Monday, January 17, 2011

देशान्तर

में

जल्द आ रही है

नीलाभ के लम्बे संस्मरण की पहली किस्त

ज्ञानरंजन के बहाने



पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान


ज्ञान के मन में स्मृतियों को ले कर एक सन्देह जैसा भाव है। वह भरसक उनसे अलग-थलग रहने की कोशिश करता है। मुमकिन है, उसके मन में एक डर सरीखा कुछ हो कि स्मृतियों को छूट दी नहीं कि वे अपना जाल-बट्टा, अपना प्रपंच रचना शुरू कर देंगी, आपको अपनी गिरफ़्त में ले लेंगी, शिकंजे में जकड़ लेंगी, यूलिसीज़ की यूनानी पुरा-कथा की उन मायाविनी सुन्दरियों की तरह जो एक टापू पर बैठी, अपने मधुर गीतों से नाविकों को लुभा कर बुलाती थीं और उनके जहाज़ तट की चट्टानों से टकरा कर चूर-चूर हो जाते थे। या फिर, सम्भव है, ज्ञान इसलिए स्मृतियों से घबराता हो क्योंकि उनसे कई बार अनावश्यक रूप से भावुक करने का काम लिया जाता है जो उचित ही ऊब और खीझ पैदा करता है। ज्ञान के अपने दो समकालीन-मित्रों ने कुछ वर्ष पहले अच्छा-ख़ासा स्मृति-प्रपंच रचा था, जिसमें उनके अपने-अपने स्वभावों के अनुरूप काफ़ी कुछ ट्रैजी-कॉमिक, स्वाँग-विद्रूप का लुत्फ़ था, अगर उससे आप लुत्फ़ ले सकते तो, हद तक कि ज्ञान को गज-ग्राह की इस खींचा-तानी में हस्तक्षेप करना पड़ा था, जैसा कि इनमें से एक को लिखे गये पत्र से प्रकट होता है। यह भी स्मृतियों के प्रति उसकी शंका का कारण हो सकता है।

(एक अंश)

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