Wednesday, January 12, 2011

देशान्तर
में शमशेर
१९११-९३

१३ जनवरी शमशेर जी का जन्मदिन है। आज अगर वे होते तो पूरे १०० साल के हो गये होते। वैसे तो किसी कवि को याद करने के लिए जन्मदिनों या शतवार्षिकियों की ज़रूरत नहीं होती, लेकिन ये कुछ ऐसे अवसर होते हैं जब हम थोड़ा ठहर कर अपने पुरखों को याद करते हैं ताकि हममें वह अनिवार्य विनम्रता और विनय बरक़रार रहे जिसकी मदद से हम भटकें नहीं, अपनी रचनात्मकता के नशे में मख़मूर न हो जायें। इस मौक़े पर आज देशान्तर में हम शमशेर जी के निधन के फ़ौरन बाद १९९३ में लिखी नीलाभ की एक संस्मरणात्मक टिप्पणी दे रहे हैं।

सघन तम की आँख बन मेरे लिए

१.

शमशेर जी से आख़िरी मुलाक़ात बरसों पहले हुई थी। इमरजेंसी का ज़माना था शायद या शायद इमरजेंसी हटी-हटी ही थी। वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय के किसी कार्यक्रम में भाग लेने के लिए आये हुए थे और मेरे मित्र और साथी अजय सिंह भी उनके साथ थे। याद पड़ता है कि मैं अपनी मोटर साइकिल पर शमशेर जी को बैठा कर कटरा के बाज़ार से होता हुआ वहाँ पहुँचाने गया था, जहाँ वे ठहरे हुए थे। संक्षिप्त-सी मुलाकात थी - कुछ घण्टों की - मगर ढेरों बातें हुई थीं- माओ त्से तुंग के निधन के बाद चीन के बदलते स्वरूप से ले कर अजय के हठी स्वभाव और एज़रा पाउण्ड तक जो शमशेर जी के भी पसन्दीदा कवियों में थे - दुनिया-जहान की बातें। ऐसी बातें, जिन्हें आप बाद में शब्द-शब्द जोड़ कर पुनर्निमित नहीं कर सकते, मगर जो आपकी चेतना और एहसास में जज़्ब हो कर उन्हें समृद्ध कर जाती हैं। यही शमशेर जी का ख़ास अन्दाज़ था।
अपनी एक कविता में शमशेर जी ने लिखा है -
कबूतरों ने एक ग़ज़ल गुनगुनायी.....
मैं समझ न सका रदीफ़-काफ़िये क्या थे
इतना ख़फ़ीफ़, इतना हल्का, इतना मीठा उनका दर्द था।
शमशेर जी के बारे में सोचते हुए मुझे हमेशा ही ये पंक्तियाँ याद आ जाती है। उनकी ज़िन्दगी और उनकी कविता के भी रेशे, उसके ताने-बाने, ऐसे ही ख़फ़ीफ़, हल्के मीठे दर्द से रचे गये थे।

२.

शमशेर जी के साथ मेरी बहुत घनिष्ठता नहीं थी। यानी ऐसी घनिष्ठता, जो संग-साथ पर निर्भर हो। मुलाक़ातें भी ज़्यादा नहीं कही जा सकतीं। लेकिन आज से लगभग तीस साल पहले जब मैंने कविता लिखना शुरू किया तो मेरे लिए और मेरी पीढ़ी के और बहुत-से कवियों के लिए शमशेर जी एक अनिवार्य कवि थे। आज हालाँकि यह बात बड़ी अजीब लग सकती है, लेकिन उस ज़माने को पीछे मुड़ कर देखें तो आप समझ पायेंगे कि मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ। वह ज़माना नयी कविता के बिखराव और अ-कविता के क्षणिक उबाल का था। मुक्तिबोध का पहला संग्रह ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ अभी आया नहीं था। त्रिलोचन, नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल फ़िर से खोजे जाने का इन्तज़ार कर रहे थे। कविता की हिम-मण्डित चोटियों पर अज्ञेय आसीन थे। ऐसी हालत में तराई और मैदानों के वर्षातप को झेल रहे नये कवियों को शमशेर जी में सहजता और अपनापन मिला हो तो आश्चर्य की बात नहीं।
सच यही है कि शमशेर जी के व्यक्तित्व की तरह उनकी कविता में भी गर्माहट और शीतलता एक साथ हासिल होती थी। सर्दियों की धूप की गुनगुनी गर्माहट और गर्मियों की बहार में घने बरगद की छाँह की शीतलता। तब तक शमशेर जी के दो ही संग्रह प्रकाशित हुए थे- ‘कुछ कविताएँ’ और ‘कुछ और कविताएँ,’ लेकिन एक कवि के तौर पर शमशेर जी कभी संग्रहों के मुहताज नहीं रहे। न पहले और न बाद में। न वे इस बात के मुहताज थे कि वे दूसरे सप्तक के कवि हैं। सच तो यह है कि मुक्तिबोध की तरह शमशेर जी भी सप्तकों की सीमित प्रभा के बहुत बाहर तक फैले हुए कवि थे। और रहेंगे। बल्कि मुझे तो कभी-कभी यह भी लगता है कि दूसरा सप्तक में शामिल होना शमशेर जी को कहीं-न-कहीं सीमित भी कर गया। इसकी वजह शायद यह हो कि अपने साथी मुक्तिबोध की तरह शमशेर जी का मिज़ाज भी अज्ञेय के सम्पादकत्व में निकलने वाले सप्तकों से मेल नहीं खाता था। वे ऐसी ताक़तवर धातु के बने हुए थे जो अक्सर सतह पर नहीं दिखती। इसी चीज़ ने सन उन्नीस सौ साठ के दशक में नये कवियों का ध्यान अपनी तरफ़ खींचा।
हर पीढ़ी अपने से पहले की पीढ़ी को इस लिहाज़ से भी जाँचती है कि पहले की पीढ़ी ने अपने पूर्वजों के बारे में क्या लिखा है, उन्हें किस तरह याद किया है। शमशेर जी के पहले कविता संग्रह की पहली ही कविता ‘निराला के प्रति’ - उनके दृष्टिकोण को स्पष्ट कर देती है -
भूल कर जब राह जब-जब राह.......भटका मैं
तुम्हीं झलके, हे महाकवि,
सघन तम की आँख बन मेरे लिए
ज़ाहिर है, हम नये कवियों को, जिनकी सबसे बड़ी कोशिश अकविता के भटकाव से बाहर आने की थी, शमशेर जी की इन पंक्तियों से बहुत बल मिला। न सिर्फ़ इस कविता की अनूठी बिम्ब-योजना के कारण, बल्कि इस कारण भी कि भटकाव और भटकाव से सही राह पर वापसी ऐसे अनुभव नहीं है जिन्हें हम ही झेल रहे हों। यह ढाढ़स बँधाने वाली बात थी कि हमसे पहले भी लोग भटके हैं और उनके लिए कुछ लोगों ने ‘सघनतम की आँख’ बनने का काम किया है। ऐसी ही ‘सघनतम की आँखें’ हमें भी हासिल होंगी, जो हमें फ़िर सही रास्ते पर लायेंगी। और अगर मैं कहूँ कि मेरे तईं अकविता के घटाटोप के बीच शमशेर जी की कविता ऐसी ही आँख का काम करती रही तो बहुत ग़लत न होगा। ये पंक्तियाँ लिखते हुए मुझे अचानक रब्बी की कविता - ‘शमशेर’- याद हो आयी है -
मैं नंगे पाँव धूप में चल रहा था
काँटों भरी डगर पर
एक विशाल वट-वृक्ष के नीचे बैठ गया
हम में से बहुत-से लोगों को शमशेर जी ऐसे ही वट-वृक्ष की तरह लगे हैं। कड़ी धूप में, कंकड़-काँटों से भरी राह पर चलते हुए, शमशेर जी की कविता एक घने, पत्तेदार वट-वृक्ष जैसी ही लगती है। यह अलग बात है कि शमशेर जी की कविता पर अभी तक क़ायदे से, मुक़म्मल तौर पर, विचार नहीं हो पाया है। और यह तथ्य आज के साहित्यिक जगत पर दुखद टिप्पणी भी है। या तो कुछ लोग शमशेर जी को पीर-औलिया बना कर भुनाते रहे हैं, या उन्हें ‘चुका हुआ’ मान कर विस्मृत कर चुके हैं। या फ़िर अपने-अपने ढंग से उन्हें अज्ञेयवादी, नयी कवितावादी, प्रयोगवादी या प्रगतिवादी या ‘कवियों के कवि’ या ‘कवियों में चित्रकार और चित्रकारों में कवि’ कह कर स्वीकारते-नकारते रहते हैं। जबकि शमशेर जी महज़ कवि हैं। न कम, न ज़्यादा। न तो वे ‘कवियों के कवि’ हैं, जैसा कि अक्सर हिन्दी के प्राध्यापकीय आलोचक अपनी अक्षमता के कारण कह दिया करते हैं, और न वे उस तरह के ‘जन कवि’ हैं, जिनकी कविताएँ अख़बार का काम करती हैं। यह टिप्पणी शमशेर जी की कविता की विशद व्याख्या करने का अवसर नहीं है, लेकिन उन्हें याद करते हुए जो सबसे बड़ी बात देखने की है - और यह सिर्फ़ पाठकों के लिए नहीं, बल्कि अन्य कवियों के लिए भी देखने की है - कि जीवन किस तरह कवि के व्यक्तित्व से छन कर उसकी कविता में उतरता है। शमशेर जी ने लिखा है -
जो मैं हूँ -
मैं कि जिसमें सब कुछ है.....
क्रान्तियाँ कम्यून,
कम्युनिस्ट समाज के
नाना कला विज्ञान और दर्शन के
जीवन्त वैभव से समन्वित
व्यक्ति मैं।
शमशेर जी की कविता इसी व्यक्ति की दस्तावेज़ है, जो अपने समय की हलचलों से निर्मित हुआ है और सतत होता जा रहा है।


३.

यही वे ख़ूबियाँ हैं, जिन्होंने शमशेर जी की कविता के प्रति लोगों में बराबर दिलचस्पी जगाये रखी है। हर नयी पीढ़ी जब पीछे मुड़ कर अपनी परम्परा का जायज़ा लेती रही है तो राह के विशाल वट-वृक्ष की तरह शमशेर जी को हमेशा पत्ते डोलाते पाती रही है। लेकिन उस सुकून के बावजूद, जो इस विशाल वट-वृक्ष की छाँह-तले बैठ कर मिलता है, शमशेर की कविता के बारे में सरे-राहे कुछ भी कहना सम्भव नहीं है। इस लिहाज़ से शमशेर ‘मुश्किल’ कवि हैं। लेकिन इसका यह अर्थ न लगाया जाय - जैसा कि अक्सर लोग लगाते हैं - कि वे कठिनाई से समझ में आने वाले कवि हैं। अबूझ कवि हैं। ऐसा बिलकुल नहीं है। वे उतना ही कठिन या सरल हैं, जितना कि कोई औसत मनुष्य होता है। उनकी कविता को पढ़ते हुए हमें बराबर इस बात का एहसास होता है कि शमशेर नाम का व्यक्ति जीवन को जिस तरह देखता है - उनकी कविता इसका लेखा-जोखा पेश करती है। इसीलिए अगर उनकी कुछ कविताएँ हमें समझ में नहीं आतीं तो हैरत नहीं, क्योंकि मनुष्य भी तो बहुत बार हमें समझ में नहीं आता है। ख़ुद अपना आप हमारे लिए कई बार एक अबूझ पहेली बन जाता है। लेकिन तब तो हमें चिन्ता नहीं होती। फ़िर क्या कारण है कि शमशेर या मुक्तिबोध पर हम ‘दुरूहता’ का लेबल चिपका कर उन्हें ख़ारिज करने को उतारू हो जाते हैं। इसकी वजह शायद यह है कि साहित्य और कला के प्रति हम एक सही नज़रिया नहीं विकसित कर पाये हैं। शायद हमने साहित्य को ज़िन्दगी के सवालों की एक बनी-बनायी कुंजी समझ लिया है, जो हर ताले को एक-सी सहजता से खोलती चली जायेगी। जबकि अक्सर ऐसा नहीं होता।
बहरहाल, शमशेर की कविता की यह एक ख़ूबी ही कही जायेगी कि वह आपको उस अनुभव में शिरकत करने के लिए आमन्त्रित करती है, जिसे शमशेर ने प्राप्त किया है और अपनी कविता में व्यक्त किया है। इसीलिए शमशेर की कविता में हमें 1947 के पहले का संघर्ष-भरा आशावादी स्वर भी मिलता है और 1947 के बाद के मोह-भंग की उदासी भी। हमें जन-जीवन के चित्र भी मिलते हैं और व्यक्ति की निजी उलझनों के अँधेरे-उजाले कोने-अँतरे भी।
शमशेर की कविता को आज जब हम समग्रता में देखते हैं तो हम पाते हैं कि अपने ढंग से उन्होंने उन तमाम चिन्ताओं के इर्द-गिर्द अपनी कविता को रचा है, जिन्हें आज हम अपने समय की प्रमुख चिन्ताओं में शुमार करते हैं - मिसाल के तौर पर हिन्दी-उर्दू की मिली-जुली परम्परा का मसला, साम्प्रदायिकता की समस्या, श¨षण और उत्पीड़न के विरुद्ध लड़ाई जारी रखने का सवाल और व्यक्ति और समाज, पार्टी और व्यक्ति के बीच एक बेहतर तालमेल स्थापित करने की जद्दो-जेहद और यह काम शमशेर जी ने एक ऐसे समय में किया, जब इन सवालों को नज़रन्दाज़ किया जा रहा था। इसीलिए शायद हमारे लिए शमशेर जी की कविताएँ इस तेज़ी से बदलते दौर में महत्वपूर्ण बनी रही हैं। फ़िर वह चाहे काव्य-चेतना के सन्दर्भ में हो या निजी व्यवहार के सन्दर्भ में।


४.

शमशेर जी ने ‘अज्ञेय से’ शीर्षक कविता में लिखा है -
जो नहीं है
जैसे कि सुरुचि
उसका ग़म क्या
वह नहीं है
सुरुचि का मामला भी शमशेर जी के लिए एक अहम मामला था। उनके लिए सुरुचि सजी-बजी बैठकों और तथाकथित सांस्कृतिक ताम-झाम में नहीं, बल्कि इस बात में थी कि आप अपने इर्द-गिर्द के लोगों से किस तरह पेश आते हैं। नर्म लबो-लहजा, दूसरों की भावनाओं का आदर करना, उन पर नाहक ही चोट न करना- यह सब शमशेर जी के व्यक्तिव का हिस्सा था। और इसके साथ-साथ थी एक मुहब्बत - अपने साथियों के प्रति ही नहीं, बल्कि अपने से उमर में छोटे लोगों के लिए भी।
मुझे याद आता है सन 1974 की गर्मियों में मैं अपनी पत्नी और चार साल के बेटे के साथ दिल्ली गया हुआ था। शमशेर जी उन दिनों अजय और शोभा के साथ अमर कालोनी के एक छोटे-से फ़्लैट में रहते थे और मीलों की मंज़िल मार कर उर्दू शब्दकोष पर काम करने के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय जाया करते थे। एक दिन हम शाम के समय अजय के यहाँ पहुँचे। थोड़ी देर में शमशेर जी भी आ गये। गप-शप होने लगी। शोभा चाय का इन्तज़ाम करने लगी। मैं शमशेर जी के साथ अपने बचपन की बातें करने लगा और शमशेर जी मेरी पत्नी सुलक्षणा को मेरे बचपन के कुछ प्रसंग बताने लगे। बातों-बातों में बिस्कुटों का ज़िक्र छिड़ा और मैंने कहा कि मुझे बचपन में ब्रिटैनिया के ‘नाइस’ बिस्कुट बहुत पसन्द थे - जिनमें बिस्कुटों पर चीनी के दाने लगे होते हैं। शमशेर जी ने कहा कि उन्हें भी वे बिस्कुट बहुत अच्छे लगते हैं। तभी सुलक्षणा ने उन्हें बताया कि हमारे बेटे को भी वे बिस्कुट बहुत अच्छे लगते हैं। इसी बीच चाय आ गयी और बातों का सिलसिला दूसरी तरफ़ मुड़ गया। अभी हमने चाय शुरू ही की थी कि शमशेर जी ग़ायब। ख़याल आया कि शायद हाथ-वाथ धोने गये होंगे। पाँच मिनट बाद शमशेर जी सीढ़ियाँ चढ़ कर आते दिखायी दिये। कमरे में आ कर उन्होंने अपने मख़सूस शर्मीले अन्दाज़ में मुस्कुराते हुए ब्रिटैनिया के उन्हीं नाइस बिस्कुटों का डिब्बा मेज़ पर रखा और उसे खोल कर मेरे बेटे को बिस्कुट खिलाने लगे। प्रसंग बहुत छोटा-सा है, किसी हद तक मामूली भी, लेकिन मेरे लिए यह शमशेर जी के पूरे व्यक्तित्व को - प्रदर्शन से परे रहने वाली उनकी मुहब्बत और गर्मजोशी को - साकार कर देता है।


५.

एक लम्बे अर्से से शमशेर जी कभी मध्य प्रदेश तो कभी गुजरात रहे। मुलाक़ातें पहले ही गाहे-बगाहे होती थीं। अब बिलकुल ख़त्म-सी हो गयीं। कभी-कभार अजय के ज़रिये शमशेर जी का हाल-चाल मिल जाता था। इस दौरान शमशेर जी बहुत बीमार भी रहे। तो भी दिल को तसल्ली थी कि हमारे परिवार के एक बुज़ुर्गवार अब भी हमारे बीच हैं। जैसा कि मैंने कहा शमशेर जी के साथ निकटता का पैमाना उनके साथ होने वाली मेल-मुलाक़ात से तय नहीं होता था। वे एक ऐसे ज़माने के आदमी थे, जब लेखकों की बिरादरी में कहीं अधिक अपनापा और घनिष्ठता थी। वर्षों न मिलने के बाद भी जब मुलाक़ात होती तो ऐसा लगता कि बीच में कोई व्यवधान ही नहीं पड़ा। इसीलिए जब अचानक यह ख़बर मिली कि शमशेर जी नहीं रहे तो यह ख़याल नहीं आया कि हिन्दी के एक बड़े कवि का देहान्त हो गया है, बल्कि यही लगा कि जैसे अपने परिवार के किसी बड़े-बुज़ुर्ग का निधन हो गया है।

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