Sunday, January 23, 2011

देशान्तर


नीलाभ के लम्बे संस्मरण की सातवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ७








‘सिर्फ़’ के उसी अंक के साथ या उसके कुछ दिन बाद मुझे नवल जी का एक पत्र मिला कि वे दिसम्बर 1970 में एक युवा लेखक सम्मेलन कर रहे हैं। लेखक सम्मेलन के परिपत्र और आमन्त्रण के साथ भेजी गयी इस चिट्ठी में नवल जी ने लिखा था कि वे सम्मेलन को बड़े पैमाने पर करने की सोच रहे हैं और उन्होंने मुझसे पटना आने का आग्रह किया था। इसके साथ-साथ नवल जी ने यह भी लिखा था कि अगर मैं चाहूँ और ठीक समझूँ तो अपने संग कुछ और युवा साथियों को भी लेता आऊँ। वे तीसरे-दर्जे का आने-जाने का रेल भाड़ा देंगे और रहने-खाने की भी व्यवस्था करेंगे।

आज का कोई लेखक अव्वल तो अपना पैसा ख़र्च करके दूसरे शहर जा कर लेखक-मित्रों से मिलने की नहीं सोचता और अगर किसी आयोजन में जाना हो तो ए.सी. टू टियर या ए.सी. थ्री टियर से नीचे बात नहीं करता और उम्मीद करता है कि उसे किसी अच्छे होटल में ठहराया जायेगा, लेकिन उन दिनों बात दूसरी थी। लोग धड़ल्ले से यात्राएँ करते थे, अक्सर निष्प्रयोजन, सिर्फ़ मित्रों से मिलने के लिए, और मित्रों के यहाँ ही टिकते थे। कोई सम्मेलन वग़ैरा होता तो किसी बड़े-से हॉल में फ़र्श पर गद्दे डाल कर सो जाया जाता। तीसरे दर्जे का यात्रा-व्यय ख़ुशी-ख़ुशी स्वीकार कर लिया जाता। यों बीच की बात यह है कि अनेक लेखक आज भी सफ़र तीसरे दर्जे में करते हैं, हाँ, ऊपर के पैसे जेब में डाल लेते हैं। इसमें कोई बुराई भी नहीं है, अगर आयोजक देने की स्थिति में हो, जैसा कि सरकारी या अर्द्ध सरकारी संस्थानों के साथ होता है। लेकिन जहाँ ऐसी स्थिति न हो, वहाँ अपनी तरफ़ से ख़र्च करके जाने भी कोई हानि नहीं है। जिन बड़े आयोजनों को हम याद करते हैं, मसलन, 1952 में इलाहाबाद का प्रगतिशील लेखक संघ का सम्मेलन या इलाहाबाद ही में 1957 का लेखक सम्मेलन, वे सब ऐसे ही हुए थे। इसीलिए चलन बदलने के साथ ऐसे जमावड़े भी - कम-से-कम साहित्यिक संस्थाओं की ओर से - आयोजित होने बन्द हो गये हैं। सच तो यह है कि साहित्यिक संस्थाएँ भी दुकान बढ़ा कर चलती बनी हैं। 1970 का पटना सम्मेलन इस कड़ी का आख़िरी बड़ा सम्मेलन था।

नवल जी का पत्र आने पर मैंने दरियाफ़्त किया तो पता चला कि इलाहाबाद से ज्ञान, दूधनाथ, कालिया, ममता, ज्ञान प्रकाश, अरविन्द कृष्ण मेहरोत्रा और उसकी पत्नी, अजय सिंह और सतीश जमाली जा रहे थे। मैंने सोचा, कण्टिंजेण्ट में कुछ और लोगों को शामिल कर लिया जाय।
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ज्ञान के जबलपुर चले जाने के बाद उन दिनों मेरा समय दो लोगों के साथ बड़ी कसरत से गुज़रता था। एक तो थे वीरेन डंगवाल, जो आज बड़े ही महत्वपूर्ण कवि हो गये हैं और जिनके प्रशंसकों-प्रेमियों की संख्या भारतीय फ़ौज को भी शर्मिन्दा करने के लिए काफ़ी हैं। दूसरे सज्जन, जिनकी संगत में मैं ज्ञान की ग़ैर-हाज़िरी को भुलाये रखता था, रमेन्द्र त्रिपाठी थे, जो इन दिनों प्रशासनिक सेवाओं में शामिल हो कर उत्तर प्रदेश जैसे परम भ्रष्ट राज्य में अपनी आकबत बचाये रखने के फेर में इतने मुब्तिला रहते हैं कि कविता से केवल पढ़ने का रिश्ता रखते हैं। उन दिनों रमेन्द्र एम.ए. कर रहा था। इरादा प्रशासनिक सेवाओं में जाने का था। चूँकि रामचन्द्र शुक्ल के परिवार से था, इसलिए हम लोग रमेन्द्र को ‘रामचन्द्र शुक्ल का नाती’ कह कर भी बुलाते थे।

वीरेन से मेरी मुलाक़ात अजय सिंह ने करायी थी जो हॉलैण्ड हॉल छात्रावास में प्रकुबम (यानी प्रणव कुमार बंद्योपध्याय) और गिरधर राठी के साथ रहता था। अजय का एकांकी ‘कुहनी की हड्डी’ 1966 में ‘ज्ञानोदय’ के उसी ‘नयी कलम अंक’ में छपा था जिसमें मेरी भी कविता छपी थी, और वह राजनीति शास्त्र में एम.ए. न करने की कोशिश कर रहा था, जिस कोशिश में वह अन्ततः सफल हो ही गया था। मैं एम.ए. करके हिन्दी विभाग से निकल आया था, मगर चूँकि मैंने शोध के लिए आवेदन दे रखा था और वह स्वीकृत भी हो गया था इसलिए जब तक ज्ञान की तरह मैंने भी शोध न करने फ़ैसला न कर लिया, मैं कुछ महीनों के लिए हर दूसरे-तीसरे विभाग का चक्कर लगा आता था।

तभी एक दिन विभाग के गलियारे में अजय सिंह मझोले क़द के दुबले-पतले बेढंगे-से युवक के साथ मिला जिसकी आँखों में कुछ ‘लुक हियर सी देयर’ वाला भाव था। अजय ने परिचय कराते हुए कहा कि यह वीरेन डंगवाल है, इसकी कहानियाँ ‘सरिता’ में छप चुकी हैं। ‘सरिता में!’ मुझे एक धक्का-सा लगा क्योंकि 1966 में भले ही रंगीन, चिकनी व्यावसायिक पत्रिकाओं के ख़िलाफ़ वह झूठा जिहाद शुरू नहीं हुआ था, जिसका ज़िक्र मैंने कालिया के सिलसिले में किया, तो भी कोई गम्भीर लेखक ‘सरिता’ में छपने की बात अपने परिचय में कहना या कहलवाना चाहेगा, यह मुझे अटपटा ही लगता था; हालाँकि एम.ए. करने के दौरान मैं दो बार गर्मियों की छुट्टियाँ दिल्ली बिता आया था और जानता था कि ‘सरिता’ कई लेखकों की पनाहगाह रही है, मसलन, भीमसेन त्यागी, कंचन कुमार, सुदर्शन चोपड़ा वग़ैरा की। ज़ाहिर है, मैंने सरसरी नज़र डाल कर उस युवक को ख़ारिज कर दिया था। लेकिन चूँकि उन दिनों इलाहाबाद में बहुत गहमा-गहमी थी, लेखकों के बीच बहुत मिलना-मिलाना था, इसलिए वीरेन से मिलना-जुलना बढ़ता चला गया। वैसे, वीरेन से खिंचे-खिंचे रहने का भाव सिर्फ़ मेरे ही मन में नहीं था। बाद में पता चला कि वीरेन को भी मुझसे शिकायत है, क्योंकि मैंने एक बार बटरोही से कॉफ़ी हाउस में बुरा व्यवहार किया था।


आज तो लक्ष्मण सिंह बटरोही नैनीताल में हिन्दी विभागाध्यक्ष के पद पर आसीन है और गाहे-बगाहे लेखादि लिख कर अपने लेखक होने की आबरू बचाये हुए है, पर उन दिनों वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय में रिसर्च करता था और शैलेश मटियानी ने अपनी स्वाभाविक उदारता और पर्वत-पुत्रों के प्रति प्रेम के कारण उसे अपने घर में आसरा दे रखा था। जैसा कि उन्होंने पहाड़ से आये चित्रकार-कवि सईद को दे रखा था। बटरोही गंगा प्रसाद विमल जैसे सातवें दशक के बरबाद कथाकारों के प्रभाव में कहानियाँ लिखता था जिनका किसी भी तरह की वैचारिकता से या ज़िन्दगी से कोई नाता न होता और लगे हाथ ‘विकल्प’ के सम्पादन में शैलेश मटियानी की मदद करता था। लेकिन जिस क़िस्से का वीरेन को मलाल है, वह इससे पहले का है जब बटरोही इलाहाबाद की टोह लगाने के लिए आया था।

हुआ यों कि उन्हीं दिनों कमलेश्वर ने बटरोही को ‘डिस्कवर’ किया और उसकी कहानी ‘नई कहानियाँ’ में छापी। यहाँ तक कोई एतराज़ की बात नहीं थी। लेकिन कमलेश्वर ने कहानी के साथ जो प्रशस्ति गा रखी थी, उससे कुछ ऐसी गन्ध आती थी मानो वे एक नया चेला तैयार कर रहे हैं। हो सकता है, इसमें खेल कमलेश्वर ही का रहा हो, पर बटरोही ने उस यात्रा में एक ओर जिस तरह उस कहानी के छपने को भुनाने की कोशिश की और दूसरी ओर इलाहाबाद से साहित्यकारों से ‘चिपकने’ की, उसका कोई बहुत अच्छा असर नहीं पड़ा था। ऐसे ही में एक दिन जब ज्ञान, प्रभात, मैं और एकाध कोई और दोपहर बाद कॉफ़ी हाउस में बैठे गप लड़ा रहे थे तो बटरोही नमूदार हुआ। उसके साथ एक युवक भी था। एक ख़ुशामदी-सी हँसी हँसते हुए बटरोही आ कर हमारी ही मेज़ पर बैठ गया। उस ज़माने में कॉफ़ी हाउस के कई क़िस्म के दस्तूर थे। पहला दस्तूर ‘परिमल’ वालों और ‘शनिवारी समाज’ का था। एक में साही, रघुवंश, रामस्वरूप चतुर्वेदी आदि थे, दूसरे में भैरव जी और उनके साथी। ये सब अपनी-अपनी कॉफ़ी के पैसे ख़ुद चुकाते थे। दूसरा दस्तूर हम लोगों का था। जिसके पास पैसे हुए, उसने चुका दिये या फिर अपनी-अपनी क्षमता से सबने कम-ज़्यादा योग दे दिया। ज्ञान के साथ यह था कि अक्सर पैसे वही देता था। जब वह नहीं होता था तो कई बार प्रभात के पैसे मैं देता था। या फिर चार-छै दिन बाद जब मुझे लगता था कि ज्ञान को यह न महसूस हो कि वही अकेला चाय-कॉफ़ी के लिए ज़िम्मेदार है तो मैं बिल चुका देता था। एक अघोषित नियम यह था कि जो कॉफ़ी के लिए कहेगा, वही पैसे भी देगा। हम लोग शायद कॉफ़ी के लिए कह चुके थे, या शायद कॉफ़ी अभी-अभी आयी थी जब बटरोही आया, पूरा ब्योरा तो अब याद नहीं, पर बटरोही ने आते ही बैरे को दो कॉफ़ी लाने के लिए कहा। गप-शप चलती रही। कॉफ़ी पी गयी। जब उठने का समय आया तो मैंने बटरोही की तरफ़ देखा। ज़ाहिर है, कॉफ़ी के पैसे चुकाने थे, मगर बटरोही इस बात को अनदेखा कर रहा था। वह इस फेर में था कि हमीं में से कोई उनके पैसे भी चुका दे। मुझे बुरा इस बात का लगा कि एक तो वह हम रोज़ के उठने-बैठने वालों में से नहीं था, दूसरे उसने आते ही इस बात का इन्तज़ार भी नहीं किया था कि कोई कॉफ़ी के लिए पूछे और बड़े इत्मीनान से कॉफ़ी मँगवा ली थी, फिर वह हम पर लदने की कोशिश कर रहा था। जो युवक नैनीताल से एक और बन्दे को अपने साथ लिये-लिये इलाहाबाद आ सकता है, वह इतना ‘खुक्ख’ होगा कि कॉफ़ी के पैसे न दे सके, यह यक़ीन करने को जी न चाहता था। अगर वह सीधे-सीधे भी कह देता तो भी एक बात थी, पर वह तो एक दयनीय काइयाँपने से दुबका बैठा था। कुछ पल बाद वातावरण बड़ा बोझिल होने लगा। शायद मैंने बिल के बारे में कुछ कहा भी। पर तभी ज्ञान ने उठते हुए बैरे को बुलाया और पैसे अदा कर दिये।

मैं यह क़िस्सा भूल भी गया था, लेकिन वीरेन को याद था, क्योंकि बटरोही के साथ उस दिन वही था। तो भी इस प्रसंग को काफ़ी समय बीत गया था और इस पहले सफ़र के बाद बटरोही की असलियत से वीरेन वाकिफ़ हो चुका था, इसलिए हम दोनों ही इस किस्से को किनारे करके निकट आते चले गये।

उन दिनों ये दोनों, वीरेन और रमेन्द्र, गंगानाथ झा छात्रावास के एक ही कमरे में रह कर गाँजा पीने, कविता करने, बाहर से आये लोगों (मसलन पंकज सिंह) को इलाहाबाद ‘दिखाने,’ यदा-कदा दारू पीने, मेरी जावा मोटरसाइकिल पर तीन सवारी आवारागर्दी करने, दुनिया को अंग विशेष पर रखने और बचे हुए समय में प्रेम की सम्भावनाएँ तलाशने और मजाज़ की नज़्म ‘ऐ ग़मे दिल क्या करूँ’ को ऊँची आवाज़ और सुर-बेसुर में गाने में अपने जीवन का सदुपयोग करते थे। चूँकि शैलेश मटियानी गंगानाथ झा छात्रावास के नज़दीक कटरा में रहते थे और ‘विकल्प’ के नाम से हिन्दी की पहली भीमकाय ‘लघु पत्रिका’ निकाल रहे थे, लिहाज़ा हम लोग कभी-कभी वहाँ चले जाते। मैं इनमें से एकमात्र शादी-शुदा था। लेकिन तब तक मुझ पर ज्ञान रंजन का गाढ़ा रंग चढ़ा हुआ था। इसलिए जिस तरह शादी करने और कालिया की संगत करने पर भी ज्ञान अपनी मलंगई नहीं छोड़ पाया था, वैसे ही मैं अपने ज्ञान साईं के नक्शे-कदम पर चलते हुए अपना ठाठ फ़कीरी कायम किये हुए था।

चुनांचे मैंने वीरेन और रमेन्द्र को भी ‘युवा लेखक सम्मेलन’ में पटना चलने के लिए राज़ी कर लिया और नवल जी को लिख दिया कि मेरे साथ इन दोनों के यात्रा-व्यय और रिहाइश की भी व्यवस्था कर दें।
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1970 का ‘युवा लेखक सम्मेलन’ जैसा हुआ, वह आज अकल्पनीय लगता है। न सिर्फ़ शिरकत और उसमें उठी बहसों के लिहाज़ से, बल्कि उस प्रबल और दीर्घकालीन प्रभाव के चलते भी जो उसने आगे के लेखन पर छोड़ा। इसी सम्मेलन के दौरान मुझे ज्ञान के चरित्र के कुछ अन्य पहलू नज़र आये जिन्होंने मुझे चकित कर दिया।
(जारी)

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