Wednesday, December 1, 2010

फ़तवे नहीं, सन्तुलित नज़रिया चाहिए, आनन्द प्रकाश जी

किन्तु युग बदला व आया कीर्ति-व्यवसायी
लाभकारी कार्य में से धन,
व धन में से हृदय-मन,
और, धन-अभिभूत अन्त:करण में से
सत्य की झाईं
निरन्तर चिलचिलाती थी.

आत्मचेतस किन्तु इस
व्यक्तित्व में थी प्राणमय अनबन...
विश्वचेतस बे-बनाव !!
महत्ता के चरण में था
विषादाकुल मन !

-मुक्तिबोध : ब्रह्मराक्षस

कुछ दिन पहले वरिष्ठ लेखक और शिक्षक आनन्द प्रकाश ने दो हिस्सों में लिखे गये अपने एक लेख में हिन्दी साहित्य की मौजूदा हालत का एक जायज़ा लेते हुए कुछ सवाल उठाये हैं, कुछ विचार प्रकट किये हैं और कुछ टिप्पणियां की हैं. आनन्द प्रकाश के लेख के इन दोनों हिस्सों पर एक टिप्पणी करते हुए युवा कवि अच्युतानन्द मिश्र ने अपनी तरफ़ से हिन्दी साहित्य की वर्तमान स्थिति का लेखा-जोखा पेश किया है और इस के कुछ कारणों पर प्रकाश डाला है. अगर सरसरी नज़र से इन लेखों-टिप्पणियों को देखा जाये तो इनमें कही गयी बहुत-सी बातों से इनकार नहीं किया जा सकता. कहा जाये कि अपने समग्र रूप में दोनों लेख उस विराट गड़्बड़ी की सैर-बीनी तस्वीर पेश करते हैं जिसे हम "आज का सांस्कृतिक संकट" के नाम से परिभाषित कर सकते हैं. यही नहीं, मोटे तौर पर यह तस्वीर काफ़ी हद तक सच्चाई से और गम्भीरता से अंकित करने की भी कोशिश आनन्द प्रकाश और अच्युतानन्द ने की है.

लेकिन अगर ज़रा गहरे में जा कर आनन्द प्रकाश के लेखों की छान-बीन करें तो जो सबसे पहली बात खटकती हैं वह इन लेखों का सर्वथा नकारवादी, फ़तवेबाज़ी से भरा रवैया है जो एक दूसरे क़िस्म की वैचारिक शून्यता और अवैज्ञानिक दृष्टिकोण की चुग़ली खाता है. उन्हें शिकायत है कि --"समकालीन हिंदी लेखन, जिससे मेरी मुराद पिछली सदी के अंतिम दो दशकों के लेखन से है, सीधे-सीधे चिन्तन-विरोधी है। वह न केवल वर्तमान दौर या पिछले वक्त को समझने में यकीन नहीं रखता,बल्कि स्पष्ट रूप से समझने की क्रिया को ही अनुचित और गैरजरूरी मानता है।"
क्या सचमुच एक पूरे दौर के सारे लेखन पर इस तरह हैंगा फेर देना किसी मुनासिब (और वैज्ञानिक, मार्क्सवादी) नज़रिये की उपज कहा जा सकता है ? वरिष्ठ लेखक और शिक्षक होने के नाते आनन्द प्रकाश ज़रूर इस बात से वाक़िफ़ होंगे कि किसी भी दौर में दो तरह की प्रवृत्तियां काम करती हैं. एक -- जो सत्ता और, आनन्द प्रकाश ही के शब्दों में कहूं तो, "अधिकार-तन्त्र" की पिछलगुआ और समर्थक होती है और एवज़ में उससे पोषित-पुरस्कृत होती है. दूसरी -- जो सत्ता और अधिकार-तन्त्र का विरोध करती है या उससे उदासीन रह कर अपना काम करती है. यह कोई आज के दौर का संकट नहीं है. "सन्तन को कहा सीकरी सौं काम" की उक्ति 70 या उससे पहले के किसी दशक के कवि की नहीं, बल्कि कई सौ साल पहले की है. यह खेद की बात है कि आनन्द प्रकाश ने इन दो प्रवृत्तियों के सन्दर्भ में मौजूदा संकट की छान-बीन करने और सत्ता और अधिकार-तन्त्र के उत्सवी शोर-शराबे के नीचे दबे सच्चे जनवादी सरोकारों को व्यक्त करने वाली रचनाधर्मिता की शिनाख़्त करने और उसे सामने लाने का वह दायित्व नहीं निभाया जो उनकी चिन्ताओं के सन्दर्भ में उनसे अपेक्षित था.
इस एकांगी दृष्टिकोण का परिणाम यह हुआ है कि उनका लेख भी किसी हद तक वैसी ही सतही बहसों को बढ़ाता जान पड़ता है जैसी हाल के दिनों में हिन्दी के साहित्यिक जगत में कसरत से नज़र आती रही हैं. कहीं किसी अकादेमी में किसी नियुक्ति को ले कर, किसी पुरस्कार के दिये या न दिये जाने को ले कर, किसी अधिकार-सम्पन्न साहित्यकार की अभद्र टिप्पणियों को ले कर या फिर किसी वरिष्ठ कवि द्वारा ढेर सारे निस्बतन युवा कवियों पर एक सिरे से दूसरे सिरे तक कुठाराघात करने को ले कर या फिर अब ताज़ा मामले में आनन्द प्रकाश द्वारा नकारवादी (निहिलिस्ट) शैली में लगभग 25-30 वर्षों की समूची रचनात्मकता को पूरी तरह ख्ज़ारिज करके. आनन्द प्रकाश ने बजाय किसी सार्थक बहस को शुरू करने, मौजूदा दौर में चल रही टकराहट को साफ़ तौर पर पहचान कर सामने लाने और एक नज़ीर पेश करने की जगह आरोपों की झड़ी लगा कर एक शिकायतनामा पेश किया है और असली सवाल से कन्नी काट ली है.
इसमें कोई शक नहीं है कि संकट बढा है पर इसी के बीच सही स्वर भी मौजूद हैं. नब्बे के जिस दशक को आनन्द प्रकाश ने एक सिरे से ख़ारिज कर दिया है उसी के आरम्भ में एक युवा कवि ने "नागरिक व्यथा" जैसी कविता लिख कर संकट की पहचान करायी थी. और संकट की पहचान कराना भी उस संकट के विरुद्ध मोर्चेबन्दी में शामिल होना है. क्या आनन्द प्रकाश ने यह कविता पढ़ी है ? नहीं पढ़ी तो वे अब एकान्त श्रीवास्तव का पहला संग्रह हासिल करके पढ़ लें. और केवल एकान्त श्रीवास्तव ही का संग्रह क्यों, जिन दशकों को उन्होंने अपने लेख में कटघरे में खड़ा किया है उन की अच्छी तरह छान-बीन करके उनकी रचनाओं का मूल्यांकन वैसी ही कसौटी के आधार पर करें जिसे मुक्तिबोध ने "ज्ञानात्मक सम्वेदन और सम्वेदनात्मक ज्ञान" की कसौटी कहा है. फ़िलहाल तो आनन्द प्रकाश ने कुछ बनी-बनायी धारणाओं के आधार पर प्रवृत्तियों और मौडलों की बात की है. इसीलिए वे अपने लेख के दूसरे हिस्से में एक और फ़तवा देते हुए कहते हैं, "रचनाकार को मालूम ही नहीं है कि वर्तमान माहौल में सामाजिक गैर-बराबरी, अशिक्षा, नारी-शोषण, बेकारी, दलितों का उत्पीड़न, गरीबी और सांस्कृतिक पतनशीलता निरंतर बढ़ रहे हैं।"
क्या सचमुच सभी रचनाकारों के सिलसिले में निर्विवाद रूप से ऐसा कहा जा सकता है ?
इन्हीं फ़तवेबाज़ियों की वजह से आनन्द प्रकाश वैचारिकता की तमाम तवक़्क़ो रखने के बावजूद मौजूदा संकट को सिर्फ़ रचनाकारों के अन्दर से हल करने की उम्मीद लगाते हैं. मानो वैचारिकता से लैस और पुरस्कारों से विमुख होते और सुविधाओं से किनारा करते ही सारी समस्याएं आप-से-आप हल हो जायेंगी. वरिष्ठ चिन्तक होने के नाते वे ज़रूर यह जानते होंगे कि साहित्यिक प्रवृत्तियों और साहित्यकारों के आचरण का सम्बन्ध जिस हद तक उनके अन्दर से होता है, उतना ही उनके बाहर की स्थितियों में भी होता है. प्लेखानोव ने "कला और सामाजिक जीवन" में बड़े विस्तार से सामाजिक परिस्थितियों और कलात्मक उद्यम के आपसी सम्बन्ध को व्याख्यायित-विश्लेषित किया है और बड़ी बारीक़बीनी से फ़्रांसीसी क्रान्ति के उत्थान-पतन के सन्दर्भ में बौदलेयर जैसे कथित रूप से "पतनशील" लेखक की जनवादिता को, भले ही उसका आयुष्य कम था, चिह्नित किया है. ज़ाहिर है कि बहुत हद तक लेखक भी समाज ही का हिस्सा होता है और प्लेखानोव के शब्दों में कहें तो अगर वह एक दौर में "कला के लिए कला" की बजाय "कला के उपयोगितावादी नज़रिये" को मानने लगता है या दूसरे दौर में इसकी उलटी दिशा अख़्तियार करता है तो इसके पीछे कुछ ठोस सामाजिक कारण होते हैं.
आनन्द प्रकाश के लेख की एक बड़ी कमज़ोरी यह भी है कि उन्हों ने एक बहुत विस्तृत और उलझे हुए विषय को अनेक प्रकार के सरलीकरणों द्वारा विश्लेषित करने की कोशिश की है. इसीलिए उनके लेख में कुछ अन्तर्विरोध भी चले आये हैं. पहला तो यह कि उन्होंने 70 के दशक तक के 60-70 वर्षों का एक काल-खण्ड बनाया है और बाक़ी 25-30 वर्षों का एक. जबकि बीसवीं सदी के अनेक दौर हैं और उनकी चुनौतियां और संकट भी अलग-अलग हैं. दूसरी बात यह है कि उन्हों ने मौडलों के सिलसिले में भी अजीब जोड़े बनाये हैं. प्रेमचन्द और महावीरप्रसाद द्विवेदी तो चलो एक खण्ड में रख भी लिये जायें लेकिन निराला और मुक्तिबोध को एक ही तरह का मौडल बताना मेरे खयाल में ठीक नहीं है. शीत युद्ध का प्रभावी असर मुक्तिबोध की स्वीकृति पर ज़रूर पड़ा था मगर निराला उसके ज़ेरे-असर नहीं थे. दरअसल यह मौडलों की चर्चा ही बेमानी है. हर कालखण्ड में दो या उससे अधिक मौडल भी हो सकते हैं, दो तो यक़ीनन होते ही हैं -- एक सत्ता और अधिकार-तन्त्र का मौडल और दूसरा जन-पक्षी मौडल. किसी भी दौर का जायज़ा लेते हुए इन दोनों को आमने-सामने रख कर ही बात हो सकती है. बल्कि मेरी नज़र में मौडलों की जगह प्रवृत्तियों के सन्दर्भ में बात करना ज़्यादा मुनासिब है क्योंकि कोई भी रचनाकार मोनोलिथिक क़िस्म का नहीं होता. अलग-अलग चरणों में उसकी रचनात्मकता अलग-अलग रूप ले सकती है. अज्ञेय और नयी कविता के प्रभाव से रघुवीर सहाय और सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, दोनों ही निकल कर आये थे. लेकिन रघुवीर सहाय ने, जिन्होंने पहले के दौर में लिखा था "दुनिया एक बजबजाई हुई चीज़ हो गयी है," आगे चल कर "मेरा प्रतिनिधि" और "रामदास" जैसी कविताएं लिखीं, लेकिन वहीं तक महदूद रह जाने के कारण वे बुर्जुआ लोकतन्त्र के प्रतिपक्ष तक ही सीमित रह गये; जबकि सर्वेश्वर ने, जो "साम्यवाद और पूंजीवाद मैं दोनों पर थूकता हूं लिख चुके थे, समय के बदलते ही नक्सलवादी आन्दोलन के नज़दीक चले गये और उन्होंने "कुआनो नदी" और "किश्टा और भूमैय्या" जैसी परिवर्तनकामी कविताएं लिखीं. तो क्या हम इस परिवर्तन पर ग्ज़ौर किये बिना ही उनका मूल्यांकन करेंगे ?
दूसरा अन्तर्विरोध यह है कि आनन्द प्रकाश यह भी नज़रन्दाज़ कर गये हैं कि एक ही लेखक के अन्दर अन्तर्विरोध भी हो सकते हैं और उस लेखक की चर्चा करते हुए इन अन्तर्विरोधों की चर्चा न करने से ही वह प्रतिमा निर्माण की प्रवृत्ति उभरती है जो अन्तत: रचनाशीलता को नुक़सान पहुंचाती है. एक मिसाल देना चाहूंगा. निराला एक ओर तो "वन बेला" और महगू महगा रहा जैसी कविताएं लिखते हैं, दूसरी ओर जवाहरलाल नेहरू से इतने मुग्ध हैं कि लगातार उनसे संवाद करने की कोशिश करते रहते हैं. एक ओर वे "जल्द जल्द पैर बढ़ाओ आओ आओ" जैसी कविता लिखते हैं दूसरी ओर "शिवाजी का पत्र" नामक कविता में देश के "झुकाव" के "जातिगत" होने और "एक ओर हिन्दू एक ओर मुसलमान" के होने की कामना व्यक्त करते हैं. आर.एस, पण्डित की मृत्यु पर तो निराला कविता लिखते हैं पर अपने समय की -- और आज तक की भी -- सबसे प्रखर जनवादी धारा -- भगत सिंह और आज़ाद की क्रान्तिकारी धारा -- पर एक अजीब ख़ामोशी उनके साहित्य में दिखती है. मैं निराला के महत्व को ज़रा भी कम कर के आंकने का हामी नहीं हूं. सिर्फ़ बुत-परस्ती की उस रवायत का विरोधी हूं जो मौजूदा संकट का एक प्रमुख कारण है और जिसे मौडलों की चर्चा करके आनन्द प्रकाश पुष्ट करते जान पड़ते हैं. अगर शुरू ही से हिन्दी में यह प्रतिमा निर्माण न होता तो शायद हिन्दी के लेखक "बड़े अग्रजों" के कृपाकांक्षी होने के चक्कर में अपने जनों से इतना दूर न चले गये होते.
इससे यह न समझा जाये कि मैं उन लेखकों की ओर से कोई सफ़ाई पेश करने की कोशिश कर रहा हूं जो सत्ता और अधिकार-तन्त्र के मुखापेक्षी हैं और अपनी जनता और वास्तविक समस्याओं से विमुख हो कर विचारशून्यता के उत्सव में जुटे हुए हैं. मैंने खुद अपने हाल के एक लेख में इन्हीं बातों का ज़िक्र करते हुए लिखा था -- "वे कौन-से कारण हैं जिनसे इस तरह का छिछोरा हल्कापन इतने बड़े पैमाने पर हिन्दी के साहित्यिक संसार में व्याप्त हो गया है ? क्या अब चर्चा के लिए कोई गम्भीर मुद्दा नहीं बचा ? केन्द्रीय सरकार हो या प्रान्तीय सरकारें -- उनके स्वैराचार और जनविरोधी क़दमों पर हिन्दी के साहित्यकारों के बीच चुप्पी क्यों छायी हुई है ? चलो माओवादियों के समर्थन से सरकारी कोप का भाजन बनने का डर हो सकता है, या उनसे वैचारिक विरोध भी, पर छत्तीसगढ़, झारखण्ड और ऊड़ीसा के आदिवासियों के दमन और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलन्द क्यों नहीं होती ? या फिर कश्मीर में लगातार चल रही सैनिक कार्रवाई के खिलाफ़ ? इज़्ज़त के नाम पर औरतों और प्रेमी-प्रेमिकाओं की बेहुरमती और हत्याओं पर वे साहित्यकार उस रोष का दसवां हिस्सा भी क्यों नहीं व्यक्त करते जो उन्होंने महज़ "छिनाल" शब्द के प्रयोग पर व्यक्त किया है ? सत्ता के दाहिने बने रहने की अनिवार्यता ने हिन्दी के उस परम्परागत विवेक पर क्यों पर्दा डाल दिया है जिसके अनुसार हिन्दी की मूल प्रति्ज्ञा ही शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ़ मनुष्य के अथक संघर्ष में हिस्सेदारी; यथास्थिति का विरोध; सत्ता और उसके प्रलोभनों से किनाराकशी; और वास्तविकता की अक़्क़ासी के आत्म-संघर्ष का सामना करने की थी ? क्या कारण है कि चारों ओर मचे कोहराम और हाहाकार के बीच हिन्दी साहित्य एक जलसे की शक्ल अख़्तियार करता चला जा रहा है -- अपने में मग्न, उत्तरोत्तर सत्ता और उसके प्रलोभनों के निकट जाने की फ़िक्र में ग़लतान ? पिछली सदी के साठ और सत्तर के दशकों में परिवर्तन की जिन लहरों ने साहित्य को रोमांचकारी ऊंचाइयों पर पहुंचाया था उनके अलमबर्दार पुलिस के सन्दिग्ध अफ़सरों के मुसाहिब क्यों बन गये ?"
मेरी गुज़ारिश यह है कि इस पेचीदा हालत को महज़ चलताऊ ढंग से शीत-युद्ध, भूमण्डलीकरण, पुरस्कार-प्रेम, परस्पर पीठ-खुजाऊपन, अहो-अहो मार्का चर्चा, एक-ध्रुवीय दुनिया की चपेट, महा-आख्यान, आदि शब्दों का इस्तेमाल करके इन्हीं में संकट के कारणों की पहचान करना-कराना उसी फ़तवेबाज़ी का नतीजा है जिस से आनन्द प्रकाश पिछले बीस-पच्चीस बरस के लेखन और लेखकों को एक सिरे से दूसरे सिरे तक पूरी तरह ख़ारिज करते हैं. उनके एकांगी दृष्टिकोण का पता इस बात से भी चलता है कि एक तो वे बुर्जुआ प्रवृत्तियों को रेखांकित करने के लिए सिर्फ़ कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी का ज़िक्र करते हैं. वे लिखते हैं, "हिंदी में शासक वर्ग की विचारधारा के वाहक संगठन (मसलन कांग्रेस और भाजपा के साथ-साथ व्यक्ति-लेखकों द्वारा नियंत्रित संगठन) भी हैं जहां लेखकीय उठा-पटक और क्षुद्र अवसरवादिता का बोलबाला है। लेकिन हमारे संदर्भ में उम्मीद की किरण जगाने वाले तीन वामपंथी संगठनों की प्रारंभिक आभा भी मंद होने लगी है। इनमें सबसे कमजोर प्रगतिशील लेखन संगठन है।"
क्या शासक वर्ग का प्रतिनिधित्व सिर्फ़ कांग्रेस और भाजपा द्वारा ही होता है या फिर इस का प्रतिनिधित्व सत्ता की उठा-पटक में शामिल सभी पार्टियां कमो-बेश करती हैं ? यानी वे सारी पार्टियां जो संसदीय लोकतन्त्र के ढकोसले में शामिल हैं. सम्भव है कि आनन्द प्रकाश सीपीआई और सीपीएम और सीपीआई माले लिबरेशन को बुर्जुआ पार्टियां न मानते हों, पर आपातकाल में सीपीआई की और हाल के दिनों में नन्दीग्राम, लालगढ़, सिंगुर आदि में सीपीएम की भूमिका को देखते हुए और बिहार के पिछले चुनावों में सीपीआई माले लिबरेशन के अनेक ग़ैर-कम्यूनिस्ट राजनैतिक दलों के साथ चुनावी गंठजोड़ को देखते हुए उन्हें न तो कम्यूनिस्ट पार्टियां कहा जा सकता है, न क्रान्तिकारी पार्टियां. हम यह भी न भूलें कि जिस दौर से आनन्द प्रकाश क्षरण की शुरुआत मानते हैं उसी दौर के पहले चरण में सीपीएम ने विश्वनाथ प्रसाद सिंह की सरकार को सत्ता में बनाये रखने के लिए भाजपा के साथ हाथ मिलाया था. और विश्वनाथ प्रसाद सिंह का समर्थन सीपीआई माले लिबरेशन ने भी किया था.
ज़ाहिर है इस सब का असर भी लामुहाला साहित्यिक-सांस्कृतिक जगत पर पड़ता ही है. ख़ास तौर पर तीनों कम्यूनिस्ट पार्टियों के साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों पर और उनसे जुड़े लेखकों पर. जो सत्ता और अधिकार तन्त्र के हिमायती लेखक हैं उनसे तो कोई उम्मीद नहीं की जा सकती, पर क्या कारण है कि वाम साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों से जुड़े साहित्यकार भी बेतरह विचलन का शिकार हो गये हैं ? उदय प्रकाश अगर महन्त अवैद्यनाथ के धोरे जाते हैं तो आलोक धन्वा विश्वरंजन की किताब के विमोचन में नज़र आते हैं. क्या इस विपथगामिता का स्रोत इन लेखकों के अन्दर है या इसमें उनके संगठनों की भी कोई भूमिका बनती है ? इसमें कोई शक नहीं है कि प्रगतिशील लेखक संघ का एक गौरवशाली इतिहास है. उसकी गिरावट के भी कारण हैं. फिर क्या कारण है कि जलेस और जसम इस गिरावट के कारणों से सबक़ लेने में विफल हुए ?
संगठनों की यक़ीनन बड़ी भूमिका होती है. लेखन की प्रक्रिया तो बेहद निजी प्रक्रिया होती है, लेकिन संगठन लेखकों के नकारात्मक पक्ष को कम करके उसके सबल पक्ष को बढ़ाते हैं. साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों की तरह समाज भी एक संगठन ही है. चूंकि संगठन मनुष्य निर्मित होते हैं इसलिए उन्हें ठस, ठोस और मोनोलिथिक मान लेने से भी गड़्बड़ी पैदा होती है. वरना क्या कारण है कि आनन्द प्रकाश आज के जिन लेखकों की पतनशीलता और विचार-शून्यता की शिकायत कर रहे हैं उनमें से नब्बे फ़ीसदी साहित्यकार उन तीन वाम साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों के सदस्य हैं या रहे हैं जिनका ऊपर ज़िक्र किया गया. आनन्द प्रकाश ख़ुद इनमें से एक वाम साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठन के सक्रिय सदस्य रहे हैं. जब वे ऐसे सामान्यीकृत ढंग से सब कुछ नकार रहे हैं तो उन्हें ख़ुद अपनी भूमिका को भी जांचना चाहिये. उन्होंने मुक्तिबोध का नाम लिया है. ज़रा १९५७-६२ के बीच लिखी कविता "अंधेरे में" का यह अंश देखें जिसमें मुक्तिबोध एक प्रोसेशन का चित्र खींचते हैं--

"विचित्र प्रोसेशन, गम्भीर क्विक मार्च... कलाबत्तूवाली काली ज़रीदार ड्रेस पहने चमकदार बैण्ड दल -- अस्थि-रूप, यकृत-स्वरूप, उदर-आकृति आंतों के जालों से उलझे हुए, बाजे वे दमकते हैं भयंकर गम्भीर गीत-स्वन-तरंगें ध्वनियों के आवर्त मंडराते पथ पर. बैण्ड के लोगों के चेहरे मिलते हैं मेरे देखे हुओं से, लगता है उनमें कई प्रतिष्ठित पत्रकार इसी नगर के !! बड़े-बड़े नाम अरे कैसे शामिल हो गये इस बैण्ड दल में !! उनके पीछे चल रहा संगीन-नोकों का चमकता जंगल, चल रही पदचाप, तालबद्ध दीर्घ पांत, टैंक दल, मोर्टार, आर्टिलरी, सन्नद्ध, धीरे-धीरे बढ़ रहा जुलूस भयावना..." और फिर इसी क्रम में मुक्तिबोध साफ़-साफ़ चित्रित करते हैं कि कैसे इस जुलूस में "चेहरे वे मेरे जाने-बूझे-से लगते, उनके चित्र समाचार-पत्रों में छपे थे, उनके लेख देखे थे, यहां तक कि कविताएं पढ़ी थीं भई वाह ! उनमें कई प्रकाण्ड आलोचक, विचारक, जगमगाते कविगण मन्त्री भी, उद्योगपति और विद्वान यहां तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात डोमाजी उस्ताद बनता है बलबन हाय हाय !!"

आनन्द प्रकाश द्वारा वर्णित परिदृश्य की तरह जान पड़ता यह चित्र आश्चर्यजनक रूप से उस युग का है जो, आनन्द प्रकाश के लेख को हवाला मानें तो, वैचारिकता से सम्पन्न था. तब क्या यह मानें कि मुक्तिबोध के आकलन में दोष था. नहीं मुक्तिबोध का आकलन सही था जैसे आनन्द प्रकाश का आकलन जहां तक तथ्यों का सवाल है आज के बारे में सही है. गड़बड़ी यह है कि मुक्तिबोध जहां अपने युग की पतनशीलता का आकलन करते हुए आगे चल कर यह लिखते हैं कि "मानो मेरी ही निष्क्रिय संज्ञा ने संकट बुलाया," वहीं आनन्द प्रकाश अपने युग की गड़बड़ी का आकलन करते हुए आत्मालोचन से किनाराकशी कर लेते हैं. इसीलिए वे उन लोगों को चिह्नित नहीं कर पाते जो मौजूदा पतनशीलता का मुक़ाबला कर रहे हैं. इन्हीं के लिए निराला ने कहा था --

"हमारे अपने हैं यहां बहुत छिपे हुए लोग, मगर चूंकि अभी ढीला-पोली है देश में, अखबार व्यापारियों की ही सम्पत्ति हैं, राजनीति कड़ी से भी कड़ी चल रही है, वे सब जन मौन हैं इन्हें देखते हुए; जब वे कुछ उठेंगे और बड़े त्याग के निमित्त कमर बांधेंगे आयेंगे वे जन भी देश के धरातल पर, अभी अखबार उनके नाम नहीं छापते, ऐसा ही पहरा है."

यही नहीं, अपने युग की सारी आलोचना करते हुए भी नयों के प्रति निराला के दिल में जो प्यार और उम्मीद का भाव था उसे उनकी प्रसिद्ध कविता "हिन्दी के सुमनों के नाम पत्र" में सहज ही देखा जा सकता है.
आनन्द प्रकाश ने यह आरोप लगाया है कि पिछले 25-30 वर्षॊं का लेखन, कहें कि रचनाकार, "न केवल वर्तमान दौर या पिछले वक्त को समझने में यकीन नहीं रखता,बल्कि स्पष्ट रूप से समझने की क्रिया को ही अनुचित और गैरजरूरी मानता है।" उनसे पलट कर नया साहित्यकार पूछ सकता है कि महाशय जो लेखक तेभागा, तेलंगाना, नक्सलबाड़ी जैसे आन्दोलनों का प्रत्यक्षदर्शी न हो, जिसने प्रगतिशील लेखक संघ की शानदार तहरीक न देख रखी हो, जिसने ऐसे दौर में लिखना शुरू किया जब हर तरफ़ -- साहित्य ही नहीं समाज और राजनीति में भी -- भयंकर पतनशीलता हो, तब उसे वर्तमान दौर या पिछले वक्त की असलियत कौन समझायेगा. ? परम्परागत रूप से तो अग्रज साहित्यकार और संगठन यह करते आये हैं -- ख़ुद आनन्द प्रकाश ने महावीरप्रसाद द्विवेदी और वाम लेखक संगठनों का ज़िक्र किया है -- वे क्यों निष्क्रिय हो गये ?
इसलिए मैं अन्त में आनन्द प्रकाश से अनुरोध करूंगा कि व्याधि के लक्षणों का लेखा-जोखा तो काफ़ी हद तक उन्हों ने कर दिया है, पर उसके कारणों को भी ध्यान से परखें और उपचार को भी. और इसे निर्वैयक्तिक असम्पृक्ति से न करके सहानुभूतिपूर्ण लगाव के साथ करें. महज़ अयातुल्लाह ख़ुमैनी बनने या आरोप लगाने या उपदेश देने या प्रलय का पैग़म्बर बनने में कोई निस्तार नहीं है. मिट्टी तो वही है, पर अगर चाक टेढ़ा हो या कुम्हार के हाथ लरज़ते हों तो बात बनने से रही. अगर हम ने पहचान लिया है कि रोग है तब हमें ही उसका निदान और उपचार करना होगा तभी हम -- मुक्तिबोध ही की एक और कविता "भूल-ग़लती" की याद कराते हुए कहूं तो -- "उस" को पहचान सकेंगे जो "मुहैया कर रहा लश्कर; हमारी हार का बदला चुकाने आयेगा. संकल्प-धर्मा चेतना का रक्त-प्लावित स्वर, हमारे ही हृदय का गुप्त स्वर्णाक्षर प्रकट हो कर विकट हो जायेगा."

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