Thursday, December 30, 2010

देशान्तर






आज के कवि : पाब्लो नेरूदा

संघर्षरत जनता के कवि

आज जब हमारे देश में भी अमरीका की शह पर मुनाफ़े के सौदागरों, तानाशाही तरीक़ों से काम लेने वालों, युद्ध-लाटों का शिकंजा कसता जा रहा है, लोकतन्त्र को कट्घरे में खड़ा कर दिया गया है, लोकतान्त्रिक संस्थाएं या तो ख़ारिज होने के कगार पर पहुंच गयी हैं या ताक़त और दौलत की दासियां बना दी गयी हैं, नेरूदा की कविता और उनका संघर्ष-कामी स्वर हमारे लिए और भी ज़रूरी हो गया है। यहां उनकी कविताओं का एक छोटा-सा चयन पेश है।


नेरूदा की अन्तिम कविता

निक्सन, फ़्रेई और पिनोशे
आज की तारीख़ तक, सन 1973 के
इस कड़वे हृदय-विदारक महीने तक
बॉर्दाबेरी, गारास्ताज़ू और बांज़र के साथ
भूखे लकड़बग्घे हमारे इतिहास के,
चूहे कुतरते हुए उन परचमों को
जिन्हें जीता गया इतने सारे ख़ून और इतनी सारी आग से

बागानों में कीचड़ से लथपथ
नारकीय लुटेरे, हज़ार बार ख़रीदे-बेचे गये क्षत्रप
न्यू यॉर्क के भेड़ियों द्वारा उकसाये गये
डॉलरों की भूखी मशीनें
अपने शहीदों की क़ुरबानी के धब्बों वाली

अमरीकी रोटी और हवा के भड़वे सौदागर
हत्यारे दलदल, रण्डियों के दलाल मुखियों के गिरोह,
लोगों पर कोड़ों की तरह भूख और यातना बरसाने के अलावा
और किसी भी क़ानून से रहित।

उन्हें चीले के ख़िलाफ़ निर्देश प्राप्त होते हैं

लेकिन हमें इन सबके पीछे नज़र डालनी चाहिए,
इन ग़द्दारों और कुतरने वाले चूहों के पीछे कुछ है,
एक साम्राज्य जो दस्तरख़्वान बिछाता है
और पेश करता है आहार और गोलियाँ

वे यूनान में अपनी महान सफलता को दोहराना चाहते हैं
भोज में यूनानी छैले, और पहाड़ों में लोगों के लिए
बन्दूक की गोलियाँ : हमें सामोथ्रेस की नयी
विजय की नयी उड़ान को नष्ट करना होगा, हमें
फाँसी चढ़ाना होगा, उन आदमियों को मारना होगा,
न्यू यॉर्क से हमारी तरफ़ बढ़ाये गये हत्यारे चाकू को
दफ़्न करना होगा,
हमें आग से उस आदमी के मनोबल को तोड़ना होगा
जो सभी देशों में उभर रहा था
मानो ख़ून छिड़की धरती से जन्म ले रहा हो।

हमें हथियार बन्द करना है च्यांग को और ख़ूँख़ार विदेला को
देना है उन्हें धन कारागारों के लिए, पंख
ताकि वे बम बरसा सकें अपनी आबादियों पर, देना है
उन्हें एक अनुदान, कुछ डॉलर, और बाक़ी सब वे
ख़ुद कर लेंगे,

वे झूठ बोलते हैं, रिश्वतें देते हैं, नाचते हैं मुर्दा जिस्मों पर
और उनकी बेगमें पहनती हैं बेशक़ीमती किमख़्वाब के लबादे
लोगों की तकलीफ़ों की कोई अहमियत नहीं है
ताँबे के सौदागरों को इस क़ुरबानी की ज़रूरत है

हक़ीक़त हक़ीक़त है
युद्ध-लाट फ़ौज से अवकाश लेते हैं और
चुक्वीकामाता ताँबा कम्पनी के उपाध्यक्षों के पद
पर आसीन होते हैं
और नाइट्रेट कारख़ाने में चीले का युद्ध-लाट
अपनी तलवार बाँधे तय करता है
वेतन-वृद्धि की अर्ज़ियों में जनता
कितनी रक़म का ज़िक्र कर सकती है

इस तरह वे ऊपर से तय करते हैं,
डॉलरों की रफ़्तार से,
इस तरह बौने ग़द्दार को उसके निर्देश प्राप्त होते हैं,
और युद्ध-लाट पुलिस के रूप में काम करते हैं,
और देश के वृक्ष का तना सड़ता है।


"मैं सज़ा की माँग करता हूँ" से

मैं यहाँ रोने नहीं आया जहाँ वे गिरे
मैं आया हूँ बात करने तुमसे जो अब भी ज़िन्दा हो।
मेरे शब्द सम्बोधित हैं तुम्हें और अपने आपको।

दूसरे भी मरे हैं इससे पहले, याद है ?

हाँ, तुम्हें याद है, इन्हीं जैसे दूसरे, तुम जैसे,
उन्हीं-उन्हीं नामों वाले
बरसाती लॉनक्वीमे में, सान ग्रेगोरियो में,
बंजर रानक्विल में उड़ाऊ हवा की ख़रोंचे खा कर,
धुँए की रेखा और वर्षा की रेखा के साथ-साथ
ऊँचे मैदानों से द्वीप-समूहों तक
दूसरे आदमी भी क़त्ल हुए हैं,
तुम्हारी तरह ऐन्टोनियो सरीखे नाम वाले दूसरे
मछुआरे, लोहार, तुम्हारे जैसे कारीगर।

चीले का हाड़-माँस: चेहरे
हवा के कोड़ों के निशान-लगे, घास के मैदानों
जैसे सूखे चटियल, पीड़ा के हस्ताक्षर लिये।

2

हमारे वतन की फ़सीलों के साथ-साथ
बर्फ़ की कोरी, काँच सरीखी चमक के छोर पर दमकती
हरी शाखाओं वाली नदी की भूल भुलैयाँ के पीछे छिपे,
नाइट्रेट के नीचे, फूटते बीज के अंकुर के नीचे,
मैंने पाया अपने लोगों के ख़ून की छितरी बूँदों का घना जमाव
और हर बूँद जल रही थी एक लपट की तरह।

4

यह अपराध घटित हुआ ठीक खुले चौक में।
किसी जंगल में नहीं बहाया गया था यह ख़ून बेक़सूरों का।

पाम्पास की प्यासी छुपा लेने वाली रेत में नहीं
किसी ने उसे ढाँकने की कोई कोशिश नहीं की

यह अपराध देश के हृदय में किया गया...

6

लोगो, यहाँ तुमने पाम्पास के झुके हुए मज़दूरों की तरह
हाथ बढ़ाने का फ़ैसला किया; तुमने उत्तर दिया उन्हें,
तुमने बुलाया उन्हें, आदमी औरत और बच्चा,
एक साल पहले इस चौक में,
और यहाँ तुम्हारा ख़ून फूट पड़ा,
देश के ठीक बीचों-बीच वह बहाया गया,
महल के सामने, सड़क के ठीक बीच में
और कोई उसे पोंछ न पाया
तुम्हारे लाल धब्बे यहीं रहे
सितारों की तरह
अटल और अनम्य

तभी जब चिली का एक के बाद दूसरा हाथ
अपनी उँगलियाँ पाम्पास की तरफ़ बढ़ा रहा था
और तुम्हारे शब्द आ रहे थे हृदय से, एकता के घोष में
लोगो, तभी जब तुम अपने चौक में
आँसुओं और आशा और दुख-भरे
गीतों को गाते हुए चल रहे थे जुलूस में
तभी जल्लाद के हाथ ने चौक को शराबोर कर दिया ख़ून से।

7

इसी तरह बनाया गया था हमारे देश का झण्डा:
अपने दुख के चिथड़ों से सिला था उसे लोगों ने;
प्रेम के चमकते धागे से उस पर कशीदाकारी की थी;
अपनी कमीज़ों से या शायद आकाश की तह से
काट कर निकाला था वह नीला टुकड़ा चौकोर,
अपने देश के सितारे को टाँकने के लिए
और उत्सुक हाथों से उसे सजाया था वहाँ एक नगीने की तरह।

बूँद-दर-बूँद उसका रंग सुर्ख़ टटका लाल हो रहा है
वे जो इस चौक में आये थे भरी बन्दूकें लिये,
वे जो आये थे बेरहमी से मारने के हुक्म पर,
उन्हें मिली यहाँ महज़ एक भीड़ गाते हुए लोगों की
एक भीड़ जिसे प्रेम और कर्तव्य ने तब्दील कर दिया था।

और एक पतली-दुबली लड़की सहसा गिरी अपने बैनर को थामे,
एक युवक ने चक्कर खाया अपनी पसलियों में बने छेद से खाँसते हुए।
ख़ामोशी के उस धमाके में लोग उन्हें गिरते हुए ताकते रहे
और धीरे-धीरे उनके दुख की लहर उठी और सर्द
ग़ुस्से की शक्ल में जम गयी।
बाद में उन्होंने अपने बैनर ख़ून में डुबोये
और उन्हें हत्यारों को चेहरों के सामने फहरा दिया

10

अपने इन्हीं दिवंगतों के नाम पर
मैं सज़ा की माँग करता हूँ

जिन्होंने हमारे वतन को ख़ून से छिड़का, उनके लिए
मैं सज़ा की माँग करता हूँ
उसके लिए जिसके हुक्म पर यह जुर्म किया गया
मैं माँगता हूँ सज़ा
उस ग़द्दार के लिए जो इन देहों पर कदम रखता
सत्ता में आया, मैं सज़ा की माँग करता हूँ
उन क्षमाशील लोगों के लिए जिन्होंने इस जुर्म को माफ़ किया
मैं सज़ा की माँग करता हूँ

मैं नहीं चाहता हर तरफ़ हाथ मिलाना और भूल जाना,
मैं उनके ख़ून सने हाथ नहीं छूना चाहता।
मैं सज़ा की माँग करता हूँ।
मैं नहीं चाहता वे कहीं राजदूत बना कर भेज दिये जायें,
न यहाँ देश में ढँके-छुपे रह जायें
जब तक कि यह सब गुज़र नहीं जाता।
मैं चाहता हूँ न्याय हो
यहाँ खुली हवा में ठीक इसी जगह।

मैं उन्हें सज़ा दिये जाने की माँग करता हूँ।


मैं कुछ चीज़ें समझाता हूँ

तुम पूछोगे कहाँ हैं गुलबकावली के फूल ?
और गुलेलाला से छिटका हुआ अध्यात्म ?
और वह वर्षा अपनी अनवरत टपटपाहट से रचती हुई
चुप्पियों और चिड़ियों से भरे हुए शब्द ?

मैं तुम्हें बताऊँगा क्या गुज़री है मेरे साथ।

मैं रहता था माद्रिद के एक मुहल्ले में
घण्टियों और घड़ियों और पेड़ों के बीच।
वहाँ से दिखायी देता था स्पेन का सुता हुआ चेहरा
चमड़े के सागर सरीखा।
मेरे घर को वे फूलों का घर कहते थे
क्योंकि हर दरार से फूट पड़ते थे जिरेनियम।
बड़ी गुलज़ार जगह थी मेरा घर
हँसते हुए बच्चों और कूदते हुए कुत्तों के साथ।

याद है राओल ?
क्यों रफ़ेल, याद है ?
याद है फ़ेदेरीको ?
क़ब्र के अन्दर से क्या तुम्हें याद हैं
मेरे घर के छज्जे जहाँ जून का प्रकाश
तुम्हारे मुँह में फूलों को डुबो देता था ?

भाई, मेरे भाई!
हर चीज़
आलीशान, ऊँची आवाज़ें नमकीन सौदा-सुल्फ़,
धड़कती हुई रोटियों के अम्बार,
बाज़ार मेरे उस आर्गुएलेस मुहल्ले के,
उसकी प्रतिमा जैसे मछलियों के बीच
एक ख़ाली फीकी दवात,
कड़छुलों में बहता हुआ तेल,
हाथों और पैरों की एक गहरी चीख़-पुकार
उमड़ती थी सड़कों में,
मीटर, लीटर, ज़िन्दगी की तीखी नाप-जोख,
मछलियों के ढेर,
सर्द धूप में छतों की बिनावट जिस पर
हवा सूचक मुर्ग़ थकान से भर जाता है,
शुद्ध उन्मत्त हाथी दाँत जैसे आलू,
समुद्र तक लहर-दर-लहर टमाटरों का विस्तार।

और एक सुबह लपटों में भड़क उठा यह सब।
एक सुबह अलाव फूट पड़े धरती से,
लोगों को निगलते हुए।
और तब से सिर्फ़ आग,
सिर्फ़ बारूद जब से,
और तब से सिर्फ़ ख़ून।

मराकशों और हवाई जहाज़ों के साथ वे लुटेरे,
अँगूठियों और बेगमों के साथ वे लुटेरे,
काले लबादों में अशीष देते पादरियों के साथ वे लुटेरे
टूट पड़े आसमान से
बच्चों का क़त्ल करने के लिए
और सड़कों पर बच्चों का ख़ून
बहा जैसे बहता है बच्चों का ख़ून

लकड़बग्घे जिन्हें लकड़बग्घे भी ठुकरा दें।
पत्थर जिन्हें भटकटैया भी चख कर थूक दे।
साँप जिनसे साँप भी घृणा करें।
तुमसे रू-ब-रू मैं ने देखा है
स्पेन के रक्त को एक ज्वार की तरह उठते हुए
तुम्हें चुनौतियों और चाकुओं की लहर में डुबोने के लिए।

ग़द्दार जरनैलो :
देखो मेरे निर्जीव घर को
देखो टूटे हुए स्पेन को।

लेकिन हर मरे हुए घर से
फूलों की जगह आता है जलता हुआ फ़ौलाद,
स्पेन के हर गड्ढे से बाहर आता है स्पेन,
हर मारे गये बच्चे से निकलती है
आँखों वाली एक राइफ़ल,
तुम्हारे हर गुनाह से जन्म लेते हैं कारतूस,
जो एक दिन तुम्हारे सीनों में खोज लेंगे तुम्हारे दिल।

और तुम पूछोगे : तुम्हारी कविताएँ
अब सपनों और पत्तियों के गीत क्यों नहीं गातीं
तुम्हारी धरती के ज्वालामुखियों के।

आओ और देखो सड़कों पर बिखरा हुआ ख़ून,
आओ और देखो
सड़कों पर बहता हुआ ख़ून,
आओ और देखो सड़कों पर ख़ून।

"माच्चू पिच्चू के शिखर" से

10
पत्थर-दर-पत्थर, और मनुष्य, कहाँ था वह ?
हवा-दर-हवा, और मनुष्य कहाँ था वह?
काल-दर-काल, और मनुष्य कहाँ था वह?

क्या तुम भी थे टूटे हुए नन्हे-से खण्ड,
अधूरे मनुष्य के, भूखे उक़ाब के,
जो आज की सड़कों से,
पुरानी राहों और निर्जीव शरद की पत्तियों के बीच से,
रौंदता चला जाता है आत्मा को क़ब्र के अन्दर तक ?

आह दीन हाथ, दीन पैर, दीन-हीन जीवन.......

ये सुलझी हुई रोशनी के दिन
तुम्हारे अन्दर, जैसे अनवरत वर्षा गिरती हुई
उत्सवी बर्छियों पर ;
बख़्शा क्या उन्होंने पँखुड़ी-दर-पँखुड़ी
ऐसे रिक्त मुख को अपना काला आहार ?
अकाल, जनता का असंख्य-रन्ध्री प्रवाल वृक्ष,
भूख, रहस्यमय पौधा, लकड़हारों का स्रोत,
दुर्भिक्ष, क्या तुम्हारी दाँतेदार सागर-शिला की कौंध
लपकी थी इन ऊँची, उन्मुक्त मीनारों तक ?

मैं पूछता हूँ तुमसे, राजपथों के नमक,
दिखाओ मुझे वह कन्नी,
अनुमति दो स्थापत्य,
एक छोटी-सी छड़ी से पत्थर के पुंकेसरों को छेड़ने की,
हवा की सारी सीढ़ियाँ चढ़ कर शून्य तक पहुँचने की,
आँतों को कुरेदने की, जब तक कि छू न लूँ मनुष्य को मैं।

माच्चू पिच्चू, उठाये क्या तुमने
पत्थर-पर-पत्थर, चिथड़ों की नींव पर ?
कोयले-पर-कोयला, और तल की गहराई में आँसू ?
क्या पैदा की तुमने सोने में आग
और उसके भीतर,
ख़ून की लरज़ती सुर्ख़ बूँदों का स्थूलोदर विधाता ?

लौटा दो मुझे वह ग़ुलाम, जिसे तुमने दफ़्नाया था यहाँ !
झटक लेने दो मुझे इन ज़मीनों से बदनसीबों की बासी सख़्त रोटी,
दिखाओ मुझे उस ग़ुलाम के तार-तार कपड़े और उसका झरोखा ।
बताओ मुझे : जब वह ज़िन्दा था तो कैसे सोता था,
बताओ: क्या नींद में ख़र्राटे भरता था वह
थकान से दीवार में बन गये काले ज़ख़्म-सरीखे अधखुले मुँह से ।

वह दीवार, वह दीवार !
बताओ : क्या उसकी नींद पर बोझ बन जाती थी
पत्थर की हर मंज़िल और क्या वह उनके नीचे
शिथिल हो ढह जाता था, मानो चाँद के नीचे,
उस सारी नींद के साथ !

प्राचीन अमरीका, समुद्री घूँघट से झाँकती वधू,
तुम्हारी उँगलियाँ भी,
अरण्य छोरों से देवताओं की विरल ऊँचाई तक,
प्रकाश और प्रतिष्ठा की विवाह-पताकाओं के नीचे,
नगाड़ों और नेज़ों की गरज में शरीक होती हुईं,
तुम्हारी उँगलियाँ, तुम्हारी उँगलियाँ भी,
जिन्होंने अमूर्त गुलाब को और शीत की रेखा को,
जिन्होंने नये अनाज के रक्त-रँगे उर को परिणत किया
कान्तिमय तत्व की बुनावट में, दुर्भेद्य पथरीले कोटरों में,
उन्हीं से, उन्हीं उँगलियों से ओ दफ़्न अमरीका,
उस गहनतम गर्त में, पित्त-भरी आँतों में,
क्या तुम छिपा कर पाल रहे थे भूख के उकाब को ?

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वैभव के उलझेरे के पार,
पथराई हुई रात के पार, मुझे डुबोने दो हाथ
और हज़ार वर्षों से क़ैद उस पखेरू,
उन बिसरा दिये गये लोगों के बूढ़े हृदय को मेरे अन्दर फड़फड़ाने दो,
आज मुझे भूल जाने दो यह सुख, यह आह्लाद,
जो सारे समुद्र से ज़्यादा विशाल है,
क्योंकि मनुष्य सारे समुद्र और उसके द्वीपों से विशालतर है,
और हमें डुबकी लगानी होगी उसके अन्दर, जैसे किसी कुएँ में,
ताकि हम ला सकें वापस उसकी गहराई से
भेद-भरे पाताली जल और जल-मग्न सच्चाइयों की स्रोतस्विनी ।

भूल जाने दो मुझे : यह पत्थर का विस्तार, सशक्त अनुपात,
लोकोत्तर माप, छत्तों-जैसी तहख़ानेदार नींवें,
और गुनिये से मेरे हाथ को फिसलने दो आज
तल्ख़ ख़ून और टाट के अदृश्य कर्ण पर नीचे तक ।

जब, घोड़े की मुरचायी नाल जैसी लाल पंख-मंजूषाओं-सरीखा,
क्रोधान्ध गिद्ध उड़ने के क्रम में मेरी कनपटियों पर करता है प्रहार
और उसके ख़ूँख़ार परों का तूफ़ान बुहार ले जाता है
ढलवाँ ज़मीनों की स्याह गर्द,
तब मैं देखता नहीं इस पाशविक की झपट,
नहीं देख पाता उसके पंजों की अन्धी दराँती,
मैं देखता हूँ उस पुरातन प्राणी, उस ग़ुलाम को,
खेतों में सोये हुए उस निद्रामग्न को
देखता हूँ मैं एक शरीर, हज़ारों शरीर, एक मर्द, हज़ारों औरतें,
काली आँधी के थपेड़े खातीं, वर्षा और रात से सँवलाई हुईं,
मूर्तियों के दुस्सह भार से पथरायी हुईं :

ओ संगतराश जुआन, विराकोचा के पुत्र,
शीतभक्षक जुआन, इस हरे नक्षत्र के वंशज,
नंगे पैरोंवाले जुआन, फ़ीरोज़े के पौत्र,
उठो, जन्म लो मेरे साथ, मेरे सहजात !

12

उठो, जन्म लो मेरे साथ, मेरे सहजात !

बढ़ाओ मेरी ओर अपना हाथ उन अगाध गहराइयों से
बोये गये हैं जिनमें तुम्हारे दुख ।
लौटोगे नहीं तुम इस चट्टानी कारा से ।
उबरोगे नहीं तुम भूमिगत अतीत से ।
वापस नहीं आयेगी तुम्हारी खरखराती सख़्त आवाज़ ।
न उदित होंगे तुम्हारे बिंधे हुए मर्माहत नेत्र अपने कोटरों से ।

देखो मेरी ओर धरती की गहराइयों से,
हरवाहे, जुलाहे, ख़ामोश चरवाहे :
विघ्नहर्ता ऊँटों के पालक :
ख़तरनाक पाड़ों पर चढ़े हुए राजगीर :
एण्डीज़ के आँसुओं के कहार :
कुचली उँगलियों वाले मणिकार :
अँखुवाते बिरवों में लरज़ते किसान :
अपनी माटी में बिखरे कुम्हार :
इस नयी ज़िन्दगी के प्याले तक लाओ
अपने पुराने दबे पड़े दुख ।

दिखाओ मुझे अपना लहू और अपनी झुर्रियाँ,
कहो मुझसे : यहाँ हुए मुझ पर कशाघात
क्योंकि एक रत्न रह गया था मन्द-प्रभ,
या धरती दे नहीं पायी समय पर पत्थर या अनाज।

दिखाओ मुझे वह पत्थर, जिससे ठोकर खा तुम लड़खड़ाये थे,
और वह शहतीर, जिस पर उन्होंने तुम्हें सूली चढ़ाया था।
पुराने चकमकों को रगड़ कर, जला दो
पुराने चिराग़, रोशन कर दो
शताब्दियों से अपने ज़ख़्मों से चिपके हुए कोड़े
और अपने ख़ून से रँगी चमकती कुल्हाड़ियाँ।

मैं आया हूँ तुम्हारे निस्पन्द मुखों की ओर से बोलने ।

जमा हो जायँ धरती पर सर्वत्र बिखरे वे मौन मृत अधर,
और इन गहराइयों से बुनते रहो मेरे लिए सारी बात, सारी रात,
मानो मैं लंगर डाले यहाँ तिरता रहा हूँ तुम्हारे साथ।

बताओ मुझे सब कुछ, बेड़ी-दर-बेड़ी,
बन्द-दर-बन्द, कदम-दर-कदम।
सँजो कर रखी हुई अपनी कटारों पर सान चढ़ा कर
उतार दो उन्हें मेरे हृदय में और मेरे हाथों में,
स्वर्णाभ किरणों की वेगवती धारा की तरह,
दफ़्न चीतों के प्रचण्ड प्रवाह की तरह,
और मुझे बिलखने के लिए छोड़ दो, घण्टों, दिनों, वर्षों,
अन्धे युगों, तारकीय शताब्दियों तक।

और दो मुझे मौन, जल दो, आशा दो ।

दो मुझे संघर्ष, ईस्पात और ज्वालामुखी ।

मेरी देह के चुम्बक से आ चिपकें शरीर ।

लपको मेरी शिराओं और मेरे मुख तक।

बोलो मेरी वाणी और मेरे रक्त के माध्यम से ।।

शराब

वसन्त की शराब...शराब पतझड़ की, शराब
और हमप्याला साथी, शरद की पत्तियों से
अटी हुई मेज़ के गिर्द, दुनिया की विशाल नदी
हमारे गीतों के शोर से इतनी दूर बहने पर कुम्हलाती हुई।

मैं एक मस्त पियक्कड़ हूँ।
तुम यहाँ इसलिए नहीं आये कि मैं फाड़ लूँ
तुम्हारी ज़िन्दगी का एक टुकड़ा। जब तुम जाओ
तो मेरे जीवन का एक हिस्सा लेते जाओ : कुछ गुलाब
या बादाम या जड़ों का ठौर
किसी साथी के साथ बाँटने के लिए।

तुम गा सकते हो मेरे साथ जब तक कि
हमारा प्याला छलक कर मेज़ को उन्नाबी न कर दे।
यह मदिरा तुम्हारे होंटों के लिए
आयी है सीधी धरती से, दाख के धूसर गुच्छों से।
कितनी परछाइयाँ मेरे गीतों की गुज़र गयीं :
पुराने साथियो, मैं ने प्यार किया आमने-सामने,
जीवन से ढालते हुए यह ओज-भरा अप्रतिम विज्ञान
जिसे बाँटता हूँ मैं :
भाईचारा, बीहड़ कोमलता का कुंज।

लाओ, दो मुझे अपना हाथ, मेरे साथ आओ
सरलता से और मत खोजो मेरे शब्दों में कुछ भी
जो किसी पौधे से नहीं आता, जन्म लेता।

मुझसे क्यों पूछते हो एक मज़दूर से ज़्यादा ? तुम्हें मालूम है
मैंने अपना ज़मींदोज़ लोहारख़ाना आग में तपा कर
चोट-दर-चोट बनाया
और अपनी ज़बान के सिवा और किसी तरह बोलना नहीं चाहता।
जाओ वैद्यों को खोजो अगर तुम हवा को बरदाश्त नहीं कर सकते।

आओ धरती की खुरदरी शराब के गीत गायें हम,
पतझड़ के प्यालों से मेज़ को बजायें
जब एक गिटार या एक मौन लाता रहता है हम तक
प्रेम की पंक्तियाँ, अस्तित्वहीन नदियों की भाषा
या अद्भुत छन्द जिनका कोई अर्थ न हो।

हम अनेक हैं

उन सभी लोगों में, जो मैं हूँ, जो हम हैं
मैं किसी एक के बारे में तय नहीं कर पाता।

वे कपड़ों की ओट में मुझसे ओझल हो गये हैं
वे किसी और शहर के लिए रवाना हो चुके हैं।

जब हर चीज़ मुझे एक बुद्धिमान व्यक्ति के रूप में
पेश करने के लिए तैयार जान पड़ती है
वह बेवकूफ़, जिसे मैं अपने भीतर छिपाये चलता हूँ
मेरी बातों का सिरा थाम लेता है
और मेरे मुँह पर क़ब्ज़ा जमा लेता है।
दूसरे मौक़ों पर, मैं उल्लेखनीय लोगों के बीच
बैठा झपकियाँ ले रहा होता हूँ।
और जब मैं पुकारता हूँ अपने साहसी रूप को
तो मुझसे क़तई अनजान एक कायर
लपेट देता है मेरे असहाय ढाँचे को
हज़ारों नन्हीं हिचकिचाहटों से।

जब एक शानदार मकान लपटों में फूट पड़ता है
तब उस दमकलवाले की जगह, जिसे मैं बुलाता हूँ,
एक आगज़नी करने वाला आ धमकता है
और वह मैं होता हूँ। मैं कुछ भी नहीं कर पाता।

क्या करूँ मैं जिससे ख़ुद को पहचान सकूं ?
कैसे करूँ अपने को व्यवस्थित ?

सारी किताबें जो मैं पढ़ता हूँ,
आत्म-विश्वास से भरपूर
चमकीले नायकों की प्रशस्तियों से भरी होती हैं।
मैं ईर्ष्या से जल-भुन कर राख हो जाता हूँ।
और फ़िल्मों में जहाँ गोलियाँ सनसनाती हैं हवा में
मैं घुड़सवारों से रश्क करता रह जाता हूँ।
यहाँ तक कि घोड़े भी मेरी प्रशंसा जीत लेते हैं।
लेकिन जब मैं आवाज़ देता हूँ अपने जांबाज़ रूप को
तो बाहर निकल आता है वही पुराना सुस्तराम।

और यों मैं कभी नहीं जान पाता कि दरअस्ल में हूँ कौन,
न यह कि हम कितने हैं, न यही कि हम अब क्या होंगे।

काश, मैं घण्टी बजा कर बुला सकता
अपना असली रूप, वह जो सचमुच मैं हूँ।
क्योंकि अगर मुझे सचमुच अपने सच्चे रूप की ज़रूरत हो
तो मुझे अपने आपको ग़ायब नहीं होने देना चाहिए।

जब मैं लिख रहा होता हूँ, तब मैं होता हूँ कहीं दूर
और जब मैं लौटता हूँ, तब तक मैं जा चुका होता हूँ।

मैं यह देखना चाहूँगा कि दूसरे लोगों के साथ भी
क्या वही होता है जो मेरे साथ।
देखना चाहूँगा कितने लोग मेरे जैसे हैं
और वे भी क्या ख़ुद को वैसे ही नज़र आते हैं।

जब इस समस्या की खूब छान-बीन कर ली जाय
तब मैं इतनी अच्छी तरह चीज़ों की जानकारी हासिल करूँगा
कि जब मैं अपनी उलझनों को समझाने की कोशिश करूँ
तो मेरी बातें ख़ुद अपने बारे में न हो कर
सारी दुनिया के बारे में हों।

इतने सारे नाम

सोमवार उलझे हुए हैं मंगलवारों से
और हफ़्ता समूचे साल से।
समय को तुम्हारी थकी हुई कैंचियों से
काटा नहीं जा सकता
और दिन के सभी नाम
धुल जाते हैं रात के जल में।

कोई दावा नहीं कर सकता कि उसका नाम पेद्रो है,
न कोई रोज़ा है, न मारिया,
हम सब धूल हैं या रेत
हम सब वर्षा के नीचे वर्षा हैं।

उन्होंने ज़िक्र किया है मुझसे वेनेज़ुएला का,
चीले का और पैरागुए का,
मुझे नहीं पता उनका मतलब क्या है,
मैं तो सिर्फ़ धरती की त्वचा जानता हूँ
और जानता हूँ उसका कोई नाम नहीं।

जब मैं रहता था जड़ों के बीच
वे मुझे फूलों से भी ज़्यादा भाती थीं
और जब मैं किसी पत्थर से बात करता
वह घण्टी की तरह टुनटुनाता।

कितना लम्बा है यह वसन्त
जो जारी रहता है पूरी सर्दियाँ।
समय खो चुका अपने जूते,
एक साल क़ायम रहता है चार सदियाँ।

हर रात जब मैं सोता हूँ
क्या होता है, या नहीं होता, मेरा नाम ?
और जागने पर कौन होता हूँ मैं
अगर मैं नहीं था ‘मैं’ नींद के दौरान।

कहने का मतलब है कि
ज़िन्दगी में उतरते ही
हम जैसे नया जन्म लेते हैं।
हमें अपने मुँह को नहीं भरना चाहिए
इतने सारे लड़खड़ाते नामों से,
इतने सारे थकाऊ शिष्टाचार से,
इतने सारे गूँजते अक्षरों से,
इतने सारे तेर-मेर से,
इतनी सारी काग़ज़ी कारगुज़ारियों से।

मन करता है चीज़ों को उलझा दूँ,
उन्हें एकमेक कर दूँ, उन्हें जन्म दूँ,
गड्ड-मड्ड कर दूँ, निर्वसन कर दूँ उन्हें,
जब तक कि दुनिया का प्रकाश
समुद्र जैसा एकसार न हो जाय --
एक उदार, विपुल सम्पूर्णता और
एक चटचटाती हुई गन्ध में न बदल जाय।

मैं वापस आऊँगा

किसी समय,
आदमी या औरत, मुसाफ़िर
बाद में,
जब मैं ज़िन्दा न रहूँ,
यहाँ देखना, खोजना मुझे यहाँ
पत्थरों और सागर के बीच
फेन में तूफ़ान की तरह उमड़ती रोशनी में
यहाँ देखना, खोजना, मुझे यहाँ
क्योंकि यही वह जगह है जहाँ मैं आऊँगा,
कुछ न कहता हुआ, कोई आवाज नहीं, मुँह नहीं,
शुद्ध।

यहाँ मैं फिर हूँगा पानी की हलचल,
उसके उद्दाम हृदय की,
यहाँ मैं दोनों हूँगा खोया भी और पाया भी,
यहाँ मैं हूँगा शायद पत्थर भी और ख़ामोशी भी।

"बीस प्रेम कविताएं और हताशा का एक गीत" से

हर रोज़ तुम खेलती हो ब्रह्माण्ड के प्रकाश से
रहस्यमयी आगन्तुक, तुम आती हो फूल में और पानी में।
तुम इस सफ़ेद सिर से कहीं अधिक हो जिसे मैं कस
कर थामे रहता हूँ, फूलों के गुच्छे की तरह, हर रोज़ अपने हाथों में।

तुम किसी की तरह नहीं हो क्योंकि मैं तुम्हें प्यार करता हूँ।
आओ, मैं फैला दूँ तुम्हें सुनहरी मालाओं के बीच।

कौन लिखता है तुम्हारा नाम धुँए के अक्षरों में
दक्षिणी सितारों के बीच ?

आह याद करने दो मुझे तुमको जैसे तुम थीं
अपने अस्तित्व से पहले।

सहसा हवा चीख़ती है और मेरी बन्द खिड़की खटखटाती है।
आसमान एक जाल है
छाया सरीखी मछलियों से ठसाठस भरा हुआ
यहाँ सारी हवाएँ साथ छोड़ देती हैं, देर सबेर,
सारी की सारी हवाएँ
अपने कपड़े उतार देती है वर्षा।
चिड़ियां गुज़रती जाती हैं, उड़ती हुईं।
हवा! आह! हवा।

सिर्फ़ मैं लोहा ले सकता हूँ आदमियों की सत्ता से।
आँधी नचाती है साँवली पत्तियाँ
और उन सारी नावों को खोल देती है जो पिछली रात आकाश से बँधी थीं।
तुम यहाँ हो। आह, तुम नहीं भागतीं यहाँ से।
तुम मेरी अन्तिम पुकार का जवाब दोगी
लिपट जाओगी मेरे गिर्द मानो तुम डरी हुई थीं।

फिर भी, एक अजीब छाया कभी तुम्हारी आँखों से हो कर दौड़ती थी
अब, अब भी, नन्हीं, तुम लाती हो मेरे लिए मधुमालती लता
और तुम्हारी छातियों से भी उसकी सुगन्ध आती है।

उस समय जब उदास हवा तितलियों को हताहत करती जाती है,
मैं तुम्हें प्यार करता हूँ और मेरी ख़ुशी तुम्हारे मुँह के आलूचे कुतरती है।

कितनी तकलीफ़ पायी होगी तुमने मुझसे परिचित होने के दौरान
मेरी उद्दाम, एकाकी आत्मा, मेरा नाम जिसे सुन कर वे सब भड़क उठते हैं,
कितनी बार हमने देखा है सुबह के सितारे को जलते हुए, हमारी आँखों को चूमते,
और अपने सिरों के ऊपर सलेटी प्रकाश को घूमते हुए,
पंखों की शक्ल में अपने बल खोलते,
मेरे शब्द बरसते तुम पर, तुम्हें सहलाते हुए,
बहुत दिनों तक मैंने प्यार किया है धूपधुली सीपी तुम्हारी देह को
यहां तक कि मुझे यह भी विश्वास हो गया है कि तुम ब्रह्माण्ड की स्वामिनी हो।

मैं लाऊँगा तुम्हारे लिए पहाड़ों से प्रसन्न पुष्प,
नीलवर्णी फूल, गहरे पिंगल फूल, और चुम्बनों की उद्दाम टोकरी।

मैं चाहता हूँ तुम्हारे साथ करना
जो वसन्त करता है चेरी वृक्षों के साथ

आज की रात
"बीस प्रेम कविताएं और हताशा का एक गीत" से

आज की रात में लिख सकता हूँ अपने सबसे उदास गीत।

लिख सकता हूँ, मसलन, रात है तारों-भरी
और दूर, फासले पर, काँपते हैं नीले सितारे।
रात की हवा आकाश में नाचती और गाती है।
आज की रात में लिख सकता हूँ अपने सबसे उदास गीत।

मैं उसे प्यार करता था, और कभी-कभी वह भी करती थी मुझसे प्यार।
ऐसी रातों को मैं बाँध लेता था अपनी बाँहों में उसे,
अन्तहीन आकाश के नीचे उसे चूमता था बार-बार।
वह मुझे प्यार करती थी, कभी-कभी मैं भी उसे करता था प्यार।

कैसे कोई उसकी विशाल अविचल आँखों से प्यार न करता।

आज की रात में लिख सकता हूँ अपने सबसे उदास गीत।
यह सोचना कि वह मेरे पास नहीं है। यह महसूस करना कि मैं उसे खो चुका हूँ।
बेकिनार रात को सुनना, उसके बिना और भी बेकिनार।
और आत्मा पर झरते हैं छन्द, जैसे ओस चारागाह पर।

क्या फ़र्क पड़ता है कि उसे बाँध न सका मेरा प्यार
रात तारों-भरी है और वह मेरे पास नहीं है।
बस इतनी ही है बात। दूर कोई गा रहा है। फ़ासले पर।
मेरी आत्मा अतृप्त है उसे खो कर
मेरी नज़रें खोजती हैं उसे मानो उसे पास खींच लाने के लिए।
मेरा हृदय उसे ढूँढता है और वह मेरे पास नहीं है।

वही रात, उन्हीं वृक्षों को रुपहला बनाती हुई।
हम, उसी समय के, अब वैसे नहीं रह गये हैं।
मैं अब उसे प्यार नहीं करता, यह तय है, लेकिन मैं उसे कितना प्यार करता था।
मेरी आवाज़ हवा को हेरती थी ताकि पहुँच सके उसके कानों तक।

किसी और की, अब वह होगी किसी और की। जैसे वह थी मेरे चुम्बनों से पहले।
उसकी आवाज़, उसकी शफ़्फ़ाफ़ देह। उसकी निस्सीम आँखें।

मैं अब उसे प्यार नहीं करता, यह तय है, लेकिन मैं उसे कितना प्यार करता था।
प्यार कितना क्षणिक है और भूलना कितना दीर्घ।
चूँकि ऐसी रातों में बाँध लेता था मैं अपनी बाँहों में उसे,
मेरी आत्मा अतृप्त है उसे खो कर
भले ही यह आखिरी पीड़ा हो जो मैं उससे पाऊँ
और यह आख़िरी गीत मैं रचूँ उसके लिए।

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पाब्लो नेरूदा का जन्म 1904 में दक्षिणी चिली के पर्राल नामक स्थान में हुआ, लेकिन उनका बचपन तेमूको में बीता, जो एक छोटा-सा प्रान्तीय कस्बा था। नेरूदा का वास्तविक नाम नेफ़्ताली रिकार्दो रेयेज़ था, लेकिन अपने सम्बन्धियों के उपहास के डर से वे पाब्लो नेरूदा के नाम से लिखने लगे -- नेफ़्ताली को पाब्लो में बदल कर और 19वीं सदी के एक चेक लेखक नेरूदा का नाम उसके आगे जोड़ कर। अपनी प्रारम्भिक कविताओं ही से नेरूदा सान्तियागो (चिली) में अपने सहपाठियों के बीच काफ़ी प्रसिद्ध हो गये थे, लेकिन व्यापक ख्याति उन्हें अपनी दूसरी पुस्तक -- ‘बीस प्रेम कविताएँ और हताशा का एक गीत’ (1924) -- से मिली।
लातीनी अमरीका के अन्य देशों की तरह चिली भी कभी-कभार अपने कवियों को राजनयिक पद दे कर सम्मानित करता है। 1927 में नेरूदा वाणिज्य-दूत के रूप में रंगून आये। अगले पाँच वर्ष उन्होंने दक्षिण-पूर्व एशिया के विभिन्न दूतावासों में बिताये और इस दौरान, दो परस्पर विरोधी संस्कृतियों के दबावों की वजह से, एकाकीपन का वह एहसास, जो उनकी प्रारम्भिक प्रेम-कविताओं में नज़र आता है, एक वीरान, सर्द फीकेपन में परिणत हो गया। उनकी कविता आत्मकेन्द्रित और आत्मोन्मुखी होती चली गयी। लेकिन नेरूदा की यह मनःस्थिति ज़्यादा दिनों तक क़ायम नहीं रही। 1934 में उन्हें बार्सेलोना (स्पेन) भेज दिया गया और अगली फ़रवरी में मैद्रिद -- जहाँ अपने सरकारी काम-काज से उन्हें इतना वक्त मिल जाता था कि वे कविताएँ लिख सकें, मैद्रिद की सँकरी सड़कों पर घूम सकें और मित्रों से गप-शप कर सकें। इन मित्रों में सुप्रसिद्ध स्पेनी कवि फ़ेदेरिको गार्सिया लोर्का भी थे।
तभी नेरूदा की ज़िन्दगी और उनके काव्य का वह युग शुरू हुआ, जिसकी गूँज -- उनकी अन्य वैचारिक और भावनात्मक चिन्ताओं के बावजूद -- ज़िन्दगी के अन्त तक सुनायी देती रही। मैद्रिद की सड़कें फ़ासिस्त बूटों की धमक से गूँज उठीं और जुलाई 1936 में स्पेनी गृहयुद्ध ने, लोर्का की हत्या के हादसे के साथ मिल कर उस आत्मोन्मुखी मनःस्थिति को तोड़ दिया, जिसके प्रभाव में उनकी कविता आत्मकेन्द्रित हो गयी थी। 1936 से वे लगातार साम्यवाद के निकट आते चले गये (हालाँकि साम्यवादी दल की सदस्यता उन्होंने लगभग नौ वर्ष बाद ग्रहण की)। ‘प्रतिबद्ध’ कविताओं के उनके पहले कविता-संग्रह -- ‘हृदय में स्पेन’ (1937) -- में एक सीधी-सपाटता और तीखापन है, जो अब तक लिखी गयी उनकी कविताओं में नहीं था।
नेरूदा और उनकी स्पेनी भाषा का संसार, स्पेन और यूरोप से उस हद तक नहीं जुड़ा है, जिस हद तक चिली से -- लातीनी अमरीका से। अपनी प्राणहारी जड़ें उन्होंने चिली और लातीनी अमरीका के लोक-काव्य में उतारीं और वहीं से अपने काव्य की ताज़गी और शक्तिमन्त अभिव्यक्ति प्राप्त की।
अपनी कविता के बारे में नेरूदा ने कहा था ‘दुनिया बदल गयी है और मेरी कविता भी बदल गयी है’ और इस परिवर्तन का प्रमाण उन्होंने कोरे शब्दों से नहीं, वरन अपनी सक्रियता से और अपनी अभिव्यक्ति के माध्यम से दिया। स्पेनी गृहयुद्ध के बाद नेरूदा की कविताओं में जनवादी स्वर बराबर मौजूद दिखायी देता चाहे वे नितान्त निजी भावनाओं को व्यक्त कर रहे हों। इसी जनवादी रुझान के कारण उन्हें कई बार चिली के तानाशाहों के कोप का शिकार भी बनना पड़ा और कुछ समय तक वे भूमिगत भी हुए। पहले दौर में गॉन्ज़ालेज़ विदेला की तानाशाही का कोप-भाजन बनने पर भूमिगत होने के बाद उन्होंने आर्जेण्टाइना के पत्र ‘ला होरा’ को दिये गये इण्टर्व्यू में कहा था -- "ऐसा लेखक, जो राजनीति से अलग-थलग खड़ा रहे, कोरी कल्पना है -- पूँजीवाद द्वारा गढ़ी गयी और सम्पोषित। दान्ते के ज़माने में ऐसे लेखक नापैद थे। ‘कला, कला के लिए’ का सिद्धान्त बड़े व्यापार ने प्रतिपादित किया है। थियोफ़ील गॉतिये ने अमीर व्यापारियों और शोषकों के आदर्शों और मान्यताओं का गुणगान किया था। लेखकों ने ऐसे विचारों को अपना लिया -- इससे उभरते हुए पूँजीवाद की विजय हुई। ईथियोपिया की ओर उस महान विद्रोही --आर्थर रैंबो -- का पलायन, शार्लेविल के सॉसेज-व्यापारियों की निर्विवाद जीत थी।.....यह नाम -- ‘पश्चिमी संस्कृति’ --उन चालाक जल्लादों -- हिटलर और गोएबल्स -- ने गढ़ा और प्रचारित किया था। उन्होंने इस आसव को तैयार किया और बोतलों में भरा; और आज इसे स्टैण्डर्ड ऑयल या उड़न-क़िलों के निर्माताओं पर आश्रित -- मार्शल, फ़ोर्ड मोटर्स, कोका कोला और ऐसे ही दूसरे तटस्थ दार्शनिकों द्वारा वितरित किया जा रहा है।....हाल तक मैं एक नये युद्ध की कोई सम्भावना नहीं देखता था, लेकिन वॉल स्ट्रीट में भाड़े के सिपाहियों के जो सरदार हैं -- सीनों में बम छुपाये -- वे आशंका उपजाते हैं..."
नेरूदा के इन शब्दों को पढ़ते हुए, उनकी गहरी राजनीतिक समझ का एहसास तो होता ही है, द्रष्टा के रूप में समय के धुँधलकों के पार देखने वाली उनकी नज़र का भी पता चलता है।
इस पहली जलावतनी के वर्षों बाद नेरूदा ने साल्वादोर आयेन्दे की समाजवादी सरकार के सहयोगी के रूप में कुछ साल निस्बतन सुख-शान्ति से गुज़ारे लेकिन फिर 1973 में औगस्तो पिनोशे द्वारा आयेन्दे का तख़्ता पलटे जाने के दौरान हुई उथल-पुथल में दिल के दौरे से उनका निधन हो गया। लेकिन उनका सन्देश -- ‘मैं आया हूँ तुम्हारे निस्पन्द मुखों की ओर से बोलने’ -- उसी तरह ज़िन्दा रहेगा, जिस तरह उनकी कविताएँ। क्योंकि जनता से, ख़ास तौर पर अभावग्रस्त, तकलीफ़-ज़दा जनता से उनका गहरा सम्पर्क था कि उनके स्रोत धरती और उसके जन-समुदाय में थे। अपनी ज़िन्दगी, अपने कर्म और अन्त में अपनी मृत्यु में नेरूदा ने सिद्ध कर दिया कि वे शोषित मानवता के, संघर्षरत जनता के, कवि हैं, और रहेंगे। और इसी संघर्षरत जनता के पक्षधर के रूप में उनकी सार्थकता मृत्यु के बाद भी रहेगी।



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