Tuesday, January 25, 2011

देशान्तर



नीलाभ के लम्बे संस्मरण की आठवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ८



अधूरी लड़ाइयों के पार


लड़ाइयाँ अधूरी रह जाती हैं अक्सर, बाद में पूरी होने के लिए
किसी और युग में किन्हीं और हथियारों से
-असद ज़ैदी, 1857: सामान की तलाश

पटना में 27-28 दिसम्बर 1970 को आयोजित युवा लेखक सम्मेलन में क्या-कुछ हुआ, क्या-क्या नज़ारे देखने को मिले, कैसी-कैसी थिगलियाँ साहित्य के नभ-मण्डल में लगायी गयीं, और जिसे अंग्रेज़ी में ‘फ़्रोम द सब्लाइम टू द रिडिक्युलस’ कहते हैं, यानी अगर मनोहर श्यामिया सुख़नगोई से काम लेते हुए कहें कि ‘उदात्त से चौत्य’ तक कैसी उठा-पटक रही, इसे आज 35-40 वर्ष बाद, स्मृतियों के कबाड़ख़ाने से उबार कर, तमाम गर्द-ग़ुबार झाड़ कर पेश करना ख़ासा मुश्किल है। लेकिन पीछे मुड़ कर उस दौर को याद करते हुए, इतना यकीनी तौर पर कहा जा सकता है कि 1970 का वह सम्मेलन कई अर्थों में ऐतिहासिक था। एक तो इसलिए कि वह लेखकों के जम्बूरी-नुमा सम्मेलनों की शृंखला में आख़िरी बड़ा जमावड़ा था।

जिस तरह से 70 पार कर आये लेखक आज भी ‘वो झाड़ियाँ चमन की, वो मेरा आशियाना’ के अन्दाज़ में 1957 के लेखक सम्मेलन को याद करते हैं, वैसे ही 60 के पाँच वर्ष इधर या उधर के लेखकों की आँखें 1970 के युवा लेखक सम्मेलन के ज़िक्र से चमक उठती हैं। इस सम्मेलन में शायद सबसे कम उम्र वाले लेखकों में वीरेन डंगवाल और पंकज सिंह थे, 21-22 की दहलीज़ पर और शायद सबसे ज़्यादा उम्र रेणु जी की थी। ज़्यादातर साहित्यकार इन दोनों छोरों के दरमियान थे - 30-35 के पेटे में। कुछ मेरे जैसे 25 वर्ष के थे तो कुछ, मसलन नामवर जी, महज़ 42-43 वर्ष के, और यह तो हम सभी लोग अपने भारतीय अनुभव से जानते ही हैं कि जिस तरह नेतागण अपनी अर्द्ध-शती मनाने के बाद भी अपने राजनैतिक दल के युवा संगठन के महासचिव और अध्यक्ष वग़ैरह बने रहते हैं, उसी तरह लेखक भी सिर के आधे बाल पक जाने के बावजूद युवा लेखक बने रहते हैं। उम्र वाले इस पहलू का ज़िक्र शुरू में ही इसलिए किया है ताकि उस सम्मेलन में जो कुछ हुआ, उसकी संगति-असंगति-विसंगति के बारे में हैरत न हो।

बहरहाल, ऐसा जमावड़ा कभी देखा नहीं गया - न उससे पहले, न उसके बाद। गो, दो साल बाद बाँदा में भी एक हंगामाख़ेज़ सम्मेलन आयोजित हुआ था, लेकिन वह न तो इतने बड़े पैमाने पर था, न उसमें इतने भिन्न-भिन्न विचारों के लेखक शामिल थे और न वहाँ उस तरह के दृश्य देखने को मिले जो पटना में देखने को मिले थे, इस बात के बावजूद कि बाँदा में वैचारिक ढिशुम-ढिशुम एक समय तो ऐसी भौतिक समीक्षा की दिशा में बढ़ चली थी कि पुराने मुजाहिद मन्मथनाथ गुप्त और नये मरजीवड़े सुधीश पचौरी के बीच डब्ल्यू.डब्ल्यू.ए. जैसा कुछ घटित होने को था। दूसरी तरफ़ धूमिल, ऐसा बताया जाता है कि, एक भण्टा कुर्ते की जेब में डाले उसे बम बताते हुए ठेठ बनारसी लण्ठई और लनतरानी का मुज़ाहिरा करता घूम रहा था। इस सब को देखते हुए कुल मिला कर बड़े सुरक्षित ढंग से यह कहा जा सकता है कि बाँदा वाला सम्मेलन इसी 1970 वाले युवा लेखक सम्मेलन का, ग़ालिबन, उत्तरकाण्ड था।
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वैसे, हिन्दी में बड़े-बड़े साहित्यकार सम्मेलनों की परम्परा कभी नहीं रही। कुछ संस्थाएँ ज़रूर अपने अधिवेशनों में साहित्यकार जुटाया करती थीं, जैसे इलाहाबाद का हिन्दी साहित्य सम्मेलन या बनारस की नागरी प्रचारिणी सभा या फिर बिहार राष्ट्रभाषा परिषद आदि, लेकिन वहाँ साहित्य गौण और दूसरी चीज़ें ज़्यादा महत्वपूर्ण होती थीं। एक लम्बे अर्से तक तो इन संस्थाओं में हिन्दी की राजनीति की ही पटफेराबाज़ी होती रही, जिसका सम्बन्ध हिन्दी भाषा और हिन्दी साहित्य से कम और राजनीति से अधिक था। कई किस्म के जुगाड़ और गुन्ताड़े इन अधिवेशनों में भिड़ाये जाते। फिर, इनमें सभी साहित्यकार आमन्त्रित भी नहीं होते थे।

हिन्दी में यूँ भी पंगतपरक सम्मेलनों की परम्परा रही है। यानी अपनी पंगत, अपना एजेण्डा, अपने लोग। ऐसे सम्मेलन बिरले ही देखे गये हैं जिनमें हर जाति-प्रजाति के साहित्यकार, अपने-अपने मतभेदों को किनारे रख कर या फिर उन्हें झण्डों की तरह लहराते हुए, शामिल हुए हों। इस लिहाज़ से भी 1970 का युवा लेखक सम्मेलन अपने आप में अनोखा था, क्योंकि उसमें लगभग एक प्रतिशोध-भरे आग्रह, या कहें कि पूर्वाग्रह, से हर नस्ल के युवा लेखक जुटाये गये थे - किंचित युवा, कतिपय युवा, लगभग युवा, हत युवा, गत युवा, आहत युवा, आगत युवा, आदि - और जिनमें सुविद्रोहियों के साथ-साथ अविद्रोहियों और कुविद्रोहियों की भी अच्छी-ख़ासी भरमार थी।

इससे पहले, 1957 में जो दो बड़े सम्मेलन इलाहाबाद में हुए थे, उनमें जो ख़ेमेबन्दियाँ थीं, वे साफ़-साफ़ नज़र आती थीं। जहाँ तक मुझे याद पड़ता है, नामवर जी ने अपने किसी आत्म-चरित में साहित्यकारों के जमावड़ों की एक लम्बी फ़ेहरिस्त गिनायी थी, लेकिन न तो वे इतने बड़े पैमाने पर आयोजित हुए थे और न उनमें परस्पर विरोधी विचारों के लेखकों ने शिरकत ही की थी। कुल मिला कर वे ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ ही की जम्बूरियाँ थीं।

1957 के सम्मेलन भी - हालाँकि उनमें से एक ‘परिमल’ ने आयोजित किया था और दूसरा ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ ने - जहाँ तक दायरे और सरोकारों का सवाल है - पहले के सभी सम्मेलनों से भिन्न थे। इनमें से दूसरे सम्मेलन को बड़े भाव-भीने ढंग से याद करते हुए कवि अशोक वाजपेयी ने एकाधिक बार कहा है कि वे उस सम्मेलन में शामिल होने वाले सबसे कमसिन साहित्यकार थे और ग़ालिबन उनकी उम्र उस वक्त 17 बरस की थी। मुझे इतना और याद पड़ता है कि मेरी उम्र उस समय बारह की रही होगी और मैं उस सम्मेलन के लिए चन्दा जुटाने वाले और आव-भगत करने वाले दस्ते में शामिल था और इस मुहिम पर किसी के साथ कानपुर भी गया था।

अब 1970 के युवा लेखक सम्मेलन को याद करते हुए पीछे मुड़ कर देखते समय, 1957 के इन सम्मेलनों के बारे में कुछ और बातें भी दिमाग़ में कौंधती हैं। मिसाल के लिए यह कि 1957 में इलाहाबाद में आयोजित दोनों साहित्यकार सम्मेलनों पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से 1956 में दिल्ली में आयोजित पहली ऐफ़्रो एशियन राइटर्स कॉनफ़रेन्स की छाया मँडरा रही थी, जिसमें तमाम हिन्दी-उर्दू और अन्य भारतीय, एशियाई और अफ़्रीकी देशों के साहित्यकार शामिल हुए थे। ऐफ़्रो एशियन रॉइटर्स कॉन्फ़रेन्स को प्रकट ही ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ और सोवियत संघ का समर्थन प्राप्त था। जहाँ तक मुझे याद पड़ता है, उसमें ऐसे लोग भी बड़ी तादाद में शामिल हुए थे जो भले ही सोवियत समर्थक या ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ अथवा कम्यूनिस्ट पार्टी के सदस्य न रहे हों, मगर सामाजिक रूप से प्रतिबद्ध थे। लेकिन कुल-मिला कर उसकी मूल प्रेरणा वामपन्थी ही थी। वह समय भी ख़ासी उथल-पुथल का था। स्टालिन युग समाप्त हुआ ही हुआ था, ख़्रुश्चेव ने नयी-नयी सत्ता सँभाली थी और भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी, जो बाद में ‘इस दिल के टुकड़े हज़ार हुए’ की तर्ज़ पर कई-कई खण्डों और उपखण्डों में बँटी, उस समय तक एक थी। यह बात दीगर है कि उसी दौर में कम्यूनिस्ट पार्टी से जुड़े लेखक या प्रगतिशील साहित्यकार अनेक विषयों पर तीखे अन्दरूनी मतभेद का शिकार थे - चाहे वह हिन्दी-उर्दू का मसला हो या फिर पार्टी लाइन का। पी.सी.जोशी और उनके उदार प्रगतिवादी दौर को पीछे छोड़ कर एक ऐसा कट्टरतावादी गुट कम्यूनिस्ट पार्टी और ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ में उभर आया था जिसने राहुल सांकृत्यायन से ले कर यशपाल, अश्क, रांगेय राघव, शिवदान सिंह चौहान, अमृत राय आदि पुराने प्रगतिशीलों के ख़िलाफ़ तालिबानी अन्दाज़ में जिहाद बोल दिया था।

दूसरी ओर, यह भी कहने की बात नहीं है कि वह शीतयुद्ध का ज़माना था। हीरोशिमा और नागासाकी पर अमरीकी युद्धोन्माद ने जो तबाही बरपा की थी, उसकी स्मृति ताज़ा बेखुरण्ड ज़ख़्म की तरह थी। इन्हीं नीतियों को आगे बढ़ाते हुए अमरीका ने मार्शल प्लान चालू किया था, इसलिए एक बड़े पैमाने पर दुनिया भर में वामपन्थी, जनवादी और कम्यूनिस्ट लेखकों का हरकतज़दा होना अमरीका के कान खड़े कर देने के लिए काफ़ी था। इस सब की सांस्कृतिक पेशबन्दी के तौर पर अमरीका परस्त संस्था ‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ की स्थापना हो चुकी थी जिसके मानद अध्यक्षों में बेनेदेत्तो क्रोचे, कार्ल जास्पर्स और बरट्रेण्ड रसेल के साथ हिन्दुस्तानी समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण भी शामिल थे। ‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ के रंगून सम्मेलन के अध्यक्षों में डॉ. सम्पूर्णानन्द जैसे काँग्रेसी-समाजवादी बहैसियत मुख्यमन्त्री, उत्तर प्रदेश सरकार शिरकत कर रहे थे।

‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ ने ‘एनकाउण्टर’ के नाम से एक पत्रिका भी प्रकाशित करनी शुरू की थी, जिसके सम्पादक थे पुराने वामपन्थी स्टीफ़न स्पेण्डर। हालाँकि तब तक ‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ को सी.आई.ए. से मिलने वाले आर्थिक अनुदान की बात और इस भण्डाफोड़ से उठे कौआरोर के चलते ‘एनकाउण्टर’ से स्टीफ़न स्पेण्डर के इस्तीफ़े की घटना में अभी दस बरस की देरी थी, लेकिन यह बात राजनैतिक रूप से सचेत सभी लेखक जानते थे कि ‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ की असलियत क्या है और स्टीफ़न स्पेण्डर जैसे घोषित वामपन्थी इसी बिना पर ‘एनकाउण्टर’ के सम्पादक बन भी सके हैं, क्योंकि उन्होंने 1949 में प्रकाशित पुस्तक ‘द गॉड दैट फ़ेल्ड’ में लिखे गये अपने लेख में, उसी पुस्तक के सहयोगी लेखक आर्थर केस्लर के सुर-में-सुर मिलाते हुए, साम्यवाद और साम्यवादी विचारधारा से किनाराकशी कर ली थी। अगर यह बात इतनी प्रकट और प्रत्यक्ष नहीं भी थी, तो भी स्टीफ़न स्पेण्डर के राजनैतिक स्खलन के साथ ‘एनकाउण्टर’ में उनके सम्पादक बनने को जोड़ कर लोग इतना तो जान ही रहे थे कि ‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ एक अमरीका-परस्त और अमरीकी पैसों से चलने वाली संस्था है।

यों, जैसा कि शीत युद्ध की तकनीक है, दोनों पक्ष एक-दूसरे पर नज़र रख कर चलते थे। यही वजह है कि 1956 के ऐफ़्रो एशियन लेखक सम्मेलन में अनेक ग़ैर-वामपन्थी लेखक तो गये ही थे, ‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ के एशियाई मामलों के सचिव प्रभाकर पाध्ये भी गये थे। ऐफ़्रो एशियन लेखक सम्मेलन की सफलता, ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के बढ़ते हुए प्रभाव और अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर हो रहे परिवर्तनों ने जहाँ ‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ जैसी संस्था को अपनी गतिविधियाँ तेज़ करने के लिए उकसाया, वहीं कम्यूनिस्ट जगत में होने वाली तब्दीलियों और प्रगतिशील लेखकों की बिरादरी के आपसी मतभेदों ने ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ को एक बड़ा साहित्यकार सम्मेलन करने की प्रेरणा दी। चूँकि ‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ एक दाग़ी संस्था थी, तकरीबन वैसी ही, जैसी पच्चीस-तीस वर्ष बाद ‘फ़ोर्ड फ़ाउण्डेशन’ बनी, और उसके काम करने का ढंग लुका-छिपी वाला था, जिसे अंग्रेज़ी में ‘क्लोक ऐण्ड डैगर’ वाला तरीका कहते हैं, इसलिए उसने अपने मंसूबों के लिए प्रगतिशील लेखक संघ की घोषित विरोधी संस्था ‘परिमल’ को चुना और ‘परिमल’ ने ‘साहित्य और राज्याश्रय’ के सवाल पर एक लेखक सम्मेलन आयोजित किया।

उधर, ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ पहले ही से एक सम्मेलन की सोच रहा था। अब, इसे संयोग ही कहा जायेगा कि दोनों सम्मेलन 1957 में हुए और दोनों इलाहाबाद में हुए। ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ में मतभेद चाहे कितने रहे हों, लेकिन कोई दुराव-छिपाव तो था नहीं। उससे जुड़े लेखकों की राजनैतिक प्रतिबद्धताएँ सबको मालूम थीं। लेकिन ‘परिमल’ के मुखौटे के पीछे असली चेहरा किसका था, यह उस समय उजागर हो गया जब ‘परिमल’ वाले सम्मेलन के बाद धन्यवाद-ज्ञापन के पत्र ‘परिमल’ के पदाधिकारियों की ओर से जारी न हो कर ‘काँग्रेस फ़ॉर कल्चरल फ़्रीडम’ के एशियाई मामलों के सचिव, प्रभाकर पाध्ये की ओर से लेखकों को भेजे गये। चूँकि इलाहाबाद की पुरानी परम्परा के अनुसार सम्मेलनों में सभी तरह के साहित्यकार न्योते जाते थे, इसलिए ‘परिमल’ वाले समेलन में अज्ञेय, ताराशंकर बन्द्योपाध्याय, शिवराम कारन्त, समरेश बसु, फ़ादर कामिल बुल्के आदि के साथ-साथ यशपाल और उपेन्द्र नाथ अश्क जैसे प्रगतिशील साहित्यकार भी शामिल हुए। और चूँकि प्रगतिशीलों की आपसी कशमकश भी कोई छिपी हुई चीज़ नहीं थी, इसलिए भी किसी बाहरी व्यक्ति को किसी साहित्यकार विशेष की प्रतिबद्धता के बारे में भ्रम हो सकता था जो प्रभाकर पाध्ये को भी हुआ होगा, क्योंकि उन्होंने धन्यवाद ज्ञापन के जो पत्र भेजे, उनमें से एक पत्र ऐसे ही प्रगतिशील लेखक के नाम था जिन्होंने वह पत्र अमृत राय को सौंप दिया और इलाहाबाद से निकलने वाली ‘कहानी’ पत्रिका के जुलाई 1957 के अंक में अमृत राय ने इस तोड़क-फोड़क गतिविधि का भाँडा ऐन बीच चौराहे फोड़ दिया।
(जारी)

Sunday, January 23, 2011

देशान्तर


नीलाभ के लम्बे संस्मरण की सातवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ७








‘सिर्फ़’ के उसी अंक के साथ या उसके कुछ दिन बाद मुझे नवल जी का एक पत्र मिला कि वे दिसम्बर 1970 में एक युवा लेखक सम्मेलन कर रहे हैं। लेखक सम्मेलन के परिपत्र और आमन्त्रण के साथ भेजी गयी इस चिट्ठी में नवल जी ने लिखा था कि वे सम्मेलन को बड़े पैमाने पर करने की सोच रहे हैं और उन्होंने मुझसे पटना आने का आग्रह किया था। इसके साथ-साथ नवल जी ने यह भी लिखा था कि अगर मैं चाहूँ और ठीक समझूँ तो अपने संग कुछ और युवा साथियों को भी लेता आऊँ। वे तीसरे-दर्जे का आने-जाने का रेल भाड़ा देंगे और रहने-खाने की भी व्यवस्था करेंगे।

आज का कोई लेखक अव्वल तो अपना पैसा ख़र्च करके दूसरे शहर जा कर लेखक-मित्रों से मिलने की नहीं सोचता और अगर किसी आयोजन में जाना हो तो ए.सी. टू टियर या ए.सी. थ्री टियर से नीचे बात नहीं करता और उम्मीद करता है कि उसे किसी अच्छे होटल में ठहराया जायेगा, लेकिन उन दिनों बात दूसरी थी। लोग धड़ल्ले से यात्राएँ करते थे, अक्सर निष्प्रयोजन, सिर्फ़ मित्रों से मिलने के लिए, और मित्रों के यहाँ ही टिकते थे। कोई सम्मेलन वग़ैरा होता तो किसी बड़े-से हॉल में फ़र्श पर गद्दे डाल कर सो जाया जाता। तीसरे दर्जे का यात्रा-व्यय ख़ुशी-ख़ुशी स्वीकार कर लिया जाता। यों बीच की बात यह है कि अनेक लेखक आज भी सफ़र तीसरे दर्जे में करते हैं, हाँ, ऊपर के पैसे जेब में डाल लेते हैं। इसमें कोई बुराई भी नहीं है, अगर आयोजक देने की स्थिति में हो, जैसा कि सरकारी या अर्द्ध सरकारी संस्थानों के साथ होता है। लेकिन जहाँ ऐसी स्थिति न हो, वहाँ अपनी तरफ़ से ख़र्च करके जाने भी कोई हानि नहीं है। जिन बड़े आयोजनों को हम याद करते हैं, मसलन, 1952 में इलाहाबाद का प्रगतिशील लेखक संघ का सम्मेलन या इलाहाबाद ही में 1957 का लेखक सम्मेलन, वे सब ऐसे ही हुए थे। इसीलिए चलन बदलने के साथ ऐसे जमावड़े भी - कम-से-कम साहित्यिक संस्थाओं की ओर से - आयोजित होने बन्द हो गये हैं। सच तो यह है कि साहित्यिक संस्थाएँ भी दुकान बढ़ा कर चलती बनी हैं। 1970 का पटना सम्मेलन इस कड़ी का आख़िरी बड़ा सम्मेलन था।

नवल जी का पत्र आने पर मैंने दरियाफ़्त किया तो पता चला कि इलाहाबाद से ज्ञान, दूधनाथ, कालिया, ममता, ज्ञान प्रकाश, अरविन्द कृष्ण मेहरोत्रा और उसकी पत्नी, अजय सिंह और सतीश जमाली जा रहे थे। मैंने सोचा, कण्टिंजेण्ट में कुछ और लोगों को शामिल कर लिया जाय।
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ज्ञान के जबलपुर चले जाने के बाद उन दिनों मेरा समय दो लोगों के साथ बड़ी कसरत से गुज़रता था। एक तो थे वीरेन डंगवाल, जो आज बड़े ही महत्वपूर्ण कवि हो गये हैं और जिनके प्रशंसकों-प्रेमियों की संख्या भारतीय फ़ौज को भी शर्मिन्दा करने के लिए काफ़ी हैं। दूसरे सज्जन, जिनकी संगत में मैं ज्ञान की ग़ैर-हाज़िरी को भुलाये रखता था, रमेन्द्र त्रिपाठी थे, जो इन दिनों प्रशासनिक सेवाओं में शामिल हो कर उत्तर प्रदेश जैसे परम भ्रष्ट राज्य में अपनी आकबत बचाये रखने के फेर में इतने मुब्तिला रहते हैं कि कविता से केवल पढ़ने का रिश्ता रखते हैं। उन दिनों रमेन्द्र एम.ए. कर रहा था। इरादा प्रशासनिक सेवाओं में जाने का था। चूँकि रामचन्द्र शुक्ल के परिवार से था, इसलिए हम लोग रमेन्द्र को ‘रामचन्द्र शुक्ल का नाती’ कह कर भी बुलाते थे।

वीरेन से मेरी मुलाक़ात अजय सिंह ने करायी थी जो हॉलैण्ड हॉल छात्रावास में प्रकुबम (यानी प्रणव कुमार बंद्योपध्याय) और गिरधर राठी के साथ रहता था। अजय का एकांकी ‘कुहनी की हड्डी’ 1966 में ‘ज्ञानोदय’ के उसी ‘नयी कलम अंक’ में छपा था जिसमें मेरी भी कविता छपी थी, और वह राजनीति शास्त्र में एम.ए. न करने की कोशिश कर रहा था, जिस कोशिश में वह अन्ततः सफल हो ही गया था। मैं एम.ए. करके हिन्दी विभाग से निकल आया था, मगर चूँकि मैंने शोध के लिए आवेदन दे रखा था और वह स्वीकृत भी हो गया था इसलिए जब तक ज्ञान की तरह मैंने भी शोध न करने फ़ैसला न कर लिया, मैं कुछ महीनों के लिए हर दूसरे-तीसरे विभाग का चक्कर लगा आता था।

तभी एक दिन विभाग के गलियारे में अजय सिंह मझोले क़द के दुबले-पतले बेढंगे-से युवक के साथ मिला जिसकी आँखों में कुछ ‘लुक हियर सी देयर’ वाला भाव था। अजय ने परिचय कराते हुए कहा कि यह वीरेन डंगवाल है, इसकी कहानियाँ ‘सरिता’ में छप चुकी हैं। ‘सरिता में!’ मुझे एक धक्का-सा लगा क्योंकि 1966 में भले ही रंगीन, चिकनी व्यावसायिक पत्रिकाओं के ख़िलाफ़ वह झूठा जिहाद शुरू नहीं हुआ था, जिसका ज़िक्र मैंने कालिया के सिलसिले में किया, तो भी कोई गम्भीर लेखक ‘सरिता’ में छपने की बात अपने परिचय में कहना या कहलवाना चाहेगा, यह मुझे अटपटा ही लगता था; हालाँकि एम.ए. करने के दौरान मैं दो बार गर्मियों की छुट्टियाँ दिल्ली बिता आया था और जानता था कि ‘सरिता’ कई लेखकों की पनाहगाह रही है, मसलन, भीमसेन त्यागी, कंचन कुमार, सुदर्शन चोपड़ा वग़ैरा की। ज़ाहिर है, मैंने सरसरी नज़र डाल कर उस युवक को ख़ारिज कर दिया था। लेकिन चूँकि उन दिनों इलाहाबाद में बहुत गहमा-गहमी थी, लेखकों के बीच बहुत मिलना-मिलाना था, इसलिए वीरेन से मिलना-जुलना बढ़ता चला गया। वैसे, वीरेन से खिंचे-खिंचे रहने का भाव सिर्फ़ मेरे ही मन में नहीं था। बाद में पता चला कि वीरेन को भी मुझसे शिकायत है, क्योंकि मैंने एक बार बटरोही से कॉफ़ी हाउस में बुरा व्यवहार किया था।


आज तो लक्ष्मण सिंह बटरोही नैनीताल में हिन्दी विभागाध्यक्ष के पद पर आसीन है और गाहे-बगाहे लेखादि लिख कर अपने लेखक होने की आबरू बचाये हुए है, पर उन दिनों वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय में रिसर्च करता था और शैलेश मटियानी ने अपनी स्वाभाविक उदारता और पर्वत-पुत्रों के प्रति प्रेम के कारण उसे अपने घर में आसरा दे रखा था। जैसा कि उन्होंने पहाड़ से आये चित्रकार-कवि सईद को दे रखा था। बटरोही गंगा प्रसाद विमल जैसे सातवें दशक के बरबाद कथाकारों के प्रभाव में कहानियाँ लिखता था जिनका किसी भी तरह की वैचारिकता से या ज़िन्दगी से कोई नाता न होता और लगे हाथ ‘विकल्प’ के सम्पादन में शैलेश मटियानी की मदद करता था। लेकिन जिस क़िस्से का वीरेन को मलाल है, वह इससे पहले का है जब बटरोही इलाहाबाद की टोह लगाने के लिए आया था।

हुआ यों कि उन्हीं दिनों कमलेश्वर ने बटरोही को ‘डिस्कवर’ किया और उसकी कहानी ‘नई कहानियाँ’ में छापी। यहाँ तक कोई एतराज़ की बात नहीं थी। लेकिन कमलेश्वर ने कहानी के साथ जो प्रशस्ति गा रखी थी, उससे कुछ ऐसी गन्ध आती थी मानो वे एक नया चेला तैयार कर रहे हैं। हो सकता है, इसमें खेल कमलेश्वर ही का रहा हो, पर बटरोही ने उस यात्रा में एक ओर जिस तरह उस कहानी के छपने को भुनाने की कोशिश की और दूसरी ओर इलाहाबाद से साहित्यकारों से ‘चिपकने’ की, उसका कोई बहुत अच्छा असर नहीं पड़ा था। ऐसे ही में एक दिन जब ज्ञान, प्रभात, मैं और एकाध कोई और दोपहर बाद कॉफ़ी हाउस में बैठे गप लड़ा रहे थे तो बटरोही नमूदार हुआ। उसके साथ एक युवक भी था। एक ख़ुशामदी-सी हँसी हँसते हुए बटरोही आ कर हमारी ही मेज़ पर बैठ गया। उस ज़माने में कॉफ़ी हाउस के कई क़िस्म के दस्तूर थे। पहला दस्तूर ‘परिमल’ वालों और ‘शनिवारी समाज’ का था। एक में साही, रघुवंश, रामस्वरूप चतुर्वेदी आदि थे, दूसरे में भैरव जी और उनके साथी। ये सब अपनी-अपनी कॉफ़ी के पैसे ख़ुद चुकाते थे। दूसरा दस्तूर हम लोगों का था। जिसके पास पैसे हुए, उसने चुका दिये या फिर अपनी-अपनी क्षमता से सबने कम-ज़्यादा योग दे दिया। ज्ञान के साथ यह था कि अक्सर पैसे वही देता था। जब वह नहीं होता था तो कई बार प्रभात के पैसे मैं देता था। या फिर चार-छै दिन बाद जब मुझे लगता था कि ज्ञान को यह न महसूस हो कि वही अकेला चाय-कॉफ़ी के लिए ज़िम्मेदार है तो मैं बिल चुका देता था। एक अघोषित नियम यह था कि जो कॉफ़ी के लिए कहेगा, वही पैसे भी देगा। हम लोग शायद कॉफ़ी के लिए कह चुके थे, या शायद कॉफ़ी अभी-अभी आयी थी जब बटरोही आया, पूरा ब्योरा तो अब याद नहीं, पर बटरोही ने आते ही बैरे को दो कॉफ़ी लाने के लिए कहा। गप-शप चलती रही। कॉफ़ी पी गयी। जब उठने का समय आया तो मैंने बटरोही की तरफ़ देखा। ज़ाहिर है, कॉफ़ी के पैसे चुकाने थे, मगर बटरोही इस बात को अनदेखा कर रहा था। वह इस फेर में था कि हमीं में से कोई उनके पैसे भी चुका दे। मुझे बुरा इस बात का लगा कि एक तो वह हम रोज़ के उठने-बैठने वालों में से नहीं था, दूसरे उसने आते ही इस बात का इन्तज़ार भी नहीं किया था कि कोई कॉफ़ी के लिए पूछे और बड़े इत्मीनान से कॉफ़ी मँगवा ली थी, फिर वह हम पर लदने की कोशिश कर रहा था। जो युवक नैनीताल से एक और बन्दे को अपने साथ लिये-लिये इलाहाबाद आ सकता है, वह इतना ‘खुक्ख’ होगा कि कॉफ़ी के पैसे न दे सके, यह यक़ीन करने को जी न चाहता था। अगर वह सीधे-सीधे भी कह देता तो भी एक बात थी, पर वह तो एक दयनीय काइयाँपने से दुबका बैठा था। कुछ पल बाद वातावरण बड़ा बोझिल होने लगा। शायद मैंने बिल के बारे में कुछ कहा भी। पर तभी ज्ञान ने उठते हुए बैरे को बुलाया और पैसे अदा कर दिये।

मैं यह क़िस्सा भूल भी गया था, लेकिन वीरेन को याद था, क्योंकि बटरोही के साथ उस दिन वही था। तो भी इस प्रसंग को काफ़ी समय बीत गया था और इस पहले सफ़र के बाद बटरोही की असलियत से वीरेन वाकिफ़ हो चुका था, इसलिए हम दोनों ही इस किस्से को किनारे करके निकट आते चले गये।

उन दिनों ये दोनों, वीरेन और रमेन्द्र, गंगानाथ झा छात्रावास के एक ही कमरे में रह कर गाँजा पीने, कविता करने, बाहर से आये लोगों (मसलन पंकज सिंह) को इलाहाबाद ‘दिखाने,’ यदा-कदा दारू पीने, मेरी जावा मोटरसाइकिल पर तीन सवारी आवारागर्दी करने, दुनिया को अंग विशेष पर रखने और बचे हुए समय में प्रेम की सम्भावनाएँ तलाशने और मजाज़ की नज़्म ‘ऐ ग़मे दिल क्या करूँ’ को ऊँची आवाज़ और सुर-बेसुर में गाने में अपने जीवन का सदुपयोग करते थे। चूँकि शैलेश मटियानी गंगानाथ झा छात्रावास के नज़दीक कटरा में रहते थे और ‘विकल्प’ के नाम से हिन्दी की पहली भीमकाय ‘लघु पत्रिका’ निकाल रहे थे, लिहाज़ा हम लोग कभी-कभी वहाँ चले जाते। मैं इनमें से एकमात्र शादी-शुदा था। लेकिन तब तक मुझ पर ज्ञान रंजन का गाढ़ा रंग चढ़ा हुआ था। इसलिए जिस तरह शादी करने और कालिया की संगत करने पर भी ज्ञान अपनी मलंगई नहीं छोड़ पाया था, वैसे ही मैं अपने ज्ञान साईं के नक्शे-कदम पर चलते हुए अपना ठाठ फ़कीरी कायम किये हुए था।

चुनांचे मैंने वीरेन और रमेन्द्र को भी ‘युवा लेखक सम्मेलन’ में पटना चलने के लिए राज़ी कर लिया और नवल जी को लिख दिया कि मेरे साथ इन दोनों के यात्रा-व्यय और रिहाइश की भी व्यवस्था कर दें।
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1970 का ‘युवा लेखक सम्मेलन’ जैसा हुआ, वह आज अकल्पनीय लगता है। न सिर्फ़ शिरकत और उसमें उठी बहसों के लिहाज़ से, बल्कि उस प्रबल और दीर्घकालीन प्रभाव के चलते भी जो उसने आगे के लेखन पर छोड़ा। इसी सम्मेलन के दौरान मुझे ज्ञान के चरित्र के कुछ अन्य पहलू नज़र आये जिन्होंने मुझे चकित कर दिया।
(जारी)

देशान्तर


नीलाभ के लम्बे संस्मरण की छठी क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान


ज्ञानरंजन के बहाने - ६









आज लगभग चालीस साल बाद जब मैं उस प्रसंग पर सोचता हूँ तो मुझे ऐसे तमाम संयोगों पर हैरत भी होती है और दुख भी। क्या कारण है कि अक्सर हमें उन्हीं लोगों से आघात पहुँचते हैं, जिनसे हम गहरे भावनात्मक रेशों से जुड़े होते हैं ? कहीं ऐसा तो नहीं है कि हमीं अपने निकटस्थ व्यक्तियों से कुछ अधिक अपेक्षाएँ रखने लगते हैं ?
यहाँ इस प्रकरण के सम्बन्ध में एक छोटा-सा विषयान्तर करते हुए इतना और जोड़ना है कि मुझे उस समय भी और आज लगभग चालीस वर्ष बाद भी उस सब को याद करते हुए आश्चर्य कालिया पर नहीं, ज्ञान पर था। कारण यह था कि कालिया का स्वभाव ‘आधार’ वाले प्रसंग के बाद बहुत जल्द ही मेरे सामने साफ़ हो गया था। व्यावसायिक पत्रिकाओं के अपने तमाम विरोध के बावजूद उसने उधर की तरफ़ एक चोर दरवाज़ा हमेशा खुला रखा था। ममता को कभी उसने व्यावसायिक पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित करने से नहीं बरजा। चलिए, मान लेते हैं कि ममता का अपना स्वतन्त्र व्यक्तित्व था, लेकिन बाद में कालिया ने ‘सत्यकथा’ और ‘मनोहर कहानियाँ’ छापने वाले मित्र-बन्धुओं में से एक के साथ गठबन्धन करके कैंची-गोद मार्का पत्रिका ‘गंगा-जमुना’ निकाली जो ‘धर्मयुग’ और ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ के बुरे-से-बुरे रूपों से भी गयी-बीती थी और अब कालिया बरास्ता ‘वागर्थ’ जैनियों के उसी संस्थान में जा पहुँचा है जिसे वह चालीस साल पहले छोड़ आया था। जालन्धर की ज़बान में कहें तो ‘जित्थों दी खोत्ती, ओत्थे जा खलोत्ती,’ यानी ‘पहुँची वहीं पे ख़ाक जहाँ का ख़मीर था।’ इलाहाबाद में दरबार लगाने की परम्परा कभी नहीं रही। लेकिन कालिया दरबार लगाने का कायल था। उसे कॉफ़ी हाउस के लोकतान्त्रिक माहौल की बजाय 370, रानी मण्डी में बैठना पसन्द था। उसे पसन्द था कि प्रेस के बाहर वाले कमरे में लोग उसे घेरे बैठे रहें। शुरू-शुरू में तो पालियाँ बँधी हुई थीं। कौन-सी पाली में साहित्यकार होंगे, कौन-सी पाली में उसके ग़ैर-साहित्यिक पिट्ठू। फिर धीरे-धीरे साहित्यकार छँटते चले गये और यही दूसरे क़िस्म के लोग रह गये। कभी पी.डब्ल्यू.डी. या ऐसे ही किसी सरकारी विभाग का कोई इंजीनियर होता, कभी कोई चालू क़िस्म का डॉक्टर, कभी दिलीप कुमार के फ़िल्मी लिबास बनाने वाला नाई-उपन्यासकार, कभी कोई उपरफट्टू क़िस्म का नेता तो कभी पुलिस का कोई अधिकारी। कुछ समय तक हरनाम दास सहराई ने भी इस दश्त की सैयाही की थी जब कालिया ने उसके उपन्यास को पंजाबी से हिन्दी करके छापा था, शायद ‘रचना प्रकाशन’ के लिए। इलाहाबाद दंग हो कर कालिया के करतब देख रहा था। कालिया ने भी सत्ता का ख़ूब आनन्द लिया। लेकिन दरबारों का एक तर्क होता है। जो लोग दरबार लगाते हैं, वे कई बार किसी और जगह दरबारीलाल बने मुसाहिबगीरी करते रहते हैं। चूँकि इलाहाबाद में ऐसा न कोई व्यक्तित्व था, न माहौल, सो कालिया ने अमेठी का रास्ता लिया।
सारे ब्योरे तो मुझे मालूम नहीं हैं, क्योंकि ‘आधार’ प्रसंग के बाद मैं धीरे-धीरे कालिया से दूर हटता चला गया और 1972 के बाद तो पन्द्रह साल उसके घर नहीं गया, और यूँ भी वह पुरानी गर्मजोशी दोनों तरफ़ से ख़त्म हो चुकी थी, लेकिन इतना मुझे ज़रूर पता है कि कालिया अमेठी के डॉ. जगदीश पीयूष के ज़रिये अमेठी के राजा संजय सिंह के दरबार में पहुँचा और उनकी मार्फ़त संजय गाँधी के दरबार में। अपनी पुरानी प्रगतिशील प्रतिबद्धताओं को ताक में रख कर वह कांग्रेस के साथ हो लिया। उसके यहाँ सन्दिग्ध क़िस्म के लोगों का जमावड़ा लगने लगा। दिलचस्प बात यह थी कि जब 1981 में संजय गाँधी की मृत्यु हुई तो कालिया ने पलटी मार कर राजीव गान्धी का साथ कर लिया, यहाँ तक कि चुनावों के दौरान मेनका गान्धी का चरित्र हनन करते हुए - कि कैसे वह शराब पीती है, सिगरेट पीती है, उच्छृंखल है, आदि, आदि - एक पुस्तिका भी बँटवायी। यह तब जब ममता बराबर नारी-अधिकारों की हिमायत करती थी। बहरहाल, यह सब कालिया के देखने की चीज़ें हैं - उसकी अन्तरात्मा, उसके ज़मीर और उसके आदर्शों की। शराब पी कर भी वह कैसी-कैसी अभद्रताएँ करता रहा है, इसके कुछ प्रसंग तो मेरे भी देखे हुए हैं, हालाँकि अपने रणछोड़दास स्वभाव के चलते उसने ‘ग़ालिब छुटी शराब’ में ऐसे प्रसंगों का कोई ज़िक्र नहीं किया है। लेकिन मुझे ज्ञान पर ज़रूर आश्चर्य होता रहा है कि उसकी नज़र से यह सब कैसे छिपा रहा और अगर छिपा नहीं रहा तो उसने इस सब के साथ निभाया कैसे।
ज्ञान की यादें ताज़ा करते हुए मैंने एक बार फिर ‘कबाड़ख़ाना’ वह पत्र पढ़ा है जो उसने ‘हंस’ में काशीनाथ सिंह का संस्मरण छपने के बाद उसे लिखा था - कालिया की हिमायत में। मुझे फिर एक बार हैरत हुई। मित्र तो वह जो ग़ालिब के शब्दों में ‘रोक लो गर ग़लत करे कोई’ पर चलने वाला हो। मुझे ऐसे भी मित्र मिले हैं।
हाल के दिनों तक तो ख़ैर, मेरे जीवन के एक व्यक्तिगत प्रसंग की वजह से आनन्दस्वरूप वर्मा के साथ लगभग दस साल से मेरा अबोला चल रहा था, लेकिन लगभग बीस-बाईस बरस पहले 1989 की बात है, मैंने ‘न्यू डेल्ही टाइम्स’ के निर्देशक रमेश शर्मा के लिए वृत्तचित्रों के एक धारावाहिक ‘कसौटी’ पर काम किया था। इस धारावाहिक के ख़त्म होने के कुछ महीने बाद मैं पाकिस्तान चला गया। वहाँ से लौटा तो रमेश ने मुझसे आग्रह किया कि मैं उसके लिए दो वृत्तचित्रों के लिए आलेख लिख दूँ और स्वर भी दे दूँ। विषय था इन्दिरा गाँधी और धर्म निरपेक्षता। रमेश की कुछ राजनैतिक महत्वाकांक्षाएँ थीं, वह कई कारणों से कांग्रेस से जुड़ गया था, और ये फ़िल्में उसके लिए एक सी़ढ़ी का काम कर सकती थीं।
मैं डॉक्यूमेंट्री बना कर अण्डमान चला गया। वहाँ से लौटा तो आनन्द स्वरूप वर्मा से मुलाकात हुई। उसने छूटते ही कहा कि तुमने यह काम ठीक नहीं किया; हम लोग बराबर इन्दिरा गाँधी की निरंकुशता का, आपात काल का, इन्दिरा गाँधी और कांग्रेस की नीतियों का विरोध करते रहे; ऐसे में फ़िल्म चाहे किसी दृष्टि से इन्दिरा गाँधी को ले कर बनायी गयी हो, हमें और हमारी प्रतिबद्धता को सन्दिग्ध बना देगी। शब्द तो ठीक-ठीक ये नहीं थे, पर आशय यही था। मुझे भी तत्काल अपनी चूक का एहसास हुआ। मैंने आनन्द का शुक्रिया अदा किया कि उसने सचमुच दोस्ती का फ़र्ज़ निभाया है। ग़लती तो मुझसे हो गयी थी और तीर वापस न आ सकता था, लेकिन मैंने उससे वादा किया कि अब दोबारा ऐसी ग़लती मैं नहीं करूँगा।
मैं आज भी आनन्द स्वरूप वर्मा का कृतज्ञ हूँ कि उसने बेकार का लिहाज़ न बरत कर मुझे टोक दिया था। ‘कबा़ड़ख़ाना’ वाले पत्र के सिलसिले में इतना ही कि ज्ञान ने काशीनाथ सिंह को तो बरजा, लेकिन जब कन्हैयालाल नन्दन ‘सण्डे मेल’ का सम्पादक बना और सैयाँ के कोतवाल बनने पर कालिया ने हमेशा की तरह दोस्ती का लाभ उठा कर पीत पत्रिका मार्का संस्मरण लिखे-छपाये तब ज्ञान ने उसे नहीं बरजा। अलबत्ता, जब काशी ने प्रतिक्रिया में दो-चार बनारसी घिस्से दिये तो कालिया के बिलबिलाने पर ज्ञान द्रवित हो गया! ख़ैर।
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बहरहाल, ‘आधार’ का यह प्रसंग भी बीत गया। मैत्री और दूसरे तमाम सामाजिक सम्बन्ध जो हम ख़ुद बनाते-रचते हैं, कहीं-न-कहीं हमारे वयस्क होते जाने, परिपक्व होते जाने में भी चाहे-अनचाहे, जाने-अजाने अपनी भूमिका अदा करते हैं। मेरे ज़ख़्मों पर खुरण्ड चढ़ने में हालाँकि थोड़ा वक़्त लगा, मगर वह कहा है न कि वक़्त सब कुछ...
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उन दिनों पटना से नन्द किशोर नवल ‘सिर्फ़’ नाम की एक लघु पत्रिका का सम्पादन-प्रकाशन कर रहे थे। ‘आधार’ के द्वार से धकियाये जाने पर जब मैंने अपनी लम्बी कविता ‘अपने आप से बहुत लम्बी, बहुत लम्बी बातचीत’ एक पुस्तिका की शक्ल में प्रकाशित की तो उसे नवल जी को भेज दिया। पुस्तिका मैंने अशोक वाजपेयी और रवीन्द्र कालिया को समर्पित की थी। अशोक के नाम इसलिए कि उन्होंने हिन्दी के आम वतीरे से हलग हट कर, यानी अश्क जी के साथ अपने और अपने निकट के अन्य लोगों के सम्बन्धों को ख़ातिर में न लाते हुए, मेरे पहले कविता-संग्रह ‘संस्मरणारम्भ’ की अच्छी समीक्षा की थी - शायद ‘धर्मयुग’ में। अच्छी इस मानी में कि वह आज की ‘अच्छी’ समीक्षाओं की तरह न तो अहो-अहोवादी थी, न पंजीरी-बाँटू। उसमें सम्भावनाओं की तरफ़ इशारा करने और उत्साह दिलाने की भावना थी। रवीन्द्र कालिया को मैंने कविता इसलिए समर्पित की, क्योंकि जिन दिनों वह लिखी जा रही थी, कालिया हमारे ही घर पर मुकीम था, कविता के पहले दो-तीन प्रारूप उसने सुने थे, सराहे थे, कुछ ज़रूरी सुझाव दिये थे। फिर, तब तक उसका वह रूप सामने नहीं आया था जिससे मुझे वितृष्णा हुई थी। ‘आधार’ वाले प्रसंग में भी मुझे ज्ञान से ज़्यादा शिकायत थी। (‘आधार’ की पृष्ठ संख्या पर कालिया के नियन्त्रण के कारण ज्ञान के हाथ बँधे हुए थे, यह बात बाद में साफ़ हुई जब ज्ञान ने मेरी ही नहीं, अन्य लेखकों की भी लम्बी रचनाएँ ‘पहल’ में छापीं जहाँ सब कुछ उसके हाथ में था। यही नहीं, बल्कि जिन्हें विशेष रूप से प्रस्तुत करना था, उन रचनाओं को पुस्तिकाओं की शक्ल में ‘पहल’ की ओर से प्रकाशित किया। जब कि ‘आधार’ से अपना काम सध जाने के बाद कालिया ने ‘आधार’ को डम्प कर दिया और वह अंक एक तरह से ‘आधार’ का समाधि-लेख साबित हुआ। हालाँकि उसके बाद ‘आधार’ के दो-एक अंक निकले, पर वे मृत्यु के बाद मांस के फड़कने की मानिन्द थे।)
मेरी कविता-पुस्तिका के ब्लर्ब पर पन्त जी की एक भूमिका थी। यह भी उन दिनों के साहित्यिक माहौल का आम चलन था कि हम जैसे नौसिखुए कवि, पन्त जी जैसे तपे हुए वरिष्ठ कवियों के साथ अदब से, मगर बराबरी की भावना से, संगत करते थे। मैं उन दिनों अक्सर पन्त जी के यहाँ जाता था। एक दिन उन्होंने कहलवाया कि उन्हें पता चला है मैंने नयी कविता लिखी है, वे सुनना चाहते हैं। पन्त जी के आग्रह पर जब मैंने उन्हें कविता सुनायी और ‘आधार’ वाला प्रकरण बताते हुए यह कहा कि अब मैं इसे पुस्तिका के रूप में छापने की सोच रहा हूँ तो उन्होंने बड़े सहज भाव से प्रस्ताव रखा कि वे उसकी भूमिका लिखना चाहेंगे। मैं थोड़ा हिचकिचाया था। हालाँकि लीलाधर जगूड़ी की तरह मैंने पन्त जी की कविताओं के अकवितावादी ‘अनुवाद’ करके ख़ुद को क्रान्तिकारी साबित करने की कोशिश नहीं की थी, लेकिन मैं पन्त जी को महत्वपूर्ण कवि मानते हुए भी, उनकी अपेक्षा निराला-शमशेर-मुक्तिबोध को अपने ज़्यादा करीब पाता था। लेकिन जब मुझसे कहा गया कि इतने वरिष्ठ कवि का यह प्रस्ताव एक सम्मान की बात है तो मैंने कहा ठीक है, भैये, करा लेते हैं सम्मान, अपनों ने तो हमारी औक़ात हमें जता ही दी है, कविता में कुछ होगा तो रहेगी, वरना डूब जायेगी - पन्त जी की भूमिका समेत। लगे हाथों मैंने कविता से पहले उसकी रचना-प्रक्रिया, वग़ैरा, वग़ैरा पर अपनी तरफ़ से भी दो-तीन पन्ने ख़ासी ऊँचाई से लिख मारे। फ़रवरी 1970 में पुस्तिका प्रकाशित हुई और कुछ महीने बाद ‘सिर्फ़’ में नन्द किशोर नवल ने कविता पर वाचस्पति उपाध्याय की ख़ासी लम्बी समीक्षा प्रकाशित की, जिसमें कविता को, इलाहाबादी शब्दावली में कहें तो, ‘धो कर रख दिया गया था।’ मैंने वह समीक्षा पढ़ी और ऐलान किया कि बनारसी कवि को अपना आसन डोलता नज़र आ रहा है। बनारसी कवि से आशय धूमिल से था, जिनके साथ-साथ वाचस्पति उन दिनों छाया की तरह लगे रहते थे।
(आज, लेकिन, मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि वाचस्पति की समीक्षा से मुझे बहुत फ़ायदा हुआ। बाईस-तेईस साल की कच्ची उमर में लिखी गयी वह लम्बी कविता भले ही पुस्तिका के रूप में छप गयी थी, लेकिन मैंने बाद में भी उसे सुधारना-सँवारना जारी रखा था और इस काम में वाचस्पति की समीक्षा से मुझे काफ़ी मदद मिली और उसे मैंने बाद में ‘वयस्क होते हुए’ के शीर्षक से अपने कविता संग्रह ‘जंगल ख़ामोश है’ में संकलित किया। चूँकि तुलसीदास की उक्ति के अनुसार मुझे भी ‘निज कवित्त’ को ले कर एक मोह रहता ही है, इसलिए यह तो नहीं कह सकता कि कविता इन संशोधनों के बाद निर्दोष हो गयी - यूँ भी उसका एक बुनियादी ख़ाका तो बन ही चुका था - अलबत्ता, यह ज़रूर हुआ कि वह पहले से काफ़ी बेहतर हो गयी। इस नाते मैं वाचस्पति का बहुत कृतज्ञ हूँ।)
(जारी)

Friday, January 21, 2011

देशान्तर



नीलाभ के लम्बे संस्मरण की पांचवीं क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ५








कालिया के आने का असर जल्दी ही दिखायी देने लगा। सतीश जमाली अगर देसी विम्टो की बोतल था जिसके मुँह पर एक कंचा पँ सा होता था और जिसे अँगूठे या और किसी साधन से अन्दर ठेल कर लेमनसोडा पिया जाता था तो कालिया ख़ालिस कोकाकोला की बोतल जिसमें झाग भी ज़्यादा होता है और जिसका मेल शराब के साथ भी बैठता है और शबाब के साथ भी। बाज़ारवाद का प्रभाव भारतीय अर्थनीति पर पड़ने में अभी कई दशक बाक़ी थे, क्योंकि अभी तो नेहरूवियन मॉडेल के विफल होने का मातम मनाया जा रहा था। इसके बाद राजीव गाँधी, चिदम्बरम, मनमोहन सिंह, मोनटेक सिंह अहलूवालिया और नरसिम्हाराव के गिरोह के आने से पहले देश को राष्ट्रीयकरण, ग़रीबी हटाओ, हरित क्रान्ति, आपातकाल, जनता पार्टी की आराजकता और ’84 के दंगों, आदि से गुज़रना था। मगर बज़रिये कालिया साहित्य में उसके संकेत मिलने लगे थे और लूकरगंज को उसकी चपेट में आना ही था। हम चूँकि रानी मण्डी और लूकरगंज के दरम्यान ख़ुसरो बाग रोड के ‘नो मैन्स लैण्ड’ के बाशिन्दे थे, हमारा हश्र तो टोबा टेकसिंह जैसा ही हो सकता था, जो कि हुआ और एक तरह से आज तक जारी है।
जल्दी ही ज्ञान और कालिया में छनने लगी। कालिया का प्रेस रानी मण्डी में था और यह उस जगह के नाम की तासीर थी या माहौल की या फिर वाणिज्य-व्यापार की नगरी बम्बई में प्राप्त प्रशिक्षण की, कालिया ने साहित्य को भी मण्डी की-सी मानसिकता से लेना शुरू कर दिया। बल अब पैकेजिंग और मार्केटिंग पर आ गया। अक्सर कालिया सातवें दशक के कथाकारों के ख़िलाफ़ कमलेश्वर के तथाकथित षडयन्त्र का ज़िक्र करता और फिर उसकी काट ढूँढने का जुगाड़ बैठाता। चूँकि ‘नयी कहानी’ का आन्दोलन मन्द पड़ गया था, राकेश नाटकों की तरफ़ मुड़ गये थे, राजेन्द्र यादव ने ‘मन्त्र विद्ध’ जैसा फ्लॉप उपन्यास लिखने के बाद कहानी से भी हाथ खींच लिया था, इसलिए ‘नयी कहानी’ के तीसरे शहसवार कमलेश्वर ने ‘सचेतन कहानी’ का झण्डा बुलन्द कर रखा था, जो ले दे कर मधुकर सिंह, महीप सिंह और विश्वेश्वर या इब्राहिम शरीफ़ जैसे कथाकारों को ही आकर्षित कर पाया था। चूँकि धूम साठोत्तरी कथाकारों की थी, ‘अणिमा’ का ‘सातवें दशक का कथा विशेषांक’ प्रकाशित हो चुका था, इसलिए कमलेश्वर को जगह-जगह ‘सचेतन कहानी’ की गोष्ठियाँ करनी पड़ रही थीं। कभी पलामू में तो कभी हाथरस में, कभी झुंझुनू में तो कभी बक्सर में। चूँकि कालिया साहित्यिक आन्दोलनों के सिलसिले में पत्रिकाओं के महत्व को जानता था, यह बख़ूबी देख आया था कि धर्मवीर भारती ने ‘धर्मयुग’ के बल पर क्या-क्या मारके फ़तह किये थे, सो उसने भी एक खिचड़ी पकानी शुरू कर दी। कालिया ने ‘हिन्दी भवन’ के नारंग जी से जिस प्रेस को ख़रीदा था, उससे किसी ज़माने में एक पत्रिका छपा करती थी - ‘आधार,’ जिसके सम्पादक रामावतार चेतन थे जो ‘धर्मयुग’ में कालिया के सह-पीड़ित कन्हैयालाल नन्दन के सम्बन्धी थे - शायद साले या बहनोई। प्रेस के साथ इस पत्रिका को छापने का ज़िम्मा भी कालिया के कन्धों पर आया। ‘आधार’ पुरानी पत्रिका थी, शायद पचास के दशक के मध्य से प्रकाशित होना शुरू हुई थी। कला और साहित्य पर केन्द्रित थी। रामावतार चेतन ख़ुद भी चित्रकार थे और आरम्भिक जोश के ख़त्म हो जाने के बाद उसे अनियमित रूप से प्रकाशित किया करते थे। उनमें कुछ साहित्यिक विवेक अवश्य रहा होगा क्योंकि निकट का सम्बन्धी होने के बावजूद उन्होंने कन्हैया लाल नन्दन को, जो औसत से भी कम प्रतिभा और/या अपील के गीतकार थे, प्रश्रय नहीं दिया था। इधर ‘आधार’ के थकने के संकेत मिलने लगे थे। कालिया को चूँकि नारंग जी ने यह सुविधा दे रखी थी कि वह उनका पैसा उनकी किताबों की छपाई करके चुका दे, इसलिए वह उन दिनों निस्बतन निश्चिन्त था। उसकी पत्नी ममता, जो बम्बई के एस.एन.डी.टी. विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी पढ़ाती थी, अभी इलाहाबाद नहीं आयी थी, इसलिए 1969 की उन गर्मियों में कालिया को ख़रमस्तियों के लिए भी खुली छूट मिली हुई थी। 370, रानी मण्डी पर तरह-तरह के लोग जुटते - ‘दिनमान’ के मेधावी, लेकिन तबाहो-बरबाद पत्रकार रामधनी, सतीश जमाली, प्रभात, ज्ञान, मैं - लेकिन सब-के-सब साहित्य से जुड़े लोग। वह सन्दिग्ध क्राउड, जो बाद में कालिया की महफ़िलों में दिखने लगा, अभी नेपथ्य में था। प्रेस ख़रीदने के महीने-दो महीने बाद ही कालिया ने ‘आधार’ को पुनर्जीवित करने की योजना बनायी, नन्दन और चेतन जी से बातचीत करके उसका एक विशेष अंक प्रकाशित करने की सबील बैठायी और ज्ञान को उस विशेष अंक के सम्पादन के लिए राज़ी कर लिया। अब ज्ञान के लिए इलाहाबाद का मतलब ‘इलाहाबाद प्रेस’ हो गया और कालिया के प्रेस में सुबह से शाम तक बैठकी होने लगी। कालिया को यूँ भी कॉफ़ी हाउस और मुरारी’ज़ में कोई दिलचस्पी नहीं थी। वह धर्मवीर भारती का ‘दरबार’ देख आया था और वैसा ही दरबार रानी मण्डी में, जो भारती के मुहल्ले अतरसुइया से सटा हुआ था, लगाने का इच्छुक था। यह कोई छिपी हुई बात नहीं थी कि प्रभात और मैं ज्ञान ही की वजह से वहाँ जाते थे। अगर ज्ञान ने ‘इलाहाबाद प्रेस’ को अपना नया पेट्रोला न बनाया होता तो मुझे यकीन है, बहुत-से लोग कालिया के यहाँ न जाते - ख़ास तौर पर इलाहाबाद में जिनकी कुछ पूछ थी। कालिया को मालूम था कि पत्रिका, प्रेस और प्रकाशन में कितनी शक्ति है। इसलिए उसने पत्रिका के साथ-साथ कुछ और भी योजनाएँ बनायीं। मसलन ‘वर्ष-1’ के नाम से अमरकान्त पर केन्द्रित भारी-भरकम विशेषांक जिसका सम्पादन उसने ममता को सौंप दिया जो बम्बई से इस्तीफ़ा दे कर इलाहाबाद आ गयी थी। इसी के साथ उसने मेरे मामा को, जिन्होंने ‘रचना प्रकाशन’ नाम से नया-नया प्रकाशन खोला था और लोगों से पैसे ले कर उनके शोध-ग्रन्थ छापते थे, तैयार किया कि वे कुछ ‘पुण्य’ का काम भी करें और साठोत्तरी कहानीकारों की रचनाएँ छापें। सों, विजयमोहन सिंह की ‘टट्टू सवार’ के साथ-साथ ज्ञान, काशीनाथ सिंह, महेन्द्र भल्ला, दूधनाथ सिंह, गोविन्द मिश्र, आदि की एक कतार खड़ी हो गयी जिनका लायज़निंग अधिकारी कालिया था। वही काम जो बाद में ‘आधार प्रकाशन’ के सिलसिले में असद ज़ैदी और मंगलेश वग़ैरा ने किया या फिर ‘वाणी प्रकाशन’ के लिए विष्णु खरे ने।
इस सारे काम के साथ-साथ ‘आधार’ की तैयारी भी चलती रही। रचनाएँ मेरे ख़याल से ‘इलाहाबाद प्रेस’ के पते पर ही आती रहीं, क्योंकि ज्ञान ने मुझे सितम्बर 1969 के एक पत्र में लिखा था कि उसे तब तक ‘पूरी जानकारी’ नहीं थी। बहरहाल, अंक कोई हफ़्ते भर में तो तैयार न होता। विशेषांक था। सो, गर्मियों की कुल छुट्टियाँ ज्ञान ने ‘इलाहाबाद प्रेस’ ही में बितायीं। कालिया, ममता और ज्ञान मिल कर कमलेश्वर की साज़िश को नाकाम करने और सातवें दशक के कथाकारों को जमाने की मुहिम में जुट गये। कालिया और ममता को तो मैं बहुत जानता नहीं था, लेकिन ज्ञान का यह रूप मेरे लिए एकदम नया था। (यह भी सम्भव है कि इसके कुछ और भी कारण थे। सम्भव है, अचेतन रूप से ज्ञान को यह एहसास रहा हो कि वह अपना सर्वश्रेष्ठ दे चुका है। वह ‘घण्टा’ लिख कर ‘कथा’ के प्रवेशांक के लिए मार्कण्डेय को दे चुका था। उसके बाद उसने सिर्फ़ दो कहानियाँ लिखीं - ‘बहिर्गमन’ और ‘अनुभव।’ ‘बहिर्गमन’ हालाँकि ‘घण्टा’ के स्तर की नहीं है, लेकिन फिर भी वह ज्ञान के सामथ्र्य का पता देती है। ‘अनुभव’ तो बिलकुल फ्लॉप हुई। उपन्यास ज्ञान लिख नहीं पाया। इसलिए हो सकता है, मन की अनेक परतों के नीचे छिपे किसी अज्ञात भय का कोई हाथ रहा हो।) बहरहाल, मुझको इस सबसे बड़ी उलझन होती थी। मुझे लगता, ये कैसे साहित्यकार हैं। जम कर लिख रहे हैं, चर्चित हो रहे हैं, प्रकाशन की इन्हें कोई समस्या नहीं है, आर्थिक कठिनाइयाँ भी इनके सामने पिछली पीढ़ी के अनेक लेखकों जैसी नहीं हैं। फिर क्यों ये इतने आशंकित-आतंकित रहते हैं ? यह बात मैं कई बार ज्ञान और कालिया से कह भी देता था। उन्हें नागवार भी गुज़रती थी। दिलचस्प बात यह थी कि दूधनाथ इस बात से बिलकुल अलग-थलग बना हुआ था। उसे मैंने कभी अनाश्वस्त नहीं देखा। दरअस्ल, कालिया पर मोहन राकेश और धर्मवीर भारती का बहुत असर था। उसने इन दोनों से कहानी-कला का गुण कम सीखा था, गुट्टीबाज़ी और ताल-तिकड़म की कला ज़्यादा ग्रहण की थी। नतीजे के तौर पर कालिया के लिए साहित्य सामाजिक सरोकार की नहीं, वरन कैरियर की सीढ़ी थी। इसीलिए जैसे ही ‘आधार’ के विशेषांक का सम्पादन शुरू हुआ तो कालिया ने अपनी चोर चालें शुरू कर दीं।
उन दिनों अशोक वाजपेयी कलेक्टर हो कर सीधी आ गये थे और गाहे-बगाहे इलाहाबाद आया करते थे। धूमिल को उन्होंने उन्हीं दिनों डिस्कवर किया था, कविता में सपाट बयानी के गुण गाते थे, एक ‘मुक्तिबोध पुरस्कार’ की भी योजना उन्होंने बना रखी थी, जिसमें नेमिचन्द्र जैन, भारत भूषण अग्रवाल से ले कर नामवर सिंह आदि तक, निर्णायकों की पचमेल खिचड़ी थी, और पहला पुरस्कार वे धूमिल को देना चाहते थे। ‘आधार’ का सम्पादन चूँकि अब ‘सामुदायिक विकास योजना’ था इसलिए उनके और कालिया के कहने पर ज्ञान ने धूमिल की एक कविता अशोक वाजपेयी के वक़्तव्य के साथ प्रकाशित करने के लिए स्वीकृत की। दिलचस्प बात यह थी कि उसी अंक में ज्ञान ने विनोदकुमार शुक्ल की एक लम्बी कविता ‘लगभग जयहिन्द’ भी स्वीकृत की थी, और हालाँकि बाद में विनोद कुमार शुक्ल अशोक वाजपेयी के ख़ासमख़ास बने और अशोक उन्हें दसियों तरह लिये-लिये रहे, यहाँ तक कि अभी कुछ वर्ष पहले पोलिश कवि तादेउष रोज़ेविच के सिलसिले में अनेक हकदार लोगों को नज़रन्दाज़ करके शुक्ल जी को पोलैण्ड भी ले गये, पर ‘आधार’ के उस अंक में वक्तव्य अशोक ने धूमिल पर ही लिखा। यह भी रोचक है कि अकवियों को उनकी विचारशून्यता के लिए लताड़ने वाले अशोक वाजपेयी को धूमिल की कविता के वैचारिक अन्तर्विरोध नज़र नहीं आये। और यह भी कि कुछ ही साल बाद अशोक जी सपाट बयानी की लानत-मलामत करने लगे और पेड़-पौधा-फूल-बच्चा अन्वेषक मण्डल के रहबर बन गये।
ख़ैर, उन दिनों मैंने भी एक लम्बी कविता लिखी थी जो कई हादसों का शिकार हो गयी थी। दरअस्ल, कविता तो मैं 1967 के दिसम्बर में अपने संग्रह के प्रकाशित होने के बाद ही से लिखने लगा था और वह धीरे-धीरे रुक-रुक कर बढ़ती रही थी। जब कालिया नवम्बर में इलाहाबाद आया तो मैं कविता को मुकम्मल करने का इरादा बाँध रहा था। कालिया ने उसके कई अंश सुने थे और कहा था कि मैं उसे पूरा करूँ, वह ‘आधार’ का कुछ डौल बैठा रहा है, बैठ गया तो कविता छाप देगा। मैंने कविता पूरी करके उसका अन्तिम प्रारूप तैयार कर लिया। लेकिन ‘आधार’ का कुछ अता-पता ही नहीं था। तभी कानपुर से हृषीकेश आये और उन्होंने बताया कि वे ‘शतपथ’ के नाम से एक पत्रिका प्रकाशित करने जा रहे हैं, मैं यह कविता उन्हें प्रवेशांक के लिए दे दूँ। उन दिनों एक नये कवि के लिए यह प्रस्ताव कितना आकर्षक था, इसे आज के नये कवि जो छोटी-छोटी कविताएँ लिखते हैं, नहीं समझ सकते। कविता लगभग तीसेक पृष्ठ की थी और चूँकि हम लोगों ने सिर्फ़ छोटी पत्रिकाओं में ही लिखने का व्रत ले रखा था (मेरी कोई रचना ‘धर्मयुग’ या ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में नहीं छपी), इसलिए उसका छपना वैसे भी मुश्किल था क्योंकि बहुत-सी छोटी पत्रिकाएँ तो इतने ही पृष्ठों की होती थीं। आज तो ख़ैर सेठों की रंगीन, चिकनी, व्यावसायिक पत्रिकाओं का विरोध करने वाली लघु पत्रिकाएँ ख़ुद चिकनी, रंगीन और व्यावसायिक ही नहीं, स्थूलोदर भी हो गयी हैं, मगर वह ज़माना दूसरा था। यही नहीं, बल्कि अभी वह प्रथा भी शुरू नहीं हुई थी जब लघु पत्रिकाएँ लम्बी कविताओं को अलग से छोटी पुस्तिकाओं के रूप में छापने लगीं। लिहाज़ा, मैंने कविता हृषीकेश को दे दी। इसके कुछ ही दिन बाद मुझे नामवर जी का एक पत्र मिला कि उन्हें किसी ने बताया है कि मैंने एक लम्बी कविता लिखी है। अगर मैं चाहूँ तो उन्हें भेज दूँ, वे उसे ‘आलोचना’ में प्रकाशित करने की सोच सकते हैं। मैंने नामवर जी को सारी स्थिति से अवगत करा दिया। नामवर जी को शायद यह बात नागवार गुज़री कि हिन्दी के एक अदना-से कवि ने उनका आग्रह नहीं माना, क्योंकि दो-एक महीने बाद जब यह साफ़ हो गया कि हृषीकेश ‘शतपथ’ नहीं निकाल पायेंगे और मैंने कविता नामवर जी को भेजनी चाही और उन्हें पत्र लिखा तो नामवर जी ने उस पर विचार करने से भी मना कर दिया।
इस बीच ‘आधार’ की योजना बन चुकी थी। कालिया ने एक तीर से कई निशाने साधने के लिए उसका सम्पादन मूल योजना के अनुसार ख़ुद करने बजाय ज्ञान को सौंप दिया था। अब वह छाया-सम्पादन भी कर सकता था और ज्ञान को अपने साथ मिलाये भी रख सकता था। चूँकि ज्ञान और कालिया, दोनों मेरी कविता सुन चुके थे, सराह चुके थे, इसलिए जब ‘आधार’ के निकलने की बात पक्की हुई तो मुझे बड़ी आशा बँधी कि इसमें कविता छप जायेगी। ज्ञान ने एक अस्पष्ट-सी हामी भी भर दी थी। लेकिन जैसे-जैसे विशेषांक का काम बढ़ा, कालिया ने अपनी पैंतरेबाज़ी तेज़ कर दी। सबसे पहले तो उसने धूमिल और विनोदकुमार शुक्ल पर कसीदे कहने शुरू किये। इसमें किसी को क्या एतराज़ होता, पर उद्देश्य कुछ और ही था। यह चाल थी ज्ञान को प्रसन्न किये रखने की। फिर कालिया, ने बड़ी चाबुकदस्ती से इस बात का प्रबन्ध किया कि उसकी भी कहानी विशेषांक में शामिल हो और सिर्फ़ शामिल ही न हो, बल्कि उस पर भी, विशिष्ट रचना के नाते, वैसी ही टिप्पणी जाये जैसी धूमिल की कविता पर जा रही थी। (विडम्बना यह है कि धूमिल की कविता पर टिप्पणी अशोक लिख रहे थे, कालिया को कहानी पर टिप्पणी लिखने के लिए कौन मिला - कोई नया या सहकर्मी लेखक नहीं, बल्कि आबाल वृद्ध डॉ. बच्चन सिंह!) कालिया की यह फ़ितरत थी। उसके यहाँ अगर कोई लेख छपने के लिए आया होता, वह कहानी पर होता, तो कालिया उसमें अपना नाम जोड़ देता, या किसी विरोधी का नाम काट देता। इसे मैं ज्ञान की दोस्तनवाज़ी ही कहूँगा कि उसने विशेषांक के सम्पादन में कालिया की दस्तन्दाज़ी को चलने दिया। बाद में जब कालिया ने भैरव जी के साथ ऐसा करने की कोशिश की थी तो भैरव जी ने उसे बुरी तरह डपट दिया था। मगर ज्ञान यार-बाश था और कालिया के इन हस्तक्षेपों को सहयोगी स्पिरिट में लेता था। लेकिन इस सब का नतीजा यह हुआ कि ‘आधार’ की सामग्री का जब अन्तिम चयन होने लगा तो अंक छपने से ठीक पहले ज्ञान ने मेरी कविता यह कह कर वापस कर दी कि रचनाएँ बहुत आ गयी हैं, सब लम्बी हैं, पृष्ठ संख्या कम पड़ गयी है, मैं कोई छोटी रचना दे दूँ। इसमें ऑपरेटिव क्लॉज़ पृष्ठ संख्या का था, क्योंकि वही एक चीज़ थी जिस पर कालिया का पूरा नियन्त्रण था और जिसे वह अपनी-सी करवाने के लिए इस्तेमाल कर सकता था और बेदाग़ भी बना रह सकता था। मुझे बुरा इस बात का भी लगा कि ज्ञान एक दिन अचानक बिना बताये जबलपुर चला गया था और वहाँ से उसने मुझे पत्र लिख कर कविता के लिए मना कर दिया था। अगर सचमुच यह उसका अपना निर्णय होता तो भी शायद मुझे बुरा न लगता। लेकिन मैं तब तक कालिया की हिट लिस्ट में आ गया था और कालिया ने तय कर लिया था कि वह अगर ख़ुद मुझे धूल नहीं चटा सकता तो यह काम ज्ञान से कराके दोहरा प्रतिहिंसक आनन्द ले। उसने सामग्री और अंक की पृष्ठ संख्या के बारे में अन्त तक अलसेठ डाले रखी थी। मुझे इस बात का भी बहुत बुरा लगा था कि ज्ञान ने आमने-सामने बात करने की बजाय चिट्ठी-पत्री का सहारा लिया था। मैंने ज्ञान को पत्र लिख कर समझाया कि मित्र, तुम इस कविता के साथ गुज़रे हादसों से परिचित हो, इस कविता को सराह चुके हो, अगर तुम गुंजाइश न निकालोगे तो और कौन निकालेगा। ऐसे मरहलों पर दोस्त ही मददगार साबित होते हैं। यूँ भी ‘आधार’ में दस-बीस पृष्ठ बढ़ जाने से कोई कहर नहीं टूटने वाला था। रामावतार चेतन कालिया पर नालिश न करते। लेकिन कालिया ने ज्ञान के गिर्द ऐसी फ़ोर्स फ़ील्ड रच दी थी कि उस पर मेरे किसी तर्क का असर नहीं हुआ। मैं बहुत विक्षुब्ध हुआ और मैंने फ़ैसला किया कि ज्ञान को कोई रचना न दूँ। लेकिन तब मेरे पिता ने कहा कि ऐसा करना कालिया की साज़िश को पूरी तरह सफल होने देना होगा। मुझे ज्ञान पर क्रोध करने की बजाय उसे कोई और रचना दे देनी चाहिए। मैंने ज्ञान को दूसरी कविता दे दी जो ‘आधार’ के उस अंक में छपी। लेकिन मेरे दिल में खटक रह गयी। ज्ञान के साथ दोस्ती के दौरान यह दूसरा झटका था।
(जारी)

Thursday, January 20, 2011

देशान्तर


नीलाभ के लम्बे संस्मरण की चौथी क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - ४




दरअसल, यह मध्यवर्गीय सामाजिक परिवेश की एक विडम्बना ही है कि जैसे-जैसे हम बचपन से किशोरावस्था और किशोरावस्था से यौवन और परिपक्वता की तरफ़ बढ़ते हैं, हम अपनी सहज अबोधता खोते चले जाते हैं। हमारी नैसर्गिक निश्छलता पर अनेक तरह की परतें चढ़ती चली जाती हैं और सम्बन्धों में भी जो पारदर्शिता रहनी चाहिए, वह नहीं रह पाती। मैं तब इस तथ्य से वाकिफ़ नहीं था और एक तरह से लगभग उसी मनोलोक में विचरण कर रहा था जिसका ख़ाका बच्चन जी ने ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’ में अपने और कर्कल और श्रीकृष्ण के सिलसिले में पेश किया है, या फिर जिसे अमरकान्त ने अपने अद्भुत लघु उपन्यास ‘सूखा पत्ता’ में चित्रित किया है। शायद यह भी इस सामाजिक अप्रेण्टिसशिप ही का तकाज़ा है कि हम ठोकरें खा कर ही सीखते हैं। ज्ञान के सिलसिले में मैं इतना निष्कवच, इतना वल्नरेबल था कि उसके साथ सम्बन्धों का यह जटिल शंक्वाकार चक्कर कई सोपानों से हो कर गुज़रा।
पहला झटका भूकम्प के संकेत जैसा बेहद हलका था। एक दिन ज्ञान के घर पहुँचने पर पता चला कि वह फ़रार है। कहाँ गया है, कब आयेगा, इसकी कोई सुन-गुन वह नहीं छोड़ गया था। दो-तीन तक ज्ञान का कुछ सही अता-पता नहीं चला। फिर धीरे-धीरे राज़ खुला कि ज्ञान ने सुनयना से शादी कर ली है। वह गुपचुप सुनयना से मिलता रहता था, यह बात मुझे मालूम थी। कई बार मैं उसके यहाँ जा रहा होता तो सुनयना उसके घर से लौटती हुई दिखाई देती। वह भी लूकरगंज ही में रहती थी। उसके पिता सूर्यनाथ नागर वैद्य थे और नरेश जी (कवि-कथाकार नरेश मेहता) की गली के सिरे पर उनका बड़ा-सा मकान था, हमारे घर और ज्ञान के घर के लगभग बीचों-बीच। लेकिन ज्ञान कायस्थ था और नागर जी को अपने गुजराती ब्राह्मण होने का गर्व। ऊपर से मुहल्ले का मामला और तमाम तरह के प्रवादों और हंगामों की आशंका। साठ के दशक का लूकरगंज अभी इतना आधुनिक नहीं हुआ था। वह प्रेम को तो बरदाश्त कर सकता था, बशर्ते कि वह गुपचुप हो। लेकिन उसकी स्वाभाविक परिणति यही होती थी कि प्रेमी-प्रेमिका परम चूतियाये से ‘एक प्राण दो शरीर’ और ‘अलग हो कर भी सदा सर्वदा तुम्हारा (या तुम्हारी)’ होने की क़समें खाते या ‘तुम मुझे भुला देना’ जैसे वाक्य दोहराते हुए, माता-पिता द्वारा तय किये गये रिश्तों को स्वीकार कर ‘सुखी जीवन’ बिताते हुए अन्त को प्राप्त होते। भागने-भगाने, प्राणों की आहुति देने या बंगालियों की प्रबल उपस्थिति के बावजूद देवदास बनने का कोई प्रकरण इस योजना में फ़िट नहीं बैठता था। इसीलिए हम सब उसके इस साहसिक प्रेम से रोमांचित होते रहते थे। मेरे मन में चूँकि शुरू ही से घर और स्कूल में यह बैठा दिया गया था कि दूसरों की निजी ज़िन्दगी में बहुत खोदा-खादी नहीं करनी चाहिए, इसलिए इस विषय में जितना कुछ ज्ञान बताता, मैं उससे ज़्यादा अपनी तरफ़ से उत्खनन करने का प्रयत्न न करता। लेकिन मुझे झटका इसलिए लगा क्योंकि इस राज़दारी की एक सीमा अचानक ही निर्धारित कर दी गयी थी और सीमा ज्ञान ने ‘बोल्ट फ़्रॉम द ब्लू’ की तरह आयद की थी। हो सकता है, जैसा कि मैंने कहा, मैं ख़ुद को ज्ञान के इतना क़रीब मानने लगा थ कि मुझे उम्मीद थी कि मैं अन्त तक उसके विश्वास का पात्र बना रहूँगा। मैं ख़ुद ज्ञान को बहुत-सी बातें बता देता था, जिन्हें मैंने सबसे छिपा कर मन में रखा होता। बहरहाल, ज्ञान और सुनयना का विवाह जल्द ही दोनों परिवारों को इतना भर स्वीकृत हो गया कि उन्हें छिपे रहने की ज़रूरत न पड़ी। बनारस और कुछ अन्य नगर घूम-घाम कर वे कुछ ही दिनों में वापस आ गये और खुल कर सबसे मिलने लगे। मगर मेरे सामाजिक प्रशिक्षण में यह एक इबरतनाक वाकया था।
चूँकि ज्ञान मुख्य रूप से इस कोर्टशिप की वजह से इलाहाबाद में डटा हुआ था, इसलिए विवाह के बाद उसने जबलपुर जा कर फिर से अध्यापन शुरू कर दिया। लेकिन इसके बावजूद उन तमाम वर्षों के दौरान - ग़ालिबन जब तक उसने ‘पहल’ का सम्पादन नहीं शुरू किया - वह अक्सर इलाहाबाद आता और दिनों-दिन बना रहता। जैसे पक्षी नये नीड़ बनाते वक़्त भी कुछ समय तक अपने पुराने घोंसलों की ओर पलट-पलट आते हैं, ज्ञान भी दौड़-दौड़ इलाहाबाद चला आता था। उसने मुझे एक पत्र में लिखा भी था कि इलाहाबाद से जबलपुर जाना वह भावनात्मक स्तर पर सह नहीं पा रहा था। इसलिए बीच-बीच में तरोताज़ा होने के लिए वह जबलपुर से इलाहाबाद चला आता। और उन दिनों, जब भी ज्ञान इलाहाबाद रहता, उसका वही पुराना मस्त रंग उभर आता।
1960 के दशक का इलाहाबाद था भी बहुत जीवन्त। यह शहर का उत्कर्ष काल था - हर लिहाज़ से। लेकिन यह जीवन्तता बहुत दिनों तक कायम नहीं रहने वाली थी। कुछ तो सत्तर का दशक शुरू होने के बाद बदलती हुई सामाजिक-राजनैतिक और आर्थिक परिस्थितियों ने इसका ‘राम नाम सत्त’ कर दिया, रही-सही कसर बाहर से आने वाले कुछ ऐसे लोगों ने पूरी कर दी, जिन्हें यह अन्दाज़ा ही नहीं था कि वे किस चीज़ को नष्ट किये दे रहे हैं। बाहर से आने वालों में पहला नाम सतीश जमाली का था और दूसरा रवीन्द्र कालिया का। ताराशंकर बन्द्योपाध्याय ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘आरोग्य निकेतन’ में तरह-तरह की बीमारियों की चर्चा की है। कुछ बीमारियाँ तो अन्दर ही से पैदा होती हैं, पूर्वजों की देन हैं वे या फिर स्वयं अपने अमिताचार की। लेकिन कुछ बीमारियाँ वैशाख की आँधी की तरह बाहर से आती हैं। तारा बाबू ने इन्हें ‘आगन्तुक व्याधियों’ का नाम दिया है। इलाहाबाद के बहुत-से लोग सतीश जमाली और रवीन्द्र कालिया को उनके पीठ पीछे आगन्तुक व्याधियाँ ही कहा करते थे।
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पठानकोट का सतीश स्याल उर्फ़ प्रिंस सतीश प्रेमी किन रासायनिक प्रक्रियाओं से होता हुआ सतीश जमाली बना, इसे उसके अलावा शायद और कोई नहीं जानता। लेकिन जनवरी 1968 में इलाहाबाद आने से ठीक पहले वह सोनीपत में ऐटलस साइकिल में काम करता था, अकवितावादियों की जमात में शामिल था और अकविता के झण्डाबरदारों से भी ज़्यादा वीभत्स, कुत्सित, अनास्था-भरी और विचारशून्य कविताएँ लिखता था। जगदीश चतुर्वेदी, नरेन्द्र धीर और सौमित्र मोहन, वग़ैरह ने तो ख़ैर एक ख़ास किस्म की सोच के तहत अकविता का आन्दोलन खड़ा किया था, जो नेहरू युग से मोहभंग का कृष्ण पक्ष था। मगर सतीश जमाली के सामने इस सोच-वोच का कुछ मतलब नहीं था। वह तो किसी तरह चर्चा में आना चाहता था, इसलिए उतनी ही झूठी और फ़े क ‘अकविताएँ’ लिखता था, जितनी फ़ेक और झूठी जनोन्मुख रचनाएँ उसने बाद में अचानक रातों-रात चोला बदल कर भैरव-मार्कण्डेय-अमरकान्त-शेखर जोशी के वामपन्थी ख़ेमे का पाँचवाँ सवार बनने के बाद लिखनी शुरू कीं। सतीश के इलाहाबाद आने से पहले ही यह ख़बर इलाहाबाद पहुँच चुकी थी कि श्रीपत जी रामनारायण शुक्ल की ख़ाली की हुई जगह को भरने के लिए ‘कहानी’ में सहायक सम्पादक के तौर पर उसे ला रहे हैं। उन्हीं दिनों दिसम्बर 1967 में जब मैं दिल्ली गया हुआ था और मेरे चाचा नरेन्द्र शर्मा ‘मेनस्ट्रीम’ के हिन्दी संस्करण ‘मुक्तधारा’ को निकालने की तैयारियाँ कर रहे थे जिसमें न केवल अश्क जी और मैंने दिल्ली आ कर हाथ बँटाने का वादा कर रखा था, बल्कि इलाहाबाद से अवध प्रताप सिंह और त्रिलोकी नाथ श्रीवास्तव जैसे युवा पत्रकारों को भी उसके सम्पादकीय विभाग में नियुक्त करवाने का बीड़ा ले रखा था, एक शाम कनाट प्लेस के टी हाउस के बाहर मुझे मझोले कद का एक पतला-छरहरा, गोरा युवक मिला, जिसके प्रेत-सरीखे निर्वर्ण चेहरे पर गहरी लाइनें पड़ी हुई थी। वह ड्रैकुला का हिन्दुस्तानी संस्करण जान पड़ता था। उसने बड़ी गर्मजोशी से हाथ मिलाते हुए बताया कि वह सतीश जमाली है और जल्द ही इलाहाबाद आ रहा है। मैंने उससे कहा कि वह चिन्ता न करे, यह ख़बर इलाहाबाद पहुँच चुकी है।
‘मुक्तधारा’ के सिलसिले में अश्क जी को तीन-चार महीने दिल्ली रहना पड़ा, मैं भी दो-तीन बार गया-आया। आख़िरी बार मार्च में जब मैं अपनी सगाई कराके लौटा तो इस बीच सतीश जमाली इलाहाबाद आ कर जम चुका था और शुरू-शुरू में विश्वविद्यालय के पास ग़ालिबन कर्नलगंज के सामने ‘प्रभात होटल’ में रहता था। चूँकि ‘कहानी’ का कार्यालय सिविल लाइंस के चौराहे पर ‘सरस्वती प्रेस’ में था इसलिए उसका दफ़्तर भी हमारी यायावरी का एक पड़ाव हो गया। प्रभात का क़ारूरा तो ख़ैर, सतीश से बहुत नहीं मिला, लेकिन ज्ञान और मैं अक्सर ‘सरस्वती प्रेस’ की सीढ़ियाँ चढ़ कर ‘कहानी’ के दफ़्तर चले जाते जहाँ उस गोल कमरे में जिसकी खिड़कियाँ चौराहे की तरफ़ खुलती थीं सतीश बैठा ‘कहानी’ का काम कर रहा होता। उसी की बग़ल में उसके सहायक डॉ. धनंजय पाण्डे बैठे होते, जो ईश्वर शरण कॉलेज के हिन्दी विभाग में बतौर अध्यापक नियुक्त होने से पहले ‘कहानी’ में काम करते थे और डॉ. धनंजय के नाम से धड़ाधड़ समीक्षाएँ और आलोचनात्मक लेख लिख कर अपना सिक्का जमाने की कोशिशें कर रहे थे। कॉलेज में नियुक्त होने के बाद वे भी उन हज़ारों-हज़ार साहित्याकांक्षी युवकों की तरह हिन्दी विभाग द्वारा उदरस्थ कर लिये गये जो बड़े मंसूबे बाँध कर दुनिया फ़तह करने चलते हैं, मगर किसी कॉलेज या दफ़्तर या व्यापारिक संस्थान या बैंक में गुम हो जाते हैं। कभी-कभी सतीश काम ख़त्म करके पाँच-साढ़े पाँच बजे हमें कॉफ़ी हाउस या मुरारी’ज़ में आ मिलता।
मैंने तब तक प्रकाशन का काम देखना शुरू कर दिया था, लेकिन अभी मैं उसमें रमा नहीं था, इसलिए थोड़ा-सा बहाना मिलते ही भाग निकलता। कॉफ़ी हाउस उसी दरबारी बिल्डिंग में था जिसमें हमारा प्रकाशन। हमारे साथ ही ‘लोकभारती प्रकाशन’ था। दौ सौ क़दम के फ़ासले पर ‘सरस्वती प्रेस’ और उसी इमारत में नीचे मुरारी’ज़। लिहाज़ा दोपहर बाद से ही लोगों का जुटना शुरू हो जाता। प्रभात कल्याणी देवी पर रहता था। फ़ुलवक़्ती कवि था। (ज्ञानेन्द्रपति ने तो अपनी स्वाभाविक चतुराई से कारा कल्याण अधिकारी के पद पर दस साल काम करके और कुछ अन्य अनुल्लेखनीय तरीकों से ‘कविता का कार्यकर्ता’ बनने के लिए पेंशन आदि का जुगाड़ कर लिया और यूँ भी वह अत्यन्त सम्पन्न परिवार से है), लेकिन प्रभात हिन्दी कवियों की पुरानी परम्परा को भी एक क़दम आगे बढ़ाने के फेर में था। उसने निराला या शमशेर की तरह भी जीविकोपार्जन का कोई डौल कभी नहीं बिठाया था। मानव जी स्थानीय कॉलेज में अध्यापक थे और अध्यापन के अलावा भी किताबें वग़ैरा लिख कर आमदनी के साधन जुटाते थे। प्रभात के अलावा उनके और भी बच्चे थे। लेकिन प्रभात की कविताई में उन्हें जाने कैसी घातक आस्था थी कि न तो कभी उसके पढ़ाई छोड़ने पर उन्होंने कुछ कहा, न काम न करने पर। ऊपर से वे उसे रोज़ के ख़र्च के लिए कुछ पैसे भी देते थे। सस्ती का ज़माना था। चाय का कप दस पैसे में और कॉफ़ी चवन्नी में मिलती थी। प्रभात कल्याणी देवी से रोज़ पैदल कॉफ़ी हाउस आता।
सतीश उन दिनों इलाहाबाद के गणित को समझने की कोशिश कर रहा था और इलाहाबादी उसे परम ज़ायका तत्व मान कर उसका ‘भक्षण’ करते रहते। एक दिन ज्ञान और मैंने मिल कर उसे विश्वास दिला दिया कि दुर्दिन में बड़े-बड़े साहित्यकारों का स्खलन हुआ है और यह जो ‘भाँग की पकौड़ी’ के नाम से अश्लील साहित्य फ़ुटपाथों पर या सन्दिग्ध क़िस्म की किताबों की दुकानों पर मिलता है, उसकी बहुत-सी किताबें दरअस्ल कमलेश्वर ने लिखी हैं। कुछ दिन बाद दूधनाथ ने उससे कहा कि इलाहाबाद में हाल-चाल पूछने पर जवाब देने का एक ख़ास तरीका है। जब वह लोगों से मिले और लोग उसका हाल-चाल पूछें तो उसे कहना चाहिए - जी, मैं तो मउगड़ा हूँ।
उधर, सतीश ने अपना चर्ख़ा शुरू कर दिया। इलाहाबाद में थोड़े-बहुत पैर जमते ही उसने, दिल्ली के उसके दोस्तों की भाषा में कहें तो, गन्द फैलाना शुरू कर दिया। वह कई बार बड़े सीधेपन से दूसरे के मुँह पर बड़ी आपत्तिजनक बात कह जाता और कोई-न-कोई टुच्ची बात कह कर अगले आदमी को अप्रतिभ करने की कोशिश करता। इस चक्कर में वह कई बार पिटते-पिटते बचा। जब वह देखता कि ख़ुद कुछ नहीं कर पायेगा तो वह किसी और मूर्ख को बन्दूक की तरह इस्तेमाल करता। इसी तरह उसने एक बार डॉ. धनंजय से मेरे बारे में एक झूठा पत्र पटना से डॉ. गोपाल राय के सम्पादन में निकलने वाली ‘समीक्षा’ पत्रिका में छपवा दिया था, जिसके लिए डॉ. धनंजय को लिखित माफ़ी माँगनी पड़ी थी। दिल्ली में अगर सतीश ने अकविता का दामन थामा हुआ था तो इलाहाबाद में उसने कम्यूनिस्टों का दामन पकड़ लिया। वैसे, उसकी असलियत क्या थी, यह कोई नहीं जानता था। लोग उसे सी.आई.ए. के एजेंट से ले कर पाकिस्तान में भारत का जासूस तक मानते थे और वह भी इन अफ़वाहों को अपनी बातों और हरकतों से हवा देता रहता। एक तरफ़ उसकी बैठकी हम लोगों के साथ थी, दूसरी तरफ़ उसने भैरवप्रसाद गुप्त और उनकी मण्डली की सदस्यता ली हुई थी और तीसरी तरफ़ वह जालन्धर के मोटर पार्ट्स विक्रेता हरनाम दास सहराई के इलाहाबाद आने पर उसके साथ घूमता-फिरता पाया जाता। सहराई ने पंजाबी में बड़े मोटे-मोटे ऐतिहासिक उपन्यास लिख रखे थे और वृन्दावन लाल वर्मा को भी अपने सामने हेच समझता था। वह धन्धे के सिलसिले में तो इलाहाबाद आता ही था, लगे हाथ अपना कोई उपन्यास अनुवाद या प्रकाशन के लिए भी लिये रहता। बम्बई की प्रकाशन संस्था ‘वोरा एण्ड कम्पनी’ ने, जिसकी शाखा इलाहाबाद में थी, शायद उसके कुछ उपन्यास छापे थे, कुछ ‘लोकभारती’ ने। सतीश ने भी शायद उसके किसी उपन्यास का अनुवाद किया था। लेकिन सतीश की असली दिलचस्पी सहराई की मुफ़्त की दारू पीना था। सहराई अक्सर ज़्यादा पी लेता और टुन्न हो जाता। ऐसे में ही एक बार वह स्टेशन की सीढ़ियों से गिर गया और चोट खा गया तो अगले दिन उसने भयंकर गालियाँ हवा में फेंकते हुए लोगों को बताया कि सतीश उसे चोटिल हालत में ही छोड़ कर भाग गया था।
बहरहाल, वक़्त ने लकड़बग्घे की वह नकली खाल घिस डाली जो सतीश ने ओढ़ रखी थी और अन्दर से वह एक मरकहा मेढ़ा निकल आया। लोगों को सींग मारने की आदत तो उसकी नहीं गयी, पर धीरे-धीरे इलाहाबाद ने उसे एक क्रॉनिक बीमारी की तरह स्वीकार कर लिया। सतीश ने भी इसी शरण्य में डेरा जमा लिया। एक स्थानीय भटनागर परिवार में शादी की, ‘कहानी’ छोड़ कर हिन्दी की गौरवशाली लेखक-प्रकाशक परम्परा में अपना ‘चित्रलेखा प्रकाशन’ खोला, पत्रिका निकाली और दसियों तरह के पापड़ बेले। कहानियाँ वह अब भी यदा-कदा लिखता है, लेकिन गठिये ने उसे काफ़ी मन्द कर दिया है।
पठानकोट का प्रिंस सतीश ‘प्रेमी’ और दिल्ली-इलाहाबाद का सतीश जमाली अब अंग्रेज़ी मुहावरे के अनुसार ‘रिवर्सल टू टाइप’ की प्रक्रिया से सतीश कुमार स्याल बन गया है, जैसा कि उसके बेटे की शादी के कार्ड पर छपा था। हाल में, जब से हिन्दुस्तान में मीडिया ने आतंकवाद का भूत जगाना शुरू किया है, सतीश अब ‘जमाली’ से भी घबराने लगा है। पिछले दिनों यह सोच कर कि स्याल का उसका कुल नाम भी इधर के लोग समझें या न समझें, या कहीं रॉ के लोग यह न समझ लें कि उसने ’सतीश’ को तख़ल्लुस की तरह असली नाम के पहले जोड़ रखा है, उसने सतीश कुमार खत्री का नाम अपनाने की भी सोची। अपनी अकवितावादी रचनाओं को वह अब तस्लीम नहीं करता और बेटे की शादी में एक परम्परागत पंजाबी बना हुआ था। पिछले कई वर्षों से वह अपने संस्मरण लिख रहा है।
एक विफल रचनाकार कितना कटखना और द्वेषग्रस्त हो सकता है, इसका सबूत यह है कि वर्षों से सतीश ने नये लेखकों को निरुत्साहित करने का बीड़ा उठा रखा है। अपने ठेठ पठानकोटी लहजे में वह पूछता है, ‘लिखने से क्या होगा जी ? क्या मिलेगा ? देखो यशपाल को। मुक्तिबोध को देखो। क्या बना लिखने से ?’ वह एक के बाद दूसरा नाम गिनाता है और यह निष्कर्ष निकालता है कि साहित्य-वाहित्य सब बेकार का मशग़ला है। उसके साथ ऐसी ही एक मुलाक़ात के बाद युवा कवि अनिल सिंह मेरे पास काफ़ी त्रस्त-ध्वस्त आया था। और उसे नॉर्मल करने में मुझे दो घण्टे लग गये थे।
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सतीश जमाली का आना अगर इलाहाबाद में आने वाली तब्दीलियों का संकेत था तो रवीन्द्र कालिया का आना उन तब्दीलियों का पहला चरण। यूँ तो मैं चार साल पहले 1964 में ‘परिमल’ के कहानी सम्मेलन के दौरान कालिया से मिल चुका था, लेकिन वह मिलना, बस मिलना ही था। अलबत्ता, अश्क जी से उसकी ख़तो-किताबत थी। कालिया भी जालन्धर ही का रहने वाला था, इस नाते ख़ुद को हमारा हमवतनी मानता था। चूँकि वह मोहन राकेश का शिष्य रह चुका था जिनसे हमारे गहरे पारिवारिक ताल्लुक़ात थे, इसलिए भी वह हमारे लिए क़ुरबत महसूस करता था। रहा हमारा परिवार, तो वह वैसे ही बहुत खुला था, ऊपर से अगर कोई जालन्धर का हुआ तो नैकट्य की अनुभूति और सघन हो जाती थी। लेकिन इस सबके बावजूद कालिया एक ‘आउटसाइडर’ ही था। जालन्धर से निकलने के बाद उसने कई तरह के पापड़ बेले थे। हिसार में अध्यापन, केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय में नौकरी और ‘धर्मयुग’ में धर्मवीर भारती के मातहत अपने जैसे दूसरे कई लोगों के साथ उप-सम्पादकी। कालिया ने कुछ चर्चित कहानियाँ लिखी थीं, जिनमें ‘नौ साल छोटी पत्नी’ की चर्चा कहानी की ख़ूबियों के कारण नहीं, बल्कि इसलिए रही थी कि कुमार विकल को शक गुज़रा था कि यह कहानी कालिया ने उस पर लिखी है और उसने कालिया की पिटाई कर दी थी। कालिया की शुरू की कहानियों पर एक ही साथ राकेश और हैमिंग्वे का असर था। उसकी कहानियों में अक्सर जुमलेबाज़ी के पैंतरे भी होते, मगर जिस जुमलेबाज़ी को ज्ञान अन्त तक शमशीर की तरह इस्तेमाल करता रहा, वह कालिया के हाथों में आ कर धीरे-धीरे कपड़े पीटने वाली मुँगरी बनती चली गयी और सामाजिक ताने-बाने के फूसड़े उड़ाने लगी। आगे चल कर यह ‘ए बी सी डी,’ और ‘रूप की रानी चोरों का राजा’ जैसी कहानियों के लद्धड़ गद्य में और ‘ग़ालिब छुटी शराब’ के अन्तर्दृष्टिविहीन छिछलेपन को प्राप्त होने वाली थी, जिसमें पिछले चालीस वर्षों के दौरान कालिया के उत्तरोत्तर स्खलन का भी हाथ है। लेकिन 1968 में इलाहाबाद आने से पहले कालिया अपने उस्ताद मोहन राकेश की साज़िश और इस साज़िश के चलते धर्मवीर भारती के परपीड़न का शिकार हो कर ‘धर्मयुग’ छोड़ चुका था और बम्बई ही में अपने किसी साथी की साझेदारी में ‘स्वाधीनता’ के नाम से एक प्रेस चला रहा था। दिल्ली और बम्बई की चेलागीरी ने उसे और कुछ सिखाया हो या नहीं, चाबुकदस्ती ज़रूर सिखा दी थी। दिल्ली से चलने से पहले उसने भारत भूषण अग्रवाल की भतीजी ममता से विवाह कर लिया था जो ख़ुद हिन्दी में कहानियाँ और अंग्रेज़ी में कविताएँ लिखती थी। हिन्दी साहित्य के स्थायी सिंहस्थ समधियाने को फलक पर आने में अभी वर्षों बाक़ी थे, लेकिन कालिया पहले ‘लूज़ निट’ समधियाने में शामिल हो गया था जिसके एक छोर पर नेमिचन्द्र जैन थे जिनकी बेटी रश्मि से अशोक वाजपेयी का विवाह हुआ था, दूसरे छोर पर रश्मि के मौसा भारत जी थे जिनकी भतीजी से कालिया का विवाह हुआ था। इसी दौर में कालिया ने केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय के अपने अकवितावादी मित्रों के प्रभाव में ‘अकहानी’ का नारा बुलन्द करने की कोशिश की थी जिसका हश्र उड़ान से पहले ही रनवे पर ठप्प हो जाने वाले विमान-सरीखा हुआ था। अलबत्ता, ‘धर्मयुग’ से निकाले जाने या निकलने के लिए विवश होने के बाद, बात एक ही है, कालिया ने सभी कमज़ोर लोगों की तरह अपनी व्यक्तिगत लड़ाई को सामूहिक लड़ाई बनाते हुए, हिन्दी की रंगीन, चिकनी व्यावसायिक पत्रिकाओं के ख़िलाफ़ एक आन्दोलन छेड़ दिया था और ‘धर्मयुग’ के प्रकाशक बेनेट कोलमैन एण्ड कं. के ख़िलाफ़ ‘बोरीबन्दर की बुढ़िया’ शीर्षक से एक लेख लिखा था। उन्हीं दिनों वह ‘धर्मयुग’ और धर्मवीर भारती पर ‘काला रजिस्टर’ के नाम से एक कहानी पर काम कर रहा था। चूँकि हिन्दी में फ़ण्टूश किस्म के लोगों की कभी कमी नहीं रही, लिहाज़ा कालिया के आह्नान पर बनारस में बैठे कंचन कुमार ने फ़ौरन अमल किया। कंचन किसी ज़माने में ‘सरिता’ में काम करता था, बनारस में कुछ दिन उसने महिलाओं के अन्तःवस्त्र बेचने वाली दुकान भी चलायी, बड़े सन्दिग्ध ढंग से वह एक नक्सलवादी धड़े से जुड़ा भी रहा और ‘आमुख’ नाम की पत्रिका निकालता था। उसने कालिया के आन्दोलन में कुछ पिपहरियाँ और जोड़ दीं और यों लघु पत्रिका आन्दोलन चल निकला। इस बीच अपने साझीदार से कालिया की खट गयी थी और उसने दो-चार बार पत्र लिख कर यह प्रस्ताव रखा था कि मैं बम्बई जा कर उसके प्रेस में पार्टनर बन जाऊँ। यह प्रस्ताव न तो मुझे मंज़ूर था, न मेरे घर वालों को। तभी अचानक एक दिन कालिया का एक अन्तर्देशीय मिला कि उसने प्रेस बेच दिया है और वह स्थायी रूप से बसने के लिए इलाहाबाद आ रहा है। अश्क जी के नाम जब रवि का यह अन्तर्देशीय पहुँचा तब घर में सिर्फ़ मैं था और हमारे परिवार में एक सदस्य की तरह रहने वाली अंगे्रेज़ महिला - आण्टी डेविस। घर के सब लोग बाहर थे, क्योंकि महीने भर बाद ही मेरी शादी थी; मेरी माँ और अश्क जी उसकी तैयारियों के लिए दिल्ली गये हुए थे, भाभी अपने मायके और भाई दौरे पर। मैं स्टेशन जा कर कालिया को घर ले आया और वह दो-तीन महीने हमारे घर ही रहा, जिस बीच वह ‘हिन्दी भवन’ के इन्द्रचन्द्र नारंग से उनका प्रेस खरीदने के नीरस ब्योरे तय करने और मेरे साथ प्रेस और रिहाइश के लिए मकान खोजने की मुहिम पर इलाहाबाद की ख़ाक छानने के साथ-साथ, मेरी शादी के हंगामे और इलाहाबाद के साहित्यिक जगत में पैर जमाने की विविध-रूपी गतिविधियों में सरगर्मी से जुटा रहा। अन्त में, अश्कजी के कहने पर नारंग जी इस बात पर राज़ी हो गये कि रवि उनका प्रेस ख़रीदने के साथ-साथ उनके मकान को भी किराये पर ले ले, वे तो दूर टैगोर टाउन में रहते हैं, रवि प्रेस के ऊपर रहने के लिए आ जायेगा तो सब को सुविधा होगी।
इस बीच मेरी शादी और कालिया के आने की ख़बर पा कर ज्ञान भी दिसम्बर ’68 के आरम्भ में इलाहाबाद आ गया और मेरी शादी से पहले दिसम्बर का पूरा महीना बड़ी गहमा-गहमी रही। मेरे पास आज भी आर्चीबॉल्ड मैक्लीश की किताब ‘पोएट्री ऐण्ड एक्सपीरिएन्स’ मौजूद है जो मैंने ठीक शादी के दिन ज्ञान और रवि के साथ सिविल लाइन्स में मटरगश्ती करते हुए पैलेस सिनेमा के साथ लगी ह्नीलर बुक शॉप में पसन्द की थी और जिस पर कालिया के हाथ से लिखा है - ‘नीलाभ के लिए शादी के दिवस पर विषयान्तर ज्ञान और रवि की ओर से।’ इससे भी ज़्यादा ऐतिहासिक वह चित्र है जिसमें शादी की अगली सुबह डोली के समय एक रिक्शे पर सुलक्षणा और मुझे और दूसरे पर सतवन्त आण्टी (श्रीमती राजेन्द्र सिंह बेदी) और मेरी माँ को बैठा कर ज्ञान और कालिया रिक्शे चलाते नज़र आते हैं।

(जारी)

Wednesday, January 19, 2011

देशान्तर

नीलाभ के लम्बे संस्मरण की तीसरी क़िस्त

पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - 3






इस सारे अर्से में ज्ञान की उपस्थिति उसी क्षीण-सी स्मृति के रूप में मन के आँगन के किसी ऐसे कोने में रखी प्रतिमा सरीखी बनी रही, जहाँ कभी-कभार ही जाना होता है। लेकिन तभी जब मैंने पुरानी शिक्षा-दीक्षा को किनारे करके, पुराने सहचरों-सम्पर्को से विलग हो कर विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र और वाणिज्य के पीपल से उड़ कर हिन्दी विभाग के बरगद पर नया ठौर ढूँढा; ऐडम स्मिथ, माल्थस, जॉन मिल और स्टैनली जेवन्स की जगह रामचन्द्र शुक्ल, निराला, तुलसीदास, मीरा, जायसी और मुक्तिबोध को घोखना शुरू किया; ज़ोर-शोर से कविताएँ लिखने लगा और एल चीको और क्वॉलिटी की बजाय कॉफ़ी हाउस में नियमित अड्डेबाज़ी शुरू की तो मेरे सुदूर अतीत के साथ-साथ निकट का अतीत भी एकबारगी बदल गया।
दूधनाथ ने इस बीच अपने प्रेम के अंजाम तक पहुँच कर मलयज की बहन निर्मला से विवाह कर लिया था। शादी की रस्म हमारे ही घर पर हुई थी। इसके बाद उम्मीद एक हंगामे की थी, लेकिन शादी के तीसरे या चौथे दिन ही दूधनाथ, अश्क जी की आशंकाओं को सच साबित करता हुआ, यक्ष्मा की चपेट में आ कर तेलियरगंज के सैनेटोरियम में चला गया। उससे अब पाबन्द मुलाकातें ही होतीं, जब कभी मैं अकेले या फिर अपने बड़े भाई के स्कूटर पर निर्मला को बैठा कर उससे मिलने जाता। सुरेन्द्रपाल दूधनाथ की तीमारदारी और अपने जीवन-संघर्ष में फंसे हुए थे। चूँकि बघाड़ा से, जहाँ सुरेन्द्रपाल रहते थे, तेलियरगंज नज़दीक था, इसलिए सुविधा के लिए निर्मला की रिहाइश का प्रबन्ध सुरेन्द्रपाल के घर पर ही कर दिया गया था। बुद्धिसेन शर्मा अपने अबोध, सरल, निर्लिप्त भाव से दुनिया को एक विस्मित किशोर की तरह निहारते, लीडर प्रेस की नीरस नौकरी की काट अपने गीतों की सायास सरसता में ढूँढने की चेष्टाओं में लीन थे। यूँ भी विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के नये साथी-संगियों और नये परिवेश ने कई तरह की वीथिकाएँ और दीर्घाएँ मेरे सामने खोल दी थीं। ज़ाहिर है, पुरानी दुनिया मुझे एकबारगी ही कुछ छोटी महसूस होने लगी थी।
तभी अचानक कॉफ़ी हाउस में मेरा परिचय हिन्दी के आलोचक विश्वम्भर मानव के बेटे और दूधनाथ के रक़ीब प्रभात रंजन से हुआ। प्रभात शायद दसवीं पास था, या जैसा कि अब लक्ष्मीधर मालवीय ने लिखा है, दसवीं पास भी नहीं था। कौन जाने। साहित्य में डिग्रियाँ कौन देखता है। लेकिन उसने दुनिया-जहान का साहित्य पढ़ रखा था और एज़रा पाउण्ड, रैम्बो और इब्ने सफ़ी का बयकवक़्त मुरीद था, रैम्बो और बॉदलेयर सरीखी बोहीमियन ज़िन्दगी जीना चाहता था, कई क़िस्म के नशे करता था। ज्योतिष में अच्छी-ख़ासी पकड़ रखने का दावा करता था, बहुत ही मार्मिक, गहरी, सम्वेदना से भरी कविताएँ लिखता था, और बड़ी ऊँचाई से दुनिया को देखता था। बहुत जल्द ही प्रभात और मैं हम-निवाला तो नहीं, हम-प्याला हो गये, प्याला चाहे चाय का हो या कॉफ़ी या फिर रम का। जहाँ दूधनाथ और सुरेन्द्रपाल मुझसे उमर में बहुत बड़े थे और बुद्धिसेन की अपनी सीमाएँ थीं, वहीं प्रभात आयु में भी और साहित्यिक रुचि में भी मेरे बहुत नज़दीक था। एज़रा पाउण्ड और फ़्रेंच डिकेडेण्ट कवि मेरी भी पसन्द थे। सो, हमारी ख़ूब छनने लगी और प्रभात ही के ज़रिये मेरा परिचय देवकुमार और ज्ञान से हुआ। देवकुमार भी कवि थे और दूधनाथ और प्रभात की मण्डली के एक सितारे। लेकिन अनेक कारणों से यह मण्डली छिन्न-भिन्न हो गयी थी। देवकुमार कविता और पुराने जीवन से धीरे-धीरे नाता तोड़ कर कुछ ज़रिया-ए-रोज़ो-शब की फ़िक्र में थे जो अन्ततः उन्हें ‘माया,’ ‘मनोहर कहानियाँ’ और ‘मनोरमा’ के सम्पादन विभाग में ग़र्क हो जाने की जानिब ले गयी। प्रभात ने पहले ज्ञान को खोजा और फिर मुझे, और फिर हम दोनों को मिलाया। कुछ महीने पहले, थोड़े-थोड़े अन्तर पर ज्ञान की कहानियाँ ‘शेष होते हुए’ और ‘फ़ेंस के इधर और उधर’ छपी थीं। उनका जादू किस तरह सबके सिर चढ़ कर बोल रहा था, इसे ज्ञान भी शायद आज बयान न कर पाये, न हम जैसे लोग जो उनके चामत्कारिक असर से मबहूत थे। नामवर जी ने भले ही अपनी अखाड़ेबाज़ शैली में उषा प्रियम्वदा आदि को आगे ला कर ‘नयी कहानी’ का नगाड़ा बजाना शुरू कर दिया था, लेकिन अपने स्वाभाविक आलसीपन की वजह से वे महफ़िल में तब पधारे थे जब विलम्बित भी अन्तिम चरण पर था और नया राग शुरू हुआ चाहता था। ज्ञान की कहानियों ने पहली बार मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर और मार्कण्डेय जैसे ‘नयी कहानी’ के अलमबरदारों को उनकी सीमाओं का एहसास कराया। (अब यह तो याद नहीं है कि मार्च 1964 में ‘परिमल’ के कहानी सम्मेलन में ज्ञान मौजूद था या नहीं, क्योंकि मेरे इम्तहान चल रहे थे और मैं ज़्यादा वक़्त उस सम्मेलन को नहीं दे पाया था। बस, इतना याद है कि उसी सम्मेलन के दौरान पहली बार मेरी मुलाकात रवीन्द्र कालिया और गंगा प्रसाद विमल से हुई थी। छै फ़ुट लम्बा रवीन्द्र और उससे छै इंच छोटा विमल आगे-पीछे चलते हुए बड़े दिलचस्प लगे थे, कुछ-कुछ डॉन क्विग्ज़ॉट और सांचो पांज़ा जैसे। यों तो कहानी सम्मेलन में रमेश बक्षी भी आया था, जिससे कुछ ही साल बाद मेरा गहरा परिचय हो जाने वाला था, क्योंकि नरेन्द्र धीर और जगदीश चतुर्वेदी के बाद पहला बड़ा ब्रेक मुझे ‘ज्ञानोदय’ में रमेश ही ने दिया था।) बहरहाल, उस कहानी सम्मेलन में नयी कहानी का बोरिया बँधता नज़र आ रहा था और जिस नये युगबोध का इतना हो-हल्ला ‘नयी कविता’ की तर्ज़ पर ‘नयी कहानी’ का झण्डा खड़ा करके एक नया अखाड़ा खोलने वाले मचा रहे थे, वह उनकी बजाय ज्ञान, कालिया, दूधनाथ और रमेश बक्षी की कहानियों में नज़र आ रहा था। बहरहाल, ज्ञान उस कहानी सम्मेलन में रहा हो या न रहा हो, इतना मुझे याद है कि उस सम्मेलन के कुछ ही महीने बाद मैं उससे मिला था, ‘शेष होते हुए’ और ‘फ़ेंस के इधर और उधर’ पढ़ने के दौरान। लेकिन ज्ञान की कहानियों से भी ज़्यादा उसके स्वभाव की गर्मजोशी ने मुझे खींचा। ज्ञान में जाने कैसी मोहिनी है कि आज भी, उसके साथ अनेक कटु प्रसंगों से गुज़रने के बाद भी, जब वह सामने आता और मुस्कराता है तो मन सारे गिले-शिकवे भूल जाता है। कभी-कभी सोचता हूँ कि अगर मेल-मुलाकात पहले की तरह अक्सर होती रहती तो शायद बात दूसरी होती, इतने गिले-शिकवे इकट्ठे ही न हो पाते। क्योंकि यह कहना भी मन को बहुत तसल्ली नहीं देता कि मैं बहुत भाव-प्रवण हूँ। इससे अहम्मन्यता के अलावा दूसरों के प्रति तिरस्कार भी झलकता है। और वैसे भी यह एक छल है जो हम ख़ुद से करते हैं। भावप्रवण तो सभी होते हैं। अलबत्ता, वयस्कता की मात्रा अलग-अलग हो सकती है जिससे धक्कों को सहने और शिकवों-शिकायतों को किनारे करने की शक्ति में अन्तर आता है। वैसे भी, अपने पुराने मित्र (मैं तो मित्र ही कहूँगा, बहरहाल) रामजी राय के साथ एक बार मैत्री पर बातचीत के दौरान यह बात सामने आयी थी कि यही एक रिश्ता है जिसे हम सायास बनाते हैं, बाक़ी नातेदारियाँ तो हमें जन्मना मिलती हैं। इसलिए भी मित्रताओं को बचा कर रखना चाहिए। मैं, शायद बचपन में बहुत अकेला रहने के कारण (मेरे भाई मुझसे ग्यारह वर्ष बड़े थे), मित्रता को ले कर कुछ अधिक ही सचेत और सम्वेदनशील रहा हूँ और इसीलिए ज्ञान की सहज ऊष्णता ने मुझे एकबारगी अपनी गिरफ़्त में ले लिया था। उन दिनों वह जबलपुर के सेकसरिया कॉलेज से (जहाँ वह हिन्दी न पढ़ाने की कोशिश करता था) लम्बी छुट्टी पर इलाहाबाद आया हुआ था। जहाँ तक मेरा ख़याल है, वह सुनयना से अपनी कोर्टशिप के दौर से गुज़र रहा था और इस प्रेम-प्रसंग को उसकी वाजिब मंज़िल तक पहुँचाने के प्रयास कर रहा था। बीच-बीच में वह जबलपुर जा कर कॉलेज में अपनी शकल दिखा आता था, मगर रहता वह ज़्यादा वक़्त इलाहाबाद में ही था। शायद जिस नाभिनाल से वह इलाहाबाद से जुड़ा हुआ था, वह अभी पूरी तरह कट नहीं पायी थी। ज़ाहिर है, ज्ञान के पास बहुत वक़्त ख़ाली था, जिसे वह सुनयना से प्रेम करने, इलाहाबाद की सड़कों पर मटरगश्ती करने, तीन पत्ती खेलने, कॉफ़ी हाउस और मुरारी स्वीट होम में अड्डेबाज़ी करने और इन सारे मशग़लों से वक़्त बचने पर कहानी लिखने में लगाता था। ज्ञान में उन दिनों अद्भुत जीवनी-शक्ति थी जिसके बल पर वह इन बहुविध गतिविधियों को एक साथ साध सकता था। वक़्त की मेरे पास भी भरमार थी और कविता मेरे लिए नये मुल्ले का प्याज़। जल्दी ही ज्ञान की और मेरी पट गयी और ज्ञान ने मुझे उन चीज़ों से परिचित कराना शुरू कर दिया जो उसकी दिनचर्या में शामिल थीं।
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ज्ञान लूकरगंज में रहता था। साठ के दशक का लूकरंगज इलाहाबाद में अपनी तरह का अनोखा मुहल्ला था। दारागंज, अहियापुर, ख़ुशहाल पर्वत और अतरसुइया को देख कर बनारस की याद आती थी, तो ख़ुल्दाबाद, नख़ास कोहना, या रानी मण्डी को देख कर दिल्ली के चाँदनी चौक, बल्लीमारान और खारी बावली की। इलाहाबाद के अपने ख़ास मुहल्लों में लूकरगंज हिरावल दस्ते में शामिल था। खुली सड़कें, नफ़ासत से बने बँगले, साफ़-सुथरी फ़िज़ा और हरियाली। यहाँ कुछ पुराने ईसाई परिवार रहते थे, जो उन्नीसवीं सदी की अन्तिम चौथाई में यहाँ आ बसे थे जब रेलवे लाइन नैनी से जमुना पार करके दिल्ली की ओर बढ़ गयी थी; एक बंगाली टोला था और कुछ ठेठ क़िस्म के इलाहाबादी। 1947 से कुछ पहले या बाद में हालाँकि सिन्धियों ने भी यहाँ सदल-बल बसने का फ़ैसला किया था, पर वे भी इसे उस तरह शरणार्थी मुहल्ला नहीं बना पाये थे, जैसे मीरापुर को पंजाबी शरणार्थियों ने बना दिया था। लूकरगंज की फ़िज़ा शरणार्थियों की उद्वेलन-भरी उदग्रता और आगे बढ़ने की मारा-मारी से अछूती थी।
वैसे तो यहाँ एक ज़माने में खड़ी बोली हिन्दी के पहले कवि माने जाने वाले श्रीधर पाठक रहा करते थे। लूकरगंज मैदान के पास ही उनकी ‘पद्मकोट’ नाम की कोठी थी और उनके बारे में क़िस्सा मशहूर था कि उनकी बग्घी कवि सुमित्रा नन्दन पन्त को लेने ऐलनगंज जाती थी। पन्त जी उस पर बैठ कर लूकरगंज आते थे और श्रीधर पाठक के साथ कुछ समय चर्चा में बिता कर, फिर बग्घी में बैठ ऐलनगंज लौट जाते थे। लेकिन श्रीधर पाठक की स्मृति क्षीण हो चुकी थी। हालाँकि उनका बँगला साठ और सत्तर के दशक तक मौजूद था। बाद में लूकरगंज के उत्तर-पूर्वी कोने में, जहाँ से लाटूश रोड शुरू होती है और आटा मिल होती हुई जी.टी. रोड में जा मिलती है, लीडर प्रेस में रायकृष्ण दास द्वारा स्थापित ‘भारती भण्डार’ बिरला बन्धुओं की मिल्कियत बन कर आ गया। वहीं से ‘संगम’ पत्रिका निकली जिसके सम्पादक इलाचन्द्र जोशी और सहायक सम्पादक धर्मवीर भारती और रमानाथ अवस्थी थे।
शुरू-शुरू में लूकरगंज आ बसने वाले साहित्यकारों में ज्ञान के पिता और अपने ज़माने के जाने-माने साहित्यकार रामनाथ ‘सुमन’ और हमारा परिवार था। फिर भैरव प्रसाद गुप्त स्टैनली रोड छोड़ कर आये, शेखर जोशी आये, नरेश मेहता आये, नर्मदेश्वर चतुर्वेदी, दूधनाथ सिंह, नर्मदेश्वर उपाध्याय, प्रसिद्ध चित्रकार सुप्रभात नन्दन, सुरेश सिन्हा आदि प्रभृति साहित्यकार। अस्थायी निवासियों में रेणु, नागार्जुन और मोहन राकेश जैसे लोग थे। लूकरगंज एक विराट शरण्य था। एक समय ऐसा भी आया, जब लूकरगंज में एक साथ इतने साहित्यकार पाये जाते थे जितने इलाहाबाद के किसी और मुहल्ले में नहीं। और यह सब सहजिया भाव से हुआ था। यह नहीं कि सरकारी ग़ैर-सरकारी प्रयासों से एक कालोनी बसा दी, जैसा कि भोपाल में भदभदा रोड का नाम दुष्यन्तकुमार मार्ग करके उसके एक छोर पर निराला नगर बसाया गया है। लोगों को जिनका मुखड़ा देखना गवारा नहीं, उनका पिछवाड़ा देखना पड़ रहा है। हवा में सुनी न जा सकने वाली गालियों का कम्पन महसूस होता रहता है। इतनी सारी कला एक जगह। काल बनी हुई। बिम्ब और प्रतीक टकरा रहे हैं। वस्तु और रूप की चिनगारियाँ उड़ रही हैं। हर वक़्त कवियाए हुए लोग भात की तरह खदक रहे हैं।
आज तो ख़ैर, वक़्त की मार ने लूकरगंज को काफ़ी जीर्ण-जर्जर कर दिया है, बँगले बिक गये हैं, उनकी प्लॉटिंग हो गयी है, नये-नये बाशिन्दे इतनी तेज़ी से आ कर बसे हैं कि उन्हें लूकरगंज की फ़िज़ा में दीक्षित करना ही सम्भव नहीं रहा और यह सब बेहद बदहवास बेतरतीबी से हुआ है, लोग और मकान एक-दूसरे पर गिरे पड़ रहे हैं, सड़कें ड्रॉइंग रूमों में घुसी चली आ रही हैं, ज़मीनों के दलाल लकड़बग्घों की तरह सूंघते फिरते हैं। शरण्य अब अरण्य बन गया है। लेकिन उन दिनों सड़कें भी सलामत थीं और सन्नाटा भी। इलाहाबाद अगर साहित्यिक राजधानी थी तो लूकरगंज उसका कैपिटल हिल। इलाहाबाद के लगभग सभी युगों की एक समग्र सांस्कृतिक झाँकी।
ज्ञान के पूरे तेवर को निर्मित करने में लूकरगंज की वही भूमिका थी जो सिकन्दर के सिलसिले में एथेन्स की। ज्ञान से मेरी अभिन्नता के पीछे लूकरगंज का भी बहुत बड़ा हाथ था। एम.ए. की दहलीज़ पार कर लेने के बाद तो यह साथ सुबह से रात तक का हो गया था। अक्सर मैं सुबह उठ कर नाश्ते के बाद ज्ञान के घर चला जाता। कई बार नाश्ता भी वहीं करता। (सूजी का हलवा इतनी बार उसके यहां मैंने खाया कि उमर भर के लिए मन उससे भर गया, अब देखता हूँ तो बुख़ार आने लगता है।) वहीं साहित्य पर बातें होतीं, रचनाएँ सुनी-सुनायी जातीं, सिर्फ़ साहित्य ही पर नहीं, दुनिया-जहान की चीज़ों पर चर्चा होती। मैं इसी अर्से में ज्ञान की कहानियों ‘छलाँग’ और ‘सम्बन्ध’ का पहला पाठक बना, उसका किसी हद तक राज़दार भी। अक्सर हम सिविल लाइन्ज़ की तरफ़ निकल जाते, शुतुर-बे-मुहारों की तरह घूमते-फिरते, वहीं प्रभात आ मिलता और दूसरे साहित्यिक ग़ैर-साहित्यिक लोग, कॉफ़ी हाउस और मुरारी’ज़ में अड्डेबाज़ी होती। ज्ञान का स्वर उन दिनों बहुत अच्छा था। वह फ़ैज़ की ‘दस्ते-सबा’ की ग़ज़लें या ‘वंशी और मादल’ के गीत या केदार नाथ अग्रवाल की कविताएँ बड़े अन्दाज़ से सुनाता। कई बार मैं और वह एक-दूसरे का हाथ थामे, सिविल लाइन्ज़ के पत्थर गिरजे के गिर्द टहलते और ज्ञान ‘वंशी न बजाओ माझी मेरा मन डोलता’ या फिर ‘गुलों में रंग भरे बादे-नौबहार चले’ गा कर सुनाता।
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आरम्भिक ज्ञानरंजन पर बीटनिक आन्दोलन का गहरा असर था। चारों तरफ़ के मध्यमवर्गीय छल-कपट, पाखण्ड और छद्म के विरुद्ध एक तीखा, काटता व्यंग्य उसका प्रमुख स्वर था। हालाँकि शुरुआत उसकी, लगभग सभी की तरह, रूमानीपन से हुई थी। मुझे उसकी कुछ कविताओं की झीनी-सी याद है जो ‘कादम्बिनी’ में छपी थीं। जिनमें ‘कत्थई शामों’ और ‘कितने यौवनों की दुलहनों की भादों की रात’ के बिम्ब थे और एक कहानी जिसमें शकुन नाम की किसी लड़की को सम्बोधित एक भावुक एकालाप था। मुझे इन रचनाओं को पढ़ कर अचरज नहीं हुआ था, वैसे ही जैसे ‘उत्कर्ष’ में मंगलेश डबराल का एक गीत ‘मंगलेश मयंक’ के नाम से छपा देख कर। उलटे एक तसल्ली ही मिली थी कि मैं कोई अकेला यायावर नहीं था जो भावुकता की सुरम्य घाटियों से यथार्थ के बीहड़ में चला आया था। इसीलिए शायद ज्ञान एक ओर फ़ैज़ और ठाकुर प्रसाद सिंह के रूमानीपन की ओर आकृष्ट होता, दूसरी ओर गिन्सबर्ग, कोर्सो, फ़रलिंगेटी, जैक केरुआक और विलियम बरोज़ के विद्रोही, लीक-तोड़ू तेवर की ओर। ‘एवरग्रीन रिव्यू’ जैसी पत्रिका से मेरा परिचय ज्ञान ही ने कराया था और उसके पुराने अंक मुझे दिये थे। आज तो कोई इनका नाम भी नहीं लेता, पर उन दिनों इनकी धूम थी। दिलचस्प बात यह है कि उस ज़माने में इन लेखकों ने और जोन बाएज़ और बॉब डिलन जैसे गायकों ने अमरीकी गुण्डागर्दी के ख़िलाफ़ एक बड़ी भूमिका अदा की थी। वियतनाम युद्ध, परमाणु-बम ऐसी अनेक अमरीकी करतूतों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठायी थी। उनमें जो अराजकता हम हिन्दी वालों को, जो अंग्रेज़ों की विक्टोरियन जकड़बन्दी और पाखण्ड-भरे शुद्धतावाद से उबर नहीं पाये थे, महसूस होती थी, वह भी एक ऐसी व्यवस्था के ख़िलाफ़ बग़ावत थी जो उत्तरोत्तर नृशंस, अमानवीय और दमनकारी होती जा रही थी। यह भी दिलचस्प है कि जहाँ ज्ञान को इन सबके व्यवस्था-विरोध ने आकर्षित किया, वहाँ उसके सहपाठी और सहकर्मी दूधनाथ सिंह को उनकी अराजकता और अनास्था ने। इसीलिए ‘शेष होते हुए’ से शुरू होने वाली ज्ञान की कहानियों में सामाजिक सरोकार की गहरी अन्तर्धारा मौजूद थी, जो दूधनाथ की उस समय की कहानियों और कविताओं में नहीं नज़र आती। ‘अमरूद का पेड़’ हो या ‘फ़ेंस के इधर और उधर,’ ज्ञान की उस समय की कहानियों में खीझ, अवसाद और विद्रोह-भरे अस्वीकार के बावजूद, समाज से एक गहरी संलग्नता झलकती थी। अकारण नहीं है कि जब साठ का दशक बीतते ही चीज़ें ज़्यादा साफ़ हुईं और ज्ञान और उसकी पीढ़ी के अनेक साहित्यकार वामपन्थी विचारधारा की ओर आये, यहाँ तक कि कम्यूनिस्ट पार्टियों में भी शामिल हुए, तो ज्ञान के सिलसिले में कम-से-कम मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ। प्रगतिशील लेखक संघ (प्रलेस) तो जैसे वह पेट्रोला था जहाँ ज्ञान को अन्ततः पहुँचना ही था। यह अलग बात है कि कुन्दन सरकार की तरह वह किसी ‘गेलार्ड’ से निकाला नहीं गया था।
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वैसे, ज्ञान का एक बहुत बड़ा मण्डल ठेठ ग़ैर-साहित्यिक लोगों का था। इनमें रज्जू, सन्त कुमार सक्सेना, देवदास, गणेश जैसे ज्ञान के सहपाठी या मुहल्ले के मित्र थे, जिनकी दिलचस्पी तीन पत्ती की साप्ताहिक फड़ या गाहे-बगाहे पीने-पिलाने, मौज उड़ाने और सामान्य रूप से धींगामस्ती करने में थी। कई बार तीन पत्ती की फड़ रात-रात भर चलती। एक बार जब ऐसी ही एक ‘गोष्ठी’ से मैं रात भर नहीं लौटा और मेरे भाई मुझे ढूंढते हुए सुबह के पाँच बजे दूधनाथ के घर गये, जो इस बीच रोग-मुक्त हो कर तेलियरगंज के सैनेटोरियम से लूकरगंज में डॉक्टर बैनर्जी की क्लिनिक के पीछे एक मकान में रहने लगा था, तो उसने मुँह से चादर हटाते हुए बस इतना कहा था कि घबराइए नहीं, वह ज्ञान के यहाँ जुए की फड़ पर बैठा होगा, पहुँच जायेगा। घर वाले अगर मेरे इस तरह ज्ञान के इर्द-गिर्द मंडरात्वे रहने को ले कर चिन्तित रहे हों तो कम-से-कम मुझे इसका आभास कभी नहीं मिला। वैसे, मुझे इसकी बहुत परवाह भी नहीं थी। मैं तो ज्ञान के यहाँ कुछ इस जा धमकता था जैसे वयःसन्धि की दहलीज़ पर खड़ा कोई युवक किंचित वयप्राप्त किसी युवती के इर्द-गिर्द प्रणय-भाव से मँडराता रहता है। ज्ञान के साथ-संग में साहित्यिक और साहित्येतर सक्रियता की ऐसी रोमांचक सनसनीख़ेज़ कॉकटेल पीने को मिलती थी कि इलाहाबाद का बाक़ी साहित्यिक समुदाय उन दिनों बरसात के ख़रबूज़े जैसा फीका मालूम देता था।
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उन दिनों ज्ञान को खाने-पीने का बहुत शौक था। आज तो ख़ैर, तरह-तरह की बीमारियों ने उस पर दसियों बन्धन लगा दिये हैं, पर उन दिनों उसकी रसना एक बेलगाम छुट्टा बछेड़ा थी। कई बार वह सुबह-सवेरे आता और कहता चलो, और मुझे लोकनाथ ले जाता। गरम-गरम जलेबियाँ खिलाने। सर्दियों में गाजर के हलवे पर धावा बोला जाता। ज्ञान के लिए ये चीज़ें आवारागर्दी के बहाने थे, क्योंकि जलेबियाँ, गाजर का हलवा या ऐसी ही कोई और चीज़ खा कर घर लौटने की बजाय हम आगे की यायावरी पर निकल जाते - कभी भारती भवन पुस्तकालय के पास नगीने बेचने वाले मेरे सहपाठी डी.के. जौहरी उर्फ़ बब्बू भैया की लनतरानियाँ सुनते जो नगीने बेचने के पुश्तैनी काम से थोड़ा हट कर एक अधिक ‘सम्मानित’ पेशे के रूप में वकालत की डौल बिठा रहा था, लेकिन वक़्त पड़ने पर नगीने बेचने से ले कर पुराने सिक्के, ऐण्टीक झाड़-फ़ानूस, तलवारें, पियानो और फ़र्निचर बेचने, यहाँ तक कि हाथ की रेखाएँ देख कर भविष्य बताने तक, कई क़िस्म के सन्दिग्ध व्यवसाय करता था। कभी हम जानसेनगंज में ज्ञान के मित्र फ़ोटोग्राफ़र के यहाँ बैठकी जमाते। मेरा ख़याल है कि उसके स्टूडियो का नाम ‘स्वॉन स्टूडियो’ था और किसी ज़माने में ‘ग्लैमर स्टूडियो’ और ‘अर्गल फ़ोटोग्राफ़र्स’ की तरह उसकी भी बड़ी धाक थी। कभी उधर ही से हम सिविल लाइंस चले जाते।
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अमरीकी उपन्यासकार जॉन स्टाइनबेक ने अपने एक आरम्भिक और बहुचर्चित उपन्यास ‘टॉर्टिया फ़्लैट’ में मेक्सिकन मूल के उन लोगों की तस्वीर खींची है जो ‘पैसानो’ कहलाते हैं। पैसानो यानी हमवतन, साथी। उपन्यास का नायक डैनी और उसके दोस्त ऐसे ही मस्त-मौला, फक्कड़ लोग हैं जो कैलिफ़ोर्निया की सालिनास घाटी में ‘टॉर्टिया फ़्लैट’ नामक कस्बे के छोटे-छोटे लकड़ी के मकानों में रहते हैं। लूकरगंज उन दिनों हमारे लिए टॉर्टिया फ़्लैट ही था और हमारी मध्यवर्गीय ख़रमस्तियाँ डैनी और उसके यारों की मज़दूरवर्गीय ख़रमस्तियों जैसी ही थीं। लूकरगंज का ज्ञानमण्डल एक जैव धड़कती इकाई था, जैसा कि फिर इलाहाबाद में नहीं देखा गया। लेकिन एक आलोचक ने समुद्री जीव-विज्ञान के आधार पर टॉर्टिया फ़्लैट का विश्लेषण करते हुए डैनी और उसकी बिन्दास मित्र-मण्डली को एक ‘ऑर्गनिज़्म’ के रूप में देखा है जिसका एक सुनिश्चित जीवन-चक्र होता है। यहाँ भी शायद कुछ वैसा ही था। सभी अच्छी चीज़ों की तरह इन अच्छे दिनों का अन्त तो होना ही था। हालाँकि मैं तीन-साढ़े तीन वर्ष के अल्प, लेकिन घनघोर, साहचर्य के चलते ख़ुद को ज्ञान के नज़दीक समझने लगा था, हक़ीक़त भर्तृहरि का श्लोक थी। सारी अन्तरंगता, ‘कैमाराडरी’ और सखा-भाव के बाद भी एक पर्दादारी थी जिसका मुझे अन्दाज़ा नहीं था। और जब अन्दाज़ा हुआ तो एक धक्का-सा लगा।
(जारी)

देशान्तर

देशान्तर

नीलाभ के लम्बे संस्मरण की दूसरी किस्त
पिछले 50 बरसों की साहित्यिक हलचलों का एक जायज़ा
और एक लम्बी मैत्री की दास्तान

ज्ञानरंजन के बहाने - २






इसके बाद कई महीनों तक ज्ञान, शहर में रहते हुए भी, मेरे लिए ग़ैर-हाज़िर रहा। वैसे भी, उन दिनों मेरा ज़्यादा समय दूधनाथ, सुरेन्द्रपाल, और बुद्धिसेन शर्मा के साथ गुज़रता था।
दिल्ली के नरक, और अपनी दुखद मृत्यु, की ओर जाने से पहले, सुरेन्द्रपाल लगभग रोज़ हरे रंग की अपनी रैले साइकिल पर, चमड़े का अक्सर प्रूफ़ों से भरा थैला हैण्डल से लटकाये, हमारे घर आते; प्रूफ़ पढ़ते; पाण्डुलिपियों की प्रेस-कॉपी तैयार करते, तरह-तरह की योजनाएँ बनाते, घण्टों गप्पें लड़ाते, और शहर के साहित्यिक जगत के बारे में गलचौर करते। इस सब फरफन्द के साथ सुरेन्द्रपाल रेलवे के हिन्दी अनुभाग में थे, जहाँ वे रेलवे कर्मचारियों को हिन्दी पढ़ाते थे। लेकिन इसे वे दिन में ही किसी समय निपटा देते थे। उनका एक कविता-संग्रह और आंचलिक शैली में लिखा गया एक उपन्यास ‘लोक लाज खोयी’ प्रकाशित हो चुका था, और वे भी हिन्दी के तमाम लेखक-प्रकाशकों की तरह अपना एक प्रकाशन शुरू करने की सोचते थे जो उन्होंने बाद में किया भी। मझोले क़द, गोल चेहरे, और बेहद साँवले रंग के इन्सान थे। चेहरे पर उनके माता के दाग़ थे जो थोड़ा और नुमायाँ होते अगर उनका रंग इतना साँवला न होता। सामने के दाँत थोड़ा-सा बाहर को निकले हुए थे, और पेट भी। अक्सर वे दिन में या शुरू शाम के समय कॉफ़ी हाउस या फिर कॉफ़ी हाउस परिसर में लोकभारती प्रकाशन या हमारे प्रकाशन पर चले आते। चूँकि कुलवक़्ती कलन्दर थे, इसलिए गप-शप, अफ़वाहबाज़ी, परनिन्दा - जिसे हम लोगों ने ‘रसों’ की सूची में शामिल कर दिया था - और छींटाकशी उनका शेवा था। यों, सुरेन्द्रपाल शहर के बहुत-से लोगों की चिढ़ थे। श्रीराम वर्मा ने एक बार तीखे व्यंग्य से कहा था कि सुरेन्द्रपाल हँसता है तो लगता है अफ़्रीकन दही खा रहा है।
दूधनाथ उन दिनों अपने मख़सूस तिलिस्मी अन्दाज़ में ‘चन्द्रकान्ता सन्तति’ के किसी ऐयार की तरह प्रेम में मुब्तिला था। उन दिनों वह शायद लीडर प्रेस में काम करता था और ख़ुल्दाबाद चौराहे से अन्दर को बसे मुहल्ले, पुरुषोत्तम नगर, से ख़ुसरो बाग़ रोड होते हुए ख़रामा-ख़रामा लीडर प्रेस आता-जाता नज़र आता। बीच में कई बार वह हमारे घर भी चला आता, किसी नयी कहानी पर अश्क जी से बात करता, मन्द-मन्द मुस्कराता और अपनी घनी बरौनियों वाली बड़ी-बड़ी आँखों की चमक से एक अजीब-सा प्रभाव डालता। पतला-छरहरा तो जैसा वह आज है, तब भी था, लेकिन उन दिनों उसके खुलते हुए गेंहुए रंग पर एक हलकी-सी पाण्डुर आभा बनी रहती थी। आज सोचते हुए यह कहना मुश्किल है कि उस समय दूधनाथ को सबसे ज़्यादा किस चीज़ ने अपनी गिरफ़्त में ले रखा था। प्रेम ने या यक्ष्मा ने, जिसके चिह्न दूधनाथ के अजाने ही उसके चेहरे पर झलकने लगे थे। अश्क जी ने कई बाद दूधनाथ की कलाई पकड़ कर उसकी हरारत को या फिर धँसे हुए कल्लों वाले वाले उसके पाण्डुर मुख को लक्ष्य कर उससे कहा था कि दूधनाथ, तुम अपना चेक-अप करवाओ। मैं ख़ुद इस मूज़ी रोग की चपेट में आ कर किसी तरह बचा हूँ। ग़फ़लत से काम लेना दानाई नहीं है। हर बार दूधनाथ अपनी धवल दन्त पंक्ति की दूधिया आभा बिखेरते हुए ग्लाइकोडिन टर्प वसाका, बेनाड्रिल या ऐसे ही किसी कॉफ़-मिक्सचर का हवाला देता, मानो आसन्न विपदा को बरबस, केवल इच्छा के बल पर टालने की कोशिश कर रहा हो, और फिर उसी तरह हल्के-हल्के क़दम रखता हुआ, ख़रामा-ख़रामा चला जाता। गणित की शब्दावली में दूधनाथ एक अज्ञात राशि था और यह उसकी महारत है कि वह आज तक एक अज्ञात राशि बना हुआ है। उसकी जीवनी एक भित्ति-चित्र की तरह नहीं, बल्कि एक मोज़ेक की तरह ही तैयार की जा सकती है, क्योंकि दूधनाथ को सिर्फ़ दूधनाथ ही जानता है। बाक़ियों के पास तो समय-समय पर उससे पाये ‘दर्शन’ ही हैं। उस समय बस इतना मालूम था कि उसने एम.ए. इलाहाबाद से किया था। उससे पहले वह अपने गाँव में और फिर बनारस रहा। स्थायी रूप से इलाहाबाद आने के पहले उसने कुछ समय कलकत्ते में भी बिताया। कभी वह अपना गाँव ग़ाज़ीपुर बताता, कभी बलिया। यह बात कि इलाहाबाद आने से पहले उसकी शादी हो चुकी थी और वह पत्नी से अलग हो गया था, अचानक पता चली थी जब उसकी कहानी ‘रक्तपात’ छपी थी और अश्क जी ने एक दिन उस पर दूधनाथ से लम्बी चर्चा की थी। कभी-कभार बातचीत के दौरान उसके एक मित्र विपिन का ज़िक्र आता (जिसे मैंने सिर्फ़ एक बार देखा था) या देवकुमार का जिससे मैं बाद में मिला। बाक़ी अधिकांश कोहरे में था। यह भी मुझे बाद में पता चला कि वह एम.ए. में ज्ञान का सहपाठी था, जब ज्ञान से मेरा परिचय हुआ। उस अर्से में दूधनाथ हमेशा की तरह एक रहस्य में लिपटा हुआ आता-जाता रहता। यों, इससे कोई फ़र्क भी नहीं पड़ता था, क्योंकि उन दिनों जब मैं इण्टर में था, मेरी दिलचस्पी ‘अभी और अब’ में थी।
बचे बुद्धिसेन शर्मा, तो वे विभूति थे। किसी हद तक आज भी हैं; गो, आज उनकी श्वेतकेशी, वरिष्ठ गीत-ग़ज़लकार वाली धजा को देख कर उस ज़माने के बुद्धिसेन शर्मा की कल्पना करना कठिन है। बुद्धिसेन शर्मा लीडर प्रेस में जॉब डिपार्टमेंट में प्रूफ़ रीडर थे। इसी नाते हमारे यहाँ आने-जाने लगे थे; प्रूफ़ पढ़ने और प्रेस-कॉपी तैयार करने लगे थे। जब उन्हें रिहाइश के लिए जगह की ज़रूरत पड़ी तो अश्क जी ने एक कमरे का प्रबन्ध उनके लिए कर दिया था, जिसमें वे लगभग साधुओं-सरीखी सादगी और किफ़ायतशारी बरतते हुए दिन गुज़ारते थे। बुद्धिसेन कानपुर के रहने वाले थे, जिस शहर से - बकौल सुरेश सिन्हा - दो ही विभूतियाँ पैदा हुई थीं - बाल कृष्ण शर्मा ‘नवीन’ और बुद्धिसेन शर्मा (प्राचीन)। यह तो हमें बहुत बाद में पता चला कि ‘नवीन’ जी ग्वालियर और शाजापुर होते हुए कानपुर पहुँचे और परवान चढ़े थे, कानपुर की मौलिक प्रतिभा तो बुद्धिसेन ही थे। बहरहाल, उन दिनों बुद्धिसेन शर्मा को ग़ज़ल का चस्का नहीं लगा था, वे धड़ल्ले से गीत और छन्दोबद्ध रचनाएँ करते थे, कभी-कभी स्वाद बदलने के लिए नयी कविता की तर्ज़ पर कविताएँ लिखते और ऑल इण्डिया रेडियो या फिर छोटे कवि-सम्मेलनों में सुनाते। मुझे भी वे एक बार डाक-तार विभाग द्वारा आयोजित एक कवि सम्मेलन में ले गये जहाँ उन्होंने एक गीत सस्वर सुनाया था और मैंने अपनी एक बेहद कच्ची कविता पढ़ी थी। यह ख़ुसरो बाग़ रोड की फ़िज़ा का असर था या अचानक इलाहाबाद में कहानी का चढ़ता हुआ बाज़ार, बुद्धिसेन अक्सर अपने कमरे में कहानियाँ लिखते भी पाये जाते। यूँ वे सुरेन्द्रपाल के अनुसार चटनी थे। चटनी यानी परम ज़ायका तत्व यानी नमक। ये तीन विशेषण लगभग एक ही अर्थ में ऐसे लोगों का वर्णन करने के लिए इस्तेमाल किये जाते, जिनकी नुमाइन्दगी शहर के इस हिस्से में बुद्धिसेन शर्मा करते थे। लीडर प्रेस से जुड़ी प्रकाशन संस्था ‘भारती भण्डार’ के स्थायी महन्त वाचस्पति पाठक उन्हें बुद्धि-से-न कहते। सरल इतने थे कि जब बनारस का बज्र बदमाश नागानन्द मुक्तिकण्ठ, जो कुछ दिन बीटनिकों के उस्ताद कवि ऐलन गिन्सबर्ग की चिलम-भराई का काम करके कुछ शोहरत बटोर चुका था, इलाहाबाद आया और उसने ठेठ बनारसी हरामीपन से दिन में चार-पाँच बार बुद्धिसेन को कभी बुद्धिदूत, कभी बुद्धिदेव, कभी बुद्धिदास, कभी बुद्धिचन्द्र कह कर सम्बोधित किया तो वे इसे नागानन्द के सहज, स्वाभाविक भुलक्कड़पने का ही सबूत मानते रहे।
मेरे शुरू के रचनात्मक जीवन पर इन तीनों का बहुत असर पड़ा।
सुरेन्द्रपाल हृदय से चाहते थे कि मैं प्रशासनिक सेवाओं की भूल-भुलैयाँ अथवा चार्टर्ड अकाउण्टेन्सी के मरुस्थल में गुम हो जाने की बजाय कोई सार्थक काम करूँ। सार्थक काम से उनकी मुराद थी - साहित्य का पठन, पाठन, अध्यापन। यही वजह है कि जब मैंने बी. कॉम. करने के बाद आगे न पढ़ने की घोषणा की थी तो सुरेन्द्रपाल ने (अश्क जी के कहने पर, हालाँकि उसमें काफ़ी कुछ प्रेरणा ख़ुद सुरेन्द्रपाल की थी) मुझसे घण्टों बहस करके मुझे क़ायल किया था कि मुझे विश्वविद्यालय में दाख़िल हो जाना चाहिए, चाहे अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. करने के लिए, चाहे हिन्दी साहित्य में। दूधनाथ मुझे हर बार एक नये विदेशी साहित्यकार को पढ़ने की सलाह देता। उसी के सुझाव पर मैंने ओसामू दजाई का उपन्यास ‘द सेटिंग सन’ पढ़ा, कामू के उपन्यास पढ़े, सेफ़रिस की कविताओं से परिचित हुआ। आज यह स्वीकार करने में मुझे रत्ती भर हिचक नहीं है कि अगर सुरेन्द्रपाल और दूधनाथ न होते तो घर में साहित्य को ओढ़ना-बिछौना बनाने के बावजूद मैं शायद लेखन की ओर न जाता, सम्भव है एक प्रबुद्ध पाठक ही रह जाता। आज पीछे मुड़ कर उसे पूरे दौर को देखता हूँ तो भारी आश्चर्य होता है। मेरी आरम्भिक शिक्षा-दीक्षा जैसे हुई थी, उसके हिसाब से तो पहला विकल्प नैशनल डिफ़ेन्स अकैडेमी का ही था, जहाँ से मैं सेकेण्ड लेफ़्टिनेंट बन कर निकलता। दूसरा विकल्प प्रशासनिक सेवाओं का था। इसके बाद ही किसी और पेशे की बात सोची जा सकती थी। मेरे साथ दिक़्क़त यह थी कि मैं शुरू ही से कर्तव्य-पालन और अनुशासन-विरोध के बीच झूलता रहा। ‘अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए’ एक सुनहरा आप्त-वचन था। मुझे इससे कोई ऐसा एतराज़ भी नहीं था। लेकिन बचपन ही से मुझे ‘रेजिमेंटेशन’ से, ‘कला कला के लिए’ की तर्ज़ पर ‘अनुशासन या कठोर नियन्त्रण महज़ अनुशासन या कठोर नियन्त्रण के लिए’ से भी स्वभावगत चिढ़ थी। इसीलिए मैं मर्चेण्ट नेवी में एक ख़लासी बनना चाहता था। लूकरगंज के कुछ ऐंग्लो इण्डियन युवक, जिनसे मेरा रात-दिन का साथ था, मर्चेण्ट नेवी में ख़लासी बन गये थे और मेरी दिली ख़्वाहिश थी कि मैं भी मर्चेण्ट नेवी में चला जाऊँ। लेकिन उन दिन किसी भी नेवी में - वह फ़ौजी हो या ग़ैर फ़ौजी - नज़र का सही होना अज़हद ज़रूरी था। लेकिन मैं तो बारह साल की उमर ही से चश्मा पहन रहा था। इसलिए जब स्कूली जीवन पूरा करके मैं दिल्ली गया और मैंने अपने एक सम्बन्धी से पूछ-ताछ की और उन्होंने पक्के तौर पर कहा कि बतौर इंजीनियर तो शायद मैं मर्चेण्ट नेवी में ले भी लिया जाऊँ, ख़लासी के तौर पर असम्भव है, तो मैंने आशा छोड़ दी, क्योंकि नज़र के साथ-साथ मेरा गणित और भौतिक शास्त्र भी कमज़ोर था। दूसरा काम जो मुझे बहुत रुचता था, वह चिकित्सा का था। मैं डॉक्टर बनना चाहता था। लेकिन यहाँ भी वही दिक्कत थी। मात्र रसायन-शास्त्र और जीव-विज्ञान में प्रवीणता के बल पर डेढ़-दो सदी पहले तो शायद मैं डॉक्टर बन भी जाता, 1960 में यह अकल्पनीय था, क्योंकि इण्टर में तो मुझे गणित और भौतिक शास्त्र की वैतरणी पार करनी ही पड़ती। तब, ये दोनों रास्ते बन्द देख कर मैंने बग़ावती अन्दाज़ में एक अलग दिशा थामी, इण्टर की परीक्षा कॉमर्स ले कर पास करने का फ़ैसला किया, दो साल का पाठ्यक्रम एक साल में पूरा किया, उसके बाद रफ़्तार के धीमी होने से पहले बी.कॉम भी कर डाला। चूँकि पढ़ने-लिखने में ठीक-ठाक था, इसलिए नम्बर अच्छे मिलते गये। मगर अन्दर तो कुछ और ही पक रहा था। कुछ और ही बीज थे जो अँकुआने के लिए मुनासिब मौसम का इन्तज़ार कर रहे थे। इसीलिए शायद मुझे बीच-बीच में बड़ी शिद्दत से महसूस होता था कि कहीं कुछ है जो ठीक नहीं है। आज यही कह सकता हूँ कि सुरेन्द्रपाल और दूधनाथ ने शायद मेरे अन्दर की यह हलचल महसूस कर ली होगी और इन बीजों के अँकुआने का जाने-अजाने प्रबन्ध कर दिया होगा, क्योंकि पिता ने तो कभी सचेत रूप से साहित्य की ओर प्रवृत्त किया नहीं था। उनके लिए साहित्य व्यवसाय या कैरियर नहीं, बल्कि जीवन-शैली था और वे मानते थे कि हर व्यक्ति अपनी जीवन-शैली का चुनाव ख़ुद करता है। यह बात अलग है कि जब मैंने साहित्य के बैलट बॉक्स में अपना मत पत्र अन्तिम रूप से डाल ही दिया तो फिर उन्होंने पिता के आसन के साथ-साथ गुरु-सहकर्मी और सखा का आसन भी ग्रहण कर लिया। सुरेन्द्रपाल और दूधनाथ के साथ, या शायद एक ही अहाते में रहने और नित सुबह-शाम की मुलाक़ात के कारण उनसे भी ज़्यादा, बुद्धिसेन शर्मा ने मेरी उस आरम्भिक और कच्ची कविताई को झेला चूंकि मुझ पर कविता का एक जुनून-सा छाया हुआ था, इसलिए रोज़ दो-एक कविताएँ लिखता और सहज सुलभ बुद्धिसेन जी को जा सुनाता। वे भी माथे पर ज़रा भी शिकन लाये बग़ैर बहुत ध्यान से उन बेहद ख़राब कविताओं को सुनते, राय देते और हौसला-अफ़ज़ाई करते।
आज उन कविताओं को देखता हूँ तो उनके अनगढ़ कच्चेपन पर हँसी आती है, साथ ही आश्चर्य भी होता है कि यह सब मेरा ही किया-कराया है। एक-डेढ़ संग्रह लायक कविताएँ तो होंगी ही, मगर आज वे अजीबो-ग़रीब और दिलचस्प लगती हैं। ‘अलिवृन्द गुंजित उपवनों में झूमता मधुमास’ के साथ-साथ ‘हमने तो माना था तुम्हें मुसहफ़े -एहसास-ए-तफ़सीर /अफ़सोस कि तुम शाम-ए-फ़रोज़ाँ न बन पाये’ जैसी पंक्तियाँ और नयी कविता के प्रभाव में लिखी गयी कविताओं के ‘नॉस्टैल्जिया,’ ‘मशीनी ज़िन्दगी,’ ‘श्रम,’ ‘मृत्यु के पूर्व,’ ‘अँधेरे की मौत,’ ‘प्रश्न और सम्बोधन’ जैसे शीर्षक 1963-64 के उस दौर की निशानदेही करते हैं, जब एक जुनून-सा छाया हुआ था और हर रास्ते पर कुछ क़दम चलने के बाद लगता था यह तो किसी और का रास्ता है और किसी और की मंज़िल पर मुझे ले जायेगा, जहाँ वह पहले ही से आसीन होगा, मेरे लिए जगह न होगी।

(जारी)