Thursday, September 30, 2010

रिसती हुई क्रान्ति

पांचवीं किस्त
पूंजी और पावर के पैंतरेबाज़ पी. चिदम्बरम का क़िस्सा

लोकतन्त्र की भंड़ैती को जारी रखने के लिए चुनाव जीतने वाले और जनाधार सम्पन्न नेताओं और उन लोगों के बीच -- जो वास्तव में देश को चलाते हैं , लेकिन या तो जिन्हें ( न्यायाधीशों और नौकरशाहों को ) चुनाव जीतने की ज़रूरत नहीं होती या फिर जिन्हें ऐसा करने की बन्दिशों से मुक्त कर दिया गया है ( जैसे हमारे प्रधान मन्त्री ) -- श्रम का बंटवारा लोकतान्त्रिक परिपाटी में लगायी गयी अचूक सेंध है. यह कल्पना करना भूल होगी कि सरकार की बाग-डोर सोनिया गांधी या राहुल गांधी के हाथ में है. असली सत्ता कुलीन अल्पतन्त्र ( न्यायाधीशों, नेताओं और नौकरशाहों ) की एक चुड़ैल-सभा के हाथों में चली गयी है. अपने तईं इन लोगों को रेस के असील घोड़ों की तरह वे गिने-चुने पूंजीपति चलाते हैं जो कमो-बेश पूरे देश की हर चीज़ के मालिक हैं. वे भले ही अलग-अलग राजनैतिक दलों से आते हों और राजनैतिक विरोधी होने की नौटंकी करते हों, लेकिन यह जनता की आंखों में धूल झोंकने की चालें हैं. असली मुक़ाबला थैलीशाहों के बीच धन्धे की छीन-झपट है.

इस चुड़ैल-सभा के एक वरिष्ठ सदस्य पी. चिदम्बरम हैं, जिनके बारे में कुछ लोग कहते हैं कि वे प्रतिपक्षी दलों के इतने चहेते हैं कि अगर कांग्रेस अगला चुनाव हार भी जाये तो भी वे गृहमन्त्री बने रहेंगे. एक तरीक़े से शायद यह उनके लिए लाज़िमी भी होगा, क्योंकि उन्हें जो काम उनके आक़ाओं ने सौंपा है उसे पूरा करने के लिए उन्हें हो सकता है अपने पद पर कुछ और साल बने रहना पड़े. लेकिन वे रहते हैं या जाते हैं इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला. पांसे तो फेंके जा चुके हैं.

अपने पुराने विश्वविद्यालय, हार्वर्ड, में एक भाषण देते हुए अक्तूबर २००७ में चिदम्बरम ने इस ज़िम्मेदारी का ख़ाका पेश किया था. भाषण का शीर्षक था : "ग़रीब अमीर देश : विकास की चुनौतियां." उन्होंने आज़ादी के बाद के तीन दशकों को "गंवा दिये गये वर्ष" कहा था और सकल घरेलू उत्पाद दर की डींग हांकी थी जो २००२ में ६.९ फ़ीसदी से ऊपर उठ कर २००७ में ९.४ फ़ीसदी हो गयी थी. उन्हों ने जो कहा था वह मेरे लिए इतना महत्वपूर्ण है कि मैं उनके बेस्वाद गद्य के एक अंश को पढ़्ने का दण्ड आपको भी दे रही हूं :

"कोई सोचता होगा कि जैसे-जैसे अर्थ-व्यवस्था एक ऊंची वृद्धि दर की ओर अग्रसर होगी, विकास की चुनौतियां -- एक लोकतन्त्र में -- उत्तरोत्तर कम उग्र होती जायेंगी. असलियत इससे बिलकुल उलट है. लोकतन्त्र -- या कहा जाये कि लोकतान्त्रिक संस्थाओं और समाजवादी युग की विरासत -- ने वास्तव में विकास की चुनौतियां बढ़ा दी हैं. मुझे कुछ मिसालों से इसे समझाने की इजाज़त दीजिये. हिन्दुस्तान की खनिज सम्पदा में कोयला ( दुनिया का चौथा सबसे बड़ा भण्डार), कच्चा लोहा, मैंगनीज़, माइका, बौक्साइट, कच्चा टाइटैनियम, क्रोमाइट, हीरा, प्राकृतिक गैस, पेट्रोलियम और चूने की खदानें हैं. सामान्य ज्ञान हमें बताता है कि हमें जल्दी और कौशलपूर्ण ढंग से इनका खनन करना चाहिये. इस काम में भारी पूंजी निवेश, कुशल संगठनों और ऐसी पर्यावरण नीति की ज़रूरत पड़ती है जो बाज़ार की ताक़तों को काम करने की छूट देगी. खनन उद्योग में इनमें से कोई भी तत्व आज मौजूद नहीं है. इस सिलसिले में क़ानून पुराने पड़ चुके हैं और संसद सिर्फ़ हाशिये पर ठोंक-पीट कर पा रही है. खनन की सम्भावनाओं को तलाशने और खनन करने के लिए पूंजी को आकर्षित करने में हमारी कोशिशें कमो-बेश नाकाम रही हैं. इस बीच, यह क्षेत्र वस्तुत: राज्य सरकारों के हाथों में क़ैद है. यथास्थिति में किसी भी क़िस्म के परिवर्तन का विरोध ऐसे गुट कर रहे हैं जो -- काफ़ी उचित ढंग से -- जंगलों या पर्यावरण या आदिवासी आबादी के आन्दोलन का समर्थन करते हैं.ऐसे राजनैतिक दल भी हैं जो खनन को राज्य सरकारों की इजारेदारी मानते हैं और जिन्हें निजी क्षेत्र के प्रवेश पर विचारधारा के आधार पर ऐतराज़ है. वे स्थापित श्रम संघों से समर्थन बटोरते हैं. संघों के पीछे -- उनकी जानकारी या नाजानकारी में -- व्यापारी माफ़िया खड़ा है. नतीजा -- वास्तविक पूंजी निवेश कम है, खनन उद्योग कछुए की चाल से बढ़ रहा है और अर्थ-व्यवस्था पर बोझ का काम करता है. मैं आपको एक और मिसाल दूंगा. उद्योगों को स्थापित करने के लिए ज़मीन के बड़े-बड़े टुकड़े चाहिएं. खनिज-आधारित उद्योगों मसलन इस्पात और ऐल्युमिनियम को खनन, माल की तैयारी और उत्पादन के लिए ज़मीन के बड़े-बड़े क्षेत्रों की ज़रूरत है. हवाई अड्डे, बन्दरगाहें, बांध और बिजली-घरों के लिए भूमि के विशाल क्षेत्र चाहिएं ताकि वे सड़क और रैल सम्पर्क और सहायक और संसाधन सम्बन्धी सुविधाएं उपलब्ध करा सकें.अब तक, सरकार द्वारा भूमि का अधिग्रहण प्रभुसत्ता के अधिकार को लागू करके किया जाता था. मुद्दा केवल वाजिब मुआवज़ा देने का था. यह स्थिति अब बदल गयी है. अब हर परियोजना में नये दावेदार हैं और उनकी दावेदारी को स्वीकार करना ज़रूरी है. अब हमें पर्यावरण पर असर के मूल्यांकन . अनिवार्य अधिग्रहण के औचित्य, सही मुआवज़े, क्षतिपूर्ति, विस्थापित लोगों के पुनर्वास और पुनर्प्रतिष्ठा, वैकल्पिक आवास और खेती की ज़मीन जैसे मुद्दों को ध्यान में रखना पड़ता है..."

"बाज़ार की ताक़तों" को संसाधनों का खनन "जल्दी और कौशलपूर्ण ढंग से" करना वही करना है जो औपनिवेशिक शक्तियां अपने उपनिवेशों के साथ करती रही हैं, जो स्पेन और उत्तरी अमरीका ने धक्षिणी अमरीका के साथ किया, जो यूरोप ने अफ़्रीका में किया ( और अब भी कर रहा है), यही नस्लवादी निज़ाम ने दक्षिण अफ़्रीका में किया. जो छोटे देशों के कठपुतले तानाशाह अपने लोगों का ख़ून चूसने के लिए करते हैं. यह वृद्धि और विकास का फ़ार्मूला तो है पर किसी और की वृद्धि और विकास के लिए. यह वही बहुत, बहुत, बहुत पुरानी कहानी है. क्या हमें इसे फिर से दोहराना होगा ?

अगली किस्त में चिदम्बरम के भाषण का विवेचन, सरकारी रिपोर्ट का सच और माओवाद के हौवे की असलियत

रिसती हुई क्रान्ति

पांचवीं किस्त
पूंजी और पावर के पैंतरेबाज़ पी. चिदम्बरम का क़िस्सा

लोकतन्त्र की भंड़ैती को जारी रखने के लिए चुनाव जीतने वाले और जनाधार सम्पन्न नेताओं और उन लोगों के बीच -- जो वास्तव में देश को चलाते हैं , लेकिन या तो जिन्हें ( न्यायाधीशों और नौकरशाहों को ) चुनाव जीतने की ज़रूरत नहीं होती या फिर जिन्हें ऐसा करने की बन्दिशों से मुक्त कर दिया गया है ( जैसे हमारे प्रधान मन्त्री ) -- श्रम का बंटवारा लोकतान्त्रिक परिपाटी में लगायी गयी अचूक सेंध है. यह कल्पना करना भूल होगी कि सरकार की बाग-डोर सोनिया गांधी या राहुल गांधी के हाथ में है. असली सत्ता कुलीन अल्पतन्त्र ( न्यायाधीशों, नेताओं और नौकरशाहों ) की एक चुड़ैल-सभा के हाथों में चली गयी है. अपने तईं इन लोगों को रेस के असील घोड़ों की तरह वे गिने-चुने पूंजीपति चलाते हैं जो कमो-बेश पूरे देश की हर चीज़ के मालिक हैं. वे भले ही अलग-अलग राजनैतिक दलों से आते हों और राजनैतिक विरोधी होने की नौटंकी करते हों, लेकिन यह जनता की आंखों में धूल झोंकने की चालें हैं. असली मुक़ाबला थैलीशाहों के बीच धन्धे की छीन-झपट है.

इस चुड़ैल-सभा के एक वरिष्ठ सदस्य पी. चिदम्बरम हैं, जिनके बारे में कुछ लोग कहते हैं कि वे प्रतिपक्षी दलों के इतने चहेते हैं कि अगर कांग्रेस अगला चुनाव हार भी जाये तो भी वे गृहमन्त्री बने रहेंगे. एक तरीक़े से शायद यह उनके लिए लाज़िमी भी होगा, क्योंकि उन्हें जो काम उनके आक़ाओं ने सौंपा है उसे पूरा करने के लिए उन्हें हो सकता है अपने पद पर कुछ और साल बने रहना पड़े. लेकिन वे रहते हैं या जाते हैं इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला. पांसे तो फेंके जा चुके हैं.

अपने पुराने विश्वविद्यालय, हार्वर्ड, में एक भाषण देते हुए अक्तूबर २००७ में चिदम्बरम ने इस ज़िम्मेदारी का ख़ाका पेश किया था. भाषण का शीर्षक था : "ग़रीब अमीर देश : विकास की चुनौतियां." उन्होंने आज़ादी के बाद के तीन दशकों को "गंवा दिये गये वर्ष" कहा था और सकल घरेलू उत्पाद दर की डींग हांकी थी जो २००२ में ६.९ फ़ीसदी से ऊपर उठ कर २००७ में ९.४ फ़ीसदी हो गयी थी. उन्हों ने जो कहा था वह मेरे लिए इतना महत्वपूर्ण है कि मैं उनके बेस्वाद गद्य के एक अंश को पढ़्ने का दण्ड आपको भी दे रही हूं :

"कोई सोचता होगा कि जैसे-जैसे अर्थ-व्यवस्था एक ऊंची वृद्धि दर की ओर अग्रसर होगी, विकास की चुनौतियां -- एक लोकतन्त्र में -- उत्तरोत्तर कम उग्र होती जायेंगी. असलियत इससे बिलकुल उलट है. लोकतन्त्र -- या कहा जाये कि लोकतान्त्रिक संस्थाओं और समाजवादी युग की विरासत -- ने वास्तव में विकास की चुनौतियां बढ़ा दी हैं. मुझे कुछ मिसालों से इसे समझाने की इजाज़त दीजिये. हिन्दुस्तान की खनिज सम्पदा में कोयला ( दुनिया का चौथा सबसे बड़ा भण्डार), कच्चा लोहा, मैंगनीज़, माइका, बौक्साइट, कच्चा टाइटैनियम, क्रोमाइट, हीरा, प्राकृतिक गैस, पेट्रोलियम और चूने की खदानें हैं. सामान्य ज्ञान हमें बताता है कि हमें जल्दी और कौशलपूर्ण ढंग से इनका खनन करना चाहिये. इस काम में भारी पूंजी निवेश, कुशल संगठनों और ऐसी पर्यावरण नीति की ज़रूरत पड़ती है जो बाज़ार की ताक़तों को काम करने की छूट देगी. खनन उद्योग में इनमें से कोई भी तत्व आज मौजूद नहीं है. इस सिलसिले में क़ानून पुराने पड़ चुके हैं और संसद सिर्फ़ हाशिये पर ठोंक-पीट कर पा रही है. खनन की सम्भावनाओं को तलाशने और खनन करने के लिए पूंजी को आकर्षित करने में हमारी कोशिशें कमो-बेश नाकाम रही हैं. इस बीच, यह क्षेत्र वस्तुत: राज्य सरकारों के हाथों में क़ैद है. यथास्थिति में किसी भी क़िस्म के परिवर्तन का विरोध ऐसे गुट कर रहे हैं जो -- काफ़ी उचित ढंग से -- जंगलों या पर्यावरण या आदिवासी आबादी के आन्दोलन का समर्थन करते हैं.ऐसे राजनैतिक दल भी हैं जो खनन को राज्य सरकारों की इजारेदारी मानते हैं और जिन्हें निजी क्षेत्र के प्रवेश पर विचारधारा के आधार पर ऐतराज़ है. वे स्थापित श्रम संघों से समर्थन बटोरते हैं. संघों के पीछे -- उनकी जानकारी या नाजानकारी में -- व्यापारी माफ़िया खड़ा है. नतीजा -- वास्तविक पूंजी निवेश कम है, खनन उद्योग कछुए की चाल से बढ़ रहा है और अर्थ-व्यवस्था पर बोझ का काम करता है. मैं आपको एक और मिसाल दूंगा. उद्योगों को स्थापित करने के लिए ज़मीन के बड़े-बड़े टुकड़े चाहिएं. खनिज-आधारित उद्योगों मसलन इस्पात और ऐल्युमिनियम को खनन, माल की तैयारी और उत्पादन के लिए ज़मीन के बड़े-बड़े क्षेत्रों की ज़रूरत है. हवाई अड्डे, बन्दरगाहें, बांध और बिजली-घरों के लिए भूमि के विशाल क्षेत्र चाहिएं ताकि वे सड़क और रैल सम्पर्क और सहायक और संसाधन सम्बन्धी सुविधाएं उपलब्ध करा सकें.अब तक, सरकार द्वारा भूमि का अधिग्रहण प्रभुसत्ता के अधिकार को लागू करके किया जाता था. मुद्दा केवल वाजिब मुआवज़ा देने का था. यह स्थिति अब बदल गयी है. अब हर परियोजना में नये दावेदार हैं और उनकी दावेदारी को स्वीकार करना ज़रूरी है. अब हमें पर्यावरण पर असर के मूल्यांकन . अनिवार्य अधिग्रहण के औचित्य, सही मुआवज़े, क्षतिपूर्ति, विस्थापित लोगों के पुनर्वास और पुनर्प्रतिष्ठा, वैकल्पिक आवास और खेती की ज़मीन जैसे मुद्दों को ध्यान में रखना पड़ता है..."

"बाज़ार की ताक़तों" को संसाधनों का खनन "जल्दी और कौशलपूर्ण ढंग से" करना वही करना है जो औपनिवेशिक शक्तियां अपने उपनिवेशों के साथ करती रही हैं, जो स्पेन और उत्तरी अमरीका ने धक्षिणी अमरीका के साथ किया, जो यूरोप ने अफ़्रीका में किया ( और अब भी कर रहा है), यही नस्लवादी निज़ाम ने दक्षिण अफ़्रीका में किया. जो छोटे देशों के कठपुतले तानाशाह अपने लोगों का ख़ून चूसने के लिए करते हैं. यह वृद्धि और विकास का फ़ार्मूला तो है पर किसी और की वृद्धि और विकास के लिए. यह वही बहुत, बहुत, बहुत पुरानी कहानी है. क्या हमें इसे फिर से दोहराना होगा ?

अगली किस्त में चिदम्बरम के भाषण का विवेचन, सरकारी रिपोर्ट का सच और माओवाद के हौवे की असलियत

Tuesday, September 28, 2010

रिसती हुई क्रान्ति

चौथी किस्त

स्वाधीनता दिवस पर प्रधान मन्त्री का लाजवाब कल्पित भाषण अरुन्धती के क़लम से


अगर "व्यक्तिगत निष्ठा" के सिलसिले में हमारे प्रधान मन्त्री की शोहरत उनके भाषणों के शब्दों में प्रकट होती तो उन्होंने यह कहा होता --
"भाइयो और बहनो, इस रोज़ जब हम अपने महिमाशाली अतीत को याद करते हैं, आप सबका अभिवादन है. मैं जानता हूं कि चीज़ें थोड़ी मंहगी होती जा रही हैं, और आप लोग खाने की चीज़ों की क़ीमतों के बारे में हाय-तौबा करते रहते हैं. लेकिन इसे इस तरह देखिये -- आप में से ६५ करोड़ से ज़्यादा लोग किसानों या किसान-मज़दूरों की हैसियत में खेती में जुटे हुए हैं या उस से आजीविका चला रहे हैं, लेकिन आपकी कुल कोशिशों का योग हमारे सकल उत्पाद का १८ फ़ीसदी से भी कम ठहरता है. सो, क्या फ़ायदा है आपका ? हमारे सूचना तकनीक -- आई टी -- क्षेत्र को देखिये. उसमें हमारी ०.२ फ़ीसदी आबादी लगी हुई है और हमारी राष्ट्रीय आय का ५ फ़ीसदी हमें कमा कर देता है. क्या आप इसका मुक़ाबला कर सकते हैं ?.....

यह सच है कि हमारे देश में रोज़गार ने विकास की रफ़्तार का साथ नहीं दिया है, लेकिन ख़ुशक़िस्मती से हमारे काम करनेवालों का ६० फ़ीसदी हिस्सा स्व-रोज़गार में लगा हुआ है. हमारे मज़दूरों का ९० फ़ीसदी हिस्सा असंगठित क्षेत्र में काम कर रहा है. यह सच है कि उन्हें साल में कुछ ही महीने रोज़गार मिल पाता है, लेकिन चूंकि हमारे यहां "अल्प-रोज़गार-प्राप्त" करके कोई कोटि नहीं है, हम इस हिस्से को थोड़ा गोल-मोल ही रखते हैं. उन्हें खाते में "बेरोज़गार" के तौर पर दर्ज करना मुनासिब नहीं होगा. उन आंकड़ों पर विचार करते हुए जिनके अनुसार हमारे यहां दुनिया में सब्स ज़्यादा शिशुओं और माताओं की मृत्यु दर है, हमें एक राष्ट्र के रूप में एकजुत हो कर फ़िलहाल बुरी ख़बर को नज़रन्दाज़ कर देना चाहिये. इन समस्याओं पर हम बाद में ध्यान केन्द्रित कर सकते हैं, अपनी रिसनेवाली क्रन्ति के बाद, जब स्वास्थ्य सेवाओं का पूरी तरह निजीकरण हो जायेगा. इस बीच, मुझे उम्मीद है आप सब लोग चिकित्सा सम्बन्धी बीमा खरीद रहे होंगे. रही इस तथ्य की बात कि खाने के अनाज की प्रति-व्यक्ति उपलब्धता दरअसल पिछले बीस बरसों में घट गयी है -- जो संयोग से हमारे सबसे गतिशील आर्थिक विकास का काल रहा है -- मेरा यक़ीन कीजिए, यह महज़ इत्तेफ़ाक़ है.

मेरे प्यारे नागरिको, हम एक नये हिन्दुस्तान का निर्माण कर रहे हैं जिसमें हमारे सौ सबसे अमीर लोगों की कुल सम्पत्ति हमारे सकल घरेलू उत्पाद का पच्चीस फ़ीसदी है. कम-से-कम हथों में दौलत का जमा होना हमेशा कुशलता को बढ़ाता है. आप सब ने वह कहावत सुन रखी है "जितने कपड़े उतना पाला, जितना कुनबा उतना मुकाला." हम अपने दुलारे अरबपतियों, अपने कुछ सौ करोड़पतियों, उनके भाई-भतीजों-रिश्तेदारों और उनके राजनैतिक और व्यावसायिक सहयोगियों को खुशहाल देखना चाहते हैं और चहते हैं कि वे अपनी ज़िन्दगियां शान्ति और भाईचारे के वातावरण में सम्मान और गरिमा से गुज़ारें जिसमें उनके बुनियादी अधिकार सुरक्षित रहें.

मुझे आभास है कि मेरे सपने केवल लोकतान्त्रिक उपाय इस्तेमाल करके पूरे नहीं हो सकते. सच तो यह है कि मैं यह विश्वास करने लगा हूं कि असली लोकतन्त्र बन्दूक़ की नली से निकलता है. यही वजह है कि हमने फ़ौज, पुलिस, केन्द्रीय सुरक्षा बल. सीमा सुरक्षा बल, केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल, प्रादेशिक सशस्त्र पुलिस-बल, भरत-तिब्बत सीमा सुरक्षा बल, पूर्वी सीमा राइफ़ल्ज़ के साथ-साथ स्कौर्पियन, ग्रेहाउण्ड और कोब्रा जैसे बलों को उन भटके हुए विप्लवों को कुचलने के लिए तैनात कर दिया है जो हमारे खनिज-समृद्ध इलाक़ों में फूट रहे हैं.

लोकतन्त्र के साथ हमारा प्रयोग नगालैण्ड, मणिपुर और कश्मीर में शुरू हुआ. कश्मीर, मुझे दोहराने की ज़रूरत नहीं, हिन्दुस्तान का अखण्ड हिस्सा है. हमने वहां लोगों को लोकतन्त्र की सौग़ात देने के लिए ५ लाख से ज़्यादा फ़ौजी तैनात किये हैं. वे कश्मीरी युवक जो जो पिछले दो महीनों से कर्फ़्यू का उल्लंघन करके और पुलिसवालों पर पथराव करके अपनी जन जोखिम में डालते रहे हैं, लश्कर-ए-तैयबा के मरजीवड़े हैं जो दरअसल आज़ादी नहीं रोज़गार चाहते हैं. अफ़सोस, इस से पहले कि हम नौकरियों के लिए उनकी अर्ज़ियां पढ़ पाते उन में से सौ अपनी जानें गवां बैठे हैं. मैं ने अब से पुलिस को हिदायत दे दी है कि इन भटके हुए नौजवानों को मारने के लिए नहीं घायल करने के लिए गोलियां चलायें. "


अपने सात साल के कर्यकाल में मनमोहन सिंह ने ख़ुद को सोनिया गांधी के अस्थायी, नरम-मिज़ाज वाले पिट्ठू के रूप में ढल जाने दिया है. यह उस आदमी के लिए सबसे मुफ़ीद भेस है जिसने पिछले बीस बरसों के दौरान पहले वित्त मन्त्री के रूप में और फिर प्रधान मन्त्री की हैसियत से नयी आर्थिक नीतियों के ऐसे निज़ाम को बलपूर्वक आगे बढ़ाया है जो हिन्दुस्तान को उस परिस्थिति में ले आया है जिसमें वह ख़ुद को अब पा रहा है. इस का अभिप्राय यह नहीं है कि मन्मोहन सिंह पिट्ठू नहीं हैं. महज़ यह कि उनके सारे आदेश सोनिया गांधी से नहीं आते. अपनी आत्मकथा -- एक प्रलापी का क़िस्सा -- में पश्चिम बंगाल के पूर्व वित्त मन्त्री, अशोक मित्र ने मनमोहन सिंह के सत्ता में आने की अपनी कहानी बयान की है. १९९१ में, जब हिन्दुस्तान का विदेशी मुद्रा भण्डार ख़तरनाक ढंग से घट गया था तो नरसिंह राव सरकार ने अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से आपातकालीन क़र्ज़ की दर्ख़्वास्त की थी. मुद्रा कोष दो शर्तों पर राज़ी हुआ था. पहली थी ढांचागत फेर-बदल और आर्थिक सुधार. और दूसरी थी ऐसा वित्त मन्त्री जिसे मुद्रा कोष ने चुना हो. यह आदमी, अशोक मित्र के अनुसार, मनमोहन सिंह थे.

इन वर्षों के दौरान उनहों ने अपने मन्त्रि-मण्डल और नौकरशाही को ऐसे लोगों से भर लिया है जो धार्मिक निष्ठा से हर चीज़ को बड़े पूंजीपतियों के कब्ज़े में देने के लिए कटिबद्ध हैं -- चाहे वह पानी हो या बिजली, खनिज, खेती, ज़मीन, दूरसंचार, शिक्षा, या स्वास्थ्य -- फिर इसके नतीजे भले जो भी हों.

सोनिया गांधी और उनका बेटा, दोनों, इस सब में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं. उनका काम करुणा और करिश्मे का विभाग चलाना और चुनाव जीतना है. उन्हें ऐसे निर्णय करने ( और श्रेय भी लेने ) की छूट है जो प्रगतिशील जान पड़ते हैं पर असल में प्रतीकात्मक और रणनीतिक हैं, जिनका उद्देश्य जन-साधारण के आक्रोश की धार को गोठिल करना और सरकार के बड़े जहाज़ को चालू रखना है.

(इसका सब से ताज़ा तरीन नमूना उस रैली में देखने को मिला जिसे राहुल गांधी के लिए आयोजित किया गया था ताकि वह वेदान्त द्वारा नियमगिरि की पहाड़ियों में बौक्साइट के खनन की इजज़ात के रद्द किये जाने का विजय समारोह मना सके. यह वही लड़ाई है जिसे डोंगरिया कोंड आदिवासी और स्थानीय और अन्तर्राष्ट्रीय कार्यकर्ताओं का समूह बर्सों से लड़ रहा है. रैली में राहुल गांधी ने ऐलान किया कि वह "आदिवासी लोगों का एक सिपाही" है. उसने इस बात का ज़िक्र नहीं किया कि उसकी पार्टी की आर्थिक नीतियां आदिवासी समुदाय के सामूहिक विस्थापन का प्रतिपादन ही नहीं करतीं, उस पर टिकी भी हुई हैं. या फिर यह कि पास-पड़ोस के हर दूसरे बौक्साइट-समृद्ध गिरि (पर्वत) को खनन कर्के खोखला किया जा रहा है, जिस बीच यह "आदिवासियों का सिपाही" अपनी नज़रें किसी दूसरी तरफ़ फेरे हुए है.

राहुल गांधी शरीफ़ आदमी हो सकता है, लेकिन उसके लिए "दो हिन्दुस्तानों" -- "अमीरों का हिन्दुस्तान" और "ग़रीबों का हिन्दुस्तान" का आलाप करते घूमते रहना, मानो जिस पार्टी का वह प्रतिनिधित्व करता है उसका इस में कोई हाथ नहीं है, सब की बुद्धि का अपमान करना है, अपनी बुद्धि का भी.


अगली किस्त में पूंजी और पावर के पैंतरेबाज़ पी. चिदम्बरम क क़िस्सा

Monday, September 27, 2010

A CESSPOOL CALLED BURARI

A CESSPOOL CALLED BURARI


dear mister vir sanghvi,

i am fully aware that this e-mail will not solicit any response from your end, still i have decided to send it on an off chance that even if it does not draw out a response, it may pass before your eyes.

i am a hindi poet and happen to be a regular reader of your paper. i have read your weekly columns regularly and i am struck with the ease with which you can float from discussing an exotic cuisine ( unfortunately out of the reach and even comprehension of thousands of your english knowing readers, leave alone the millions who are not acquainted with this great language of our erstwhile masters and the culinary delights you talk about) to discussing some finer point in our socio-political set-up as you have done yesterday (sunday 26th september ) by deftly defining the two indias we are face to face with, namely, the old india of the aged, tottering, doddering corrupt and callous ministers and officials like m.s.gill, jaipal reddy and lalit bhanot on the one hand and the go-getters representing the new resentful india of the private enterprise. you have not only soft-handled Kalmadi but also very cleverly not named the shining seigfrieds and ivan hoes of the new india but we can surmise they must be the likes of anil/mukesh ambanis, the young "kingfisher" mallyas. so, we know whose side you are despite, your sermonising stance.

but, the two indias you mentioned in passing in the very first paragraph of your article, albeit with a little derision, are the two indias which oppose each other in reality or shall i mention real space. the india of the haves versus the india of the haves-not. the poor india of the slums vs the shining india of the posh colonies. your seemingly righteous anger stems from the fact that the two indias you talk about are what in our native parlance is known as "ek hi thaili ke chatte batte." get what i mean. the ambanis and mittals and mallyas must be fuming at kalmadi and his cohorts siphoning off and salting away millions out of the 9 billion dollars being spent out of the public exchequer. i hope you still agree that the poor india of the slums deserves its share out of this as a right and not as largesse to be doled out by the new "east india company sahibs." so, the new go-getter indians must be really sore at not having a go at the public cake, large slices of which have gone into the jowls of oc officials and politicians.

but, why not question the bloody cw games in the first place ? is the queen coming here ? to see how her forner subjects are faring ? or is she content with having a splendid lackey at the helm of affairs who has put the whole country and martyrs like bhagat sing, lahiri, rajguru, azad and sukhdev to shame by kow-towing before the dons of oxford. how very apt that the word "don" takes on ever new shades of meaning with the passage of time. or mention that mani shanker aiyer has all along been very critical of the games. sorry, your paper has mentioned mani only as a spanner in the works and as a scape-goat for the dilly-dallying of officials and politicians who chose to remain silent all along and have now come howling at the quandary mani has landed them in by saying that it was because of his attitude that no work could be done.

obviously, you have no interest in looking at the seamier side of things and that is the reason why your newspaper has already embarked on a damage-control strategy. not only the games are being lauded almost as a "great leap forward", but your staff has started harping on an "enough is enough, let's get the act together" theme right after your cue of 26th september. and we can now hope that in the days to come your newspaper is going to paint quite a rosy picture of the games.

but you, naturally, don"t mention this. which brings me to the second reason for sending this missive. in your paper you are very fond of publishing illustrated stories featuring residents of various localities of delhi in raptures about the wonderful living conditions there. i distinctly remember two such storie, one on derawalnagar and one on rohini. but have you ever heard of an old village called burari which has now become part of the expanding topography of our metropolis ? it is two to three kilometers from derawalnagar and the same distance away from rohini, off the karnal g.t. road. to call it a cesspool is putting it mildly. or rather i should say it depends which angle are you looking at it from. the cesspools of india shining, or the new india as you term it, must of necessity smell differently to the cesspools of the old india for which you and people like you have developed a blind spot.

to enter burari is an experience which a person from say race course road or jor bagh or even hauz khas is likely not to forget for a very long, long time. the pot holes in the two kilometer road from the bypass to burari are enough to cause miscarriages in expecting mothers. the filth in the lanes and streets, the overflowing sewers and the waterlogged lanes and open spaces are a sight to behold. but, is burari the only cesspool ? what of the tens of hundreds of buraris scattered in the capital and other metropolitan cities, state capitals and mufassil townships ? or the buraris which stink in the four great columns keeping our great democracy from crumbling -- the corrupt polity, unreliable and embedded media, self-serving bureaucracy and the last bastion to tumble, i.e., the judiciary ?

this is the india which the leaders of new india like p. chidambaram and rahul gandhi and the sindhias and pilots wish to obliterate by inflicting neglect and sub-human conditiions upon its denizens. how else does chidambaram hope that 85 percent of india's population will move from the villages to urban areas. and what urban areas at that. let me quote a few lines from my friend arundhati's latest article :

"Maybe it’s in the fitness of things that what's left of our democracy should be traded in for an event that was created to celebrate the British Empire. Perhaps it’s only right that 400,000 people should have had their homes demolished and been driven out of the city overnight. Or that hundreds of thousands of roadside vendors should have had their livelihoods snatched away by order of the Supreme Court so city malls could take over their share of business. And that tens of thousands of beggars should have been shipped out of the city while more than a hundred thousand galley slaves were shipped in to build the flyovers, metro tunnels, Olympic-size swimming pools, warm-up stadiums and luxury housing for athletes. The Old Empire may not exist. But obviously our tradition of servility has become too profitable an enterprise to dismantle"

it is because of this questioning that arundhati is constantly the target of the attacks of you star columnist barkha datt and the great media persons like arnab goswami and chandan mitra. allow me to mention a few more facts about the state of affairs in the new india that you are so anxiously advocating. again a quote from arundhati :

more than sixty million people who have been displaced, by rural destitution, by slow starvation, by floods and drought (many of them man-made), by mines, steel factories and aluminium smelters, by highways and expressways, by the 3300 big dams built since Independence and now by Special Economic Zones. They’re part of the 830 million people of India who live on less than twenty rupees a day, the ones who starve while millions of tons of foodgrain is either eaten by rats in government warehouses or burnt in bulk (because it’s cheaper to burn food than to distribute it to poor people). They’re the parents of the tens of millions of malnourished children in our country, of the 2 million who die every year before they reach the age of five. They’re the millions who make up the chain-gangs that are transported from city to city to build the New India. Is this what is known as “enjoying the fruits of modern development”?
What must they think, these people, about a government that sees fit to spend nine billion dollars of public money (two thousand percent more than the initial estimate) for a two-week long sports extravaganza which, for fear of terrorism, malaria, dengue and New Delhi’s new superbug, many international athletes have refused to attend? ...Not much, I guess. Because for people who live on less than twenty rupees a day, money on that scale must seem like science fiction. It probably doesn’t occur to them that it’s their money. That’s why corrupt politicians in India never have a problem sweeping back into power, using the money they stole to buy elections. (Then they feign outrage and ask, “Why don’t the Maoists stand for elections?”)

so, this is the real india mr vir sanghvi, illustrious editor of the great newspaper hindustan times. see the hindustan in which the majority of your countrymen live in ( and die ) and the times they are passing through.

Sunday, September 26, 2010

रिसती हुई क्रान्ति --- तीसरी किस्त

तीसरी किस्त
वहां उस चमकती हुई उजली रोशनी में उस धूसर भीड़ के बीच खड़े हो कर मैं उन सारे संघर्षों के बारे में सोचती रही जो लोगों द्वारा देश में किये जा रहे हैं -- नर्मदा घाटी, पोलावरम, अरुणाचल प्रदेश में बड़े बांधों के ख़िलाफ़; ऊड़ीसा, छ्त्तीसगढ़ और झारखण्ड में खदानों के ख़िलाफ़; लालगढ़ के आदिवासियों द्वारा पुलिस के ख़िलाफ़; देश भर में उद्योगों और विशेष आर्थिक क्षेत्रों के लिए उनकी ज़मीनें छीनने के ख़िलाफ़. कितने बरसों तक और कितने तरीक़ों से लोगों ने ठीक ऐसी ही नियति से बचने के लिए जद्दो-जेहद की है. मैंने अपने कन्धों पर बन्दूकें लटकाये मासे, नर्मदा, रूपी, नीति, मंगतू, माधव, सरोजा, राजू, गुडसा उसेण्डी और कामरेड कमला ( माओवादियों के साथ जंगल में बिताये दिनों के दौरान मेरे युवा अंगरक्षकों ) के बारे में सोचा. मैं ने उस वन-प्रान्तर की महान गरिमा के बारे में सोचा जहां मैंने कुछ ही दिन पहले पैदल यात्रा की थी और सोचा आक्रोश से भरे देश की तेज़ होती हुई नब्ज़ के साउण्ड-ट्रैक सरीखी बस्तर में भूमकाल उत्सव के आदिवासी नगाड़ों की लय के बारे में.

मैंने पद्मा के बारे में सोचा जिसके साथ मैं वारंगल तक गयी थी. वह अभी तीस के पेटे ही में है लेकिन जब वह सीढ़ियां चढ़ती है तो उसे हत्था पकड़ कर अपने शरीर को अपने पीछे घसीटना पड़ता है. जब उसे गिरफ़्तार किया गया था उसके ठीक एक हफ़्ता पहले ही उसके अपेण्डिक्स का औपरेशन हुआ था. उसे तब तक पीटा गया जब तक कि उस्के शरीर के भीतर ख़ून नहीं रिसने लगा. उसके कई अवयव काट कर निकालने पड़े थे. जब पुलिसवालों ने उसके घुटने तोड़े तो उन्होंने उसे दिलासा देते हुए बताया कि वे ऐसा इसलिए कर रहे थे ताकि वह "फिर से जंगल में न चल सके." उसे आठ साल की सज़ा कटने के बाद छोड़ा गया. अब वह "अमरुला भादु मित्रुला समिति" यानी शहीदों के मित्रों और रिश्तेदारों की समिति का संचालन करती है. यह समिति खूठी मुठभेड़ों में मारे गये लोगों की लाशों को वापस लाने का काम करती है. पद्मा अपना समय आन्ध्र प्रदेश के उत्तरी हिस्से में यात्रा करते हुए बिताती है, जो भी साधन उसे उपलब्ध हो उसमें, आम तौर पर ट्रैक्टर में, लोगों के शवों को ढो कर उनके माता-पिता या पत्नियॊं तक पहुंचाती हुई जो इतने ग़रीब हैं कि अपने प्रियजनों के शरीरों को वापस लाने के लिए किराया भी नहीं ख़र्च कर सकते.

जो लोग बरसों से, दशकों से, बदलाव, या फिर अपनी ज़िन्दगियों में न्याय की एक फुसफुसाहट लाने के लिए लड़ रहे हैं उनकी लगन, अक़्लमन्दी और साहस एक असाधारण चीज़ है. चाहे लोग भारतीय राज्य का तख़्ता पलतने के लिए लड़ रहे हों या बड़े बांधों के ख़िलाफ़ लड़ रहे हों या फ़क़त किसी ख़ास इस्पात करख़ाने या खदान या विशेष आर्थिक क्षेत्र के ख़िलाफ़ लड़ रहे हों, बुनियादी बात यह है कि वे अपने सम्मन और गरिमा की लड़ाई लड़ रहे हैं, मनुष्यों की तरह जीने और महकने के अधिकार के लिए लड़ रहे हैं. वे लड़ रहे हैं, क्योंकि जहां तक उनका सवाल है, "आधुनिक विकास के फल" जर्नैली सड़क के किनारे मुर्दा मवेशियों की तरह गंधाते हैं.

हिन्दुस्तान की आज़ादी की ६४वीं सालगिरह पर प्रधान मन्त्री मनमोहन सिंह राष्ट्र के नाम एक भावहीन, हड्डियां कंपाने वाला तुच्छ भाषण देने के लिए, लाल क़िले में अपने बुलेट-प्रूफ़ डिब्बे में चढ़े. उन्हें सुनते हुए कौन कल्पना कर सकता था कि वे एक ऐसे देश को सम्बोधित कर रहे थे जहां, दुनिया की दूसरे नम्बर की विकास दर होने के बवजूद, अफ़्रीका के २६ सबसे ग़रीब देशों की कुल जनसंख्या से ज़्यादा ग़रीब लोग हैं. " आप सभी ने भारत की सफलता में योग दिया है," उन्होंने कहा, " हमारे मज़दूरों, हमारे कारीगरों, हमारे किसानों की कड़ी मेहनत ने देश को वहां ला खड़ा किया है जहां वह आज खड़ा है.... हम एक नया भारत बना रहे हैं जिसमें हर नागरिक का हिस्सा होगा, ऐसा भारत जो ख़ुशहाल होगा और जिसमें सभी नागरिक शान्ति और भाई-चारे के वातावरण में सम्मान और गरिमा की ज़िन्दगी जी सकेंगे. ऐसा भारत जिसमें सारी समस्याएं लोकतान्त्रिक तरीक़ों से तय की जा सकेंगी. ऐसा भारत जिसमें हर नागरिक के बुनियादी अधिकारों की रक्षा होगी." किसी को लग सकता था कि वे फ़िनलैण्ड या स्वीडन की जनता को सम्बोधित कर रहे थे.

अगर "व्यक्तिगत निष्ठा" के सिलसिले में हमारे प्रधान मन्त्री की शोहरत उनके भाषणों के शब्दों में प्रकट होती तो उन्होंने यह कहा होता -- "भाइयो और बहनो, इस रोज़ जब हम अपने महिमाशाली अतीत को याद करते हैं, आप सबका अभिवादन है. मैं जानता हूं कि चीज़ें थोड़ी मंहगी होती जा रही हैं, और आप लोग खाने की चीज़ों की क़ीमतों के बारे में हाय-तौबा करते रहते हैं. लेकिन इसे इस तरह देखिये -- आप में से ६५ करोड़ से ज़्यादा लोग किसानों या किसान-मज़दूरों की हैसियत में खेती में जुटे हुए हैं या उस से आजीविका चला रहे हैं, लेकिन आपकी कुल कोशिशों का योग हमारे सकल उत्पाद का १८ फ़ीसदी से भी कम ठहरता है. सो, क्या फ़ायदा है आपक ? हमारे सूचना तकनीक -- आई टी -- क्षेत्र को देखिये. उसमें हमारी ०.२ फ़ीसदी आबादी लगी हुई है और हमारी राष्ट्रीय आय का ५ फ़ीसदी हमें कमा कर देता है. क्या आप इसका मुक़ाबला कर सकते हैं ?.....


प्रधान मन्त्री के इस लाजवाब कल्पित भाषण का शेष भाग अगली किस्त में ......... कल


Saturday, September 25, 2010

रिसती हुई क्रान्ति -- दूसरी किस्त

दूसरी किस्त

जन्तर मन्तर दिल्ली का एकमात्र स्थान है जहां धारा १४४ लागू तो है पर जबरन अमल में नहीं लायी जाती. देश के कोने-कोने से लोग, राजनैतिक दलों और मीडिया की उपेक्षा से तंग आ कर, वहां इकट्ठे होते हैं, शिद्दत से उम्मीद करते हुए कि कोई सुनवाई होगी. कुछ लोग लम्बी-लम्बी रेल-यात्राएं करके आये हैं. कुछ, जैसे भोपाल गैस काण्ड के शिकार लोगों ने, हफ़्तों पैदल चल कर दिल्ली की दूरी तय की है. हालांकि उन्हें जलते हुए (या बर्फ़-सरीखे) फ़ुटपाथ पर सबसे अच्छी जगह हासिल करने के लिए एक-दूसरे से लड़ना पड़ा था, हाल के दिनों तक विरोध प्रदर्शनकारियों को, जब तक वे चाहते, जन्तर मन्तर पर तम्बू लगा कर टिके रहने की इजाज़त थी -- हफ़्तों, महीनों, यहां तक कि बरसों तक. पुलिस और स्पेशल ब्रांच की दुर्भावना-भरी निगाहों के सामने वे अपने बदरंग शामियाने और बैनर लगाते. यहां से वे, अपने ज्ञापन जारी करके, अपने विरोध-प्रदर्शन की योजनाएं घोषित करके और अनिश्चितकालीन भूख-हड़तालों पर बैठ कर, लोकतन्त्र में अपना विश्वास प्रकट करते. यहां से वे संसद भवन तक जुलूस निकालने की कोशिश करते (पर कभी सफल न होते). यहीं बैठ कर वे उम्मीद करते.

लेकिन हाल में अलबत्ता लोकतन्त्र की समय-सारिणी बदल गयी है. अब पूरी तरह दफ़्तरी हाज़िरी के हिसाब से काम होने लगा है -- नौ से पांच तक. कोई ओवरटाइम नहीं. कोई रतजगा नहीं. इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि लोग कितने दूर-दराज़ के इलाक़ों से आये हैं, कोई फ़र्क़ नहीं कि उनके पास शहर में कोई आसरा नहीं है -- अगर वे शाम के छह बजे तक चले नहीं जाते, तो उन्हें जबरन हटा दिया जाता है, ज़रूरत पड़े तो पुलिस द्वारा, और अगर हालात क़ाबू से बाहर हो जायें तो लाठियों और पानी की तेज़ बौछारों द्वारा. यह नयी समय-सारिणी ज़ाहिरा तौर पर इसलिए लागू की गयी थी कि २०१० के राष्ट्रमण्डलीय खेल, जिनकी मेज़बानी दिल्ली कर रही है, बिना विघ्न-बाधा के सम्पन्न हो जायें. लेकिन किसी को भी पुरानी समय-सारिणी के जल्दी बहाल होने की उम्मीद नहीं है.

शायद यह हालात के मुताबिक़ मुनासिब ही है कि हमारे लोकतन्त्र के बचे-खुचे हिस्से का सौदा ऐसे समारोह की एवज़ में कर लिया जाये जो बर्तानवी साम्राज्य का जश्न मनाने के लिए शुरू किया गया था. शायद यह उचित ही है कि ४,००,००० लोगों के घर उजाड़ दिये जायें और उन्हें रातों-रात शहर-बदर कर दिया जाये. या सुप्रीम कोर्ट के हुक्म पर लाखों फेरीवालों और सड़क-किनारे सौदा बेचने वालों से उनकी रोज़ी-रोटी छीन ली जाये ताकि शहर के मौल उनके बणिज-ब्योपार को हड़प लें. और हज़ारों भिखारियों को शहर के बाहर दफ़ा कर दिया जाये और इसी के साथ एक लाख से ज़्यादा ग़ुलामों को शहर के फ़्लाई ओवर, मेट्रो सुरंगें, ओलिम्पिक आकार के तरण-ताल, अभ्यास के स्टेडियम और खिलाड़ियों के लिए शानो-शौकत वाली रिहाइशी इमारतें बनाने के लिए शहर के बाहर से पकड़ बुलाया जाये. भले ही पुराने साम्राज्य का अब कोई वजूद न रह गया हो. लेकिन प्रकट ही ग़ुलामी की हमारी परम्परा इतनी लाभदायक हो गयी है कि उसे ख़त्म करना सम्भव नहीं.

मैं जन्तर मन्तर पर इसलिए मौजूद थी क्योंकि देश भर के शहरों में फ़ुटपाथों पर रहने वाले एक हज़ार लोग कुछ मौलिक अधिकारों की मांग ले कर आये हुए थे : आसरे का, खाने ( राशन कार्डों) का, जीवन (पुलिस के उत्पीड़न और नगर पालिकाओं के अफ़सरों की ग़ैर-क़ानूनी वसूली से रक्षा) का अधिकार.

शुरू फागुन के दिन थे, धूप तीखी थी, मगर अब भी सभ्य और शिष्ट. विरोध प्रदर्शन की महक काफ़ी दूर से ही महसूस की जा सकती थी -- यह कहना भयानक और क्रूरतापूर्ण है, पर यह सच था : वह एक हज़ार इन्सानी जिस्मों की इकट्ठा गन्ध थी जिन्हें अमानवीय बना दिया गया था, आजीवन नहीं तो कम-से-कम बरसों तक स्वास्थ्य और साफ़-सफ़ाई की बुनियादी मानवीय ( या पशुओं की भी) ज़रूरतों से वंचित रखा गया था. जिस्म जो हमारे बड़े शहरों के कचरे में लिथड़े रहे थे, जिस्म जिनके पास मौसम की सख़्तियों से बचने की कोई सूरत नहीं थी, साफ़ पानी, साफ़ हवा, शारीरिक स्वच्छता और चिकित्सा तक जिनकी कोई पहुंच नहीं थी. इस महान देश का कोई इलाक़ा, तथाकथित प्रगतिशील योजनाओं में से कोई योजना, कोई भी शहरी संस्था उन्हें आसरा देने के उद्देश्य से नहीं बनायी गयी थी. न तो जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय नगर पुनर्नवीकरण मिशन, न कोई और मलिन बस्ती विकास और रोज़गार सुनिश्चित करने वाली या कल्याणकारी योजना. यहां तक कि मल-निष्कासन तन्त्र भी नहीं -- वे उसके ऊपर बैठ कर हगते हैं. वे उन दरारों में रहने वाले छाया प्राणी हैं जो योजनाओं और संस्थाओं के बीच पड़ गयी हैं. वे सड़कों पर रहते हैं, सड़कों पर खाते हैं, सड़कों पर सम्भोग करते हैं, सड़कों पर बच्चे पैदा करते हैं, सड़कों पर बलात्कार का शिकार होते हैं, अपनी सब्ज़ी-तरकारी काटते हैं, कपड़े धोते हैं, बच्चों को पालते-पोसते हैं, सड़कों पर ही जीते हैं और सड़कों पर ही मर जाते हैं.

अगर चलचित्र ऐसा कला रूप होता जिसमें सूंघने की हिस का भी दख़ल होता -- दूसरे शब्दों में अगर फ़िल्मों से महक भी आती -- तो स्लमडौग मिलियनेअर जैसी फ़िल्में कभी औस्कर पुरस्कार न जीत पातीं. गरम पौप कौर्न की सुगन्ध से उस क़िस्म की ग़रीबी की दुर्गन्ध का मेल कभी न हो पाता.

उस दिन जन्तर मन्तर पर विरोध प्रदर्शन में शामिल होने के लिए आये लोग स्लमडौग भी नहीं थे, वे फ़ुटपाथों पर रहने वाले लोग थे. कौन थे वे ? कहां से आये थे वे ? वे "इण्डिया शाइनिंग -- भारत उदय" के शरणार्थी थे, ऐसे लोग जो पगला गयी उत्पादन प्रक्रिया के ज़हरीले रिसाव की तरह यहां से वहां छलकाये जा रहे थे.वे उन छ्ह करोड़ से ज़्यादा लोगों के प्रतिनिधि थे जिन्हें ग्रामीण दरिद्रता ने, धीमे-धीमे ग्रसने वाली भुखमरी ने, ( अधिकतर मनुष्य निर्मित ) बाढ़ और सूखे ने, खदानों ने, इस्पात करख़ानों और ऐल्यूमिनियम गलाने वाले यन्त्रों ने, राजमार्गों और एक्सप्रेस पथों ने, आज़ादी के बाद बनाये गये ३३०० बड़े बांधों ने और अब विशेष आर्थिक क्षेत्रों ने विस्थापित कर दिया है. वे हिन्दुस्तान के उन ८३ करोड़ लोगों में शामिल हैं जो बीस रुपये रोज़ाना से भी कम में गुज़ारा करते हैं, जो भूखे मरते हैं जबकि लाखों टन अनाज या तो सरकारी गोदामों में चूहों की नज़र हो जाता है या थोक में जला दिया जाता है ( क्योंकि ग़रीबों में अनाज बांटने से उसे जलाना ज़्यादा सस्ता है ). वे हमारे देश में कुपोषण का शिकार दसियों लाख बच्चों के, पांच बरस की उमर से पहले ही मर जाने वाले २० लाख बच्चों के माता-पिता हैं. वे उन लाखों लोगों में से हैं जो मज़दूरों के जत्थों की शक्ल में शहर-दर-शहर "नये भारत" के निर्माण के लिए धकेले जा रहे हैं. क्या इसी को " आधुनिक विकास के फलों से लाभ उठाना" कहते हैं ?

क्या सोचते होंगे ये लोग उस सरकार के बारे में जो जनता के पैसों से ९००० करोड़ डालर ( मूल अनुमानित ख़र्च से २००० फ़ीसदी ज़्यादा ) महज़ दो हफ़्तों तक चलने वाले खेल समारोह पर ख़र्च करना मुनासिब समझ रही है जिसमें, आतंकवाद, डेंगू, मलेरिया और नयी दिल्ली के नये ज़हरीले कीड़े के डर से, बहुत से अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ियों ने हिस्सा लेने से इनकार कर दिया है ?जिसकी अध्यक्षता करने का ख़याल राष्ट्र मण्डल की औपचारिक प्रमुख -- इंग्लैण्ड की महारानी -- को अपने सबसे ग़ैर-ज़िम्मेदार सपनों में भी नहीं आ सकता. वे इस तथ्य के बारे में क्या सोचेंगे कि उन करोड़ों डालरों में से कई करोड़ राजनेताओं और खेल अधिकारियों द्वारा चुरा कर छिपास दिये गये हैं ? मेरे ख़याल में ज़्यादा नहीं. क्योंकि जो लोग बीस रुपये रोज़ से भी कम पर गुज़ारा करते हैं उन्हें तो उस पैमाने की रक़में परियों की कहानियों सरीखी लगती होंगी. उन्हें तो शायद यह ख़ाबो-ख़याल भी नहीं आता होगा कि यह उनका पैसा है. यही वजह है कि भ्रष्ट नेताओं को लोगों से चुराये गये पैसे से चुनावोई ख़रीद-फ़रोख़्त करके, धड़ल्ले से सत्ता में लौटने में कोई दिक़्क़त नहीं होती. ( फिर वे रोष का नाटक कर के पूछते हैं, "माओवादी चुनावों में खड़े क्यों नहीं होते ?" ).

अगले अंक में जारी ........कल फिर

Friday, September 24, 2010

रिसती हुई क्रान्ति

रिसती हुई क्रान्ति

जो चुराता है बत्तख पंचायती ज़मीन से,
क़ानून रियायत नहीं करता उस अभागे कमीन से;
पर छुट्टा छोड़ देता है बड्डे कमीन को,
जो छीनता है बत्तख से पंचायती ज़मीन को.
--अज्ञात, इंग्लैण्ड, १८२१


२ जुलाई २०१० की भोर के समय, सुदूर आदिलाबाद के जंगलों में, आन्ध्र प्रदेश राज्य पुलिस ने चेरुकुरि राजकुमार नाम के एक आदमी के सीने में गोली मार दी जो अपने साथियों के बीच आज़ाद के नाम से जाना जाता था. आज़ाद भारत सरकार द्वारा प्रतिबन्धित भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी (माओवादी) का सदस्य था और उसे उसकी पार्टी ने भारत सरकार के साथ प्रस्तावित शान्ति-वार्ताओं में अपने प्रमुख वार्ताकार की भूमिका निभाने की ज़िम्मेदारी सौंपी थी. पुलिस ने बिलकुल क़रीब से गोली दाग़ कर इसकी चुग़ली खाने वाले जलने के निशान क्यों छोड़े, जबकि वह बहुत आसानी से अपने किये की लीपा-पोती कर सकती थी ? क्या यह एक भूल थी या एक सन्देश ?

पुलिस ने उस सुबह एक और आदमी को भी मारा -- हेमचन्द्र पाण्डेय -- एक युवा पत्रकार जो आज़ाद के साथ यात्रा कर रहा था जब आज़ाद को गिरफ़्तार किया गया. पुलिस ने उसे क्यों मारा ? क्या इस बात को पक्का करने के लिए कि क़िस्से को बयान करने के लिए कोई गवाह ज़िन्दा न बचे ? या यह महज़ पुलिस की सनक थी ?

किसी युद्ध के दौरान अगर शान्ति-वार्ताओं के आरम्भिक चरण में एक पक्ष दूसरे पक्ष के दूत को मार देता है तो यह मानना तर्कसंगत है कि जिस पक्ष ने हत्या की है वह शान्ति नहीं चाहता. बहुत हद तक यह लगता है किम आज़ाद की हत्या इसलिए की गयी क्योंकि किसी ने फ़ैसला किया कि दांव इतने बड़े थे कि उसे ज़िन्दा नहीं रहने दिया जा सकता था. यह फ़ैसला स्थितियों के मूल्यांकन में एक गम्भीर भूल साबित हो सकता है. न सिर्फ़ इसलिए कि आज़ाद कौन था, बल्कि आज हिन्दुस्तान की जो राजनैतिक फ़िज़ा है उसकी वजह से भी.


कामरेडों से विदा लेने और दण्डकारण्य के जंगल से बाहर आने के कई दिन बाद मैंने ख़ुद को नयी दिल्ली के संसद मार्ग पर जन्तर मन्तर की तरफ़ एक थकाऊ और चिर-परिचित रास्ते को तय करते हुए पाया. जन्तर मन्तर एक पुरानी वेधशाला है जिसे जयपुर के महराजा सवाई जय सिंह ने १७१० में बनवाया था. उस ज़माने में यह विज्ञान का एक करिश्मा था जो समय बताने, मौसम की अग्रिम जानकारी देने और ग्रह-नक्षत्रों की गति और स्थिति का पता लगाने के काम आता था. आज यह एक औसत पर्यटकीय आकर्षण है जिसका दूसरा मक़सद है दिल्ली मे लोकतन्त्र के छोटे-से शो-रूम की भूमिका अदा करना.

इधर कुछ बरसों से विरोध-प्रदर्शनों पर -- अगर वे राजनैतिक दलों या धार्मिक संगठनों की सरपरस्ती में न हो रहे हों तो -- दिल्ली में पाबन्दी लगा दी गयी है. राजपथ पर बोट क्लब, जो गुज़रे हुए दिनों में कई-कई रोज़ तक चलने वाली विशाल, ऐतिहासिक रैलियों का साक्षी रहा है, अब राजनैतिक गतिविधि के लिए निषिद्ध क्षेत्र है और सिर्फ़ सैर-तफ़रीह, ग़ुब्बारे बेचने वालों और नौका विहारियों के लिए उपलब्ध है. रहा इण्डिया गेट तो वहां मोमबत्ती जुलूसों और मध्यमवर्गीय उद्देश्यों से किये गये नुमायशी विरोध-प्रदर्शनों की इजाज़त है -- मिसाल के लिए "जस्टिस फ़ौर जेसिका" (जेसिका के लिए इन्साफ़) जो उस मौडल के लिए किया गया जिसकी हत्या दिल्ली के एक शराबख़ाने में राजनैतिक सम्पर्क-सूत्रों वाले एक ठग ने कर दी थी -- मगर इससे ज़्यादा और कुछ नहीं. शहर पर धारा १४४ लगा दी गयी है, वह पुराने उन्नीसवीं सदी के क़ानून की धारा सार्वजनिक स्थल पर पांच से ज़्यादा लोगों के इकट्ठे होने पर पाबन्दी लगाती है जिनका "कोई समान उद्देश्य हो जो ग़ैर-क़ानूनी हो." यह क़ानून अंग्रेज़ों ने १८५७ के विद्रोह के दोहराये जाने को रोकने के इरादे से १८६१ में पारित किया था. उसे आपातकालीन क़दम के तौर पर लागू किया जाना था, पर अब यह हिन्दुस्तान के कई हिस्सों में स्थाई रूप से लागू कर दिया गया है.शायद ऐसे ही क़ानूनों के लिए अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए हमारे प्रधान मन्त्री ने औक्सफ़ोर्ड से मानद उपाधि ग्रहण करते हुए अंग्रेज़ों का शुक्रिया अदा किया कि उन्होंने हमारे लिए इतनी समृद्ध विरासत छोड़ी : "हमारी न्यायपालिका, हमारी क़ानून व्यवस्था, हमारी नौकरशाही और हमारी पुलिस -- सभी महान संस्थाएं हैं जो हमें बर्तानवी-हिन्दुस्तानी प्रशासन से प्राप्त हुई हैं और वे हमारे अच्छे काम आयी हैं."

.............जारी...........अगले अंक में देखें -- कल

Tuesday, September 14, 2010

क्रांति और भ्रान्ति -- सितम के जहान और भी हैं...

क्रांति और भ्रान्ति --सितम के जहान और भी हैं...

मृणाल वल्लरी के सात साल पहले लिखे गये लेख को माओवादियों के खिलाफ़ उनके भ्रान्त धारणाओं से भरे लेख को छापने, माफ़ कीजिए ब्लौग पर प्रसारित करने, के बाद एक भावुकता भरी टिप्पणी के साथ पेश करने का क्या उद्देश्य है, यह समझ में नहीं आया सिवा इसके कि उन्हें और मोहल्ला ब्लौग को अपने रुझान का औचित्य ठहराने की ज़रूरत महसूस हुई होगी, विश्वस्नीयता को भी साबित करने की. वजह यह कि ब्लौग पर प्रसारित सामग्री को पढ़ने और उस पर त्वरित टिप्पणी करने वाले अधिकांश लोग स्वभावत: भावुक होते हैं और अर्चना पर लिखी मृणाल वल्लरी की टिप्पणी के एकांगी दृष्टिकोण से बहुत जल्दी प्रभावित भी हो जाते हैं. इस सिलसिले में दो तीन बातें कहनी हैं.

पहली यह कि यह मान कर भी कि हमारे समाज में पुरुष अब भी स्त्रियों पर ज़ोर-ज़ुल्म करते हैं, इस समस्या को एक "केस स्टडी" बना कर सिर्फ़ पुरुषों को अपार भोलेपन और नक़ली सात्विक आक्रोश से "दोग़ले" कहना एक सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक समस्या को नितान्त व्यक्तिवादी ढंग से देखना है, साथ ही पुरुषों को एक ऐसी गाली देना है जो नि:सृत ही पुरुष-प्रधान मानसिकता से हुई है. मृणाल जी युवा जुझारू पत्रकार हैं, गांव से भी उनका जुड़ाव बरक़रार है, ज़रा भागलपुर में ही "दोग़ला" का अर्थ दरयाफ़्त करें. मूल अर्थ है -- फ़ारसी पुल्लिंग : अवैध, वर्णसंकर, बदनस्ल. और देसी लोगों से पूछने पर उन्हें पता चलेगा कि इसी को उनके गांववाले "हरामी, नाजायज़, जारज, पापज, ग़ैरक़ानूनी," वग़ैरा कहते हैं जो न केवल इस गाली को स्त्री-विरोधी बना देता है, बल्कि वर्णवादी, जातिवादी और नस्लवादी भी. ब्लौग के पाठक चूंकि इस जानकारी से अपरिचित हैं इसलिए उन्हें मृणाल का सतही आक्रोश इस गाली से मण्डित हो कर और भी मनमोहक लगता है वैसे ही जैसे किसी औरत का मां और बहन की गाली देना कि भई वाह, क्या मर्दानगी दिखायी है. यों हमारे समाज में कौन है जो दोग़ला नहीं है ? शुद्ध रक्त का दावा कौन कर सकता है ? इसी से दूसरी बात निकलती है.

दूसरी बात यह है कि हमारा समाज पिछले चार पांच हज़ार वर्षों के अर्स में इतनी पुरपेच गलियों से हो कर आया है कि स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की जटिलताएं कई तरह के परस्पर विरोधी विचार-आचार सरणियों, संस्कारों और दबावों का शिकार हो गयी हैं और स्त्रियों को उनकी वाजिब जगह हासिल कराने के लिए -- चाहे वह सामाजिक धरातल पर हो या स्त्री-पुरुष के नितान्त निजी दायरे में ( मृणाल जी और उनके प्रशंसक ग़ौर करेंगे कि मैं जान बूझ कर "वैवाहिक दायरे" जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं कर रहा) -- एक लम्बी लड़ाई लड़नी है, लड़ी भी जा रही है और इसमें सिर्फ़ स्त्रियां ही नहीं, मर्द भी शरीक हैं और होंगे. वर्ना क्या मृणाल जी बता पायेंगी कि पुरुष तो स्त्रियों पर अत्याचार करते ही हैं, औरतें क्यों औरतों पर ज़ुल्म ढाती हैं ? परम्परागत सास-बहू, ननद-भौजाई और देवरानी-जेठानी की दुश्मनी के अलावा कई बार सहोदरा बहनों में भी कैसी कट्टम-जुज्झ मचती है उससे क्या मृणाल जी नावाक़िफ़ हैं. पर अपने ऐंचेपन की वजह से वे इस सब को नज़रन्दाज़ कर गयी हैं, क्योंकि जैसा कि मैं ने उनके पिछले लेख के सिलसिले में भी कहा था, वे आज की सनसनीख़ेज़, भावुकता भरी पत्रकारिता की प्रतिनिधि हैं, परिवर्तनकामी पत्रकारिता करने का दम भरना तो एक छलावा है जो आज के मीडिया मालिकों को बहुत पसन्द आता है.

तीसरी बात भी हमारे समाज में विवाह की संस्था से सम्बन्धित है. विवाह की प्रथा का आरम्भ मातृसत्ता की पराजय के बाद और व्यक्तिगत सम्पत्ति के उदय के बाद ही हुआ था. अगर मृणाल जी को मार्क्स-एंगेल्स-माओ से बहुत एलर्जी है तो अपने ही वेद-पुराणों में श्वेतकेतु की कथा पढ़ने की ज़हमत उठाएं. शुरू से आज तक विवाह एक पौरुष प्रधान समाज की अभिव्यक्ति रहा है और समय के साथ वह इतना पेचीदा हो गया है कि विवाह का टूटना या उसमें विकृतियों का पैदा होना केवल एक पक्ष ही की ज़िम्मेदारी नहीं होता. भिन्न-भिन्न मात्राओं में स्त्री-पुरुष और उनके साथ-साथ उनके इर्द-गिर्द का समाज भी ज़िम्मेदार होता है. इसलिए एक तो इस सिलसिले में कोई सरलीकरण करना ग़लत है. अनेक दलित स्त्रियां सवर्ण या या ब्राह्मण स्त्रियां दलित पुरुषों के साथ सुखी वैवाहिक जीवन बिताती रही हैं, बिता रही हैं, यहां तक कि अलग अलग धर्मॊं के दम्पति भी निर्विघ्न जीवन जीते रहे हैं, जी रहे हैं जबकि चारों ओर खुले दिमाग़ से नज़र दौड़ाने पर अनेक सगोत्रीय, सजातीय समान धर्मी विवाह -- बल्कि ९५ प्रतिशत सगोत्रीय, सजातीय समान धर्मी विवाह -- किसी न किसी व्यथा और रुग्णता का शिकार पाये जायेंगे.

दूसरे उनके विचारों से ही उत्तेजित हो कर किन्हीं महाशय ने सन्दर्भ-च्युत ढंग से कवि आलोकधन्वा को और क्रान्ति भट्ट से उनके वैवाहिक सम्बन्धों पर अनाप-शनाप टिप्पणी कर मारी है. दो व्यक्तियों का सम्बन्ध और फिर सम्बन्ध-विच्छेद कोई सार्वजनिक विश्लेषण और निष्कर्ष प्रतिपादन का मामला नहीं होता. चूंकि मैं इस दम्पति विशेष के काफ़ी क़रीब रहा हूं इसलिए मैं अधिकारपूर्वक कह सकता हूं कि आलोकधन्वा और क्रान्ति ( अब असीमा ) भट्ट का अलग होना सिर्फ़ एक पक्ष के चलते नहीं हुआ. यों कोई भी ब्लौग पर कुछ भी कहने के लिए स्वतन्त्र है, चाहे वह दूसरे पर कीचड़ उछालने से ले कर उसका चरित्र हनन करने तक क्यों न चला जाये.

मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि अगर मृणाल की मुहिम से एक भी अर्चना की जान बचती है, और सिर्फ़ जान ही नहीं बचती, बल्कि वह अपने बल पर जीवन जीने में समर्थ भी होती है तो मैं मृणाल के प्रयत्नों का स्वागत करूंगा लेकिन मृणाल केवल पढ़ी-लिखी साधन-सम्पन्न अर्चनाओं पर ही नज़र न टिकाये रखें, न अपने दायरे को वर्ण या धर्म के बन्धनों तक ही सीमित रखें. वे ज़रा वहां भी नज़र दौड़ायें जहां औरतें सत्ता और सत्ता के गुर्गों -- पुलिसवालों, नेताओं आदि का शिकार बनती हैं. जहां दलितों से बदला लेने या उन्हें उनकी औक़ात बताने के लिए उनकी औरतों के साथ बलात्कार किया जाता है. कौन नहीं जानता है कि एक सवर्ण पढ़ी-लिखी लड़्की के पास आत्महत्या के अलावा सौ रास्ते होते हैं जो समाज की दलित ८० फ़ीसदी औरतों को उपलब्ध नहीं होते. उच्छ्वास बहुत अच्छा लगता है, पर कैरियर की सीढ़ियां चढ़ने में सहायक होने के अलावा बहुत दूर नहीं ले जाता. फिर इससे आगे बढ़ कर वे स्त्रियां हैं जो यह जानती हैं कि शोषण पर टिके इस समाज में सिर्फ़ स्त्रियां ही परतन्त्र नहीं हैं बल्कि पुरुष भी उतनी ही मात्रा में परतन्त्र हैं और स्त्रियों की मुक्ति की लड़ाई लामुहाला पुरुषों की मुक्ति की भी लड़ाई है. मृणाल अगर अपने कर्म को वाक़ई सार्थक करना चाहती हैं तो उन्हें यह सत्य समझना चाहिए.

अन्त में यह कि हाल के सर्वेक्षणों ने यह भी बताया है कि जहां स्त्रियों ने आर्थिक वर्चस्व हासिल कर लिया है वहां थोड़ी मगर बढ़ती मात्रा में पुरुष भी यौन अथवा अन्य उत्पीड़नों का शिकार बने हैं, बन रहे हैं. मृणाल चाहें तो किसी भी समाज शास्त्री से पूछ सकती हैं. इसलिए उन्हें चाहिए कि ज़रा गहरे उतरें. फ़िलहाल तो यही लगता है कि -- भले ही सात साल पुराना लेख दोबारा पेश करते हुए उन्होंने यह कहा है कि आज वे इसे दूसरी तरह लिखतीं -- वे इस लेख से बहुत दूर नहीं हटी हैं वरना इसे दोबारा पेश करने के लालच में न पड़तीं.

Tuesday, September 7, 2010

राजकीय हिंसा हिंसा न भवति

राजकीय हिंसा हिंसा न भवति

जनज्वार ब्लौग पर हाल में बिहार की घटनाओं पर टिप्पणियां और साई बाबा का जवाब और फिर स्वामी अग्निवेश के स्वघोषित शान्ति दूत की भूमिका में उतरने के बारे में लिखी गयी टिप्पणी देखी. इन में कई बातें गड्ड-मड्ड हो गयी हैं. हालांकि इन टिप्पणियों पर एक मुकम्मल, सुविचारित टिप्पणी की अपेक्षा है, मैं इस वक़्त अपने को तैयार नहीं पा रहा हूं, तो भी कुछ विचारणीय बिन्दुओं का ज़िक्र कर रहा हूं.

हां, मुझे भी माओवादियों द्वारा लुकास टेटे की हत्या पर ऐतराज़ है. मेरे खयाल में यह न केवल रणनीति की दृष्टि से भूल है, बल्कि अपहृत व्यक्ति को मार डालना उन तमाम लोगों को अस्वस्ति और असुविधा की स्थिति में ला खड़ा करता है, जो नागरिक और सार्वजनिक मंचों पर माओवादियों की सही मांगों की पुरज़ोर हिमायत करते आये हैं, और वह भी एक ऐसे समय जब माओवादियों के साथ-साथ उन्हें भी लानत-मलामत का निशाना बनाया जा रहा है. दूसरी तरफ़ बिहार, दिल्ली और अन्य प्रान्तों में अनेक ऐसे परिवर्तनकामी साथी जेल में ठूंस दिये गये हैं जिनके नाम कोई नहीं लेता.

सात महीनों से इलाहाबाद की नैनी जेल में "दस्तक" पत्रिका की सम्पादक और उनके पति विश्वविजय रिमांड पर क़ैद चल रहे हैं. इतना ही अर्सा दिल्ली की ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता अनु और उन के पति को तिहार में रिमांड पर क़ैद भुगतते हो गया. क्या किसी ने इनका भी नाम लिया ? या इन्हें छुड़ाने के सिलसिले में कुछ किया ? मैं ने अपनी मित्र अरुन्धती राय और अनेक लोगों को इसकी सूचना दे कर क़दम उठाने की अपील की थी, पर शायद वे छोटे कम नामी लोगों की पक्षधरता में यक़ीन नहीं रखते. आज तक सार्वजनिक रूप से क्या किसी ने "आम लोगों की पार्टी" के आम कार्यकर्ताओं के हक़ में आवाज़ उठाई है ? क्या यह भी उसी प्रक्रिया के तहत हो रहा है जिसके तहत १९४७ से पहले तथाकथित आज़ादी के हिमायतियों ने अनाम लोगों को अक्सर विस्मृति के अंधेरों के हवाले किया था ? दूर नहीं, सफ़दर हाशिमी के साथ जो राम बहादुर नाम का मज़दूर १९८९ में कांग्रेसियों द्वारा मारा गया था, उसका कोई स्मारक बना ? उसे कोई याद भी रखता है ?

तीसरी बात यह कि लुकस टेटे की हत्या पर हाय-तोबा मचाने वालों से, ख़ास तौर पर मीडिया वालों से यह ज़रूर पूछा जाना चाहिए कि झूठी मुठ्भेड़ में आज़ाद और हेमचन्द्र पाण्डे की हत्या पर खामोशी क्यों रही ? सारे सरकारी और निजी मीडिया तन्त्र ने उस पर ऐसा सात्विक रोष क्यों प्रकट नहीं किया ? मेरे कहने का यह मतलब नहीं है कि लुकस टेटे को मार डालना उचित था. पर बात यहीं ख़त्म नहीं की जा सकती. कारण यह कि पिछले साठ बरसों से हमारे हुक्मरानों और उनके तन्त्र की हिंसा का कोई हिसाब-किताब और जवाब-तलबी नहीं की गयी है. मैं जेसिका लाल और नितीश कटारा या शिवानी भटनागर की हत्याओं सरीखे मामलों से आगे बढ़ कर पुलिस हिरासतों और फ़र्ज़ी मुठभेड़ों में मारे गये हज़ारों लोगों का ज़िक्र कर रहा हुं. मैं ज़िक्र कर रहा हूं कश्मीर में बरसों से चल रहे दमन और उत्पीड़न का, मैं ज़िक्र कर रहा हूं छत्तीसगढ़, ऊड़ीसा, झारखण्ड, आन्ध्र, महाराष्ट्र और बंगाल में बेरहमी से मारे गये आदिवासियों और उनकी ओर से आवाज़ उठाने और लड़ने वाले लोगों की गिरफ़्तारियों और हत्याओं की.

क्या लुकस टेटे की नावाजिब हत्या पर शोर मचाने वालों -- सरकारी और विपक्षी नेताओं, चन्दन मित्रा और अर्णब गोस्वामी और बरखा दत्त जैसे पत्रकारों, सभी मीडिया चैनलों, के.पी.एस. गिल जैसे हिंसक पुलिस अफ़सरों और स्वामी अग्निवेश जैसे स्वार्थ साधकों -- ने कभी इतनी ही सात्विक दु:ख और आक्रोश भरे स्वर ऊपर उल्लिखित हिंसा के अनगिनत मामलों में व्यक्त किये हैं ?

निश्चय ही अरुन्धती राय और मेधा पाटकर और गौतम नौलखा को मैं स्वामी अग्निवेश की कोटि में नहीं रखना चाहता, गो उनकी सारी बातों से मैं सहमत नहीं हूं, पर स्वामी अग्निवेश जैसे मध्यस्थ सत्ता को बहुत भाते हैं क्योंकि इनकी आड़ में सरकारी हिंसा को अंजाम देना आसान होता जिसके बाद सरकार और मध्यस्थ, दोनों की राजनीति के चमकने के रास्ते खुल जाते हैं जैसा हम सभी ममता बनर्जी के मामले में देख आये हैं और अब स्वामी अग्निवेश के मामले में देख रहे हैं. याद कीजिये स्वामी अग्निवेश बाल मज़दूरी के सवाल पर भी काफ़ी आन्दोलन कर चुके हैं और बाल मज़दूरी के विरोध के लाभ भी उठा चुके हैं जब कि बाल मज़दूरी के आंकड़े लगातार बढ़ते गये हैं.

अहिंसा का राग अलापने पर ही अपने कर्तव्य की भरपाई करने वालों को याद रखना चाहिए कि छत्तीसगढ़ में १९७५ में बाबा आम्टे जैसे अहिंसावादी वहां बाक़ायदा आश्रम खोलने के बाद और अपनी सारी सद्भावना के बावजूद आदिवासियों को न्याय नहीं दिला पाये. स्वामी अग्निवेश तो अभी उन इलाकों में गये भी नहीं हैं जहां हर बाशिन्दे के दिलो-दिमाग़ पर ज़ुल्मो-सितम के गहरे और कभी न मिटने वाले निशान हैं.

यही नहीं, पानी पी-पी कर माओवादियों को कोसने वालों को यह भी याद रखना चाहिए कि इस पूरे इलाके में दमन और उत्पीड़न के प्रतिरोध का इतिहास माओ से तो बहुत पुराना है ही वह बिर्सा मुण्डा से भी बहुत पुराना है. उसके सूत्र उन जातीय संघर्षों में छिपे हुए हैं जिनकी परिणति जन्मेजय के नाग यग्य जैसे नरसंहार में हुई थी.

चुनांचे दोस्तो, मामला जैसा कि मैं ने कहा काफ़ी पेचीदा है. अपराध और हिंसा को किसी भी युग में सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक स्थितियों से और सत्ताधारियों के शोषण से अलग कर के नहीं देखा जा सकता. फ़्रांस के महान लेखक विक्टर ह्यूगो ने अपनी अमर कृति "अभागे लोग" में इसी समस्या को उठाया है.

अन्त में इतना ही कि जैसे-जैसे समय आगे बढ़ा है वैसे-वैसे यह साफ़ होता चल रहा है कि १९४७ में इतने ख़ून-ख़राबे और इतनी मानवीय पीड़ा के बाद हमने जो हासिल की थी वह आज़ादी नहीं, बल्कि गोरे लुटेरों के बदले काले लुटेरों की सल्तनत थी जिसकी आशंका सरदार भगत सिंह ने खुले शब्दों में व्यक्त की थी. अंग्रेज़ हिन्दुस्तानी सिपाहियों से हिन्दुस्तानी लोगों पर क़हर नाज़िल करते थे, जलियांवाला बाग़ के हत्या काण्ड को अंजाम देते थे, अब पी. चिदम्बरम जैसे हुक्काम महेन्द्र करमा जैसे स्थानीय गुर्गों की मदद से छत्तीसगढ़ में सल्वा जुडुम सरीखी घृणित कार्रवाई करते हैं. उद्देश्य लूट-पाट ही है चाहे मैनचेस्टर और बकिंघम पैलेस के लिये हो या फिर वेदान्त, टाटा और पौस्को के लिए हो.

जब तक इस सारी जद्दो-जेहद को उसकी जड़ों तक जा कर नहीं देखा जायेगा और इसका समतामूलक हल नहीं निकाला जायेगा तब तक हिंसा को रोकने के सभी ऊपरी उपाय विफल होते रहेंगे. अच्छी बात यही है कि धीरे-धीरे आम जनता इस हक़ीक़त से वाक़िफ़ हो चली है.