट</span><br /><span>लोगों</span> <span>से</span> <span>शिष्टता</span> <span>और</span> <span>दोस्ती</span> <span>से</span> <span>पेश</span> <span>आता</span> <span>हूँ</span> <span>मैं</span> <span>पहनता</span> <span>हूँ</span> <span>टोप</span><br /><span>क्योंकि</span> <span>ऐसा</span> <span>ही</span> <span>करते</span> <span>हैं</span> <span>वे</span> <span>भी</span><br /><span>वे</span> <span>जानवर</span> <span>हैं</span> <span>एक</span> <span>ख़ास</span> <span>गन्ध</span> <span>वाले</span><br /><span>मैं</span> <span>कहता</span> <span>हूँ</span><br /><span>तो</span> <span>क्या</span> <span>हुआ</span> ? <span>मैं</span> <span>यह</span> <span>भी</span> <span>कहता</span> <span>हूँ</span><br /><span>मैं</span> <span>भी</span> <span>तो</span> <span>हूँ।</span><br /><br /><span>कभी</span>-<span>कभी</span> <span>दोपहर</span> <span>से</span> <span>पहले</span> <span>मैं</span><br /><span>अपनी</span> <span>ख़ाली</span> <span>झूलने</span> <span>वाली</span> <span>कुर्सियों</span> <span>पर</span><br /><span>बैठा</span> <span>देता</span> <span>हूँ</span> <span>एक</span> <span>या</span> <span>दो</span> <span>औरतें</span> <span>और</span> <span>फिर</span><br /><span>लापरवाही</span> <span>से</span> <span>उन</span> <span>पर</span> <span>नज़र</span> <span>डाल</span> <span>कहता</span><br /><span>हूँ</span> <span>मैं</span> <span>वो</span> <span>शख़्स</span> <span>हूँ</span> <span>जिस</span> <span>पर</span> <span>तुम</span> <span>भरोसा</span> <span>नहीं</span> <span>कर</span> <span>सकतीं।</span><br /><br /><span>शाम</span> <span>होते</span>-<span>होते</span> <span>मैं</span> <span>इकट्ठा</span> <span>कर</span> <span>लेता</span><br /><span>हूँ</span> <span>कुछ</span> <span>पुरुष</span> <span>अपने</span> <span>गिर्द</span><br /><span>हम</span> <span>एक</span>-<span>दूसरे</span> <span>को</span> <span>कहते</span> <span>हैं</span> <span>महाशय</span><br /><span>मेरी</span> <span>मेज़</span> <span>पर</span> <span>टाँगें</span> <span>फैला</span> <span>कर</span> <span>वे</span><br /><span>कहते</span> <span>हैं</span> <span>चीज़ें</span> <span>बेहतर</span> <span>होंगी</span> <span>हमारे</span> <span>लिए</span><br /><span>मैं</span> <span>नहीं</span> <span>पूछता</span> <span>कब</span> ?<br /><br /><span>सुबह</span>-<span>सबेरे</span> <span>भोर</span> <span>के</span><br /><span>सलेटी</span> <span>धुंधलके</span> <span>में</span> <span>मूतते</span> <span>हैं</span> <span>चीड़</span> <span>के</span> <span>पेड़</span> <span>और</span> <span>उनके</span> <span>कीड़े</span>,<br /><span>यानी</span> <span>चिड़ियाँ</span>, <span>चहचहा</span> <span>कर</span> <span>गुलगुपाड़ा</span> <span>मचाने</span> <span>लगती</span> <span>हैं</span><br /><span>उस</span> <span>समय</span> <span>शहर</span> <span>में</span> <span>अपना</span> <span>गिलास</span> <span>ख़ाली</span> <span>करता</span> <span>हूँ</span> <span>मैं</span><br /><span>फिर</span> <span>फेंक</span> <span>देता</span> <span>हूँ</span> <span>सिगार</span> <span>का</span> <span>टोटा</span> <span>और</span> <span>चिन्ता</span> <span>में</span> <span>डूबा</span> <span>सोने</span> <span>जाता</span> <span>हूँ।</span><br /><br /><span>हम</span> <span>एक</span> <span>आरामतलब</span> <span>पीढ़ी</span> <span>के</span> <span>लोग</span><br /><span>रहते</span> <span>आये</span> <span>हैं</span> <span>ऐसे</span> <span>घरों</span> <span>में</span><br /><span>जिनके</span> <span>बारे</span> <span>में</span> <span>ख़याल</span> <span>था</span> <span>कि</span> <span>वे</span> <span>तबाह</span> <span>नहीं</span> <span>किये</span> <span>जा</span> <span>सकते</span><br />( <span>इसी</span> <span>तरह</span> <span>बनाये</span> <span>हमने</span> : <span>मैनहैटन</span> <span>आइलैण्ड</span> <span>के</span> <span>ऊँचे</span> <span>डिब्बे</span><br /><span>और</span> <span>अतलान्तिक</span> <span>महासागर</span> <span>की</span> <span>लहरों</span> <span>का</span> <span>मनोरंजन</span> <span>करने</span> <span>वाले</span> <span>एण्टेना</span>)<br /><br /><span>उन</span> <span>शहरों</span> <span>में</span> <span>बस</span> <span>बचेगा</span> <span>वही</span> <span>जो</span><br /><span>उनसे</span> <span>हो</span> <span>कर</span> <span>गुज़रा</span> <span>यानी</span> <span>तूफ़ान।</span><br /><span>घर</span> <span>ख़ुशी</span> <span>देता</span> <span>है</span> <span>खाने</span> <span>पर</span> <span>आये</span> <span>मेहमान</span> <span>को</span><br /><span>जो</span> <span>उसकी</span> <span>सफ़ाई</span> <span>कर</span> <span>जाता</span> <span>है</span><br /><br /><span>हम</span> <span>जानते</span> <span>हैं</span> <span>हम</span> <span>सिर्फ़</span> <span>किरायेदार</span> <span>हैं</span>, <span>कुछ</span> <span>देर</span> <span>के</span>,<br /><span>और</span> <span>हमारे</span> <span>बाद</span> <span>ऐसा</span> <span>कुछ</span> <span>नहीं</span> <span>आयेगा</span> <span>जो</span> <span>चर्चा</span> <span>के</span> <span>क़ाबिल</span> <span>हो।</span><br /><br /><span>उन</span> <span>भूकम्पों</span> <span>में</span> <span>जो</span> <span>आने</span> <span>वाले</span> <span>हैं</span><br /><span>मुझे</span> <span>पूरी</span> <span>उम्मीद</span> <span>है</span> <span>मैं</span> <span>अपने</span> <span>सिगार</span> <span>को</span> <span>बुझने</span> <span>नहीं</span> <span>दूँगा</span><br /><span>भले</span> <span>ही</span> <span>मुझ</span> <span>में</span> <span>कड़वाहट</span> <span>भर</span> <span>गयी</span> <span>हो</span> <span>या</span> <span>नहीं</span><br /><br /><span>मैं</span>, <span>बर्टोल्ट</span> <span>ब्रेख़्ट</span>, <span>जो</span> <span>अर्सा</span> <span>पहले</span> <span>अपनी</span> <span>माँ</span> <span>के</span> <span>भीतर</span> <span>काले</span> <span>जंगलों</span> <span>में</span><br /><span>डामर</span> <span>की</span> <span>सड़कों</span> <span>वाले</span> <span>शहरों</span> <span>में</span> <span>लाया</span> <span>गया</span> <span>था।</span><br /><br />_______________________________________________________<br /><br /><span>बावेरिया</span>, <span>जर्मनी</span> <span>में</span> <span>जन्मे</span> <span>बर्टोल्ट</span> <span>ब्रेख़्ट</span> (10 <span>फ़रवरी</span> 1898-14 <span>अगस्त</span> 1956)<span>बीसवीं</span> <span>सदी</span> <span>के</span> <span>उन</span> <span>साहित्यकारों</span> <span>में</span> <span>हैं</span> <span>जिन्होंने</span> <span>पूरी</span> <span>दुनिया</span> <span>पर</span> <span>अपना</span> <span>असर</span> <span>छोड़ा</span> <span>है</span>. <span>वे</span> <span>नाटककार</span>, <span>कवि</span> <span>और</span> <span>नाट्य</span>-<span>निर्देशक</span> <span>थे</span>. <span>पूर्वी</span> <span>और</span> <span>हिन्दुस्तानी</span> <span>परम्पराओं</span> <span>से</span> <span>प्रेरणा</span> <span>ले</span> <span>कर</span> <span>उन्होंने</span> <span>समूचे</span> <span>नाट्य</span>-<span>कर्म</span> <span>को</span> <span>अपनी</span> <span>नयी</span> <span>शैली</span> <span>से</span> <span>प्रभावित</span> <span>किया</span>. <span>बीस</span>-<span>बाईस</span> <span>साल</span> <span>की</span> <span>उमर</span> <span>से</span> <span>वे</span> <span>एक</span> <span>प्रतिबद्ध</span> <span>मार्क्सवादी</span> <span>बन</span> <span>गये</span> <span>और</span> <span>जीवन</span> <span>भर</span> <span>रहे</span>. <span>उन्होंने</span> <span>दो</span>-<span>दो</span> <span>महा</span> <span>युद्धों</span> <span>की</span> <span>विभीषिका</span> <span>नज़दीक</span> <span>से</span> <span>देखी</span> <span>थी</span> <span>और</span> <span>हिट्लर</span> <span>और</span> <span>उसकी</span> <span>नात्सी</span> <span>पार्टी</span> <span>की</span> <span>हिट</span>-<span>लिस्ट</span> <span>में</span> <span>रहे</span> <span>जिसकी</span> <span>वजह</span> <span>से</span> <span>उन्हें</span> <span>दस</span> <span>साल</span> <span>से</span> <span>ज़्यादा</span> <span>की</span> <span>जलावतनी</span> <span>से</span> <span>गुज़रना</span> <span>पड़ा</span>. <span>ब्रेख़्ट</span> <span>कहते</span> <span>थे</span> <span>कि</span> <span>वे</span> <span>कविताएं</span> <span>प्रकाशित</span> <span>करने</span> <span>के</span> <span>लिए</span> <span>नहीं</span>, <span>बल्कि</span> <span>अपने</span> <span>नाटकों</span> <span>को</span> <span>और</span> <span>बेहतर</span> <span>बनाने</span> <span>के</span> <span>लिए</span> <span>लिखते</span> <span>थे</span>. <span>लेकिन</span> <span>उनका</span> <span>काव्य</span> <span>भण्डार</span> <span>जिसमें</span> 500 <span>से</span> <span>ज़्यादा</span> <span>कविताएं</span> <span>हैं</span> <span>बज़ातेख़ुद</span> <span>एक</span> <span>अहमियत</span> <span>रखता</span> <span>है</span>. <span>इसके</span> <span>अलावा</span> <span>उन्होंने</span> <span>उपन्यास</span> <span>और</span> <span>कुछ</span> <span>कहानियां</span> <span>भी</span> <span>लिखी</span> <span>हैं</span> <span>और</span> <span>नाट्य</span> <span>प्रस्तुतियों</span> <span>पर</span> <span>वैचारिक</span> <span>लेख</span> <span>भी</span>Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3780821805422068162.post-88774286488646298552010-12-22T03:32:00.000-08:002010-12-22T03:33:14.309-08:00देशान्तरआज से हम देश-विदेश के जाने-माने कवियों की रचनाओं के अनुवाद पेश करने जा रहे हैं. हर बार हमारी कोशिश होगी कि एक नये कवि से आप का परिचय करायें, साथ ही उस का संक्षिप्त परिचय भी दें.<br /><br />आज के कवि : निकानोर पार्रा<br /><br />युवा कवि<br /><br />चाहे जैसा लिखो,<br />जो भी शैली तुम्हें पसन्द हो, अपना लो<br />बहुत ज़्यादा ख़ून बह चुका है<br />पुल के नीचे से<br />यह मानते रहने के लिए<br />कि सिर्फ़ एक ही रास्ता सही है<br />कविता में हर बात की इजाज़त है<br />शर्त बस यही है<br />तुम्हें बेहतर बनाना है कोरे पन्ने को<br /><br />नामों का परिवर्तन<br /><br />साहित्य-प्रेमियों को<br />मैं अपनी हार्दिक शुभकामनाएँ देता हूँ।<br />मैं कुछ चीज़ों के नाम बदलने जा रहा हूँ।<br />मेरी मान्यता यह है :<br />कवि अपने क़ौल का सच्चा नहीं<br />अगर वह चीज़ों के नाम नहीं बदलता।<br /><br />क्या कारण है कि सूरज को<br />हमेशा सूरज ही कहा जाता रहा है ?<br />मैं कहता हूँ कि उसे<br />एक डग में चालीस कोस नापते जूतों वाली<br />बिल्ली कहा जाय।<br /><br />मेरे जूते ताबूतों जैसे लगते हैं ?<br />तो जान लीजिए कि आज के बाद<br />जूतों को ताबूत कहा जायेगा।<br /><br />बता दीजिए, सूचित कर दीजिए,<br />प्रकाशित कर दीजिए इसे -<br />कि जूतों का नाम बदल दिया गया है :<br />अब से उन्हें ताबूत कहा जायेगा।<br /><br />ख़ैर, रात तो ख़ासी लम्बी है।<br />अपना सम्मान करने वाले हर मूर्ख के पास<br />उसका एक अपना शब्द-कोश तो होना ही चाहिए<br /><br />और इससे पहले कि मैं भूल जाऊँ<br />ईश्वर को भी तो अपना नाम बदलवाना पड़ेगा<br />हर कोई उसे जो नाम देना चाहे दे दे<br />यह एक निजी समस्या है।<br /><br />रोलर कोस्टर<br /><br />आधी सदी तक<br />कविता<br />गम्भीर मूर्खों का स्वर्ग थी<br />जब तक कि मैंने आ कर<br />अपना रोलर कोस्टर नहीं बनाया<br />सवार हो जाओ अगर तुम्हारा जी चाहे<br />लेकिन अगर तुम नाक और मुंह<br />फोड़वा कर उतरो<br />तो मेरी ज़िम्मेदारी नहीं है<br /><br />मेरा प्रस्ताव है कि बैठक स्थगित कर दी जाय<br /><br />देवियो और सज्जनो<br />मेरे पास सिर्फ़ एक सवाल है:<br />क्या हम सूर्य की सन्तान हैं या धरती की ?<br />क्योंकि अगर हम केवल धरती हैं<br />तो मुझे इस फ़िल्म की शूटिंग<br />जारी रखने में कोई तुक नहीं नज़र आता।<br />मेरा प्रस्ताव है कि बैठक स्थगित कर दी जाय।<br /><br />रस्में<br /><br />हर बार<br />जब मैं लौटता हूँ अपने देश<br />लम्बी यात्राओं के बाद<br />सबसे पहले मैं<br />उन लोगों के बारे में पूछता हूँ<br />जो दिवंगत हो गये हैं:<br /><br />महज़ मौत की सरल-सी क्रिया से<br />सभी लोग नायक हैं<br />और नायक ही हमारे शिक्षक हैं<br /><br />फिर मैं पूछता हूँ<br />घायलों के बारे में।<br />इसके बाद ही,<br />जब यह छोटी-सी रस्म पूरी हो जाती है<br />मैं माँग करता हूँ जीवन के अपने अधिकार की :<br /><br />खाता हूँ, पीता हूँ, आराम करता हूँ<br />आँखें मूँदता हूँ ताकि और भी साफ़ देख सकूं<br />और गाता हूँ मैं विद्वेष-भरे स्वर में<br />इस सदी के आरम्भिक दिनों का कोई गीत<br /><br />अधूरा प्रेमी<br /><br />एक नव विवाहित जोड़ा<br />आ कर रुकता है एक क़ब्र के पास<br />वधू मातमी सफ़ेद लिबास में लिपटी है<br />उनके देखे बिना उन पर नज़र रखने के लिए<br />मैं एक खम्भे के पीछे छिप जाता हूँ<br />गहरी उदासी में डूब कर जब वधू<br />अपने पिता की कब्र से घास साफ़ करती है<br />उसका अधूरा प्रेमी बड़ी तन्मयता से<br />पत्रिका पढ़ता रहता है<br /><br />घड़ियाँ<br /><br />सान्तियागो, चिली में<br />दिन बेहद लम्बे होते हैं :<br />एक दिन में अनेक सदियाँ<br />खच्चरों पर सवार<br />सागर-सिवार के फेरी वालों की तरह<br />तुम उबासी लेते हो -<br />फिर-फिर उबासी लेते हो<br /><br />लेकिन हफ़्ते बहुत छोटे होते हैं<br />महीने सरपट गुज़रते हैं<br />और वर्षों ने तो जैसे पंख उगा लिये हैं<br /><br />कविता मेरे साथ ख़त्म होती है<br /><br />मैं किसी चीज़ को ख़त्म नहीं कर रहा<br />मुझे इस बारे में कोई भ्रम नहीं है<br />मैं कविताएँ रचते रहना चाहता था<br />लेकिन प्रेरणा ही चुक गयी।<br /><br />कविता पूरी तरह खरी उतरी<br />मेरा ही चाल-चलन बहुत ख़राब रहा<br /><br />यह कहने से मुझे क्या फ़ायदा है<br />कि मैं खरा उतरा<br />और कविता ने बुरा आचरण किया<br />जब सभी जानते हैं दोष मेरा है ?<br />मूर्ख बस इसी लायक होता है<br />कविता पूरी तरह खरी उतरी है<br />मैंने ही बहुत बुरा आचरण किया<br />कविता मेरे साथ ख़त्म होती है।<br /><br />अनजान औरत को लिखे गये पत्र<br /><br />जब बरसों बीत जायें, जब कई साल<br />बीत जायें और हवा<br />तुम्हारी और मेरी आत्मा के बीच<br />खाई खोद चुकी हो, जब कई बरस<br />गुज़र जायें और मैं<br />महज़ वह आदमी रह जाऊँ<br />जिसने प्यार किया,<br />जो केवल एक क्षण के लिए<br />तुम्हारे होंटों पर टिका,<br />वह बेचारा आदमी<br />जो बाग़ों में टहलते-टहलते<br />थक गया हो<br />जब तुम कहाँ होगी ?<br />कहाँ होगी तुम<br />ओ मेरे चुम्बनों की बेटी।<br /><br />_____________________________________<br /><br />निकानोर पार्रा सान्दोवाल का जन्म 5 सितम्बर 1914 को चीले (दक्षिण अमरीका) के शहर चिलैन के पास सान फ़ैबिअन दे अलीचो नामक स्थान में हुआ. वे कवि के साथ-साथ गणितज्ञ भी हैं. लातीनी अमरीका में वे बहुत प्रसिद्ध हैं और जाने-माने काव्य आन्दोलन "ऐण्टी पोएट्री" के जनक हैं जिसका आधुनिक लातीनी अमरीकी ही नहीं, अमरीकी और यूरोपीय कविता पर गहरा असर पड़ा है. उनकी कविता का सारा उद्देश्य व्यर्थ के अलन्करणों से कविता को मुक्त करके पाठक को सम्बोधित करना है, जिसका मतलब है कि उनकी कविता अधिक देसी प्रभावों से युक्त है. उनका पहला ही कविता संग्रह "पोएमास ई ऐण्टीपोएमास" अब लातीनी अमरीकी साहित्य का एक गौरव ग्रन्थ बन चुका है.Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3780821805422068162.post-10957067300661984712010-12-20T06:24:00.000-08:002010-12-20T06:25:05.123-08:00कई दिनों के नागे के बादकई दिनों के नागे के बाद एक बार फिर आप से मुख़ातिब हूं. सिर्फ़ इतना सूचित करने के लिए कि बहुत जल्द - शायद एक-दो दिन में मैं विश्व के कुछ जाने-माने कवियों की रचनाएं पेश करूंगा. और यह क्रम बराबर चलता रहेगा. रोज़ एक या दो कविताएं आपकी नज़र होंगी. उम्मीद है कि आप सब उन्हें पढ़ेंगे और वे आप को पसन्द आएंगी. इन कवियों में निकानोर पार्रा, पाब्लो नेरूदा, बर्टोल्ट ब्रेख़्ट, जीवनानन्द दास, सुकान्त भट्टाचार्य, तादेयूश रोज़ेविच, वाल्ट ह्विट्मैन, अतिया जोज़ेफ़, एज़रा पाउण्ड, ली पो और ऐसे ही अनेक कवि होंगे. और यह कहने की बात नहीं कि ये अनुवाद मेरी वर्षों की मेहनत का नतीजा हैं. अपनी प्रतिक्रिया ज़रूर दीजिएगाNeelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3780821805422068162.post-56445437852357457712010-12-01T03:07:00.000-08:002010-12-01T03:12:21.920-08:00फ़तवे नहीं, सन्तुलित नज़रिया चाहिए, आनन्द प्रकाश जीकिन्तु युग बदला व आया कीर्ति-व्यवसायी<br />लाभकारी कार्य में से धन,<br />व धन में से हृदय-मन,<br />और, धन-अभिभूत अन्त:करण में से<br />सत्य की झाईं<br />निरन्तर चिलचिलाती थी.<br /><br />आत्मचेतस किन्तु इस<br />व्यक्तित्व में थी प्राणमय अनबन...<br />विश्वचेतस बे-बनाव !!<br />महत्ता के चरण में था<br />विषादाकुल मन !<br /><br />-मुक्तिबोध : ब्रह्मराक्षस<br /><br />कुछ दिन पहले वरिष्ठ लेखक और शिक्षक आनन्द प्रकाश ने दो हिस्सों में लिखे गये अपने एक लेख में हिन्दी साहित्य की मौजूदा हालत का एक जायज़ा लेते हुए कुछ सवाल उठाये हैं, कुछ विचार प्रकट किये हैं और कुछ टिप्पणियां की हैं. आनन्द प्रकाश के लेख के इन दोनों हिस्सों पर एक टिप्पणी करते हुए युवा कवि अच्युतानन्द मिश्र ने अपनी तरफ़ से हिन्दी साहित्य की वर्तमान स्थिति का लेखा-जोखा पेश किया है और इस के कुछ कारणों पर प्रकाश डाला है. अगर सरसरी नज़र से इन लेखों-टिप्पणियों को देखा जाये तो इनमें कही गयी बहुत-सी बातों से इनकार नहीं किया जा सकता. कहा जाये कि अपने समग्र रूप में दोनों लेख उस विराट गड़्बड़ी की सैर-बीनी तस्वीर पेश करते हैं जिसे हम "आज का सांस्कृतिक संकट" के नाम से परिभाषित कर सकते हैं. यही नहीं, मोटे तौर पर यह तस्वीर काफ़ी हद तक सच्चाई से और गम्भीरता से अंकित करने की भी कोशिश आनन्द प्रकाश और अच्युतानन्द ने की है.<br /><br /> लेकिन अगर ज़रा गहरे में जा कर आनन्द प्रकाश के लेखों की छान-बीन करें तो जो सबसे पहली बात खटकती हैं वह इन लेखों का सर्वथा नकारवादी, फ़तवेबाज़ी से भरा रवैया है जो एक दूसरे क़िस्म की वैचारिक शून्यता और अवैज्ञानिक दृष्टिकोण की चुग़ली खाता है. उन्हें शिकायत है कि --"समकालीन हिंदी लेखन, जिससे मेरी मुराद पिछली सदी के अंतिम दो दशकों के लेखन से है, सीधे-सीधे चिन्तन-विरोधी है। वह न केवल वर्तमान दौर या पिछले वक्त को समझने में यकीन नहीं रखता,बल्कि स्पष्ट रूप से समझने की क्रिया को ही अनुचित और गैरजरूरी मानता है।"<br /> क्या सचमुच एक पूरे दौर के सारे लेखन पर इस तरह हैंगा फेर देना किसी मुनासिब (और वैज्ञानिक, मार्क्सवादी) नज़रिये की उपज कहा जा सकता है ? वरिष्ठ लेखक और शिक्षक होने के नाते आनन्द प्रकाश ज़रूर इस बात से वाक़िफ़ होंगे कि किसी भी दौर में दो तरह की प्रवृत्तियां काम करती हैं. एक -- जो सत्ता और, आनन्द प्रकाश ही के शब्दों में कहूं तो, "अधिकार-तन्त्र" की पिछलगुआ और समर्थक होती है और एवज़ में उससे पोषित-पुरस्कृत होती है. दूसरी -- जो सत्ता और अधिकार-तन्त्र का विरोध करती है या उससे उदासीन रह कर अपना काम करती है. यह कोई आज के दौर का संकट नहीं है. "सन्तन को कहा सीकरी सौं काम" की उक्ति 70 या उससे पहले के किसी दशक के कवि की नहीं, बल्कि कई सौ साल पहले की है. यह खेद की बात है कि आनन्द प्रकाश ने इन दो प्रवृत्तियों के सन्दर्भ में मौजूदा संकट की छान-बीन करने और सत्ता और अधिकार-तन्त्र के उत्सवी शोर-शराबे के नीचे दबे सच्चे जनवादी सरोकारों को व्यक्त करने वाली रचनाधर्मिता की शिनाख़्त करने और उसे सामने लाने का वह दायित्व नहीं निभाया जो उनकी चिन्ताओं के सन्दर्भ में उनसे अपेक्षित था.<br /> इस एकांगी दृष्टिकोण का परिणाम यह हुआ है कि उनका लेख भी किसी हद तक वैसी ही सतही बहसों को बढ़ाता जान पड़ता है जैसी हाल के दिनों में हिन्दी के साहित्यिक जगत में कसरत से नज़र आती रही हैं. कहीं किसी अकादेमी में किसी नियुक्ति को ले कर, किसी पुरस्कार के दिये या न दिये जाने को ले कर, किसी अधिकार-सम्पन्न साहित्यकार की अभद्र टिप्पणियों को ले कर या फिर किसी वरिष्ठ कवि द्वारा ढेर सारे निस्बतन युवा कवियों पर एक सिरे से दूसरे सिरे तक कुठाराघात करने को ले कर या फिर अब ताज़ा मामले में आनन्द प्रकाश द्वारा नकारवादी (निहिलिस्ट) शैली में लगभग 25-30 वर्षों की समूची रचनात्मकता को पूरी तरह ख्ज़ारिज करके. आनन्द प्रकाश ने बजाय किसी सार्थक बहस को शुरू करने, मौजूदा दौर में चल रही टकराहट को साफ़ तौर पर पहचान कर सामने लाने और एक नज़ीर पेश करने की जगह आरोपों की झड़ी लगा कर एक शिकायतनामा पेश किया है और असली सवाल से कन्नी काट ली है.<br /> इसमें कोई शक नहीं है कि संकट बढा है पर इसी के बीच सही स्वर भी मौजूद हैं. नब्बे के जिस दशक को आनन्द प्रकाश ने एक सिरे से ख़ारिज कर दिया है उसी के आरम्भ में एक युवा कवि ने "नागरिक व्यथा" जैसी कविता लिख कर संकट की पहचान करायी थी. और संकट की पहचान कराना भी उस संकट के विरुद्ध मोर्चेबन्दी में शामिल होना है. क्या आनन्द प्रकाश ने यह कविता पढ़ी है ? नहीं पढ़ी तो वे अब एकान्त श्रीवास्तव का पहला संग्रह हासिल करके पढ़ लें. और केवल एकान्त श्रीवास्तव ही का संग्रह क्यों, जिन दशकों को उन्होंने अपने लेख में कटघरे में खड़ा किया है उन की अच्छी तरह छान-बीन करके उनकी रचनाओं का मूल्यांकन वैसी ही कसौटी के आधार पर करें जिसे मुक्तिबोध ने "ज्ञानात्मक सम्वेदन और सम्वेदनात्मक ज्ञान" की कसौटी कहा है. फ़िलहाल तो आनन्द प्रकाश ने कुछ बनी-बनायी धारणाओं के आधार पर प्रवृत्तियों और मौडलों की बात की है. इसीलिए वे अपने लेख के दूसरे हिस्से में एक और फ़तवा देते हुए कहते हैं, "रचनाकार को मालूम ही नहीं है कि वर्तमान माहौल में सामाजिक गैर-बराबरी, अशिक्षा, नारी-शोषण, बेकारी, दलितों का उत्पीड़न, गरीबी और सांस्कृतिक पतनशीलता निरंतर बढ़ रहे हैं।"<br /> क्या सचमुच सभी रचनाकारों के सिलसिले में निर्विवाद रूप से ऐसा कहा जा सकता है ?<br /> इन्हीं फ़तवेबाज़ियों की वजह से आनन्द प्रकाश वैचारिकता की तमाम तवक़्क़ो रखने के बावजूद मौजूदा संकट को सिर्फ़ रचनाकारों के अन्दर से हल करने की उम्मीद लगाते हैं. मानो वैचारिकता से लैस और पुरस्कारों से विमुख होते और सुविधाओं से किनारा करते ही सारी समस्याएं आप-से-आप हल हो जायेंगी. वरिष्ठ चिन्तक होने के नाते वे ज़रूर यह जानते होंगे कि साहित्यिक प्रवृत्तियों और साहित्यकारों के आचरण का सम्बन्ध जिस हद तक उनके अन्दर से होता है, उतना ही उनके बाहर की स्थितियों में भी होता है. प्लेखानोव ने "कला और सामाजिक जीवन" में बड़े विस्तार से सामाजिक परिस्थितियों और कलात्मक उद्यम के आपसी सम्बन्ध को व्याख्यायित-विश्लेषित किया है और बड़ी बारीक़बीनी से फ़्रांसीसी क्रान्ति के उत्थान-पतन के सन्दर्भ में बौदलेयर जैसे कथित रूप से "पतनशील" लेखक की जनवादिता को, भले ही उसका आयुष्य कम था, चिह्नित किया है. ज़ाहिर है कि बहुत हद तक लेखक भी समाज ही का हिस्सा होता है और प्लेखानोव के शब्दों में कहें तो अगर वह एक दौर में "कला के लिए कला" की बजाय "कला के उपयोगितावादी नज़रिये" को मानने लगता है या दूसरे दौर में इसकी उलटी दिशा अख़्तियार करता है तो इसके पीछे कुछ ठोस सामाजिक कारण होते हैं.<br /> आनन्द प्रकाश के लेख की एक बड़ी कमज़ोरी यह भी है कि उन्हों ने एक बहुत विस्तृत और उलझे हुए विषय को अनेक प्रकार के सरलीकरणों द्वारा विश्लेषित करने की कोशिश की है. इसीलिए उनके लेख में कुछ अन्तर्विरोध भी चले आये हैं. पहला तो यह कि उन्होंने 70 के दशक तक के 60-70 वर्षों का एक काल-खण्ड बनाया है और बाक़ी 25-30 वर्षों का एक. जबकि बीसवीं सदी के अनेक दौर हैं और उनकी चुनौतियां और संकट भी अलग-अलग हैं. दूसरी बात यह है कि उन्हों ने मौडलों के सिलसिले में भी अजीब जोड़े बनाये हैं. प्रेमचन्द और महावीरप्रसाद द्विवेदी तो चलो एक खण्ड में रख भी लिये जायें लेकिन निराला और मुक्तिबोध को एक ही तरह का मौडल बताना मेरे खयाल में ठीक नहीं है. शीत युद्ध का प्रभावी असर मुक्तिबोध की स्वीकृति पर ज़रूर पड़ा था मगर निराला उसके ज़ेरे-असर नहीं थे. दरअसल यह मौडलों की चर्चा ही बेमानी है. हर कालखण्ड में दो या उससे अधिक मौडल भी हो सकते हैं, दो तो यक़ीनन होते ही हैं -- एक सत्ता और अधिकार-तन्त्र का मौडल और दूसरा जन-पक्षी मौडल. किसी भी दौर का जायज़ा लेते हुए इन दोनों को आमने-सामने रख कर ही बात हो सकती है. बल्कि मेरी नज़र में मौडलों की जगह प्रवृत्तियों के सन्दर्भ में बात करना ज़्यादा मुनासिब है क्योंकि कोई भी रचनाकार मोनोलिथिक क़िस्म का नहीं होता. अलग-अलग चरणों में उसकी रचनात्मकता अलग-अलग रूप ले सकती है. अज्ञेय और नयी कविता के प्रभाव से रघुवीर सहाय और सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, दोनों ही निकल कर आये थे. लेकिन रघुवीर सहाय ने, जिन्होंने पहले के दौर में लिखा था "दुनिया एक बजबजाई हुई चीज़ हो गयी है," आगे चल कर "मेरा प्रतिनिधि" और "रामदास" जैसी कविताएं लिखीं, लेकिन वहीं तक महदूद रह जाने के कारण वे बुर्जुआ लोकतन्त्र के प्रतिपक्ष तक ही सीमित रह गये; जबकि सर्वेश्वर ने, जो "साम्यवाद और पूंजीवाद मैं दोनों पर थूकता हूं लिख चुके थे, समय के बदलते ही नक्सलवादी आन्दोलन के नज़दीक चले गये और उन्होंने "कुआनो नदी" और "किश्टा और भूमैय्या" जैसी परिवर्तनकामी कविताएं लिखीं. तो क्या हम इस परिवर्तन पर ग्ज़ौर किये बिना ही उनका मूल्यांकन करेंगे ? <br /> दूसरा अन्तर्विरोध यह है कि आनन्द प्रकाश यह भी नज़रन्दाज़ कर गये हैं कि एक ही लेखक के अन्दर अन्तर्विरोध भी हो सकते हैं और उस लेखक की चर्चा करते हुए इन अन्तर्विरोधों की चर्चा न करने से ही वह प्रतिमा निर्माण की प्रवृत्ति उभरती है जो अन्तत: रचनाशीलता को नुक़सान पहुंचाती है. एक मिसाल देना चाहूंगा. निराला एक ओर तो "वन बेला" और महगू महगा रहा जैसी कविताएं लिखते हैं, दूसरी ओर जवाहरलाल नेहरू से इतने मुग्ध हैं कि लगातार उनसे संवाद करने की कोशिश करते रहते हैं. एक ओर वे "जल्द जल्द पैर बढ़ाओ आओ आओ" जैसी कविता लिखते हैं दूसरी ओर "शिवाजी का पत्र" नामक कविता में देश के "झुकाव" के "जातिगत" होने और "एक ओर हिन्दू एक ओर मुसलमान" के होने की कामना व्यक्त करते हैं. आर.एस, पण्डित की मृत्यु पर तो निराला कविता लिखते हैं पर अपने समय की -- और आज तक की भी -- सबसे प्रखर जनवादी धारा -- भगत सिंह और आज़ाद की क्रान्तिकारी धारा -- पर एक अजीब ख़ामोशी उनके साहित्य में दिखती है. मैं निराला के महत्व को ज़रा भी कम कर के आंकने का हामी नहीं हूं. सिर्फ़ बुत-परस्ती की उस रवायत का विरोधी हूं जो मौजूदा संकट का एक प्रमुख कारण है और जिसे मौडलों की चर्चा करके आनन्द प्रकाश पुष्ट करते जान पड़ते हैं. अगर शुरू ही से हिन्दी में यह प्रतिमा निर्माण न होता तो शायद हिन्दी के लेखक "बड़े अग्रजों" के कृपाकांक्षी होने के चक्कर में अपने जनों से इतना दूर न चले गये होते. <br /> इससे यह न समझा जाये कि मैं उन लेखकों की ओर से कोई सफ़ाई पेश करने की कोशिश कर रहा हूं जो सत्ता और अधिकार-तन्त्र के मुखापेक्षी हैं और अपनी जनता और वास्तविक समस्याओं से विमुख हो कर विचारशून्यता के उत्सव में जुटे हुए हैं. मैंने खुद अपने हाल के एक लेख में इन्हीं बातों का ज़िक्र करते हुए लिखा था -- "वे कौन-से कारण हैं जिनसे इस तरह का छिछोरा हल्कापन इतने बड़े पैमाने पर हिन्दी के साहित्यिक संसार में व्याप्त हो गया है ? क्या अब चर्चा के लिए कोई गम्भीर मुद्दा नहीं बचा ? केन्द्रीय सरकार हो या प्रान्तीय सरकारें -- उनके स्वैराचार और जनविरोधी क़दमों पर हिन्दी के साहित्यकारों के बीच चुप्पी क्यों छायी हुई है ? चलो माओवादियों के समर्थन से सरकारी कोप का भाजन बनने का डर हो सकता है, या उनसे वैचारिक विरोध भी, पर छत्तीसगढ़, झारखण्ड और ऊड़ीसा के आदिवासियों के दमन और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलन्द क्यों नहीं होती ? या फिर कश्मीर में लगातार चल रही सैनिक कार्रवाई के खिलाफ़ ? इज़्ज़त के नाम पर औरतों और प्रेमी-प्रेमिकाओं की बेहुरमती और हत्याओं पर वे साहित्यकार उस रोष का दसवां हिस्सा भी क्यों नहीं व्यक्त करते जो उन्होंने महज़ "छिनाल" शब्द के प्रयोग पर व्यक्त किया है ? सत्ता के दाहिने बने रहने की अनिवार्यता ने हिन्दी के उस परम्परागत विवेक पर क्यों पर्दा डाल दिया है जिसके अनुसार हिन्दी की मूल प्रति्ज्ञा ही शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ़ मनुष्य के अथक संघर्ष में हिस्सेदारी; यथास्थिति का विरोध; सत्ता और उसके प्रलोभनों से किनाराकशी; और वास्तविकता की अक़्क़ासी के आत्म-संघर्ष का सामना करने की थी ? क्या कारण है कि चारों ओर मचे कोहराम और हाहाकार के बीच हिन्दी साहित्य एक जलसे की शक्ल अख़्तियार करता चला जा रहा है -- अपने में मग्न, उत्तरोत्तर सत्ता और उसके प्रलोभनों के निकट जाने की फ़िक्र में ग़लतान ? पिछली सदी के साठ और सत्तर के दशकों में परिवर्तन की जिन लहरों ने साहित्य को रोमांचकारी ऊंचाइयों पर पहुंचाया था उनके अलमबर्दार पुलिस के सन्दिग्ध अफ़सरों के मुसाहिब क्यों बन गये ?"<br /> मेरी गुज़ारिश यह है कि इस पेचीदा हालत को महज़ चलताऊ ढंग से शीत-युद्ध, भूमण्डलीकरण, पुरस्कार-प्रेम, परस्पर पीठ-खुजाऊपन, अहो-अहो मार्का चर्चा, एक-ध्रुवीय दुनिया की चपेट, महा-आख्यान, आदि शब्दों का इस्तेमाल करके इन्हीं में संकट के कारणों की पहचान करना-कराना उसी फ़तवेबाज़ी का नतीजा है जिस से आनन्द प्रकाश पिछले बीस-पच्चीस बरस के लेखन और लेखकों को एक सिरे से दूसरे सिरे तक पूरी तरह ख़ारिज करते हैं. उनके एकांगी दृष्टिकोण का पता इस बात से भी चलता है कि एक तो वे बुर्जुआ प्रवृत्तियों को रेखांकित करने के लिए सिर्फ़ कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी का ज़िक्र करते हैं. वे लिखते हैं, "हिंदी में शासक वर्ग की विचारधारा के वाहक संगठन (मसलन कांग्रेस और भाजपा के साथ-साथ व्यक्ति-लेखकों द्वारा नियंत्रित संगठन) भी हैं जहां लेखकीय उठा-पटक और क्षुद्र अवसरवादिता का बोलबाला है। लेकिन हमारे संदर्भ में उम्मीद की किरण जगाने वाले तीन वामपंथी संगठनों की प्रारंभिक आभा भी मंद होने लगी है। इनमें सबसे कमजोर प्रगतिशील लेखन संगठन है।" <br /> क्या शासक वर्ग का प्रतिनिधित्व सिर्फ़ कांग्रेस और भाजपा द्वारा ही होता है या फिर इस का प्रतिनिधित्व सत्ता की उठा-पटक में शामिल सभी पार्टियां कमो-बेश करती हैं ? यानी वे सारी पार्टियां जो संसदीय लोकतन्त्र के ढकोसले में शामिल हैं. सम्भव है कि आनन्द प्रकाश सीपीआई और सीपीएम और सीपीआई माले लिबरेशन को बुर्जुआ पार्टियां न मानते हों, पर आपातकाल में सीपीआई की और हाल के दिनों में नन्दीग्राम, लालगढ़, सिंगुर आदि में सीपीएम की भूमिका को देखते हुए और बिहार के पिछले चुनावों में सीपीआई माले लिबरेशन के अनेक ग़ैर-कम्यूनिस्ट राजनैतिक दलों के साथ चुनावी गंठजोड़ को देखते हुए उन्हें न तो कम्यूनिस्ट पार्टियां कहा जा सकता है, न क्रान्तिकारी पार्टियां. हम यह भी न भूलें कि जिस दौर से आनन्द प्रकाश क्षरण की शुरुआत मानते हैं उसी दौर के पहले चरण में सीपीएम ने विश्वनाथ प्रसाद सिंह की सरकार को सत्ता में बनाये रखने के लिए भाजपा के साथ हाथ मिलाया था. और विश्वनाथ प्रसाद सिंह का समर्थन सीपीआई माले लिबरेशन ने भी किया था.<br /> ज़ाहिर है इस सब का असर भी लामुहाला साहित्यिक-सांस्कृतिक जगत पर पड़ता ही है. ख़ास तौर पर तीनों कम्यूनिस्ट पार्टियों के साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों पर और उनसे जुड़े लेखकों पर. जो सत्ता और अधिकार तन्त्र के हिमायती लेखक हैं उनसे तो कोई उम्मीद नहीं की जा सकती, पर क्या कारण है कि वाम साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों से जुड़े साहित्यकार भी बेतरह विचलन का शिकार हो गये हैं ? उदय प्रकाश अगर महन्त अवैद्यनाथ के धोरे जाते हैं तो आलोक धन्वा विश्वरंजन की किताब के विमोचन में नज़र आते हैं. क्या इस विपथगामिता का स्रोत इन लेखकों के अन्दर है या इसमें उनके संगठनों की भी कोई भूमिका बनती है ? इसमें कोई शक नहीं है कि प्रगतिशील लेखक संघ का एक गौरवशाली इतिहास है. उसकी गिरावट के भी कारण हैं. फिर क्या कारण है कि जलेस और जसम इस गिरावट के कारणों से सबक़ लेने में विफल हुए ?<br /> संगठनों की यक़ीनन बड़ी भूमिका होती है. लेखन की प्रक्रिया तो बेहद निजी प्रक्रिया होती है, लेकिन संगठन लेखकों के नकारात्मक पक्ष को कम करके उसके सबल पक्ष को बढ़ाते हैं. साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों की तरह समाज भी एक संगठन ही है. चूंकि संगठन मनुष्य निर्मित होते हैं इसलिए उन्हें ठस, ठोस और मोनोलिथिक मान लेने से भी गड़्बड़ी पैदा होती है. वरना क्या कारण है कि आनन्द प्रकाश आज के जिन लेखकों की पतनशीलता और विचार-शून्यता की शिकायत कर रहे हैं उनमें से नब्बे फ़ीसदी साहित्यकार उन तीन वाम साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों के सदस्य हैं या रहे हैं जिनका ऊपर ज़िक्र किया गया. आनन्द प्रकाश ख़ुद इनमें से एक वाम साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठन के सक्रिय सदस्य रहे हैं. जब वे ऐसे सामान्यीकृत ढंग से सब कुछ नकार रहे हैं तो उन्हें ख़ुद अपनी भूमिका को भी जांचना चाहिये. उन्होंने मुक्तिबोध का नाम लिया है. ज़रा १९५७-६२ के बीच लिखी कविता "अंधेरे में" का यह अंश देखें जिसमें मुक्तिबोध एक प्रोसेशन का चित्र खींचते हैं--<br /><br />"विचित्र प्रोसेशन, गम्भीर क्विक मार्च... कलाबत्तूवाली काली ज़रीदार ड्रेस पहने चमकदार बैण्ड दल -- अस्थि-रूप, यकृत-स्वरूप, उदर-आकृति आंतों के जालों से उलझे हुए, बाजे वे दमकते हैं भयंकर गम्भीर गीत-स्वन-तरंगें ध्वनियों के आवर्त मंडराते पथ पर. बैण्ड के लोगों के चेहरे मिलते हैं मेरे देखे हुओं से, लगता है उनमें कई प्रतिष्ठित पत्रकार इसी नगर के !! बड़े-बड़े नाम अरे कैसे शामिल हो गये इस बैण्ड दल में !! उनके पीछे चल रहा संगीन-नोकों का चमकता जंगल, चल रही पदचाप, तालबद्ध दीर्घ पांत, टैंक दल, मोर्टार, आर्टिलरी, सन्नद्ध, धीरे-धीरे बढ़ रहा जुलूस भयावना..." और फिर इसी क्रम में मुक्तिबोध साफ़-साफ़ चित्रित करते हैं कि कैसे इस जुलूस में "चेहरे वे मेरे जाने-बूझे-से लगते, उनके चित्र समाचार-पत्रों में छपे थे, उनके लेख देखे थे, यहां तक कि कविताएं पढ़ी थीं भई वाह ! उनमें कई प्रकाण्ड आलोचक, विचारक, जगमगाते कविगण मन्त्री भी, उद्योगपति और विद्वान यहां तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात डोमाजी उस्ताद बनता है बलबन हाय हाय !!"<br /><br /> आनन्द प्रकाश द्वारा वर्णित परिदृश्य की तरह जान पड़ता यह चित्र आश्चर्यजनक रूप से उस युग का है जो, आनन्द प्रकाश के लेख को हवाला मानें तो, वैचारिकता से सम्पन्न था. तब क्या यह मानें कि मुक्तिबोध के आकलन में दोष था. नहीं मुक्तिबोध का आकलन सही था जैसे आनन्द प्रकाश का आकलन जहां तक तथ्यों का सवाल है आज के बारे में सही है. गड़बड़ी यह है कि मुक्तिबोध जहां अपने युग की पतनशीलता का आकलन करते हुए आगे चल कर यह लिखते हैं कि "मानो मेरी ही निष्क्रिय संज्ञा ने संकट बुलाया," वहीं आनन्द प्रकाश अपने युग की गड़बड़ी का आकलन करते हुए आत्मालोचन से किनाराकशी कर लेते हैं. इसीलिए वे उन लोगों को चिह्नित नहीं कर पाते जो मौजूदा पतनशीलता का मुक़ाबला कर रहे हैं. इन्हीं के लिए निराला ने कहा था --<br /><br /> "हमारे अपने हैं यहां बहुत छिपे हुए लोग, मगर चूंकि अभी ढीला-पोली है देश में, अखबार व्यापारियों की ही सम्पत्ति हैं, राजनीति कड़ी से भी कड़ी चल रही है, वे सब जन मौन हैं इन्हें देखते हुए; जब वे कुछ उठेंगे और बड़े त्याग के निमित्त कमर बांधेंगे आयेंगे वे जन भी देश के धरातल पर, अभी अखबार उनके नाम नहीं छापते, ऐसा ही पहरा है."<br /><br /> यही नहीं, अपने युग की सारी आलोचना करते हुए भी नयों के प्रति निराला के दिल में जो प्यार और उम्मीद का भाव था उसे उनकी प्रसिद्ध कविता "हिन्दी के सुमनों के नाम पत्र" में सहज ही देखा जा सकता है.<br /> आनन्द प्रकाश ने यह आरोप लगाया है कि पिछले 25-30 वर्षॊं का लेखन, कहें कि रचनाकार, "न केवल वर्तमान दौर या पिछले वक्त को समझने में यकीन नहीं रखता,बल्कि स्पष्ट रूप से समझने की क्रिया को ही अनुचित और गैरजरूरी मानता है।" उनसे पलट कर नया साहित्यकार पूछ सकता है कि महाशय जो लेखक तेभागा, तेलंगाना, नक्सलबाड़ी जैसे आन्दोलनों का प्रत्यक्षदर्शी न हो, जिसने प्रगतिशील लेखक संघ की शानदार तहरीक न देख रखी हो, जिसने ऐसे दौर में लिखना शुरू किया जब हर तरफ़ -- साहित्य ही नहीं समाज और राजनीति में भी -- भयंकर पतनशीलता हो, तब उसे वर्तमान दौर या पिछले वक्त की असलियत कौन समझायेगा. ? परम्परागत रूप से तो अग्रज साहित्यकार और संगठन यह करते आये हैं -- ख़ुद आनन्द प्रकाश ने महावीरप्रसाद द्विवेदी और वाम लेखक संगठनों का ज़िक्र किया है -- वे क्यों निष्क्रिय हो गये ?<br /> इसलिए मैं अन्त में आनन्द प्रकाश से अनुरोध करूंगा कि व्याधि के लक्षणों का लेखा-जोखा तो काफ़ी हद तक उन्हों ने कर दिया है, पर उसके कारणों को भी ध्यान से परखें और उपचार को भी. और इसे निर्वैयक्तिक असम्पृक्ति से न करके सहानुभूतिपूर्ण लगाव के साथ करें. महज़ अयातुल्लाह ख़ुमैनी बनने या आरोप लगाने या उपदेश देने या प्रलय का पैग़म्बर बनने में कोई निस्तार नहीं है. मिट्टी तो वही है, पर अगर चाक टेढ़ा हो या कुम्हार के हाथ लरज़ते हों तो बात बनने से रही. अगर हम ने पहचान लिया है कि रोग है तब हमें ही उसका निदान और उपचार करना होगा तभी हम -- मुक्तिबोध ही की एक और कविता "भूल-ग़लती" की याद कराते हुए कहूं तो -- "उस" को पहचान सकेंगे जो "मुहैया कर रहा लश्कर; हमारी हार का बदला चुकाने आयेगा. संकल्प-धर्मा चेतना का रक्त-प्लावित स्वर, हमारे ही हृदय का गुप्त स्वर्णाक्षर प्रकट हो कर विकट हो जायेगा."Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3780821805422068162.post-28679679804327875182010-11-08T04:39:00.001-08:002010-11-08T04:46:08.377-08:00A CESSPOOL CALLED BURARIA Letter Sent To Mr Vir Sanghvi Some Time Back<br /><br /><br />dear mister vir sanghvi,<br /><br />i am fully aware that this e-mail will not solicit any response from your end, still i have decided to send it on an off chance that even if it does not draw out a response, it may pass before your eyes.<br /><br />i am a hindi poet and happen to be a regular reader of your paper. i have read your weekly columns regularly and i am struck with the ease with which you can float from discussing an exotic cuisine ( unfortunately out of the reach and even comprehension of thousands of your english knowing readers, leave alone the millions who are not acquainted with this great language of our erstwhile masters and the culinary delights you talk about) to discussing some finer point in our socio-political set-up as you have done yesterday (sunday 26th september ) by deftly defining the two indias we are face to face with, namely, the old india of the aged, tottering, doddering corrupt and callous ministers and officials like m.s.gill, jaipal reddy and lalit bhanot on the one hand and the go-getters representing the new resentful india of the private enterprise. you have not only soft-handled Kalmadi but also very cleverly not named the shining seigfrieds and ivan hoes of the new india but we can surmise they must be the likes of anil/mukesh ambanis, the young "kingfisher" mallyas. so, we know whose side you are despite, your sermonising stance.<br /><br />but, the two indias you mentioned in passing in the very first paragraph of your article, albeit with a little derision, are the two indias which oppose each other in reality or shall i mention real space. the india of the haves versus the india of the haves-not. the poor india of the slums vs the shining india of the posh colonies. your seemingly righteous anger stems from the fact that the two indias you talk about are what in our native parlance is known as "ek hi thaili ke chatte batte." get what i mean. the ambanis and mittals and mallyas must be fuming at kalmadi and his cohorts siphoning off and salting away millions out of the 9 billion dollars being spent out of the public exchequer. i hope you still agree that the poor india of the slums deserves its share out of this as a right and not as largesse to be doled out by the new "east india company sahibs." so, the new go-getter indians must be really sore at not having a go at the public cake, large slices of which have gone into the jowls of oc officials and politicians.<br /><br />but, why not question the bloody cw games in the first place ? is the queen coming here ? to see how her forner subjects are faring ? or is she content with having a splendid lackey at the helm of affairs who has put the whole country and martyrs like bhagat sing, lahiri, rajguru, azad and sukhdev to shame by kow-towing before the dons of oxford. how very apt that the word "don" takes on ever new shades of meaning with the passage of time. or mention that mani shanker aiyer has all along been very critical of the games. sorry, your paper has mentioned mani only as a spanner in the works and as a scape-goat for the dilly-dallying of officials and politicians who chose to remain silent all along and have now come howling at the quandary mani has landed them in by saying that it was because of his attitude that no work could be done.<br /><br />obviously, you have no interest in looking at the seamier side of things and that is the reason why your newspaper has already embarked on a damage-control strategy. not only the games are being lauded almost as a "great leap forward", but your staff has started harping on an "enough is enough, let's get the act together" theme right after your cue of 26th september. and we can now hope that in the days to come your newspaper is going to paint quite a rosy picture of the games. <br /><br />but you, naturally, don"t mention this. which brings me to the second reason for sending this missive. in your paper you are very fond of publishing illustrated stories featuring residents of various localities of delhi in raptures about the wonderful living conditions there. i distinctly remember two such storie, one on derawalnagar and one on rohini. but have you ever heard of an old village called burari which has now become part of the expanding topography of our metropolis ? it is two to three kilometers from derawalnagar and the same distance away from rohini, off the karnal g.t. road. to call it a cesspool is putting it mildly. or rather i should say it depends which angle are you looking at it from. the cesspools of india shining, or the new india as you term it, must of necessity smell differently to the cesspools of the old india for which you and people like you have developed a blind spot.<br /><br />to enter burari is an experience which a person from say race course road or jor bagh or even hauz khas is likely not to forget for a very long, long time. the pot holes in the two kilometer road from the bypass to burari are enough to cause miscarriages in expecting mothers. the filth in the lanes and streets, the overflowing sewers and the waterlogged lanes and open spaces are a sight to behold. but, is burari the only cesspool ? what of the tens of hundreds of buraris scattered in the capital and other metropolitan cities, state capitals and mufassil townships ? or the buraris which stink in the four great columns keeping our great democracy from crumbling -- the corrupt polity, unreliable and embedded media, self-serving bureaucracy and the last bastion to tumble, i.e., the judiciary ?<br /><br /> this is the india which the leaders of new india like p. chidambaram and rahul gandhi and the sindhias and pilots wish to obliterate by inflicting neglect and sub-human conditiions upon its denizens. how else does chidambaram hope that 85 percent of india's population will move from the villages to urban areas. and what urban areas at that. let me quote a few lines from my friend arundhati's latest article :<br /> <br /> "Maybe it’s in the fitness of things that what's left of our democracy should be traded in for an event that was created to celebrate the British Empire. Perhaps it’s only right that 400,000 people should have had their homes demolished and been driven out of the city overnight. Or that hundreds of thousands of roadside vendors should have had their livelihoods snatched away by order of the Supreme Court so city malls could take over their share of business. And that tens of thousands of beggars should have been shipped out of the city while more than a hundred thousand galley slaves were shipped in to build the flyovers, metro tunnels, Olympic-size swimming pools, warm-up stadiums and luxury housing for athletes. The Old Empire may not exist. But obviously our tradition of servility has become too profitable an enterprise to dismantle"<br /><br />it is because of this questioning that arundhati is constantly the target of the attacks of you star columnist barkha datt and the great media persons like arnab goswami and chandan mitra. allow me to mention a few more facts about the state of affairs in the new india that you are so anxiously advocating. again a quote from arundhati :<br /><br />more than sixty million people who have been displaced, by rural destitution, by slow starvation, by floods and drought (many of them man-made), by mines, steel factories and aluminium smelters, by highways and expressways, by the 3300 big dams built since Independence and now by Special Economic Zones. They’re part of the 830 million people of India who live on less than twenty rupees a day, the ones who starve while millions of tons of foodgrain is either eaten by rats in government warehouses or burnt in bulk (because it’s cheaper to burn food than to distribute it to poor people). They’re the parents of the tens of millions of malnourished children in our country, of the 2 million who die every year before they reach the age of five. They’re the millions who make up the chain-gangs that are transported from city to city to build the New India. Is this what is known as “enjoying the fruits of modern development”?<br /> What must they think, these people, about a government that sees fit to spend nine billion dollars of public money (two thousand percent more than the initial estimate) for a two-week long sports extravaganza which, for fear of terrorism, malaria, dengue and New Delhi’s new superbug, many international athletes have refused to attend? ...Not much, I guess. Because for people who live on less than twenty rupees a day, money on that scale must seem like science fiction. It probably doesn’t occur to them that it’s their money. That’s why corrupt politicians in India never have a problem sweeping back into power, using the money they stole to buy elections. (Then they feign outrage and ask, “Why don’t the Maoists stand for elections?”)<br /><br />so, this is the real india mr vir sanghvi, illustrious editor of the great newspaper hindustan times. see the hindustan in which the majority of your countrymen live in ( and die ) and the times they are passing through.Neelabh Ka Morchahttp://www.blogger.com/profile/13893924488634756970noreply@blogger.com0