Wednesday, July 28, 2010

डायर की वक़ालत

लेकिन ये प्रदूषित वर्ष हैं, हमारे;
दूर मारे गये आदमियों का ख़ून उछलता है लहरों में,
लहरें रंग देती हैं हमें, छींटे पड़ते हैं चांद पर.
दूर के ये अज़ाब हमारे हैं और उत्पीड़ितों के लिए संघर्ष
मेरे स्वभाव की एक कठोर शिरा है.


शायद यह लड़ाई गुज़र जायेगी दूसरी लड़ाइयों की तरह
जिन्हों ने हमें बांटे रखा, हमें मरा हुआ हुई,
हत्यारों के साथ हमारी हत्या करती हुई,
लेकिन इस समय की शर्मिन्दगी छूती है
अपनी जलती हुई उंगलियों से हमारे चेहरे,
कौन मिटायेगा निर्दोषों की हत्या में छुपी क्रूरता ?

--पाब्लो नेरुदा

आख़िरकार जैसा कि अंग्रेज़ी में कहते हैं बिल्ली बैग से बाहर आ ही गयी. हंस के सालाना जलसे पर सम्पादक राजेन्द्र जी ने ख़ामोशी तोड़ कर अपनी ओर से एक स्पष्टीकरण दे ही डाला. ऐसा लगता है कि बहस का राग अलापने वाले राजेन्द्र जी ख़ुद बहस में तभी उतरते हैं जब उन्हें यक़ीन हो जाता है कि उनकी ओर से मोर्चा संभालने वाले सिपहसालार नाकाम साबित हुए हैं या फिर उन्हें लगता है कि आख़िरी वार करने का अवसर अब उन्हीं के हाथ में है. वरना हंस के सालाना जलसे पर जिन्हें ऐतराज़ था वे तो अपनी बात कभी के कह चुके थे. लेकिन सम्भव है राजेन्द्र जी को लगा हो कि मोहल्ला ब्लौग के महारथी हमारे प्यारे साथी अविनाश जी और राजेन्द्र जी के बग़लबच्चे समरेन्द्र बहादुर शायद सफल नहीं हुए, लिहाज़ा हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता के भीष्म पितामह को अन्तत: मैदान में उतरना ही पड़ा है.

लेकिन अपने पक्ष को किसी भी तरह सही साबित करने की फ़िक्र में अपने सम्पाद्कीय में राजेन्द्र जी ने दो बुनियादी चूकें की हैं. पहली चूक सैद्धान्तिक है. वे लिखते हैं -- "हंस हमेशा एक लोकतांत्रिक विमर्श में विश्‍वास करता रहा है। हमारा मानना है कि एकतरफा बौद्धिक बहस का कोई अर्थ नहीं है। वह प्रवचन होता है। जब तक प्रतिपक्ष न हो, उसे बहस का नाम देना भी गलत है। हमने अपनी गोष्ठियों में प्रतिपक्ष को बराबरी की हिस्‍सेदारी दी है। जब भारतीयता की अवधारणा पर गोष्‍ठी हुई, तो हमने बीजेपी के सिद्धांतकार शेषाद्रिचारी को भी आमंत्रित किया था। अब इस बार सोचा था कि क्‍यों न प्रतिपक्ष के लिए छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्‍व रंजन को आमंत्रित किया जाए।"

ठीक बात है, बहस तो दो अलग-अलग विचारों वाले लोगों में ही होती है. लेकिन ऐसा लगता है कि राजेन्द्र जी बहस को भी उसी कोटि में रखते हैं जिस कोटि में साहित्य को "काव्य शास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धी मताम" वाले लोग रखते थे. यानी उमस से बेहाल मौसम में कुछ चपकलश हो जाये. वरना ये विश्वरन्जन कहां के सिद्धान्तकार ठहरे ? वे सरकार के पुलिसिआ तन्त्र का एक पुर्ज़ा हैं, जिन्हें पूरी मुस्तैदी से अपना फ़र्ज़ निभाना है, कोई सिद्धान्त नहीं बघारना. अलबत्ता बहस सही मानी में बहस तब होती जब मौजूदा सरकार के नीति-निर्धारकों या उनके प्रवक्ताओं-पैरोकारों में से किसी को राजेन्द्र जी बुलाते. पर उनका इरादा तो सनसनी पैदा करना था, मौजूदा रक्तपात में किसी सक्रिय हस्तक्षेप की सम्भावनाएं तलाश करना नहीं. क्या राजेन्द्र जी का ख़याल था कि हंस की गोष्ठी के बाद विश्वरंजन शस्त्र समर्पण करके रक्तपात से उपराम हो जाते ? या अरुन्धती यह मान लेती कि छत्तीसगढ़ और झारखण्ड में लड़ रहे लोगों का रास्ता ग़लत है ? इस तरह की अपेक्षाओं के साथ जिन बहसों की योजना बनती है वह बौद्धिक विलास नहीं है तो और क्या है ?
रही बात शास्त्रार्थ की पुरानी परम्परा की दुहाई देने की, तो राजेन्द्र जी यह कैसे भूल गये कि शास्त्रार्थ शास्त्रियों में होता है. हमारी नज़र में तो ऐसा कोई शस्त्रार्थ नहीं आया जिसमें एक ओर शास्त्री हो, दूसरी ओर बधिक, ख़्वाह वह कविता ही क्यों न लिखता हो. हां, एक उदाहरण ज़रूर है जब शास्त्री पराजित होने के कगार पर पहुंच कर बधिक बनने पर उतारू हो गया था और जिस शास्त्रार्थ ने शास्त्रार्थ नामक इस सत्ता विमर्श की सारी पोल पट्टी खोल कर रख दी थी. पाठक गण याग्यवल्क्य-गार्गी सम्वाद को याद करें जिस में गार्गी द्वारा अपने सारे तर्कों के खण्डन के बाद याग्यवल्क्य ने गार्गी को सीधे-सीधे धमकी दी थी कि इस से आगे प्रश्न करने पर तुम्हारा सिर टुकड़े-टुकड़े हो जायेगा. तो यह तो है शास्त्रार्थ की वो पुरानी परम्परा.
अब राजेन्द्र जी का झूठ ! क्षमा कीजिये इसे और कोई नाम देना सम्भव नहीं है. राजेन्द्र जी कहते हैं और मैं उन्हीं को उद्धृत कर रहा हूं -- "हंस का दफ्तर सब तरह की बहसों, नाराजगियों, शिकायतों या अन्‍य भड़ासों का खुला मंच है। वक्‍ताओं के नाम पर विचार ही हो रहा था कि यार लोग ले उड़े और पंकज विष्‍ट ने अपने समयांतर में लगभग धिक्‍कारते हुए कि हम बस्‍तर क्षेत्र के हत्‍यारे पुलिस डीजी और अरुंधती को एक ही मंच पर लाने की हिमाकत करने जा रहे हैं।"
झूठ इस में यह है कि नामों पर विचार ही नहीं हो रहा था, बल्कि वे फ़ाइनल हो चुके थे. अगर ऐसा न होता तो पंकज बिष्ट अपने समयान्तर में ऐसा लेख क्यों लिखते भला. यही नहीं, जब मैं ने राजेन्द्र जी से पूछा था कि यह आप क्या कर रहे हैं तो उन्हों ने एक बार भी यह नहीं कहा कि अभी कुछ भी अन्तिम रूप से तय नहीं हुआ है. बल्कि वे तो सारा समय मुझसे वैसी ही कजबहसी करते रहे जैसी उन्हों ने अपने सम्पाद्कीय में की है. लेकिन इसका मलाल क्या. यह उनका पुराना वतीरा है. यह तो अरुन्धती ने भंड़ेर कर दिया और राजेन्द्र जी - मुहावरे की ज़बान में कहें तो - डिफ़ेन्सिव में चले गये वरना वे भी नामवर जी, खगेन्द्र ठाकुर, आलोकधन्वा और अरुण कमल की तरह विश्वरंजन की बग़ल में सुशोभित हो कर धन्य-धन्य हो रहे होते और बहस का पुण्य लाभ कर रहे होते. सो वे यह न कहें कि अभी नामों पर विचार ही हो रहा था.
राजेन्द्र जी ने मुझसे सीधे सवाल पूछा है कि क्या मैं उनका पक्ष नहीं जानता. वे लिखते हैं - "दिल्‍ली में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने को आतुर नीलाभ ने भी "वंदना के इन सुरों में एक सुरा मेरा मिला लो" के भाव से एक लेख पेल डाला। इसमें उन्‍होंने पूछा कि मैं किधर हूं, यह मैंने कभी साफ नहीं किया। जो कुछ पढ़ते-सुनते न हों, उन्‍हें क्‍या जवाब दिया जाए? चाहे तो वे इस बार जुलाई 2010 के संपादकीय पर नजर डाल लें।"
हंस का जुलाई अंक मैं ने अभी नहीं देखा, वह तो इस विवाद के बाद आया है लिहाज़ा सम्भव है राजेन्द्र जी ने कुछ डैमेज कण्ट्रोल एक्सरसाइज़ की हो या हो सकता है हम सिरफिरों की बातों का कुछ असर हुआ हो चाहे वे हमें गालियां ही दें . लेकिन मैं राजेन्द्र जी का पक्ष बख़ूबी जानता हूं. इसीलिए यह भी जानता हूं कि माओवादियों की ओर से शान्ति प्रक्रिया को संचालित करने वाले कौमरेड आज़ाद और तीस वर्षीय युवा पत्रकार हेम चन्द्र पाण्देय की जो निर्मम हत्या फ़र्ज़ी मुठ्भेड़ में पुलिस ने की है उस पर पिछ्ले एक महीने के दौरान जो बैठकें हुई हैं उनमें राजेन्द्र जी क्यों नज़र नहीं आये. हम उनसे यह नहीं कहते कि वे बहस न करें, ज़रूर करें पर अगर वह बहस हमें सम्वेदनहीन कर रही हो या ज़रूरी कामों से भटका रही हो तब हमें ऐसी बहस पर लानत भेजने का साहस होना चाहिए भले ही ऐसा करने पर हंस सम्पादक हमें फ़ासिस्ट ही क्यों न कहें. हम अच्छी तरह जानते हैं कि वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति वाले विमर्श में राजेन्द्र जी का पक्ष क्या है.
चलते चलाते एक बात और. राजेन्द्र जी ने ब्लौग वालों को गालियां देते हुए इस बात पर चुप्पी साध ली है कि ख़ुद उन्होंने इस विवाद को बढ़ाने में एक नहीं दो ब्लौगों की मदद ली है. पर क्या करें जब पाठकों ने इन ब्लौग वालों को ही राजेन्द्र जी का दलाल कहना शुरू कर दिया.
अन्त में यह कि हंस की परम्परा का ज़िक्र करते हुए राजेन्द्र जी उसके संस्थापक प्रेमचन्द का उल्लेख ज़रूर करते हैं. अगर प्रेमचन्द ऐसेरे गोष्ठी करते तो क्या वे एक ओर क्रान्तिकारियों के समर्थक गणेश शंकर विद्यार्थी और दूसरी ओर जनरल डायर को बुलाते ?

Sunday, July 25, 2010

बोलना हो तो तुम्हारे हाथ की दो चोट बोले

प्रिय अजय और अन्य साथियो,
जनज्वार पर कई दिनों से राहुल फ़ाउण्डेशन, परिकल्पना प्रकाशन और सी एल आई की एक शाख से जुड़े शशि प्रकाश, कात्यायनी, सत्यम और उनके कुछ और साथियों के ख़िलाफ़ उनके ही अनेक पुराने साथियों के आरोप पढ़ता आ रहा हुं. किसी हद तक हतप्रभ हुं और किसी क़दर उदास भी. कारण पहला यह है कि मैं सांगठनिक तौर पर तो नहीं लेकिन लिखाड़ियों के नाते से शशि प्रकाश, कात्यायनी, सत्यम को जानता रहा हुं. शशि प्रकाश को बहुत दूर से, लेकिन बाक़ी दोनों को नज़दीक से.परिकल्पना प्रकाशन से मेरा ताज़ा कविता संग्रह भी प्रकाशित हुआ है. मैं उनकी राजनीति क कभी समर्थक नहीं रहा और राहुल फ़ाउण्डेशन को ले कर भी मेरे मन म्रं सवाल रहे हैं. कारण यह कि न्यास वग़ैरा बनाना रजनैतिक दलों का काम नहीं होता और पुस्तकों का प्रकाशन भी राजनैतिक काम काज को बढ़ाने का साधन होता है, जब वह साध्य बन जाये या राजनैतिक काम काज की तुलना में प्राथमिकता ग्रहण कर ले तो समझ लेना चाहिए कि दल अब क़दम ताल ही कर रहा है. लेकिन चूंकि मैं सी एल आई से नहीं जुड़ा था, इसलिये यह मेरा सिर दर्द नहीं था.
मैं १९७० से ही भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी मा.ले. (लिबरेशन) से जुड़ा था -- बतौर सदस्य नहीं, पर उससे कम भी नहीं. अपने दिवंगत साथी गोरख पांडेय की तरह पार्टी का सदस्य न होते हुए भी मैं लगभग सात साल तक पार्टी के सांस्कृतिक संगठन जन संस्कृति मंच का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी रहा और पार्टी और जसम के साथ अनेक सैद्धांतिक और व्यवहार सम्बन्धी अनसुलझे मतभेदों के चलते मैं अन्ततः जसम से और पार्टी की गतिविधियों से अलग हो गया. पर इसका ज़िक्र आगे या फिर कभी.
इस समय मैं यह कहना चाहता हुं कि इस सारे मुद्दे को सिर्फ़ एक ही संगठन की आलोचनात्मक चीड़-फाड़ के सहारे समझ्ने-समझाने की मुहिम अन्त में व्यक्ति केन्द्रित हो कर असली विषय से भटक जायेगी और यह विषय है वामपन्थी राजनैतिक दलों में भटकाव की समस्या -- उसके कारण और उपचार. ज़ाहिर है सी एल आई का यह भटकाव बहुत पुराना है और पार्टी तथा उसके तहत काम करने वाले संगठनों को टूटने, बंटने, विपथगामी होने की ओर ले गया है. जब विचारधारा में खोट होती है तो वह राजनैतिक और सांस्कृतिक स्तर पर भी प्रकट होती है. उस दल और संगठन से जुड़े व्यक्तियों का व्यवहार भी पूर्वाग्रहों, नफ़रतों, अमानवीयता और अतार्किकता का शिकार हो जाता है. दल में कौकस बन जाते हैं, सम्विधानेतर शक्ति केन्द्र विकसित हो जाते हैं (यह परिघटना सिर्फ़ कांग्रेस तक सीमित नहीं है, वामपन्थी दल भी इस संक्रमण से अछूते नहीं रह पाये हैं).
पुराने मार्क्सवादी सिद्धांत में दो लाइनों के संघर्ष का बड़ा महत्व रहा है. जब-जब इस सिद्धांत को ताक पर रख कर काम किया गया है, विकृतियां पैदा हुई हैं. इन विकृतियों की क़िस्म अलग-अलग हो सकती है -- सी एल आई में एक क़िस्म की तो माले में दूसरे क़िस्म की -- लेकिन इनका उत्स विचारधारात्मक भटकाव में ही है और इस भटकाव का सबसे पहला लक्षण पार्टियों और उनके संगठनों के सांस्कृतिक व्यवहार में लक्षित होता है. अनेक वामपन्थी राजनैतिक दलों के सांस्कृतिक संगठन तो दूर रहे, उनकी कोई स्पष्ट सांस्कृतिक नीति भी नहीं है. जिन वामपन्थी दलों के सांस्कृतिक संगठन हैं भी, ज़रा उनका मुलाहिज़ा फ़र्माइए. क्या उनमें आज के राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक संकट का सामना करने का माद्दा है ? मत भूलिए कि राजनीति का एक अंश नीति भी है जिस से नैतिक शब्द बना है. नैतिकता के बिना न राजनीति सफल होगी, न नीति और न ही सांस्कृतिक पहलक़दमी.
अगर सचमुच साथी लोग कात्यायनी, शशिप्रकाश और सी एल आई से इतने ही नालां थे और हैं तो उन पर और भी दायित्व बनता है कि इस मुद्दे तो सिर्फ़ कुछ व्यक्तियों तक सीमित न करके व्यापक बनायें. इसका यह मतलब नहीं है कि अगर शशिप्रकाश और उनके साथी दोषी हैं तो उनासे जवाब न मांगा जाये या उन्हें कटघरे में न खड़ा किया जाये. लेकिन अन्त में सही विचारधारा, सही काम काज और सही राजनैतिक-सांस्कृतिक दिशा और पहलक़दमी ही आपका जवाब होना चाहिए. कम्यूनिस्ट जब पतित होता है तो वह उतना ही पतित होता है जितना कोई और पर चूंकि वह सबसे ज़्यादा नैतिकता का राग अलापता है इसलिये हमें आघात पहुंचता है. क्या कम्यूनिस्टों के पतन की भर्त्सना करते हुए हम औरों के पतन का औचित्य ठहरा सकते हैं ? हम बच्चन जी को तो हम भुला चुके हैं पर उनकी दो पंक्तियां मुझे अच्छी लगती हैं -- बोलना हो तो
तुम्हारे हाथ की दो चोट बोले

फ़िलहाल इतना ही लिख रहा हुं. आगे फिर......

नीलाभ

बोलना हो तो तुम्हारे हाथ की दो चोट बोले

प्रिय अजय और अन्य साथियो,
जनज्वार पर कई दिनों से राहुल फ़ाउण्डेशन, परिकल्पना प्रकाशन और सी एल आई की एक शाख से जुड़े शशि प्रकाश, कात्यायनी, सत्यम और उनके कुछ और साथियों के ख़िलाफ़ उनके ही अनेक पुराने साथियों के आरोप पढ़ता आ रहा हुं. किसी हद तक हतप्रभ हुं और किसी क़दर उदास भी. कारण पहला यह है कि मैं सांगठनिक तौर पर तो नहीं लेकिन लिखाड़ियों के नाते से शशि प्रकाश, कात्यायनी, सत्यम को जानता रहा हुं. शशि प्रकाश को बहुत दूर से, लेकिन बाक़ी दोनों को नज़दीक से.परिकल्पना प्रकाशन से मेरा ताज़ा कविता संग्रह भी प्रकाशित हुआ है. मैं उनकी राजनीति क कभी समर्थक नहीं रहा और राहुल फ़ाउण्डेशन को ले कर भी मेरे मन म्रं सवाल रहे हैं. कारण यह कि न्यास वग़ैरा बनाना रजनैतिक दलों का काम नहीं होता और पुस्तकों का प्रकाशन भी राजनैतिक काम काज को बढ़ाने का साधन होता है, जब वह साध्य बन जाये या राजनैतिक काम काज की तुलना में प्राथमिकता ग्रहण कर ले तो समझ लेना चाहिए कि दल अब क़दम ताल ही कर रहा है. लेकिन चूंकि मैं सी एल आई से नहीं जुड़ा था, इसलिये यह मेरा सिर दर्द नहीं था.
मैं १९७० से ही भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी मा.ले. (लिबरेशन) से जुड़ा था -- बतौर सदस्य नहीं, पर उससे कम भी नहीं. अपने दिवंगत साथी गोरख पांडेय की तरह पार्टी का सदस्य न होते हुए भी मैं लगभग सात साल तक पार्टी के सांस्कृतिक संगठन जन संस्कृति मंच का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी रहा और पार्टी और जसम के साथ अनेक सैद्धांतिक और व्यवहार सम्बन्धी अनसुलझे मतभेदों के चलते मैं अन्ततः जसम से और पार्टी की गतिविधियों से अलग हो गया. पर इसका ज़िक्र आगे या फिर कभी.
इस समय मैं यह कहना चाहता हुं कि इस सारे मुद्दे को सिर्फ़ एक ही संगठन की आलोचनात्मक चीड़-फाड़ के सहारे समझ्ने-समझाने की मुहिम अन्त में व्यक्ति केन्द्रित हो कर असली विषय से भटक जायेगी और यह विषय है वामपन्थी राजनैतिक दलों में भटकाव की समस्या -- उसके कारण और उपचार. ज़ाहिर है सी एल आई का यह भटकाव बहुत पुराना है और पार्टी तथा उसके तहत काम करने वाले संगठनों को टूटने, बंटने, विपथगामी होने की ओर ले गया है. जब विचारधारा में खोट होती है तो वह राजनैतिक और सांस्कृतिक स्तर पर भी प्रकट होती है. उस दल और संगठन से जुड़े व्यक्तियों का व्यवहार भी पूर्वाग्रहों, नफ़रतों, अमानवीयता और अतार्किकता का शिकार हो जाता है. दल में कौकस बन जाते हैं, सम्विधानेतर शक्ति केन्द्र विकसित हो जाते हैं (यह परिघटना सिर्फ़ कांग्रेस तक सीमित नहीं है, वामपन्थी दल भी इस संक्रमण से अछूते नहीं रह पाये हैं).
पुराने मार्क्सवादी सिद्धांत में दो लाइनों के संघर्ष का बड़ा महत्व रहा है. जब-जब इस सिद्धांत को ताक पर रख कर काम किया गया है, विकृतियां पैदा हुई हैं. इन विकृतियों की क़िस्म अलग-अलग हो सकती है -- सी एल आई में एक क़िस्म की तो माले में दूसरे क़िस्म की -- लेकिन इनका उत्स विचारधारात्मक भटकाव में ही है और इस भटकाव का सबसे पहला लक्षण पार्टियों और उनके संगठनों के सांस्कृतिक व्यवहार में लक्षित होता है. अनेक वामपन्थी राजनैतिक दलों के सांस्कृतिक संगठन तो दूर रहे, उनकी कोई स्पष्ट सांस्कृतिक नीति भी नहीं है. जिन वामपन्थी दलों के सांस्कृतिक संगठन हैं भी, ज़रा उनका मुलाहिज़ा फ़र्माइए. क्या उनमें आज के राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक संकट का सामना करने का माद्दा है ? मत भूलिए कि राजनीति का एक अंश नीति भी है जिस से नैतिक शब्द बना है. नैतिकता के बिना न राजनीति सफल होगी, न नीति और न ही सांस्कृतिक पहलक़दमी.
अगर सचमुच साथी लोग कात्यायनी, शशिप्रकाश और सी एल आई से इतने ही नालां थे और हैं तो उन पर और भी दायित्व बनता है कि इस मुद्दे तो सिर्फ़ कुछ व्यक्तियों तक सीमित न करके व्यापक बनायें. इसका यह मतलब नहीं है कि अगर शशिप्रकाश और उनके साथी दोषी हैं तो उनासे जवाब न मांगा जाये या उन्हें कटघरे में न खड़ा किया जाये. लेकिन अन्त में सही विचारधारा, सही काम काज और सही राजनैतिक-सांस्कृतिक दिशा और पहलक़दमी ही आपका जवाब होना चाहिए. कम्यूनिस्ट जब पतित होता है तो वह उतना ही पतित होता है जितना कोई और पर चूंकि वह सब्स ज़्यादा नैतिकता का राग अलापता है इसलिये हमें आघात पहुंचता है. क्या कम्यूनिस्टों के पतन की भर्त्सना करते हुए हम औरों के पतन का औचित्य ठहरा सकते हैं ? हम बच्चन जी को तो हम भुला चुके हैं पर उनकी दो पंक्तियां मुझे अच्छी लगती हैं -- बोलना हो तो
तुम्हारे हाथ की दो चोट बोले

फ़िलहाल इतना ही लिख रहा हुं. आगे फिर......

नीलाभ

Thursday, July 15, 2010

डायर से बात करने की वकालत

डायर से बात करने की वकालत
आज अविनाश ने अपने मोहल्ला ब्लोग पर हंस की ओर से जवाब देने क ज़िम्मा उठाया है और वही तर्क दिया है जिसके बारे में मैंने अपनी टिप्पणी में शंका प्रकट की थी. जिस तरह के कार्यक्रम की झांकी अविनश ने अपनी टिप्पणी में दी है वह हम सब जानते हैं कि कपोल कल्पना के सिवा और कुछ नहीं है.
हंस के सम्पादक राजेंद्र यादव ने भले ही गोष्ठी का शीर्षक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के नाटक वैदिक हिंसा हिंसा न भवति के शीर्षक से ले कर दिया हो और भले ही उनकी मंशा सत्ता की हिंसा पर बहस चलाने की हो लेकिन इस बहस के लिये सत्ता पक्ष की ओर से क्या विश्वरंजन ही रह गये थे जो न तो नीति निर्धारकों मॆं हैं न मौजूदा सरकार के प्रवक्ताओं में. वे सत्ता के एक ऐसे अधिकारी हैं जिनका काम सत्ता के फ़ैसलों को लागू करना है और उन्हें सही साबित करना है जो वे अख़बारों के माध्यम से कर रहे हैं. लेकिन चूंकि मीडिया अब अपनी विश्वसनीयता खो चुका है इसलिये हंस जैसी पत्रिका ज़्यादा कारगर साबित हो सकती है, इसलिये बहस चलाने की तो कोई सम्भावना ही नहीं थी. यह भ्रम पैदा करने की कोशिश की गयी थी कि हंस की गोष्ठी के माध्यम से एक संवाद की भूमि तैयार करने की कोशिश की जा रही है,
अरुन्धती के साथ तीन चार माओवाद समर्थकों को मंच पर लाने और विश्वरंजन को घेरने और नारे लगाती भीड़ द्वारा उनका पर्दा फ़ाश करने का जो सिनैरियो अविनाश ने तैयार किया है वह हमारी फ़िल्मों जैसा है और सच्चाई आम तौर पर इससे बहुत अलग होती है.
रहा सवाल राजेंद्र जी की उदास मुख मुद्रा का जिसका उल्लेख अविनाश ने किया है और उनका हवाला देते हुए उनका स्पष्टीकरण पेश किया है तो क्या वे बतायेंगे कि यही सब राजेंद्र जी ने मुझसे क्यों नहीं कहा था. उन से जो बात हुई थी उससे यह साफ़ था कि सब तै हो चुका है. बल्कि वे मुतमईन थे कि सब फ़ाइनल है. दूसरी बात मेरी टिप्पणी से पहले जनज्वार और हाशिया पर दो टिप्पणियां आ चुकी थीं -- अजय प्रकाश और विश्वदीपक की. राजेन्द्र जी का स्पष्टीकरण आने में इतनी देर क्यों लगी. क्या इसलिये कि अब तुरुप क पत्ता ही पिट गया.
अभी अभी अविनाश ने किन्हीं समरेंद्र सिंह की टिप्पणी मुझे भेजी है जिसमें मेरी खूब ख़बर ली गयी है. ख़ैर, मुझे जो कहना था मैं ने खुल्लम खुल्ला कहा है, अगर हंस को या राजेंद्र यादव को कटघरे में खड़ा करने से मेरी दुकान चलती है तो समरेंद्र को मेरी तरफ़ से छूट है कि वे मुझे गरिया कर अपनी दुकान जमा लें.
चूंकि हंस के साथ प्रेमचन्द का नाम भी जुड़ा है इसलिये एक प्रश्न उन सब से पूछ्ना चाहता हूं जो संवाद संवाद की गुहार लगाये हुए हैं -- क्या प्रेमचन्द अगर अंग्रेज़ी राज और उसकी हिंसा पर कोई गोष्ठी करते तो क्या वे डायर को मंच पर बुलाते ?

--नीलाभ

Tuesday, July 13, 2010

मर गया देश, अरे, जीवित रह गये तुम

मर गया देश, अरे, जीवित रह गये तुम

(अजय प्रकाश और विश्वदीपक की टिप्पणियों पर एक प्रतिक्रिया)

प्रिय अजय प्रकाश और विश्वदीपक,
दोस्तो या तो तुम लोग बहुत भोले हो या फिर सब कुछ जानते-बूझते हुए मामले को व्यर्थ ही उलझा रहे हो. हंस ने अगर इस बार की सालाना गोष्ठी में विश्वरंजन और अरुन्धती राय दोनों को एक ही मंच पर लाने की योजना बनायी है तो इसके निहितार्थ साफ़ हैं. पहली बात तो यह है कि इस बार की गोष्ठी को "वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति" जैसा शीर्षक दे कर राजेन्द्र जी यह भ्रम देना चाहते हैं कि वे एक गम्भीर बहस का सरंजाम कर रहे हैं. वे यह भ्रम भी पैदा करना चाहते हैं कि हम एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था में रह रहे हैं और इसमें सबको अपनी बात कहने क अधिकार है.
दर असल, सत्ता की तरफ़ झुके लोगों का यह पुराना वतीरा है. ख़ून ख़्रराबा भी क्करते रहो और बहस भी चलाते रहो. अब तक राजेन्द्र जी ने झारखण्ड और छत्तीसगढ़ और उड़ीसा या फिर आन्ध्र और महाराष्ट्र में सरकार द्वारा की जा रही लूट-मार और ख़ून ख़्रराबे और आदिवासियों की हत्या पर कोई स्पष्ट स्टैण्ड नहीं लिया है, लेकिन बड़ी होशियारी से वे अण्डर डौग्ज़ के पक्षधर होने की छवि बनाये हुए हैं. इसके अलावा वे यह भी जानते हैं कि जब सभी कुछ ढह रहा हो, जब सभी लोग नंगे हो रहे हों तो एक चटपटा विवाद उन्हें कम से कम चर्चा में बनाये रखेगा और इतना हंस की दुकानदारी चलाने के लिए काफ़ी है, गम्भीर चर्चा से उन्हें क्या लड्डू मिलेंगे ! अब यही देखिये कि बी जमालो तो भुस में तीली डाल कर काला चश्मा लगाये किनारे जा खड़ी हुई हैं और आप सब चीख़-पुकार मचाये हुए हैं.
उधर, हंस के मंच पर और वह भी अरुन्धती राय के साथ आने पर विश्व रंजन को जो विश्वसनीयता हासिल होगी वह नामवर सिंह, आलोक धन्वा, अरुण कमल और खगेन्द्र ठाकुर जैसे महारथियों से अपनी किताब का विमोचन कराने से कहीं ज़्यादा बैठेगी. साथ ही एक जन विरोधी पुलिस अफ़सर की काली छवि को कुछ ऊजर करने का कम भी करेगी. आख़िर हंस "प्रगतिशील चेतना का वाहक" जो ठहरा.
असली मुश्किल अरुन्धती की है. अगर वह शामिल होती है तो राजेन्द्र जी की चाल कामयाब हो जाती है और विश्व रंजन के भी पौ बारह हो जाते हैं. नहीं शामिल होती तो राजेन्द्र जी, विश्व रंजन और उनके होते-सोते हल्ला करेंगे कि देखिये, कितने खेद की बात है, इन लोगों में तो जवाब देने की भी हिम्मत नहीं, भाग गये, भाग गये, हो, हो, हो, हो !
इसलिए प्यारे भाइयो, इस सारे खेल को समझो. यह पूरा आयोजन कुल मिला कर सत्ताधारी वर्ग के हाथ मज़बूत करने की ही कोशिश है.
अब रहा सवाल हिन्दी साहित्य का -- तो दोस्तो विश्व रंजन के कविता संग्रह के विमोचन में जो चेहरे दिख रहे हैं, उनसे हिन्दी साहित्य के गटर की, उसकी ग़लाज़त की, सड़ांध की सारी असलियत खुल कर सामने आ जाती है. वैसे इसकी शुरुआत मौजूदा दौर में करने का सेहरा भी आदरणीय राजेन्द्र जी के सिर बंधा था जब उन्होंने बथानी टोला हत्याकाण्ड के बाद बिहार के सारे लेखकों की बिनती ठुकरा कर लालू प्रसाद यादव से एक लाख का पुरस्कार ले लिया था. उनका पक्ष बिलकुल साफ़ है. यही वजह है कि वे किसी ऐसे स्थान पर नहीं नज़र आते जहां सत्ता के साथ उनका छत्तीस का आंकड़ा बनने की आशंका हो. वे किसी पत्रकार के बेटे की शादी की दावत में आई आई सी में " खाने-पीने" का न्योता नहीं ठुकराएंगे, लेकिन फ़र्ज़ी मुठ्भेड़ में जिसे कहते हैं "इन कोल्ड ब्लड" मार दिये गये युवा पत्रकार हेम चन्द्र पाण्डे की अन्त्येष्टि में शामिल होने का ख़तरा कभी नहीं मोल लेंगे. कहां जाना है कहां नहीं जाना इसे ये सभी लोग अच्छी तरह जानते हैं जिन्हें आप हिन्दी के पुरोधा और सामाजिक परिवर्तन के सूत्रधार बनाये हुए, कातर भाव से उनके कर्तव्यों की याद दिला रहे हैं.
इनमें से कौन नहीं जानता कि बड़े पूंजीपति घरानों के इशारे पर हमारी मौजूदा सरकार झारखण्ड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, आन्ध्र और महाराष्ट्र में कैसा ख़ूनी और बेशर्म खेल खेल रही है. लेकिन ये अपने अपने सुरक्षा के घेरे में सुकून से "साहित्य चर्या" में लीन हैं, इसी ख़ूनी सरकार के लोहे के पंजे के कविता संग्रह के क़सीदे पढ़ रहे हैं. क्या इन्हें माफ़ किया जा सकता है ? मत भूलिए कि जो समाज की बड़ी बड़ी बातें करते हैं उनका उतना ही पतन होता है. यह हमारे ही वक़्त की बदनसीबी है कि "गोली दागो पोस्टर" का रचनाकार उसी दारोग़ा के साथ है जिसके उत्पीड़न पर उसने सवाल उठाया था. ये वही अरुण कमल हैं जिन्हों ने लिखा था : " जिनके मुंह मॆं कौर मांस का उनको मगही पान". बाक़ियों की तो बात ही छोड़िए.
तो भी, मैं तुम दोनों को इस बात पर ज़रूर बधाई देना चाहता हूं कि इस चौतरफ़ा ख़ामोशी और गिरावट के माहौल में तुम दोनों ने इस ज़रूरी मुद्दे को उठाया है हालांकि चोट हलकी है साथियो, बहरों को सुनाने के लिए ज़ोरदार धमाका चाहिये.
अन्त में अपने एक प्रिय कवि का कवितांश जिसे हम अब धीरे-धीरे भूल रहे हैं :

ओ मेरे आदर्शवादी मन,
ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन,
अब तक क्या किया ?
जीवन क्या जिया !!

उदरम्भरि बन अनात्म बन गये,
भूतों की शादी में कनात से तन गये,
किसी व्यभिचारी के बन गये बिस्तर,

दु:खों के दाग़ों को तमग़े सा पहना,
अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहना,
असंग बुद्धि व अकेले में सहना,
ज़िन्दगी निष्क्रिय बन गयी तलघर,

अब तक क्य किया,
जीवन क्या जिया!!

................

भावना के कर्तव्य त्याग दिये,
हॄदय के मन्तव्य मर डाले!
बुद्धि का भाल ही फोड़ दिया,
तर्कों के हाथ ही उखाड़ दिये,
जम गये, जाम हुए फंस गये,
अपने ही कीचड़ में धंस गये !!
विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में,
आदर्श खा गये.

अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया !!
बहुत-बहुत ज़्यादा लिया,दिया बहुत-बहुत कम
मर गया देश, अरे, जीवित रह गये तुम !

--नीलाभ