Tuesday, January 18, 2011

देशान्तर



नीलाभ के लम्बे संस्मरण की पहली किस्त
पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान


ज्ञानरंजन के बहाने - 1




”लेट अस - सिन्स ऑल पासेस - पास
आई शैल लुक बैक ओनली टू ऑफ़्टेन
मेमोरीज़ आर हण्टिंग हॉर्न्स
हूज़ साउण्ड डाइज़ अमंग द विण्ड"
--अपॉलिनेयर

ज्ञानरंजन की याद मेरे मन में जीवन में उस पहले प्यार-सरीखी बसी हुई है, जो विफल हो गया हो। अनेक लोगों के जीवन में प्रेम वसन्त के ऊष्ण, मादक, और आम्र-मंजरियों की मस्त कर देने वाली महक से भरे झँकोरे की तरह आता है, और विफल हो जाने के बाद, वर्षा अथवा शरद में पुरवाई के बहने पर टीसती चोट की तरह टीसता रहता है। ज्ञानरंजन की स्मृति इसी प्रेम की तरह मेरे हृदय में बसी हुई है। (हालाँकि मैं जानता हूँ, ज्ञान के मन में स्मृतियों को ले कर एक सन्देह जैसा भाव है। वह भरसक उनसे अलग-थलग रहने की कोशिश करता है। मुमकिन है, उसके मन में एक डर सरीखा कुछ हो कि स्मृतियों को छूट दी नहीं कि वे अपना जाल-बट्टा, अपना प्रपंच रचना शुरू कर देंगी, आपको अपनी गिरफ़्त में ले लेंगी, शिकंजे में जकड़ लेंगी, यूलिसीज़ की यूनानी पुरा-कथा की उन मायाविनी सुन्दरियों की तरह जो एक टापू पर बैठीं, अपने मधुर गीतों से नाविकों को लुभा कर बुलाती थीं और उनके जहाज़ तट की चट्टानों से टकरा कर चूर-चूर हो जाते थे। या फिर, सम्भव है, ज्ञान इसलिए स्मृतियों से घबराता हो क्योंकि उनसे कई बार अनावश्यक रूप से भावुक करने का काम लिया जाता है जो उचित ही ऊब और खीझ पैदा करता है। ज्ञान के अपने दो समकालीन-मित्रों ने कुछ वर्ष पहले अच्छा-ख़ासा स्मृति-प्रपंच रचा था, जिसमें उनके अपने-अपने स्वभावों के अनुरूप काफ़ी कुछ ट्रैजी-कॉमिक, स्वाँग-विद्रूप का लुत्फ़ था, अगर उससे आप लुत्फ़ ले सकते तो, हद तक कि ज्ञान को गज-ग्राह की इस खींचा-तानी में हस्तक्षेप करना पड़ा था, जैसा कि इनमें से एक को लिखे गये पत्र से प्रकट होता है। यह भी स्मृतियों के प्रति उसकी शंका का कारण हो सकता है।)
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वैसे, स्मृतियों का संसार बड़ा विचित्र और रहस्यमय है। उनसे बड़ा बहुरूपिया और कोई नहीं होता। स्मृतियों का लोक एक हलचल-भरा, उद्विग्न, व्याकुल, अस्थिर, एकाकी लोक होता है। स्वप्नों ही की तरह मन के जाने किन कोटरों में अपना साम्राज्य फैलाये, किसी विशाल वृक्ष की तरह शाखाएँ-प्रशाखाएँ पसारे। घटनाएँ निरन्तर वहाँ अपना बसेरा ढूँढती रहती हैं और ज़रा-सी ठौर मिल जाने पर अपना एक अलग कुनबा, एक अलग संसार रचने लगती हैं। एक अपना ही जीवन जीने लगती हैं। (स्मृतियों के संसार का यह विलक्षण पहलू है कि साथ बिताये गये समय की स्मृति भी दो लोगों में एक-सी नहीं होती। स्मृतियाँ फ़ोटो ऐल्बम नहीं होतीं, स्थिर, निर्जीव, ठहरी हुईं। वे नदी के प्रवाह की तरह गतिशील और चंचल होती हैं, नदी के प्रवाह की तरह जीवन को शस्य-श्यामल बनाती हुईं - और कई बार काफ़ी उजाड़ और तबाही भी पैदा करती हुईं। और, एक दार्शनिक प्रपत्ति के अनुसार उसी नदी में स्नान करना असम्भव है। इसीलिए शायद सारे संस्मरण अन्ततः अपने बारे में होते हैं। और, चाहे सब कुछ वैसे-का-वैसा बयान करने की कितनी ही कोशिश की जाय, या इसका कितना ही दम भरा जाय, अन्ततः स्मृतियों पर बहुत निर्भर नहीं किया जा सकता, उनका बहुत भरोसा नहीं किया जा सकता।) एक बार अस्तित्व में आते ही वे आपकी पकड़ से बाहर हो जाती हैं। कम्प्यूटर की स्मृति की तरह उन्हें ‘ईरेज़’ करना, मिटा देना, साफ़ कर देना सम्भव नहीं। मन-मस्तिष्क पर उनका साम्राज्य सतत, अविचल और निरंकुश है। कौन-सी घटना, कौन-सा व्यक्ति, कौन-सा प्रसंग कहाँ टँका हुआ है, कोई नहीं जानता। कोई नहीं जानता कि क्या वक्त के साथ धुँधला होता चला गया है, दीवार पर लगी पुरखों की तस्वीर की तरह, और क्या दिनों-दिन चमकीला, पहँटे हुए चाकू की तरह। क्या कब उभर आयेगा, इसे भी बताना बहुत मुश्किल है।
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ज्ञान से पहली-पहली मुलाकात कब हुई, यह कहना कठिन है। एक क्षीण-सी स्मृति वक्त के धुँधलके को चीर कर उतराती है। शायद 1963-64 की बात है, या उससे भी एकाध वर्ष पहले की, हमारे घर से चार मकान आगे लीडर प्रेस के बड़े-से मैदान में बनी छोटी-सी बँगलिया को एक दफ़्तर में तब्दील कर दिया गया था। ‘कादम्बिनी’ वहाँ से नयी-नयी निकलने लगी थी, बालकृष्ण राव उसके सम्पादक थे और बहुत ही सुरुचिपूर्ण ढंग से पत्रिका का सम्पादन करते थे। बाद में, जब राव साहब हिन्दी साहित्य सम्मेलन से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘माध्यम’ के सम्पादक हो कर चले गये तो उसी बँगलिया में राव साहब की जगह कार्यकारी, फिर पूरी तरह, सम्पादक बन कर रामानन्द दोषी आये।

साठ के दशक के इलाहाबाद को याद करें तो लगता है कि उस समय यहाँ वसन्त का स्थायी डेरा था। शहर तो उन दिनों वैसे भी बेहद ख़ूबसूरत था, लेकिन इसकी इमारतों, सड़कों से भी बढ़ कर इसका आकर्षण यहाँ के सांस्कृतिक-राजनैतिक माहौल का था। शहर एक ज़िन्दा धड़कती हुई उपस्थिति थी और एक अर्से तक बनी रही। तेवर चूँकि यहाँ का न तो बनारस जैसा था - अपनी फक्कड़ई और पिछड़ेपन में मगन - और न लखनऊ जैसा - पुराने ठाठ और जी-हुज़ूरी में खोया हुआ - बल्कि सचेत बौद्धिक विरोध का, इसलिए गहमा-गहमी भी इलाहाबाद में ज़्यादा थी। आज के बड़े-बड़े अखाड़िये और नामवर पहलवान इलाहाबाद के अखाड़ों की मिट्टी ही देह में लगवा कर लड़ैया बने। इलाहाबाद की इन्हीं सिफ़तों की वजह से स्थायी-अस्थायी रूप से लोगों का खिंच कर इलाहाबाद आना बना हुआ था। ख़ूब गोष्ठियाँ होतीं। ‘परिमल’ और ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ की पैंतरेबाज़ी तो अब इतिहास में दर्ज हो चुकी है। काफ़ी हाउस, मलानी कैफ़े, जगाती का रेस्तराँ, बी.एन.रामा के बाहर तिकोना लॉन - साहित्यकारों की महफ़िलें कई ठिकानों पर जगती-जमती थीं।

हमारे घर पर भी बराबर साहित्यकारों का जमावड़ा रहता था। आज तो ख़ैर कोई साहित्यकार बिना पैसे लिये अपने मुहल्ले के बाहर भी नहीं जाता, मगर उन दिनों लेखक अकेले या अन्य लेखकों के साथ अपने पैसे ख़र्च करके यात्राएँ करते थे और मित्र-परिचितों के यहाँ ही टिकते थे, होटलों में नहीं। मित्रों का आना घर भर को अस्वस्ति नहीं, हर्ष से भर देता था। इलाहाबाद तो यों भी एक साहित्यिक तीर्थस्थली बना हुआ था, सो बहुत-से लोग मत्था टेकने ही चले आते थे और उनका आना एक और गोष्ठी का सबब बन जाता था। बीच-बीच में बड़ी जम्बूरियाँ भी होती थीं। 1957 के लेखक सम्मेलन की बहसें जब ठण्डी पड़ने लगीं तो फिर एक नये समागम का समाँ बँधने लगा। उन दिनों बड़े सम्मेलन या गोष्ठियाँ भले ही ऐनी बेसेण्ट हॉल या इलाहाबाद विश्वविद्यालय के विजयानगरम हॉल में होती रही हों, नियमित गोष्ठियाँ लेखकों के घरों पर ही होती थीं। ग़ालिबन 1964 के कहानी सम्मेलन की तैयारियाँ ज़ोरों पर थीं। इसी सिलसिले में अलग-अलग साहित्यकारों के घर पर बैठकें भी हो रही थीं। ऐसी ही एक बैठक में पहली बार मैंने ज्ञान को अपने यहाँ देखा था। वह गोष्ठी में पीछे की तरफ़ ख़ामोश बैठा रहा था और गोष्ठी ख़त्म होने पर वैसे ही चुपचाप निकल जाने के फेर में था कि मेरे पिता ने (जिन्हें मैं और मेरे सभी मित्र ‘पापा जी’ कहते थे) उसे रोक कर कुछ देर उससे बातें की थीं। इतने वर्षों बाद इससे ज़्यादा और कुछ याद नहीं कि बैठक के दरवाज़े के पास ज्ञान की साँवली, छरहरी आकृति की उपस्थिति उसके चले जाने के बाद भी बहुत देर तक बनी रही थी।

(जारी)


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