Friday, December 31, 2010
मिले नया दम
नये साल की पहली सुबह तुम्हें क्या दूं मैं ?
एक फूल अमन के लिए,
एक बन्दूक आज़ादी के लिए,
एक किताब संग-साथ के लिए ?
तुम्हारी आंखों के लिए नयी चमक ?
तुम्हारे ख़ून के लिए नयी गरमी,
तुम्हरे प्रेम के लिए नयी नरमी,
दिल के लिए नयी आशा, संघर्ष के लिए नयी भाषा ?
नये वर्ष में दूर हों ग़म,
नये वर्ष में मिटें सितम,
नये वर्ष में दुख हों कम,
सिर झुकें नहीं, बांहें थकें नहीं,
टूटें सभी बेड़ियां, मिले नया दम.
--नीलाभ
Thursday, December 30, 2010
देशान्तर
आज के कवि : पाब्लो नेरूदा
संघर्षरत जनता के कवि
आज जब हमारे देश में भी अमरीका की शह पर मुनाफ़े के सौदागरों, तानाशाही तरीक़ों से काम लेने वालों, युद्ध-लाटों का शिकंजा कसता जा रहा है, लोकतन्त्र को कट्घरे में खड़ा कर दिया गया है, लोकतान्त्रिक संस्थाएं या तो ख़ारिज होने के कगार पर पहुंच गयी हैं या ताक़त और दौलत की दासियां बना दी गयी हैं, नेरूदा की कविता और उनका संघर्ष-कामी स्वर हमारे लिए और भी ज़रूरी हो गया है। यहां उनकी कविताओं का एक छोटा-सा चयन पेश है।
नेरूदा की अन्तिम कविता
निक्सन, फ़्रेई और पिनोशे
आज की तारीख़ तक, सन 1973 के
इस कड़वे हृदय-विदारक महीने तक
बॉर्दाबेरी, गारास्ताज़ू और बांज़र के साथ
भूखे लकड़बग्घे हमारे इतिहास के,
चूहे कुतरते हुए उन परचमों को
जिन्हें जीता गया इतने सारे ख़ून और इतनी सारी आग से
बागानों में कीचड़ से लथपथ
नारकीय लुटेरे, हज़ार बार ख़रीदे-बेचे गये क्षत्रप
न्यू यॉर्क के भेड़ियों द्वारा उकसाये गये
डॉलरों की भूखी मशीनें
अपने शहीदों की क़ुरबानी के धब्बों वाली
अमरीकी रोटी और हवा के भड़वे सौदागर
हत्यारे दलदल, रण्डियों के दलाल मुखियों के गिरोह,
लोगों पर कोड़ों की तरह भूख और यातना बरसाने के अलावा
और किसी भी क़ानून से रहित।
उन्हें चीले के ख़िलाफ़ निर्देश प्राप्त होते हैं
लेकिन हमें इन सबके पीछे नज़र डालनी चाहिए,
इन ग़द्दारों और कुतरने वाले चूहों के पीछे कुछ है,
एक साम्राज्य जो दस्तरख़्वान बिछाता है
और पेश करता है आहार और गोलियाँ
वे यूनान में अपनी महान सफलता को दोहराना चाहते हैं
भोज में यूनानी छैले, और पहाड़ों में लोगों के लिए
बन्दूक की गोलियाँ : हमें सामोथ्रेस की नयी
विजय की नयी उड़ान को नष्ट करना होगा, हमें
फाँसी चढ़ाना होगा, उन आदमियों को मारना होगा,
न्यू यॉर्क से हमारी तरफ़ बढ़ाये गये हत्यारे चाकू को
दफ़्न करना होगा,
हमें आग से उस आदमी के मनोबल को तोड़ना होगा
जो सभी देशों में उभर रहा था
मानो ख़ून छिड़की धरती से जन्म ले रहा हो।
हमें हथियार बन्द करना है च्यांग को और ख़ूँख़ार विदेला को
देना है उन्हें धन कारागारों के लिए, पंख
ताकि वे बम बरसा सकें अपनी आबादियों पर, देना है
उन्हें एक अनुदान, कुछ डॉलर, और बाक़ी सब वे
ख़ुद कर लेंगे,
वे झूठ बोलते हैं, रिश्वतें देते हैं, नाचते हैं मुर्दा जिस्मों पर
और उनकी बेगमें पहनती हैं बेशक़ीमती किमख़्वाब के लबादे
लोगों की तकलीफ़ों की कोई अहमियत नहीं है
ताँबे के सौदागरों को इस क़ुरबानी की ज़रूरत है
हक़ीक़त हक़ीक़त है
युद्ध-लाट फ़ौज से अवकाश लेते हैं और
चुक्वीकामाता ताँबा कम्पनी के उपाध्यक्षों के पद
पर आसीन होते हैं
और नाइट्रेट कारख़ाने में चीले का युद्ध-लाट
अपनी तलवार बाँधे तय करता है
वेतन-वृद्धि की अर्ज़ियों में जनता
कितनी रक़म का ज़िक्र कर सकती है
इस तरह वे ऊपर से तय करते हैं,
डॉलरों की रफ़्तार से,
इस तरह बौने ग़द्दार को उसके निर्देश प्राप्त होते हैं,
और युद्ध-लाट पुलिस के रूप में काम करते हैं,
और देश के वृक्ष का तना सड़ता है।
"मैं सज़ा की माँग करता हूँ" से
मैं यहाँ रोने नहीं आया जहाँ वे गिरे
मैं आया हूँ बात करने तुमसे जो अब भी ज़िन्दा हो।
मेरे शब्द सम्बोधित हैं तुम्हें और अपने आपको।
दूसरे भी मरे हैं इससे पहले, याद है ?
हाँ, तुम्हें याद है, इन्हीं जैसे दूसरे, तुम जैसे,
उन्हीं-उन्हीं नामों वाले
बरसाती लॉनक्वीमे में, सान ग्रेगोरियो में,
बंजर रानक्विल में उड़ाऊ हवा की ख़रोंचे खा कर,
धुँए की रेखा और वर्षा की रेखा के साथ-साथ
ऊँचे मैदानों से द्वीप-समूहों तक
दूसरे आदमी भी क़त्ल हुए हैं,
तुम्हारी तरह ऐन्टोनियो सरीखे नाम वाले दूसरे
मछुआरे, लोहार, तुम्हारे जैसे कारीगर।
चीले का हाड़-माँस: चेहरे
हवा के कोड़ों के निशान-लगे, घास के मैदानों
जैसे सूखे चटियल, पीड़ा के हस्ताक्षर लिये।
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हमारे वतन की फ़सीलों के साथ-साथ
बर्फ़ की कोरी, काँच सरीखी चमक के छोर पर दमकती
हरी शाखाओं वाली नदी की भूल भुलैयाँ के पीछे छिपे,
नाइट्रेट के नीचे, फूटते बीज के अंकुर के नीचे,
मैंने पाया अपने लोगों के ख़ून की छितरी बूँदों का घना जमाव
और हर बूँद जल रही थी एक लपट की तरह।
4
यह अपराध घटित हुआ ठीक खुले चौक में।
किसी जंगल में नहीं बहाया गया था यह ख़ून बेक़सूरों का।
पाम्पास की प्यासी छुपा लेने वाली रेत में नहीं
किसी ने उसे ढाँकने की कोई कोशिश नहीं की
यह अपराध देश के हृदय में किया गया...
6
लोगो, यहाँ तुमने पाम्पास के झुके हुए मज़दूरों की तरह
हाथ बढ़ाने का फ़ैसला किया; तुमने उत्तर दिया उन्हें,
तुमने बुलाया उन्हें, आदमी औरत और बच्चा,
एक साल पहले इस चौक में,
और यहाँ तुम्हारा ख़ून फूट पड़ा,
देश के ठीक बीचों-बीच वह बहाया गया,
महल के सामने, सड़क के ठीक बीच में
और कोई उसे पोंछ न पाया
तुम्हारे लाल धब्बे यहीं रहे
सितारों की तरह
अटल और अनम्य
तभी जब चिली का एक के बाद दूसरा हाथ
अपनी उँगलियाँ पाम्पास की तरफ़ बढ़ा रहा था
और तुम्हारे शब्द आ रहे थे हृदय से, एकता के घोष में
लोगो, तभी जब तुम अपने चौक में
आँसुओं और आशा और दुख-भरे
गीतों को गाते हुए चल रहे थे जुलूस में
तभी जल्लाद के हाथ ने चौक को शराबोर कर दिया ख़ून से।
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इसी तरह बनाया गया था हमारे देश का झण्डा:
अपने दुख के चिथड़ों से सिला था उसे लोगों ने;
प्रेम के चमकते धागे से उस पर कशीदाकारी की थी;
अपनी कमीज़ों से या शायद आकाश की तह से
काट कर निकाला था वह नीला टुकड़ा चौकोर,
अपने देश के सितारे को टाँकने के लिए
और उत्सुक हाथों से उसे सजाया था वहाँ एक नगीने की तरह।
बूँद-दर-बूँद उसका रंग सुर्ख़ टटका लाल हो रहा है
वे जो इस चौक में आये थे भरी बन्दूकें लिये,
वे जो आये थे बेरहमी से मारने के हुक्म पर,
उन्हें मिली यहाँ महज़ एक भीड़ गाते हुए लोगों की
एक भीड़ जिसे प्रेम और कर्तव्य ने तब्दील कर दिया था।
और एक पतली-दुबली लड़की सहसा गिरी अपने बैनर को थामे,
एक युवक ने चक्कर खाया अपनी पसलियों में बने छेद से खाँसते हुए।
ख़ामोशी के उस धमाके में लोग उन्हें गिरते हुए ताकते रहे
और धीरे-धीरे उनके दुख की लहर उठी और सर्द
ग़ुस्से की शक्ल में जम गयी।
बाद में उन्होंने अपने बैनर ख़ून में डुबोये
और उन्हें हत्यारों को चेहरों के सामने फहरा दिया
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अपने इन्हीं दिवंगतों के नाम पर
मैं सज़ा की माँग करता हूँ
जिन्होंने हमारे वतन को ख़ून से छिड़का, उनके लिए
मैं सज़ा की माँग करता हूँ
उसके लिए जिसके हुक्म पर यह जुर्म किया गया
मैं माँगता हूँ सज़ा
उस ग़द्दार के लिए जो इन देहों पर कदम रखता
सत्ता में आया, मैं सज़ा की माँग करता हूँ
उन क्षमाशील लोगों के लिए जिन्होंने इस जुर्म को माफ़ किया
मैं सज़ा की माँग करता हूँ
मैं नहीं चाहता हर तरफ़ हाथ मिलाना और भूल जाना,
मैं उनके ख़ून सने हाथ नहीं छूना चाहता।
मैं सज़ा की माँग करता हूँ।
मैं नहीं चाहता वे कहीं राजदूत बना कर भेज दिये जायें,
न यहाँ देश में ढँके-छुपे रह जायें
जब तक कि यह सब गुज़र नहीं जाता।
मैं चाहता हूँ न्याय हो
यहाँ खुली हवा में ठीक इसी जगह।
मैं उन्हें सज़ा दिये जाने की माँग करता हूँ।
मैं कुछ चीज़ें समझाता हूँ
तुम पूछोगे कहाँ हैं गुलबकावली के फूल ?
और गुलेलाला से छिटका हुआ अध्यात्म ?
और वह वर्षा अपनी अनवरत टपटपाहट से रचती हुई
चुप्पियों और चिड़ियों से भरे हुए शब्द ?
मैं तुम्हें बताऊँगा क्या गुज़री है मेरे साथ।
मैं रहता था माद्रिद के एक मुहल्ले में
घण्टियों और घड़ियों और पेड़ों के बीच।
वहाँ से दिखायी देता था स्पेन का सुता हुआ चेहरा
चमड़े के सागर सरीखा।
मेरे घर को वे फूलों का घर कहते थे
क्योंकि हर दरार से फूट पड़ते थे जिरेनियम।
बड़ी गुलज़ार जगह थी मेरा घर
हँसते हुए बच्चों और कूदते हुए कुत्तों के साथ।
याद है राओल ?
क्यों रफ़ेल, याद है ?
याद है फ़ेदेरीको ?
क़ब्र के अन्दर से क्या तुम्हें याद हैं
मेरे घर के छज्जे जहाँ जून का प्रकाश
तुम्हारे मुँह में फूलों को डुबो देता था ?
भाई, मेरे भाई!
हर चीज़
आलीशान, ऊँची आवाज़ें नमकीन सौदा-सुल्फ़,
धड़कती हुई रोटियों के अम्बार,
बाज़ार मेरे उस आर्गुएलेस मुहल्ले के,
उसकी प्रतिमा जैसे मछलियों के बीच
एक ख़ाली फीकी दवात,
कड़छुलों में बहता हुआ तेल,
हाथों और पैरों की एक गहरी चीख़-पुकार
उमड़ती थी सड़कों में,
मीटर, लीटर, ज़िन्दगी की तीखी नाप-जोख,
मछलियों के ढेर,
सर्द धूप में छतों की बिनावट जिस पर
हवा सूचक मुर्ग़ थकान से भर जाता है,
शुद्ध उन्मत्त हाथी दाँत जैसे आलू,
समुद्र तक लहर-दर-लहर टमाटरों का विस्तार।
और एक सुबह लपटों में भड़क उठा यह सब।
एक सुबह अलाव फूट पड़े धरती से,
लोगों को निगलते हुए।
और तब से सिर्फ़ आग,
सिर्फ़ बारूद जब से,
और तब से सिर्फ़ ख़ून।
मराकशों और हवाई जहाज़ों के साथ वे लुटेरे,
अँगूठियों और बेगमों के साथ वे लुटेरे,
काले लबादों में अशीष देते पादरियों के साथ वे लुटेरे
टूट पड़े आसमान से
बच्चों का क़त्ल करने के लिए
और सड़कों पर बच्चों का ख़ून
बहा जैसे बहता है बच्चों का ख़ून
लकड़बग्घे जिन्हें लकड़बग्घे भी ठुकरा दें।
पत्थर जिन्हें भटकटैया भी चख कर थूक दे।
साँप जिनसे साँप भी घृणा करें।
तुमसे रू-ब-रू मैं ने देखा है
स्पेन के रक्त को एक ज्वार की तरह उठते हुए
तुम्हें चुनौतियों और चाकुओं की लहर में डुबोने के लिए।
ग़द्दार जरनैलो :
देखो मेरे निर्जीव घर को
देखो टूटे हुए स्पेन को।
लेकिन हर मरे हुए घर से
फूलों की जगह आता है जलता हुआ फ़ौलाद,
स्पेन के हर गड्ढे से बाहर आता है स्पेन,
हर मारे गये बच्चे से निकलती है
आँखों वाली एक राइफ़ल,
तुम्हारे हर गुनाह से जन्म लेते हैं कारतूस,
जो एक दिन तुम्हारे सीनों में खोज लेंगे तुम्हारे दिल।
और तुम पूछोगे : तुम्हारी कविताएँ
अब सपनों और पत्तियों के गीत क्यों नहीं गातीं
तुम्हारी धरती के ज्वालामुखियों के।
आओ और देखो सड़कों पर बिखरा हुआ ख़ून,
आओ और देखो
सड़कों पर बहता हुआ ख़ून,
आओ और देखो सड़कों पर ख़ून।
"माच्चू पिच्चू के शिखर" से
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पत्थर-दर-पत्थर, और मनुष्य, कहाँ था वह ?
हवा-दर-हवा, और मनुष्य कहाँ था वह?
काल-दर-काल, और मनुष्य कहाँ था वह?
क्या तुम भी थे टूटे हुए नन्हे-से खण्ड,
अधूरे मनुष्य के, भूखे उक़ाब के,
जो आज की सड़कों से,
पुरानी राहों और निर्जीव शरद की पत्तियों के बीच से,
रौंदता चला जाता है आत्मा को क़ब्र के अन्दर तक ?
आह दीन हाथ, दीन पैर, दीन-हीन जीवन.......
ये सुलझी हुई रोशनी के दिन
तुम्हारे अन्दर, जैसे अनवरत वर्षा गिरती हुई
उत्सवी बर्छियों पर ;
बख़्शा क्या उन्होंने पँखुड़ी-दर-पँखुड़ी
ऐसे रिक्त मुख को अपना काला आहार ?
अकाल, जनता का असंख्य-रन्ध्री प्रवाल वृक्ष,
भूख, रहस्यमय पौधा, लकड़हारों का स्रोत,
दुर्भिक्ष, क्या तुम्हारी दाँतेदार सागर-शिला की कौंध
लपकी थी इन ऊँची, उन्मुक्त मीनारों तक ?
मैं पूछता हूँ तुमसे, राजपथों के नमक,
दिखाओ मुझे वह कन्नी,
अनुमति दो स्थापत्य,
एक छोटी-सी छड़ी से पत्थर के पुंकेसरों को छेड़ने की,
हवा की सारी सीढ़ियाँ चढ़ कर शून्य तक पहुँचने की,
आँतों को कुरेदने की, जब तक कि छू न लूँ मनुष्य को मैं।
माच्चू पिच्चू, उठाये क्या तुमने
पत्थर-पर-पत्थर, चिथड़ों की नींव पर ?
कोयले-पर-कोयला, और तल की गहराई में आँसू ?
क्या पैदा की तुमने सोने में आग
और उसके भीतर,
ख़ून की लरज़ती सुर्ख़ बूँदों का स्थूलोदर विधाता ?
लौटा दो मुझे वह ग़ुलाम, जिसे तुमने दफ़्नाया था यहाँ !
झटक लेने दो मुझे इन ज़मीनों से बदनसीबों की बासी सख़्त रोटी,
दिखाओ मुझे उस ग़ुलाम के तार-तार कपड़े और उसका झरोखा ।
बताओ मुझे : जब वह ज़िन्दा था तो कैसे सोता था,
बताओ: क्या नींद में ख़र्राटे भरता था वह
थकान से दीवार में बन गये काले ज़ख़्म-सरीखे अधखुले मुँह से ।
वह दीवार, वह दीवार !
बताओ : क्या उसकी नींद पर बोझ बन जाती थी
पत्थर की हर मंज़िल और क्या वह उनके नीचे
शिथिल हो ढह जाता था, मानो चाँद के नीचे,
उस सारी नींद के साथ !
प्राचीन अमरीका, समुद्री घूँघट से झाँकती वधू,
तुम्हारी उँगलियाँ भी,
अरण्य छोरों से देवताओं की विरल ऊँचाई तक,
प्रकाश और प्रतिष्ठा की विवाह-पताकाओं के नीचे,
नगाड़ों और नेज़ों की गरज में शरीक होती हुईं,
तुम्हारी उँगलियाँ, तुम्हारी उँगलियाँ भी,
जिन्होंने अमूर्त गुलाब को और शीत की रेखा को,
जिन्होंने नये अनाज के रक्त-रँगे उर को परिणत किया
कान्तिमय तत्व की बुनावट में, दुर्भेद्य पथरीले कोटरों में,
उन्हीं से, उन्हीं उँगलियों से ओ दफ़्न अमरीका,
उस गहनतम गर्त में, पित्त-भरी आँतों में,
क्या तुम छिपा कर पाल रहे थे भूख के उकाब को ?
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वैभव के उलझेरे के पार,
पथराई हुई रात के पार, मुझे डुबोने दो हाथ
और हज़ार वर्षों से क़ैद उस पखेरू,
उन बिसरा दिये गये लोगों के बूढ़े हृदय को मेरे अन्दर फड़फड़ाने दो,
आज मुझे भूल जाने दो यह सुख, यह आह्लाद,
जो सारे समुद्र से ज़्यादा विशाल है,
क्योंकि मनुष्य सारे समुद्र और उसके द्वीपों से विशालतर है,
और हमें डुबकी लगानी होगी उसके अन्दर, जैसे किसी कुएँ में,
ताकि हम ला सकें वापस उसकी गहराई से
भेद-भरे पाताली जल और जल-मग्न सच्चाइयों की स्रोतस्विनी ।
भूल जाने दो मुझे : यह पत्थर का विस्तार, सशक्त अनुपात,
लोकोत्तर माप, छत्तों-जैसी तहख़ानेदार नींवें,
और गुनिये से मेरे हाथ को फिसलने दो आज
तल्ख़ ख़ून और टाट के अदृश्य कर्ण पर नीचे तक ।
जब, घोड़े की मुरचायी नाल जैसी लाल पंख-मंजूषाओं-सरीखा,
क्रोधान्ध गिद्ध उड़ने के क्रम में मेरी कनपटियों पर करता है प्रहार
और उसके ख़ूँख़ार परों का तूफ़ान बुहार ले जाता है
ढलवाँ ज़मीनों की स्याह गर्द,
तब मैं देखता नहीं इस पाशविक की झपट,
नहीं देख पाता उसके पंजों की अन्धी दराँती,
मैं देखता हूँ उस पुरातन प्राणी, उस ग़ुलाम को,
खेतों में सोये हुए उस निद्रामग्न को
देखता हूँ मैं एक शरीर, हज़ारों शरीर, एक मर्द, हज़ारों औरतें,
काली आँधी के थपेड़े खातीं, वर्षा और रात से सँवलाई हुईं,
मूर्तियों के दुस्सह भार से पथरायी हुईं :
ओ संगतराश जुआन, विराकोचा के पुत्र,
शीतभक्षक जुआन, इस हरे नक्षत्र के वंशज,
नंगे पैरोंवाले जुआन, फ़ीरोज़े के पौत्र,
उठो, जन्म लो मेरे साथ, मेरे सहजात !
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उठो, जन्म लो मेरे साथ, मेरे सहजात !
बढ़ाओ मेरी ओर अपना हाथ उन अगाध गहराइयों से
बोये गये हैं जिनमें तुम्हारे दुख ।
लौटोगे नहीं तुम इस चट्टानी कारा से ।
उबरोगे नहीं तुम भूमिगत अतीत से ।
वापस नहीं आयेगी तुम्हारी खरखराती सख़्त आवाज़ ।
न उदित होंगे तुम्हारे बिंधे हुए मर्माहत नेत्र अपने कोटरों से ।
देखो मेरी ओर धरती की गहराइयों से,
हरवाहे, जुलाहे, ख़ामोश चरवाहे :
विघ्नहर्ता ऊँटों के पालक :
ख़तरनाक पाड़ों पर चढ़े हुए राजगीर :
एण्डीज़ के आँसुओं के कहार :
कुचली उँगलियों वाले मणिकार :
अँखुवाते बिरवों में लरज़ते किसान :
अपनी माटी में बिखरे कुम्हार :
इस नयी ज़िन्दगी के प्याले तक लाओ
अपने पुराने दबे पड़े दुख ।
दिखाओ मुझे अपना लहू और अपनी झुर्रियाँ,
कहो मुझसे : यहाँ हुए मुझ पर कशाघात
क्योंकि एक रत्न रह गया था मन्द-प्रभ,
या धरती दे नहीं पायी समय पर पत्थर या अनाज।
दिखाओ मुझे वह पत्थर, जिससे ठोकर खा तुम लड़खड़ाये थे,
और वह शहतीर, जिस पर उन्होंने तुम्हें सूली चढ़ाया था।
पुराने चकमकों को रगड़ कर, जला दो
पुराने चिराग़, रोशन कर दो
शताब्दियों से अपने ज़ख़्मों से चिपके हुए कोड़े
और अपने ख़ून से रँगी चमकती कुल्हाड़ियाँ।
मैं आया हूँ तुम्हारे निस्पन्द मुखों की ओर से बोलने ।
जमा हो जायँ धरती पर सर्वत्र बिखरे वे मौन मृत अधर,
और इन गहराइयों से बुनते रहो मेरे लिए सारी बात, सारी रात,
मानो मैं लंगर डाले यहाँ तिरता रहा हूँ तुम्हारे साथ।
बताओ मुझे सब कुछ, बेड़ी-दर-बेड़ी,
बन्द-दर-बन्द, कदम-दर-कदम।
सँजो कर रखी हुई अपनी कटारों पर सान चढ़ा कर
उतार दो उन्हें मेरे हृदय में और मेरे हाथों में,
स्वर्णाभ किरणों की वेगवती धारा की तरह,
दफ़्न चीतों के प्रचण्ड प्रवाह की तरह,
और मुझे बिलखने के लिए छोड़ दो, घण्टों, दिनों, वर्षों,
अन्धे युगों, तारकीय शताब्दियों तक।
और दो मुझे मौन, जल दो, आशा दो ।
दो मुझे संघर्ष, ईस्पात और ज्वालामुखी ।
मेरी देह के चुम्बक से आ चिपकें शरीर ।
लपको मेरी शिराओं और मेरे मुख तक।
बोलो मेरी वाणी और मेरे रक्त के माध्यम से ।।
शराब
वसन्त की शराब...शराब पतझड़ की, शराब
और हमप्याला साथी, शरद की पत्तियों से
अटी हुई मेज़ के गिर्द, दुनिया की विशाल नदी
हमारे गीतों के शोर से इतनी दूर बहने पर कुम्हलाती हुई।
मैं एक मस्त पियक्कड़ हूँ।
तुम यहाँ इसलिए नहीं आये कि मैं फाड़ लूँ
तुम्हारी ज़िन्दगी का एक टुकड़ा। जब तुम जाओ
तो मेरे जीवन का एक हिस्सा लेते जाओ : कुछ गुलाब
या बादाम या जड़ों का ठौर
किसी साथी के साथ बाँटने के लिए।
तुम गा सकते हो मेरे साथ जब तक कि
हमारा प्याला छलक कर मेज़ को उन्नाबी न कर दे।
यह मदिरा तुम्हारे होंटों के लिए
आयी है सीधी धरती से, दाख के धूसर गुच्छों से।
कितनी परछाइयाँ मेरे गीतों की गुज़र गयीं :
पुराने साथियो, मैं ने प्यार किया आमने-सामने,
जीवन से ढालते हुए यह ओज-भरा अप्रतिम विज्ञान
जिसे बाँटता हूँ मैं :
भाईचारा, बीहड़ कोमलता का कुंज।
लाओ, दो मुझे अपना हाथ, मेरे साथ आओ
सरलता से और मत खोजो मेरे शब्दों में कुछ भी
जो किसी पौधे से नहीं आता, जन्म लेता।
मुझसे क्यों पूछते हो एक मज़दूर से ज़्यादा ? तुम्हें मालूम है
मैंने अपना ज़मींदोज़ लोहारख़ाना आग में तपा कर
चोट-दर-चोट बनाया
और अपनी ज़बान के सिवा और किसी तरह बोलना नहीं चाहता।
जाओ वैद्यों को खोजो अगर तुम हवा को बरदाश्त नहीं कर सकते।
आओ धरती की खुरदरी शराब के गीत गायें हम,
पतझड़ के प्यालों से मेज़ को बजायें
जब एक गिटार या एक मौन लाता रहता है हम तक
प्रेम की पंक्तियाँ, अस्तित्वहीन नदियों की भाषा
या अद्भुत छन्द जिनका कोई अर्थ न हो।
हम अनेक हैं
उन सभी लोगों में, जो मैं हूँ, जो हम हैं
मैं किसी एक के बारे में तय नहीं कर पाता।
वे कपड़ों की ओट में मुझसे ओझल हो गये हैं
वे किसी और शहर के लिए रवाना हो चुके हैं।
जब हर चीज़ मुझे एक बुद्धिमान व्यक्ति के रूप में
पेश करने के लिए तैयार जान पड़ती है
वह बेवकूफ़, जिसे मैं अपने भीतर छिपाये चलता हूँ
मेरी बातों का सिरा थाम लेता है
और मेरे मुँह पर क़ब्ज़ा जमा लेता है।
दूसरे मौक़ों पर, मैं उल्लेखनीय लोगों के बीच
बैठा झपकियाँ ले रहा होता हूँ।
और जब मैं पुकारता हूँ अपने साहसी रूप को
तो मुझसे क़तई अनजान एक कायर
लपेट देता है मेरे असहाय ढाँचे को
हज़ारों नन्हीं हिचकिचाहटों से।
जब एक शानदार मकान लपटों में फूट पड़ता है
तब उस दमकलवाले की जगह, जिसे मैं बुलाता हूँ,
एक आगज़नी करने वाला आ धमकता है
और वह मैं होता हूँ। मैं कुछ भी नहीं कर पाता।
क्या करूँ मैं जिससे ख़ुद को पहचान सकूं ?
कैसे करूँ अपने को व्यवस्थित ?
सारी किताबें जो मैं पढ़ता हूँ,
आत्म-विश्वास से भरपूर
चमकीले नायकों की प्रशस्तियों से भरी होती हैं।
मैं ईर्ष्या से जल-भुन कर राख हो जाता हूँ।
और फ़िल्मों में जहाँ गोलियाँ सनसनाती हैं हवा में
मैं घुड़सवारों से रश्क करता रह जाता हूँ।
यहाँ तक कि घोड़े भी मेरी प्रशंसा जीत लेते हैं।
लेकिन जब मैं आवाज़ देता हूँ अपने जांबाज़ रूप को
तो बाहर निकल आता है वही पुराना सुस्तराम।
और यों मैं कभी नहीं जान पाता कि दरअस्ल में हूँ कौन,
न यह कि हम कितने हैं, न यही कि हम अब क्या होंगे।
काश, मैं घण्टी बजा कर बुला सकता
अपना असली रूप, वह जो सचमुच मैं हूँ।
क्योंकि अगर मुझे सचमुच अपने सच्चे रूप की ज़रूरत हो
तो मुझे अपने आपको ग़ायब नहीं होने देना चाहिए।
जब मैं लिख रहा होता हूँ, तब मैं होता हूँ कहीं दूर
और जब मैं लौटता हूँ, तब तक मैं जा चुका होता हूँ।
मैं यह देखना चाहूँगा कि दूसरे लोगों के साथ भी
क्या वही होता है जो मेरे साथ।
देखना चाहूँगा कितने लोग मेरे जैसे हैं
और वे भी क्या ख़ुद को वैसे ही नज़र आते हैं।
जब इस समस्या की खूब छान-बीन कर ली जाय
तब मैं इतनी अच्छी तरह चीज़ों की जानकारी हासिल करूँगा
कि जब मैं अपनी उलझनों को समझाने की कोशिश करूँ
तो मेरी बातें ख़ुद अपने बारे में न हो कर
सारी दुनिया के बारे में हों।
इतने सारे नाम
सोमवार उलझे हुए हैं मंगलवारों से
और हफ़्ता समूचे साल से।
समय को तुम्हारी थकी हुई कैंचियों से
काटा नहीं जा सकता
और दिन के सभी नाम
धुल जाते हैं रात के जल में।
कोई दावा नहीं कर सकता कि उसका नाम पेद्रो है,
न कोई रोज़ा है, न मारिया,
हम सब धूल हैं या रेत
हम सब वर्षा के नीचे वर्षा हैं।
उन्होंने ज़िक्र किया है मुझसे वेनेज़ुएला का,
चीले का और पैरागुए का,
मुझे नहीं पता उनका मतलब क्या है,
मैं तो सिर्फ़ धरती की त्वचा जानता हूँ
और जानता हूँ उसका कोई नाम नहीं।
जब मैं रहता था जड़ों के बीच
वे मुझे फूलों से भी ज़्यादा भाती थीं
और जब मैं किसी पत्थर से बात करता
वह घण्टी की तरह टुनटुनाता।
कितना लम्बा है यह वसन्त
जो जारी रहता है पूरी सर्दियाँ।
समय खो चुका अपने जूते,
एक साल क़ायम रहता है चार सदियाँ।
हर रात जब मैं सोता हूँ
क्या होता है, या नहीं होता, मेरा नाम ?
और जागने पर कौन होता हूँ मैं
अगर मैं नहीं था ‘मैं’ नींद के दौरान।
कहने का मतलब है कि
ज़िन्दगी में उतरते ही
हम जैसे नया जन्म लेते हैं।
हमें अपने मुँह को नहीं भरना चाहिए
इतने सारे लड़खड़ाते नामों से,
इतने सारे थकाऊ शिष्टाचार से,
इतने सारे गूँजते अक्षरों से,
इतने सारे तेर-मेर से,
इतनी सारी काग़ज़ी कारगुज़ारियों से।
मन करता है चीज़ों को उलझा दूँ,
उन्हें एकमेक कर दूँ, उन्हें जन्म दूँ,
गड्ड-मड्ड कर दूँ, निर्वसन कर दूँ उन्हें,
जब तक कि दुनिया का प्रकाश
समुद्र जैसा एकसार न हो जाय --
एक उदार, विपुल सम्पूर्णता और
एक चटचटाती हुई गन्ध में न बदल जाय।
मैं वापस आऊँगा
किसी समय,
आदमी या औरत, मुसाफ़िर
बाद में,
जब मैं ज़िन्दा न रहूँ,
यहाँ देखना, खोजना मुझे यहाँ
पत्थरों और सागर के बीच
फेन में तूफ़ान की तरह उमड़ती रोशनी में
यहाँ देखना, खोजना, मुझे यहाँ
क्योंकि यही वह जगह है जहाँ मैं आऊँगा,
कुछ न कहता हुआ, कोई आवाज नहीं, मुँह नहीं,
शुद्ध।
यहाँ मैं फिर हूँगा पानी की हलचल,
उसके उद्दाम हृदय की,
यहाँ मैं दोनों हूँगा खोया भी और पाया भी,
यहाँ मैं हूँगा शायद पत्थर भी और ख़ामोशी भी।
"बीस प्रेम कविताएं और हताशा का एक गीत" से
हर रोज़ तुम खेलती हो ब्रह्माण्ड के प्रकाश से
रहस्यमयी आगन्तुक, तुम आती हो फूल में और पानी में।
तुम इस सफ़ेद सिर से कहीं अधिक हो जिसे मैं कस
कर थामे रहता हूँ, फूलों के गुच्छे की तरह, हर रोज़ अपने हाथों में।
तुम किसी की तरह नहीं हो क्योंकि मैं तुम्हें प्यार करता हूँ।
आओ, मैं फैला दूँ तुम्हें सुनहरी मालाओं के बीच।
कौन लिखता है तुम्हारा नाम धुँए के अक्षरों में
दक्षिणी सितारों के बीच ?
आह याद करने दो मुझे तुमको जैसे तुम थीं
अपने अस्तित्व से पहले।
सहसा हवा चीख़ती है और मेरी बन्द खिड़की खटखटाती है।
आसमान एक जाल है
छाया सरीखी मछलियों से ठसाठस भरा हुआ
यहाँ सारी हवाएँ साथ छोड़ देती हैं, देर सबेर,
सारी की सारी हवाएँ
अपने कपड़े उतार देती है वर्षा।
चिड़ियां गुज़रती जाती हैं, उड़ती हुईं।
हवा! आह! हवा।
सिर्फ़ मैं लोहा ले सकता हूँ आदमियों की सत्ता से।
आँधी नचाती है साँवली पत्तियाँ
और उन सारी नावों को खोल देती है जो पिछली रात आकाश से बँधी थीं।
तुम यहाँ हो। आह, तुम नहीं भागतीं यहाँ से।
तुम मेरी अन्तिम पुकार का जवाब दोगी
लिपट जाओगी मेरे गिर्द मानो तुम डरी हुई थीं।
फिर भी, एक अजीब छाया कभी तुम्हारी आँखों से हो कर दौड़ती थी
अब, अब भी, नन्हीं, तुम लाती हो मेरे लिए मधुमालती लता
और तुम्हारी छातियों से भी उसकी सुगन्ध आती है।
उस समय जब उदास हवा तितलियों को हताहत करती जाती है,
मैं तुम्हें प्यार करता हूँ और मेरी ख़ुशी तुम्हारे मुँह के आलूचे कुतरती है।
कितनी तकलीफ़ पायी होगी तुमने मुझसे परिचित होने के दौरान
मेरी उद्दाम, एकाकी आत्मा, मेरा नाम जिसे सुन कर वे सब भड़क उठते हैं,
कितनी बार हमने देखा है सुबह के सितारे को जलते हुए, हमारी आँखों को चूमते,
और अपने सिरों के ऊपर सलेटी प्रकाश को घूमते हुए,
पंखों की शक्ल में अपने बल खोलते,
मेरे शब्द बरसते तुम पर, तुम्हें सहलाते हुए,
बहुत दिनों तक मैंने प्यार किया है धूपधुली सीपी तुम्हारी देह को
यहां तक कि मुझे यह भी विश्वास हो गया है कि तुम ब्रह्माण्ड की स्वामिनी हो।
मैं लाऊँगा तुम्हारे लिए पहाड़ों से प्रसन्न पुष्प,
नीलवर्णी फूल, गहरे पिंगल फूल, और चुम्बनों की उद्दाम टोकरी।
मैं चाहता हूँ तुम्हारे साथ करना
जो वसन्त करता है चेरी वृक्षों के साथ
आज की रात
"बीस प्रेम कविताएं और हताशा का एक गीत" से
आज की रात में लिख सकता हूँ अपने सबसे उदास गीत।
लिख सकता हूँ, मसलन, रात है तारों-भरी
और दूर, फासले पर, काँपते हैं नीले सितारे।
रात की हवा आकाश में नाचती और गाती है।
आज की रात में लिख सकता हूँ अपने सबसे उदास गीत।
मैं उसे प्यार करता था, और कभी-कभी वह भी करती थी मुझसे प्यार।
ऐसी रातों को मैं बाँध लेता था अपनी बाँहों में उसे,
अन्तहीन आकाश के नीचे उसे चूमता था बार-बार।
वह मुझे प्यार करती थी, कभी-कभी मैं भी उसे करता था प्यार।
कैसे कोई उसकी विशाल अविचल आँखों से प्यार न करता।
आज की रात में लिख सकता हूँ अपने सबसे उदास गीत।
यह सोचना कि वह मेरे पास नहीं है। यह महसूस करना कि मैं उसे खो चुका हूँ।
बेकिनार रात को सुनना, उसके बिना और भी बेकिनार।
और आत्मा पर झरते हैं छन्द, जैसे ओस चारागाह पर।
क्या फ़र्क पड़ता है कि उसे बाँध न सका मेरा प्यार
रात तारों-भरी है और वह मेरे पास नहीं है।
बस इतनी ही है बात। दूर कोई गा रहा है। फ़ासले पर।
मेरी आत्मा अतृप्त है उसे खो कर
मेरी नज़रें खोजती हैं उसे मानो उसे पास खींच लाने के लिए।
मेरा हृदय उसे ढूँढता है और वह मेरे पास नहीं है।
वही रात, उन्हीं वृक्षों को रुपहला बनाती हुई।
हम, उसी समय के, अब वैसे नहीं रह गये हैं।
मैं अब उसे प्यार नहीं करता, यह तय है, लेकिन मैं उसे कितना प्यार करता था।
मेरी आवाज़ हवा को हेरती थी ताकि पहुँच सके उसके कानों तक।
किसी और की, अब वह होगी किसी और की। जैसे वह थी मेरे चुम्बनों से पहले।
उसकी आवाज़, उसकी शफ़्फ़ाफ़ देह। उसकी निस्सीम आँखें।
मैं अब उसे प्यार नहीं करता, यह तय है, लेकिन मैं उसे कितना प्यार करता था।
प्यार कितना क्षणिक है और भूलना कितना दीर्घ।
चूँकि ऐसी रातों में बाँध लेता था मैं अपनी बाँहों में उसे,
मेरी आत्मा अतृप्त है उसे खो कर
भले ही यह आखिरी पीड़ा हो जो मैं उससे पाऊँ
और यह आख़िरी गीत मैं रचूँ उसके लिए।
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पाब्लो नेरूदा का जन्म 1904 में दक्षिणी चिली के पर्राल नामक स्थान में हुआ, लेकिन उनका बचपन तेमूको में बीता, जो एक छोटा-सा प्रान्तीय कस्बा था। नेरूदा का वास्तविक नाम नेफ़्ताली रिकार्दो रेयेज़ था, लेकिन अपने सम्बन्धियों के उपहास के डर से वे पाब्लो नेरूदा के नाम से लिखने लगे -- नेफ़्ताली को पाब्लो में बदल कर और 19वीं सदी के एक चेक लेखक नेरूदा का नाम उसके आगे जोड़ कर। अपनी प्रारम्भिक कविताओं ही से नेरूदा सान्तियागो (चिली) में अपने सहपाठियों के बीच काफ़ी प्रसिद्ध हो गये थे, लेकिन व्यापक ख्याति उन्हें अपनी दूसरी पुस्तक -- ‘बीस प्रेम कविताएँ और हताशा का एक गीत’ (1924) -- से मिली।
लातीनी अमरीका के अन्य देशों की तरह चिली भी कभी-कभार अपने कवियों को राजनयिक पद दे कर सम्मानित करता है। 1927 में नेरूदा वाणिज्य-दूत के रूप में रंगून आये। अगले पाँच वर्ष उन्होंने दक्षिण-पूर्व एशिया के विभिन्न दूतावासों में बिताये और इस दौरान, दो परस्पर विरोधी संस्कृतियों के दबावों की वजह से, एकाकीपन का वह एहसास, जो उनकी प्रारम्भिक प्रेम-कविताओं में नज़र आता है, एक वीरान, सर्द फीकेपन में परिणत हो गया। उनकी कविता आत्मकेन्द्रित और आत्मोन्मुखी होती चली गयी। लेकिन नेरूदा की यह मनःस्थिति ज़्यादा दिनों तक क़ायम नहीं रही। 1934 में उन्हें बार्सेलोना (स्पेन) भेज दिया गया और अगली फ़रवरी में मैद्रिद -- जहाँ अपने सरकारी काम-काज से उन्हें इतना वक्त मिल जाता था कि वे कविताएँ लिख सकें, मैद्रिद की सँकरी सड़कों पर घूम सकें और मित्रों से गप-शप कर सकें। इन मित्रों में सुप्रसिद्ध स्पेनी कवि फ़ेदेरिको गार्सिया लोर्का भी थे।
तभी नेरूदा की ज़िन्दगी और उनके काव्य का वह युग शुरू हुआ, जिसकी गूँज -- उनकी अन्य वैचारिक और भावनात्मक चिन्ताओं के बावजूद -- ज़िन्दगी के अन्त तक सुनायी देती रही। मैद्रिद की सड़कें फ़ासिस्त बूटों की धमक से गूँज उठीं और जुलाई 1936 में स्पेनी गृहयुद्ध ने, लोर्का की हत्या के हादसे के साथ मिल कर उस आत्मोन्मुखी मनःस्थिति को तोड़ दिया, जिसके प्रभाव में उनकी कविता आत्मकेन्द्रित हो गयी थी। 1936 से वे लगातार साम्यवाद के निकट आते चले गये (हालाँकि साम्यवादी दल की सदस्यता उन्होंने लगभग नौ वर्ष बाद ग्रहण की)। ‘प्रतिबद्ध’ कविताओं के उनके पहले कविता-संग्रह -- ‘हृदय में स्पेन’ (1937) -- में एक सीधी-सपाटता और तीखापन है, जो अब तक लिखी गयी उनकी कविताओं में नहीं था।
नेरूदा और उनकी स्पेनी भाषा का संसार, स्पेन और यूरोप से उस हद तक नहीं जुड़ा है, जिस हद तक चिली से -- लातीनी अमरीका से। अपनी प्राणहारी जड़ें उन्होंने चिली और लातीनी अमरीका के लोक-काव्य में उतारीं और वहीं से अपने काव्य की ताज़गी और शक्तिमन्त अभिव्यक्ति प्राप्त की।
अपनी कविता के बारे में नेरूदा ने कहा था ‘दुनिया बदल गयी है और मेरी कविता भी बदल गयी है’ और इस परिवर्तन का प्रमाण उन्होंने कोरे शब्दों से नहीं, वरन अपनी सक्रियता से और अपनी अभिव्यक्ति के माध्यम से दिया। स्पेनी गृहयुद्ध के बाद नेरूदा की कविताओं में जनवादी स्वर बराबर मौजूद दिखायी देता चाहे वे नितान्त निजी भावनाओं को व्यक्त कर रहे हों। इसी जनवादी रुझान के कारण उन्हें कई बार चिली के तानाशाहों के कोप का शिकार भी बनना पड़ा और कुछ समय तक वे भूमिगत भी हुए। पहले दौर में गॉन्ज़ालेज़ विदेला की तानाशाही का कोप-भाजन बनने पर भूमिगत होने के बाद उन्होंने आर्जेण्टाइना के पत्र ‘ला होरा’ को दिये गये इण्टर्व्यू में कहा था -- "ऐसा लेखक, जो राजनीति से अलग-थलग खड़ा रहे, कोरी कल्पना है -- पूँजीवाद द्वारा गढ़ी गयी और सम्पोषित। दान्ते के ज़माने में ऐसे लेखक नापैद थे। ‘कला, कला के लिए’ का सिद्धान्त बड़े व्यापार ने प्रतिपादित किया है। थियोफ़ील गॉतिये ने अमीर व्यापारियों और शोषकों के आदर्शों और मान्यताओं का गुणगान किया था। लेखकों ने ऐसे विचारों को अपना लिया -- इससे उभरते हुए पूँजीवाद की विजय हुई। ईथियोपिया की ओर उस महान विद्रोही --आर्थर रैंबो -- का पलायन, शार्लेविल के सॉसेज-व्यापारियों की निर्विवाद जीत थी।.....यह नाम -- ‘पश्चिमी संस्कृति’ --उन चालाक जल्लादों -- हिटलर और गोएबल्स -- ने गढ़ा और प्रचारित किया था। उन्होंने इस आसव को तैयार किया और बोतलों में भरा; और आज इसे स्टैण्डर्ड ऑयल या उड़न-क़िलों के निर्माताओं पर आश्रित -- मार्शल, फ़ोर्ड मोटर्स, कोका कोला और ऐसे ही दूसरे तटस्थ दार्शनिकों द्वारा वितरित किया जा रहा है।....हाल तक मैं एक नये युद्ध की कोई सम्भावना नहीं देखता था, लेकिन वॉल स्ट्रीट में भाड़े के सिपाहियों के जो सरदार हैं -- सीनों में बम छुपाये -- वे आशंका उपजाते हैं..."
नेरूदा के इन शब्दों को पढ़ते हुए, उनकी गहरी राजनीतिक समझ का एहसास तो होता ही है, द्रष्टा के रूप में समय के धुँधलकों के पार देखने वाली उनकी नज़र का भी पता चलता है।
इस पहली जलावतनी के वर्षों बाद नेरूदा ने साल्वादोर आयेन्दे की समाजवादी सरकार के सहयोगी के रूप में कुछ साल निस्बतन सुख-शान्ति से गुज़ारे लेकिन फिर 1973 में औगस्तो पिनोशे द्वारा आयेन्दे का तख़्ता पलटे जाने के दौरान हुई उथल-पुथल में दिल के दौरे से उनका निधन हो गया। लेकिन उनका सन्देश -- ‘मैं आया हूँ तुम्हारे निस्पन्द मुखों की ओर से बोलने’ -- उसी तरह ज़िन्दा रहेगा, जिस तरह उनकी कविताएँ। क्योंकि जनता से, ख़ास तौर पर अभावग्रस्त, तकलीफ़-ज़दा जनता से उनका गहरा सम्पर्क था कि उनके स्रोत धरती और उसके जन-समुदाय में थे। अपनी ज़िन्दगी, अपने कर्म और अन्त में अपनी मृत्यु में नेरूदा ने सिद्ध कर दिया कि वे शोषित मानवता के, संघर्षरत जनता के, कवि हैं, और रहेंगे। और इसी संघर्षरत जनता के पक्षधर के रूप में उनकी सार्थकता मृत्यु के बाद भी रहेगी।
Tuesday, December 28, 2010
देशान्तर
आज के कवि : तादेऊष रोज़ेविच
वे बोझ उतारते हैं
वह तुम्हारे पास आता है
और कहता है
तुम ज़िम्मेदार नहीं हो
न तो दुनिया के लिए
न दुनिया के अन्त के लिए
यह भार उठा लिया गया है तुम्हारे कन्धों से
तुम बच्चों और चिड़ियों की तरह हो
जाओ, खेलो
और वे खेलते हैं
भूल जाते हैं वे
कि समकालीन कविता का मतलब है
साँस के लिए संघर्ष
एक जीवनी से
जन्म तिथि
जन्म स्थान
रादोम्स्को 1921
हाँ
मेरे बेटे की स्कूली कापी के
इस पन्ने पर
दर्ज है मेरी जीवनी
थोड़ी-सी जगह अब भी बाकी बची है
कुछ हिस्से ख़ाली हैं
मैंने सिर्फ़ दो वाक्य काटे हैं
लेकिन एक जोड़ दिया है
थोड़ी देर में
मैं कुछ शब्द और लिख दूँगा
तुम पूछते हो
मेरी ज़िन्दगी की ज़्यादा महत्वपूर्ण घटनाओं और
तारीख़ों के बारे में
यह दूसरों से पूछो
मेरी जीवनी लगभग ख़त्म हो चली थी
कई मौक़ों पर
कुछ अच्छे कुछ ख़राब
चुटिया
जब काफ़िले की सारी औरतों के सिर
मूँड़ दिये गये
चार मज़दूरों ने चीड़ की टहनियों के
झाड़ुओं से
बुहार कर इकट्ठा किया
साफ़ शफ़्फ़ाफ़ शीशे के पीछे
पड़े हैं रूखे कड़े बाल
उनके जो गैस की भट्ठियों में
दम घोंट कर मारी गयीं
क्लिप और कंघियाँ भी हैं
इन बालों में
रोशनी में लिश्कारा नहीं मारते ये बाल
हवा नहीं छितराती इन्हें
नहीं छूता इन्हें कोई हाथ
या बारिश या होंट
बड़े-बड़े काँच-जड़े बक्सों में
सूखे बालों के बादल
उनके जो दम घोंट कर मारी गयीं
और एक फीके पड़ गये रिबन से बंधी
कुम्हलाई चुटिया
जिसे स्कूल में खींच कर भागते थे
शरारती लड़के
(संग्रहालय, आउश्वित्ज़, 1948)
मेरी कविता
कुछ नहीं समझाती
कुछ नहीं स्पष्ट करती
कोई क़ुरबानी नहीं करती
सर्वव्यापक नहीं है
किसी आशा पर खरी नहीं उतरती
खेल के नये नियम ईजाद नहीं करती
कोई हिस्सा नहीं लेती खेल में
उसकी एक सुनिश्चित जगह है
जिसे उसको भरना है
अगर वह कोई गूढ़ भाषा नहीं है
अगर वह कोई मौलिक बात नहीं कहती
अगर उसमें कोई आश्चर्य नहीं छिपा
तो प्रकट रूप से यही होना भी चाहिए
अपनी ज़रूरतों,
अपनी सीमा और विस्तार के अनुसार
चलती हुई
वह ख़ुद अपने से भी हार जाती है
वह किसी और कविताई की जगह नहीं हड़पती
न कोई और कविताई ले सकती है उसकी जगह
सबके लिए खुली
रहस्य से रहित
उसके सामने बहुत-से कर्तव्य हैं
जिन्हें वह कभी पूरा नहीं कर पायेगी
मैं देखता हूँ पागलों को
मैं देखता हूँ पागलों
जो चले थे समुद्र पर
अन्त तक विश्वास करते हुए
और डूब गये
अब भी वे डगमगाते हैं
मेरी अस्थिर नाव
बेरहमी से ज़िन्दा
मैं परे धकेलता हूँ
वे कड़े हठीले हाथे
परे धकेलता रहता हूँ उन्हें
साल-दर-साल
बच निकलने वाला
मैं चौबीस का हूँ
वध को ले जाया गया
जीवित बच निकला
नीचे दिये गये शब्द खोखले पर्याय हैं :
आदमी और जानवर
प्यार और नफ़रत
दोस्त और दुश्मन
अँधेरा और रोशनी
मनुष्यों और पशुओं को मारने का तरीक़ा एक-सा है
मैंने देखा है यह :
ट्रकों में भरे बोटी-बोटी किये गये लोग
जो बचाये नहीं जा सकेंगे
विचार महज़ शब्द हैं :
सदाचार और अपराध
सच और झूठ
सौन्दर्य और साहस
कायरता और कुरुपता
सदाचार और अपराध का वज़न बराबर है
मैंने देखा है इसे :
ऐसे आदमी में जो एक साथ
अपराधी भी था और सदाचारी भी
मैं खोजता हूँ एक गुरु और साईं
जो लौटा दे मेरी नज़र
मेरी सुनने और बोलने की ताक़त
जो एक बार फिर विचारों और वस्तुओं को नाम दे
जो अलग कर दे अँधेरे को रोशनी से
मैं चौबीस का हूँ
वध के लिए ले जाया गया
बच निकला जीवित
शुद्धि
आँसुओं पर लजाओ मत
मत लजाओ आँसुओं पर युवा कवियो
विस्मय से देखो चाँद को
चाँदनी रात को
विस्मय करो निष्कलंक प्रेम और बुलबुल के गीत पर
स्वर्ग जाने से डरो मत
हाथ बढ़ाओ नक्षत्रों की तरफ़
आँखों की तुलना करो सितारों से
पीले फूल को, नारंगी तितली को
सूर्य के उगने और डूबने को देख कर
लरज़ने दो हृदय
भोले-भाले कबूतरों को चुग्गा दो
एक मुस्कान के साथ निरखो
कुत्ते इंजन फूल और गैंडे
बात करो आदर्शों की
जवानी के लिए एक गीत गाओ
भरोसा करो अजनबी राहगीर पर
निष्कपट तुम विश्वास करने लगोगे सौन्दर्य पर
स्पन्दित हो कर विश्वास करने लगोगे तुम इन्सान पर
आँसुओं पर लजाओ मत
मत लजाओ आँसुओं पर युवा कवियो
वापसी
अचानक खिड़की खुलेगी
और माँ पुकारेगी
भीतर आने का वक्त हो गया है
दीवार फट जायेगी
मैं प्रवेश करूँगा स्वर्ग में
मिट्टी-सने जूते पहने
मेज़ तक आऊँगा
और रुखाई से सवालों का जवाब दूँगा
मैं बिलकुल ठीक हूँ मेरा पीछा छोड़ो
हाथों में सिर दिये मैं
बैठा रह जाता हूँ। कैसे बताऊँ मैं उन्हें
उस लम्बे और पेचीदा
रास्ते के बारे में
यहाँ स्वर्ग में माँएँ
बुन रही हैं हरे गुलूबन्द
मक्खियाँ भिनभिनाती हैं
छै दिन की मेहनत के बाद
पिता सिगड़ी के पास झपकी ले रहे हैं
नहीं --यक़ीनन मैं उन्हें
नहीं बता सकता कि
लोग एक-दूसरे का
गला काटने पर उतारू हैं
मुलाक़ात
जब मैं यहाँ अन्दर आया
मैं उसे पहचान नहीं सका
ठीक भी है
इस बेढंगे गुलदान में
सलीके से इन फूलों को सजाने में
इतना समय लगना सम्भव है
‘इस तरह मेरी तरफ़ मत देखो’
उसने कहा
मैं उसके कतरे बालों वाले सिर पर
फेरता हूं अपना खुरदुरा हाथ
‘उन्होंने मेरे बाल काट दिये,’ वह कहती है,
‘देखो ज़रा क्या किया है उन्होंने मेरे साथ’
अब फिर से वह आसमानी-नीला सोता
फड़कने लगता है उसकी गर्दन की पारदर्शी त्वचा के चीचे
हमेशा की तरह
जब वह घूँटती है अपने आँसू
इस तरह क्यों घूरती है वह
मैं सोचता हूँ
’ख़ैर मुझे जाना होग’
मैं ज़रूरत से ज़्यादा ऊँचे स्वर में कहता हूँ
और कण्ठ में एक गोला-सा लिये
जाता हूँ उसे छोड़ कर
कैसी ख़ुशकिस्मती
कैसी ख़ुशकिस्मती है
मैं बीन सकता हूँ जंगल में बेर
मेरा ख़याल था न कहीं कोई
जंगल है न बेर
कैसी ख़ुशकिस्मती है
लेट सकता हूँ मैं पेड़ की छाया में
मेरा ख़याल था
अब छाया नहीं देते पेड़
कैसी ख़ुशकिस्मती है
तुम्हारे साथ हूँ मैं
किस कदर धड़कता है मेरा दिल
मेरा ख़याल था
आदमी के दिल नहीं होता
साक्षी
मेरी जान, तुम्हें पता है मैं घर में हूँ
लेकिन अचानक मत आओ
मेरे कमरे में
हो सकता है तुम देखो मुझे
ख़ामोश
कोरी चादर पर पड़ा हुआ
क्या तुम लिख सकते हो
प्रेम के बारे में
जब तुम्हें सुनाई दे रही हों
कत्ल और बेइज़्ज़त किये लोगों की चीख़ें
क्या तुम मौत के बारे में
लिख सकते हो
बच्चों के नन्हे चेहरों में
झाँकते हुए
मेरे कमरे में
अचानक मत जाओ
तुम देखोगी
प्रेम का
एक गूँगा और शपथ-बंधा साक्षी
मौत से पराजित
छोड़ दो हमें
भूल जाओ हमें
हमारी पीढ़ी को
इन्सानों की तरह जियो
हमें भूल जाओ
हमने ईर्ष्या की
पौधों और पत्थरों से
हमें कुत्तों से रश्क रहा
काश मैं चूहा होता
मैंने उससे तब कहा था
काश मैं पैदा ही न हुई होती
काश मैं सो सकती
और युद्ध ख़त्म होने पर जागती
उसने आँखें मूंदे कहा था
भूल जाओ हमें
मत पूछो हमारी जवानी के बारे में
हमें अकेला छोड़ दो
वापसी
अपनी कुछ कविताओं से
मैं कभी समझौता नहीं कर पाता
वर्ष बीतते हैं
मैं उनसे समझौता नहीं कर पाता
तो भी मैं उन्हें नकार नहीं सकता
वे ख़राब हैं लेकिन मेरी हैं वे
मुझ से दूर वे अपनी ज़िन्दगी बसर करती हैं
उदासीन और मृत
लेकिन एक क्षण ऐसा आयेगा जब वे सब-की-सब
मेरे पास भागती हुई लौट आयेंगी
सफल और विफल
लँगड़ी और साबुत
जिनकी हँसी उड़ी और जो अस्वीकृत हुईं
सब मिल कर एक हो जायेंगी
बूढ़ी औरतों का क़िस्सा
मुझे पसन्द हैं बूढ़ी औरतें
बदसूरत औरतें
बुरी औरतें
वे इस धरती का नमक हैं
इन्सानी कचरे से
उन्हें घिन नहीं आती
वे जानती हैं
प्यार और विश्वास के
सिक्के की
दूसरी तरफ़ क्या है
वे आती हैं वे जाती हैं
तानाशाह भड़ैती करते रहते हैं
मनुष्य के ख़ून से रँगे हाथ लिये
बूढ़ी औरतें तड़के उठती हैं
गोश्त फल रोटी ख़रीदती हैं
सफ़ाई करती हैं खाना बनाती हैं
खड़ी रहती हैं सड़क पर
हाथ बाँधे ख़ामोश
बूढ़ी औरतें अमर हैं
हैमलेट जाल में घिरा ग़ुस्से से
पगलाता है
फ़ाउस्ट निभाता है
हास्यास्पद रूप से नीच भूमिका
रास्कॉल्निकॉव कुल्हाड़ी से वार करता है
बूढ़ी औरतें
अनश्वर हैं
वे रहम से मुस्कराती हैं
एक देवता मरता है
बूढ़ी औरतें हमेशा की तरह उठती हैं
रोटी शराब मछली ख़रीदती हैं
सभ्यता मरती है
बूढ़ी औरतें भोर में उठती हैं
खिड़कियाँ खोलती हैं
कचरा बहाती हैं
आदमी मरता है
वे शव को नहलाती हैं
दफ़नाती हैं मृतकों को
फूल लगाती हैं
मुझे पसन्द हैं बूढ़ी औरतें
बदसूरत औरतें
बुरी औरतें
वे अनन्त जीवन में विश्वास करती हैं
वे धरती का नमक हैं
पेड़ की छाल हैं वे
और पशुओं की विनम्र आँखें
कायरता और वीरता
महानता और नीचता
देखती हैं वे सही परिप्रेक्ष्य में
रोज़मर्रा की ज़रूरतों के
पैमाने से
उनके बेटे अमरीका की खोज करते हैं
थर्मोपाइले के युद्ध में काम आते हैं
चढ़ते हैं सूलियों पर
जीत लेते हैं ब्रह्माण्ड
बूढ़ी औरतें सुबह-सवेरे
दूध रोटी गोश्त ख़रीदने निकलती हैं
वे शोरबे में मसाला डालती हैं
खिड़कियाँ खोलती हैं
सिर्फ़ मूर्ख हँसते हैं
बूढ़ी औरतों पर
बदसूरत औरतों पर
बुरी औरतों पर
क्योंकि ये खूबसूरत औरतें हैं
अच्छी औरतें हैं
बूढ़ी औरतें हैं
वे कोख में बढ़ता बीज हैं
रहस्य से रहित रहस्य हैं वे
वह गोला जो लुढ़कता है
बूढ़ी औरतें
पवित्र बिल्लियों के
परिरक्षित शव हैं
वे नन्हें झुर्रीदार फल हैं
सूखते हुए जलाशय हैं
या गदराये
अण्डाकार बुद्ध
जब वे मरती हैं
एक आँसू
आँख से बहता है
और घुल जाता है
एक नन्हीं लड़की के होंटों पर
खिली मुस्कान में
संशोधनार्थ
मौत नहीं सुधारेगी
कविता की एक भी पंक्ति
वह कोई प्रूफ़-रीडर नहीं है
वह कोई हमदर्द
महिला-सम्पादक नहीं है
एक ख़राब रूपक अनश्वर है
एक घटिया दिवंगत कवि
महज़ एक घटिया दिवंगत कवि है
ऊबाऊ आदमी
मौत के बाद भी ऊब पैदा करता है
मूर्ख क़ब्र के पार से भी जारी रखता है
अपनी मूर्खतापूर्ण बकवास
बहुत-से कामों में व्यस्त हो कर
बहुत ज़रूरी कामों में व्यस्त हो कर
मैं भूल गया
हमें
मरना भी होता है
ग़ैर ज़िम्मेदारी से
मैं इस कर्तव्य को टालता रहा
या उसे निभाता रहा
लापरवाही से
कल से
सिलसिला दूसरा होगा
मैं मरना शुरू करूँगा सलीक़े से
सियानेपन से
उम्मीद के साथ
बिना समय ज़ाया किये
सम्बोधन
भावी पीढ़ियों को नहीं
यह बेमानी होगा
क्या पता है वे सब दानव हों
उच्च आयोग ने
शासकों, शक्तियों और फ़ौजी दफ़्तरों ने
साफ़ चेतावनी दी है
कि अब दानव आयेंगे
जिनके दिमाग़ नहीं होगा
इसलिए भावी पीढ़ियों को नहीं
बल्कि उनको
जो ठीक इसी क्षण
आंखें मूंदे अपनी संख्या बढ़ा रहे हैं
भावी पीढ़ियों को नहीं सम्बोधित कर रहा
मैं इन शब्दों से
मैं मुख़ातिब हूं नेताओं से
जो मुझे नहीं पढ़ेंगे
धर्म गुरुओं से
जो मुझे नहीं पढ़ेंगे
सेना नायकों से
जो मुझे नहीं पढ़ेंगे
मैं मुख़ातिब हूं
तथाकथित "आम लोगों" से
जो मुझे नहीं पढ़ेंगे
मैं उन सबसे कहूंगा
जो मुझे पढ़ते नहीं
न सुनते हैं, न जानते हैं
न मेरी ज़रूरत महसूस करते हैं
उन्हें मेरी ज़रूरत नहीं
पर म्झे उनकी ज़रूरत है
__________________________________________________________________
तादेऊष रोज़ेविच का जन्म 1921 में पोलैण्ड के रादोम्स्क नगर में हुआ. वे उस पीढ़ी के लोगों में से हैं जिनकी शिक्षा दूसरे महायुद्ध के कारण्क बीच ही में रुक गयी थी. वैसे जहां तक ख़ुद रोज़ेविच का सवाल है, उन्होंने 1938 में ही आर्थिक कठिनाइयों के चलते पढ़ाई छोड़ दी थी. युद्ध के दौरान रोज़ेविच आजीविका के लि, छिटपुट मज़दूरी करते रहे. पोलैण्ड पर जर्मनी के क़ब्ज़े के समय वे एक कारख़ाने में काम कर रहे थे. 1943-44 में वे अपने भाई जानुश के साथ हिटलर विरोधी छापामारों में शामिल हो गये और इसी गुप्त सैनिक संगठन में सक्रिय रहते हुए उन्होंने लड़ाई के साथ-साथ शिक्षा और कविता जारी रखी. हालांकि छापामार संघर्ष से रोज़ेविच बच निकले, उनके भाई को गोली मार दी गयी थी. लड़ाई ख़त्म होने के बाद उन्होंने पोलैण्ड के प्रसिद्ध क्रैकाओ विश्वविद्यालय में कला के इतिहास का अध्ययन किया.
रोज़ेविच का पहला कविता संग्रह "चिन्ता" 1947 में प्रकाशित हुआ. अब तक वे बीस से ज़्यादा कविता संग्रह और कई नाटक प्रकाशित कर चुके हैं. इसके अलावा उन्होंने कुछ फ़िल्म पटकथाएं और विविध गद्य भी लिखा है. 1966 में उन्हें पोलैण्ड का सर्वोच्च साहित्यिक पुरस्कार दिया गया, लेकिन उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि 1971 में पोलैण्ड के चुने हुए युवा कवियों द्वारा देश के सबसे महत्वपूर्ण जीवित कवि घोषित करके सम्मानित किया जाना था.
रोज़ेविच की कविता युद्ध और अमानवीयता के ख़िलाफ़ मनुष्य के बुनियादी विवेक की वकालत करती है. उनका स्वर अण्डरटोन्ज़ का स्वर है, लेकिन वे उसे इस तरह काम में लाते हैं कि युद्ध और अमानवीयता और भी भयावह रूप से मुखर हो जाती है. पीड़ा और विनाश के चित्र अंकित करते हुए रोज़ेविच की नज़र करुणा और मानवीयता के उन जज़्बों पर बराबर टिकी रहती है जो दमन और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ मनुष्य के अथक संघर्ष में उसका साथ देती है. इसीलिए, उनकी कविता में पारदर्शी निश्छलता और मार्मिक वक्रता की धाराएं एक साथ मौजूद रहती हैं.
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Monday, December 27, 2010
देशान्तर
आज के कवि : जीवनानन्द दास
"ऋणी है मनुष्य पृथ्वी का ही"
आज कविता जहाँ पहुंची है, वहाँ से पीछे मुड़ कर देखते हुए निश्चय ही जीवनानन्द दास की कविताएँ पुरातन लगती हैं, वैचित्र्यपूर्ण भी। आज की कविता बहुत हद तक रवीन्द्रनाथ की बजाय नज़रुल इस्लाम से और जीवनानन्द दास की बजाय सुकान्त भट्टाचार्य से प्रेरणा और शक्ति पाती है। इसके बावजूद बांग्ला कविता में जीवनानन्द दास का महत्व है और रहेगा। उनकी कविता तीव्र अन्तर्विरोधों और समाज से सामंजस्य न बैठा पाने की कविता है। अपने चारों ओर के समाज की पतनशीलता से विमुख हो कर जीवनानन्द दास ने या तो धुर बंगाल के ग्रामीण परिवेश में शरण ली या फिर हिन्दुस्तान, मिस्र, असीरिया और बैबिलौन के धूसर अतीत में। इसीलिए उनकी कविता में आक्रोश की जगह अवसाद का पुट अधिक गहरा है। वे बेहतर समाज की इच्छा तो करते हैं, पर उसकी राहों का सन्धान करने की जद्दोजहद उनकी कविता में नहीं है। इसीलिए सरसरी नज़र से पढ़ने वाले को ऐसा महसूस हो सकता है कि उनकी कविता पलायन की कविता है; लेकिन उनकी कविता में मनुष्य और उसके सुख-दुख, हर्ष-विषाद की निरन्तर उपस्थिति इस बात को झुठलाती है और उसे यों ही ख़ारिज नहीं किया जा सकता। इस अर्थ में उनकी कविता की प्रासंगिकता बनी रहेगी। "एक अद्भुत अँधेरा" जैसी कविता तो मानो आज का दस्तावेज़ है।
वैसे अपनी कविता के बारे में जीवनानन्द दास ने काफ़ी खुल कर लिखा है और वे अपनी कविता पर लगे लगभग सभी आरोपों से परिचित भी थे। उनका कहना है - ‘‘मेरी कविता पर या ऐसी कविताओं के कवि पर निर्जन या निर्जनतम होने का आरोप है। कोई इन्हें मूलतः प्रकृति की कविताएँ कहता है, कोई इन्हें मूलतः इतिहास और समाज चेतना की कविताएँ मानता है, कुछेक को ये चेतनाशून्य भी लगती हैं। किसी के विश्लेषण में ये महज़ प्रतीकों की, अवचेतन मन की, सुर्रियलिस्ट कविताएँ हैं। और भी कई तरह के विश्लेषणों से मैं अवगत हूँ। कमोबेश सभी मत, आरोप, विश्लेषण सही हैं, मगर किसी कविता-विशेष या वाक्यांश-विशेष के लिए सही हैं -- मेरी समग्र कविताओं के लिए नहीं। बहरहाल, कविता लिखने और पढ़ने का सम्बन्ध अन्ततः मनुष्य से है; इसीलिए पाठकों और आलोचकों के विचारों और निष्कर्षों में इतना तारतम्य नज़र आता है। पर इस तारतम्य की एक सीमा भी है जिसे पार करने में बड़े आलोचकों के लिए एक ख़तरा हो सकता है।’’
जीवनानन्द दास का जन्म 17 फ़रवरी 1893 को बारिशाल, पूर्वी बंगाल में हुआ और निधन 22 अक्तूबर 1954 को कलकत्ता में एक ट्राम दुर्घटना में।
एक अद्भुत अँधेरा
एक अद्भुत अँधेरा आया है इस पृथ्वी पर आज,
जो सबसे ज़्यादा अन्धे हैं आज वे ही देखते हैं उसे।
जिनके हृदय में कोई प्रेम नहीं, प्रीति नहीं,
करुणा की नहीं कोई हलचल
उनके सुपरामर्श के बिना भी पृथ्वी आज है अचल।
जिन्हें मनुष्य में गहरी आस्था है आज भी,
आज भी जिनके पास स्वाभाविक लगती है
कला या साधना अथवा परम्परा या महत सत्य,
सियार और गिद्ध का भोजन है आज उनका हृदय।
बनलता सेन
हजार वर्षों से मैं मुसाफिर हूँ पृथ्वी की राहों का,
सिंहल समुद्र से रात के अँधेरे में मलय-सागर तक
बहुत घूमा हूँ मैं; बिम्बिसार और अशोक के धूसर जगत में
भी था मैं; और सुदूर अन्धकार में डूबी विदर्भ नगरी में;
मैं थका हुआ प्राणी एक, चारों ओर जीवन के सागर की लहरों का फेन,
मुझे दो घड़ी शान्ति दे गयी थी नाटोर की बनलता सेन !
केश उसके जाने कब के विदिशा की
निशा के अन्धकार से हो गये एकाकार,
मुख उसका श्रावस्ती की नक्काशी में;
सुदूर समुद्र के पार खो कर पतवार
जो नाविक दिशा भूल चुका है
वह जैसे निहारता है हरी घास के प्रदेश दालचीनी के द्वीप में,
वैसे ही देखा है मैंने उसे अन्धकार में; कहा उसने -- कहाँ रहे इतने दिन ?
पक्षी के नीड़ सरीखी आँखें उठा कर बोली नाटोर की बनलता सेन।
समस्त दिनों के अन्त में शिशिर के शब्द की तरह
आती है सन्ध्या; डैनों से धूप की गन्ध को झाड़ देती है चील;
पृथ्वी के सब रंग बुझ जाने पर पाण्डुलिपि करती है आयोजन
जब कहानी के लिए जुगनुओं के रंग झिलमिलाते हैं;
घर आते हैं पाखी सब -- सारी नदियाँ --
चुकता होता है इस जीवन का सब लेन-देन
रहता है केवल अन्धकार, सम्मुख रहती है केवल बनलता सेन।
हज़ार वर्ष सिर्फ़ खेलती है
हज़ार वर्ष सिर्फ़ खेलती है अन्धकार में जुगनुओं की तरह;
चारों ओर पिरामिड; कफ़नों की गन्ध;
रेत के विस्तार पर चाँदनी; खजूरों की छाया यहाँ वहाँ
भग्न स्तम्भ की तरह; असीरया -- रुका हुआ मृत, म्लान;
हमारे शरीरों में परिरक्षित शवों की गन्ध --
पूरा हो चुका है जीवन का लेन-देन
‘याद है ?’ उसने स्मरण कराया, किया याद मैंने केवल ‘बनलता सेन।’
लोकेन बोस का रोज़नामचा
सुजाता से प्रेम करता था मैं --
क्या अब भी करता हूँ प्रेम ?
यह तो फ़ुरसत में सोचने की बात है,
लेकिन फ़ुरसत नहीं है।
शायद एक दिन सर्दियों के आने पर मौक़ा मिलेगा।
अभी शेल्फ़ पर चार्वाक, फ्रायड, प्लेटॊ, पावलोव सोचते हैं
कि सुजाता से मुझे प्रेम है या नहीं।
कुछ फ़ाइलें हैं पुरानी चिट्ठियों की :
जो सुजाता ने लिखी थीं मुझे,
बारह, तेरह, बीस साल पहले की वे बातें;
कैसे छोटे किरानी का काम है फ़ाइल छूना;
नहीं छूऊँगा मैं,
छूने से किसको क्या लाभ।
लगता है मानो अमिता सेन के साथ सुबल की दोस्ती है
क्या केवल सुबल के ही साथ ? हालांकि मैं उसको --
मतलब यह -- यह जिसको मैं अमिता कह कर रहा हूँ मैं --
लेकिन यह बात रहने दो
मगर फिर भी --
अब और पथिक नहीं बनना चाहता हृदय आज।
नारी अगर मृगतृष्णा जैसी है तो
किस तरह मन बनेगा कारवाँ अब
प्रौढ़ हृदय, तुम
उस सारी मृगतृष्णा के ताल में, हलकी सिमूम में
शायद कभी भुतहा मरुभूमि हो,
हृदय, हृदय तुम।
इसके बाद तुम अपने अन्दर लौट कर भी चुपचाप
मरीचिका को विजयी बनाते हो विनयी जो भीषण नामरूप है
वहाँ रेत की सारी ख़ामोशी हू-हू करती है
प्रेम नहीं फिर भी सिर्फ़ प्रेम की तरह।
सुबल क्या अमिता सेन से प्यार करता है,
अमिता क्या ख़ुद भी उसे ?
फ़ुरसत पाने पर सोचा जायेगा,
ढेर फुरसत चाहिए;
सुदूर ब्रह्माण्ड को खींच कर तिल में समाहित करना होगा,
अभी तो जाना है टेनिस खेलने,
फिर लौट कर रात को क्लब
जाने कब समय होगा ?
हेमन्त की घास पर नीले फूल फूटे हैं --
दिल धड़कता है जाने क्यों,
‘प्यार करता था’ -- स्मृति उत्ताप पाप में
तर्क में क्यों फंसा रहता है वर्तमान
क्या वह भी मुझे --
सुजाता क्या मुझे प्यार करने लगी थी ?
आज भी क्या प्यार नहीं करती ?
इलेक्ट्रॉन अपने गुण-दोषों के साथ घूमते रहेंगे,
किसी अन्तिम टूटे हुए आकाश में
क्या इसका उत्तर मिलेगा ?
सुजाता अभी भुवनेश्वर में है;
और अमिता क्या मिहीजाम में।
बहुत दिन से अता-पता न जानना
अच्छा ही हुआ है।
घास में नीले-सफ़ेद फूल खिलते हैं
हेमन्त के राग में
एक ओर समय का यह ठहराव
फिर भी नहीं है स्थिर
हर दिन के नये जीवाणु स्थापित होते हैं फिर-फिर
यात्री
लगता है प्राणों ने किसी सुदूर स्वच्छ सागर-तट पर
कभी जन्म लिया था;
पीछे मृत्युहीन, जन्महीन और अचीन्हे
कुहासे का जो इशारा था
वह सब धीरे-धीरे भूल कर कोई और ही अर्थ पाया था
यहाँ जन्म लेने पर;
प्रकाश, जल और आकाश के आकर्षण से;
क्या पता किसके प्रेम में।
मृत्यु और जीवन का श्वेत-श्याम
हृदय से बाँध कर यात्री लोग
आये हैं इस पृथ्वी पर।
कंकाल लाल-स्याह
चारों ओर रक्त के भीतर अन्तहीन करुण इच्छा के चिह्न देख कर
पथ पहचान इस धूल में अपने जन्म के चिह्न दिखाने आया हूँ;
मगर किसे ? पृथ्वी को ? आकाश को ?
आकाश में जो सूर्य प्रज्वलित है, उसे ?
धूल के कणों, अणु-परमाणुओं, छाया, बारिश के जल कणों को ?
नगर, बन्दरगाह, राष्ट्र, ज्ञान और अज्ञान से भरी दुनिया को ?
यही कुज्झटिका थी जन्म और सृष्टि से पहले, और
वह सब कुहासा ख़त्म हो जायेगा एक दिन
उसका अँधेरा आज प्रकाश के छल्ले में आ पड़ता है पल-पल;
नीलिमा की ओर मन जाना चाहता है प्रेम में;
सनातन काले महासागर की तरफ़ जाने को कहता है।
तब भी प्रकाश पृथ्वी की तरफ़
रोज़ सूर्य को अपने साथ लाता है
लाता है वह मौसम, वह तारीख़, वह जीवन, वह मृत्यु की रीति,
महाइतिहास आ कर अब भी नहीं जान पाया जिसका मतलब
उसी तरफ जाते हैं लोग ग्लानि प्रेम क्षय को
रोज़ पदचिह्न की तरह साथ ले कर
नदी और मनुष्य का दौड़ता हुआ धूसर हृदय
भोर में बदलने वाली रात - कहानी की तरह कितनी सैकड़ों सुबहें
नया सूर्य नये पाखी नये चिह्न नगर में रहते हैं
नये-नये यात्रियों के साथ मिल जाती है
प्राणलोक यात्रियों की भीड़;
हृदय के चलने की गति गीत प्रकाश है,
कूलरहित मनुष्य की पृष्ठभूमि ही शाश्वत यात्री की है
वह
उसने मुझे आवाज़ दे कर बुला लिया था,
कहा था : "इस नदी का जल
तुम्हारी आँखों की तरह म्लान बेत फल;
सारी थकान रक्त से स्निग्ध रखती है पृष्ठभूमि;
यही नदी तुम हो।
"इसका नाम क्या धानसिड़ि है ?"
माछरांगा से कहा मैंने;
गम्भीर लड़की ने आ कर दिया था नाम।
आज भी मैं ढूँढता हूँ उस लड़की को।
जल की अनेक सीढ़ियों को तय करते हुए
कहाँ चली गयी वह लड़की।
समय की अविरल स्याह और सफ़ेद
बुनावट के सीने तक आ कर
मछली और मन और माछरांगा को प्यार करके
बहुत दिन पहले नारी एक --
लेकिन आँखों को चौंधियाने वाले प्रकाश से प्रेम करके
सोलह आना नागरिक न हो कर
होता अगर धानसिड़ि नदी।
नग्न निर्जन हाथ
फिर से आसमान में अँधेरा घिर आया
प्रकाश के रहस्यमय सहोदर की तरह यह अन्धकार
जिसने मुझे हमेशा प्यार किया
मगर जिसका चेहरा मैंने कभी नहीं देखा,
उसी नारी की तरह
फाल्गुन के आकाश पर अँधेरा घिर उठा है।
लगता है किसी विलुप्त नगरी का क़िस्सा
उसी नगरी के एक धूसर प्रासाद का रूप जगाता है हृदय में।
हिन्द महासागर के तीर पर
अथवा भूमध्यसागर के किनारे
या फिर टायर नदी के पार
आज नहीं है, पर कभी एक नगरी थी,
कोई एक प्रासाद था, बेशक़ीमती सामान से भरा एक प्रासाद --
ईरानी ग़ालीचे, कश्मीरी शॉल, बहरीन की तरंगों से निकले मोती और प्रवाल,
मेरा खोया हुआ हृदय, मेरे निष्प्राण नेत्र, मेरी खोयी हुई आकांक्षा और स्वप्न
और तुम नारी --
यह सब था उस दुनिया में एक दिन।
ढेर सारी नारंगी धूप थी,
बहुत-से काकातूआ कबूतर थे,
मोहोगनी की सघन छाया और पत्ते थे ढेरों,
ढेर सारी नारंगी धूप थी,
ढेर सारी नारंगी धूप,
और तुम;
तुम्हारे चेहरे का रूप कितनी शत-शताब्दियों से मैंने नहीं देखा,
नहीं खोजा।
फाल्गुन का अन्धकार ले आता है
समुद्र पार का यही क़िस्सा,
अपरूप बुर्ज और गुम्बदों की वेदनामय रेखा,
खोयी हुई नाशपाती की गन्ध,
असंख्य हिरनों और सिंहों की खाल की धूसर पाण्डुलिपियाँ,
इन्द्रधनुषी काँच की खिड़की,
मोर के पंखों की तरह रंगीन पर्दों से
कमरे-दर-कमरे से हो कर
सुदूर कमरे-दर-कमरों का क्षणिक आभास,
आयुहीन स्तब्धता और विस्मय,
पर्दों और ग़ालीचों में रक्तिम धूप का छिटका हुआ पसीना,
रक्तिम पात्र में तरबूज़ी शराब,
तुम्हारा नग्न निर्जन हाथ।
तुम्हारा नग्न निर्जन हाथ।
शंखमाला
सघन वन के पथ को छोड़ कर सन्ध्या के अन्धकार में
जाने किस नारी ने आ कर पुकारा मुझे
बोली - मुझे तुम चाहिए:
मैंने तुम्हारी बेत के फल की तरह नीली व्यथित
आँखों को ढूँढा है नक्षत्रों में -- कुहासे के पंख में --
सांझ को जुगनू की देह से हो कर
नदी के जल में उतरता है जो प्रकाश -- ढूँढा है तुम्हें वहीं --
मटमैले घुग्घू की तरह पंख फैला कर अगहन के अँधेरे में
धानसिड़ि नदी पर तिरते हुए
सोने की सीढ़ियों की तरह धान और धान में
तुम्हें खोजा है मैंने एकाकी घुग्घू जैसे प्राण में
देखी है देह उसकी शोकाकुल पक्षी के रंग से रंजित :
जो पकड़ा जाता है सन्ध्या के अन्धकार में भीगे
शिरीष की डाल पर,
टेढ़ा-बांका चाँद टंगा रहता है जिसके माथे पर,
सींग की तरह तिरछा नीला चाँद सुनता है जिसका स्वर।
कौड़ियों की तरह सफ़ेद मुखड़ा उसका;
हिम की तरह उसके दोनों हाथ;
हिजल की लकड़ी सरीखी रक्तिम चिता जलती है
उसकी आंखों में :
दक्खिन की ओर सिर किये शंखमाला
जैसे जल जाती है उस आग में हाय।
आँखें उसकी
जैसे सौ शताब्दियों का नीला अन्धकार;
स्तन उसके
करुण शंख सरीखे -- दूध से भीगे हुए --
जाने कब की शंखिनीमाला के;
यह पृथ्वी एक बार पाती है उसको, फिर नहीं पाती।
घास
कच्चे नींबू के पत्ते की तरह नरम हरी रोशनी से
पृथ्वी भर गयी है इस भोर की बेला में;
कच्चे चकोतरे की तरह हरी घास -- वैसी ही महकदार --
हिरन जिसे कुतर रहे हैं दाँतों से
मेरी भी इच्छा होती है --
इस घास की गन्ध को एक-एक गिलास करके पीता रहूँ
हरी मदिरा की तरह
इस घास के शरीर को मसलता रहूँ -- उसकी आँखों पर आँखें घिसूँ,
इस घास के डैनों पर है मेरे पंख,
घास के भीतर घास हो कर जन्म लूँ।
किसी एक सघन घास-माँ के शरीर के
सुस्वादु अँधेरे से उतर कर।
बीस साल बाद
फिर बीस बरस बाद उससे मुलाकात हो अगर !
फिर बीस साल बाद --
कार्तिक के महीने में --
शायद धान की बाली के पास --
जब साँझ के समय कौए घर लौटते हैं --
जब नदी हो जाती है पीली,
नरम हो उठते हैं सब कास और सरपत -- मैदानों में।
अथवा खेत में नहीं है और धान;
व्यस्तता नहीं है और,
झरते हैं
हंस के घोंसले से तिनके;
पक्षियों के नीड़ से तिनके;
लाल मुनिया के घर में दाख़िल होती है
रात, शीत और ओस।
जीवन चला गया है हम लोगों का बीस बरस पार --
तब अचानक अगर सोंधी पगडण्डी पर पाऊं तुम्हें फिर एक बार !
आया है चाँद शायद आधी रात को पत्तों के झुण्ड के पीछे
पतली-पतली काली-काली टहनियों-शाखाओं को
मुंह में दबाये,
शिरीष अथवा जामुन की, झाऊ की -- आम की;
बीस साल बाद
लेकिन भूल चुका हूं मैं तुम्हें।
जीवन चला गया है हम लोगों का बीस बरस पार --
तब अचानक अगर हो हमारी-तुम्हारी मुलाक़ात फिर एक बार !
तब शायद मैदान में घुग्घू उतर कर चलते हैं --
बबूल की क़तार के अंधेरे में
बरगद के झरोखों की फाँक में
कहाँ छुपाते हैं अपने आप को
आँखों की पलकों की तरह मुंद कर चुपचाप
कहाँ रुकते हैं चील के डैने --
सोनल-सोनल चील -- शिशिर ले गया उसे करके शिकार --
बीस साल बाद उसी कोहरे में सहसा तुम्हें पाऊँ यदि फिर एक बार !
सुचेतना
सुचेतना, तुम एक सुदूर द्वीप हो
सांझ के नक्षत्र के पास;
वहीं दालचीनी की झाड़ी की फाँक में
है निर्जनता का निवास;
यही पृथ्वी के रण रक्त की सफलता
सत्य, लेकिन अन्तिम सत्य नहीं;
एक दिन कल्लोलिनी तिलोत्तमा होगा कलकत्ता,
तब भी रहेगा मेरा हृदय तुम्हारे पास वहीं।
आज प्रचण्ड धूप में घूमते हुए
प्राणों से मनुष्य को मनुष्य की तरह
प्यार करते हुए भी देखता हूं
शायद मेरे ही हाथों से मारे गये
भाई-बहन, मित्र-परिजन बिखरे पड़े हैं;
पृथ्वी का गहरे-से-गहरा दुख-दैन्य है अभी
तब भी ऋणी है मनुष्य पृथ्वी का ही।
देखा है मैंने हमारे बंदरगाह की धूप में
बार-बार जहाज़ अनाज लिये आ उतरते हैं;
वही अनाज अगणित मनुष्यों के शब हैं;
शव से निकलता स्वर्ण का विस्मय --
हमारे पिता बुद्ध और कन्फ़्यूशियस की तरह --
हमारे प्राणों को भी चुप कराये रखता है;
फिर भी है चारों ओर रक्तक्लान्त कार्य का आह्नान।
सुचेतना, इसी पथ में जोत जगा कर --
इसी पथ पर क़दम-दर-क़दम पृथ्वी की मुक्ति होगी;
यह अनेक शताब्दियों के मनीषियों का काम है;
परम सूर्य की किरणों से कितनी उद्भासित है यह हवा,
प्रायः उतनी दूर है भले मनुष्यों का समाज
हमारे जैसे थके हुए अनथक नाविकों के हाथ से;
गढ़ दूँगा, आज नही, बहुत दिनों बाद अन्तिम प्रभात में।
माटी और धरती के आकर्षण से
मनुष्य योनि में कबका आया हूं मैं,
न आता तो अच्छा होता ऐसा अनुभव करके;
आने पर जो ढेरों लाभ हुआ
वह सब जानता हूँ
शिशिर शरीर छू कर समुज्ज्वल भोर में;
देखा है मैंने जो हुआ
होगा मनुष्य का
होना नहीं है जो --
शाश्वत रात के सीने पर
सकल अनन्त सूर्योदय !
Saturday, December 25, 2010
देशान्तर
आज के कवि : नाज़िम हिकमत
देशान्तर में आज हम भारी मन से आप सभी से मुखातिब हैं. जैसा कि मौजूदा सत्ता-समीकरण से अन्देशा था छत्तीसगढ़ की एक अदालत ने डाक्टर विनायक सेन और दो अन्य लोगों को देश-द्रोह के आरोप में उमर क़ैद की सज़ा सुनायी है. अभी कुछ ही दिन पहले विनायक सेन दो वर्ष तक हिरासत में रखे जाने के बाद आरोपों से बरी हो कर रिहा हुए थे. ज़ाहिर है कि मौजूदा सत्ताधारी - उनका रंग चाहे जो भी हो, भगवे से ले कर हरा और सफ़ेद - विनायक सेन को सलाख़ों के पीछे ही रखना चाहते हैं. इसलिए उन पर झूठे आरोप लगा कर उन्हें क़ैद में रखे रहने की साज़िश की जा रही है. असलियत यह है कि डाक्टर विनायक सेन छत्तीसगढ़ में अत्यन्त लोकप्रिय हैं. उन्होंने न केवल वहां आदिवासियों और आम जनता को ऐसे समय चिकित्सा उपलब्ध करायी है जब सरकारी तन्त्र नाकारा साबित हुआ है, बल्कि आदिवासियों की हत्या करने वाले सरकार समर्थित गिरोह सल्वा जुडुम का कड़ा विरोध भी किया है. ध्यान रहे कि जहां विनायक सेन जैसी मेधा और गुणों वाले डाक्टर समृद्धि की सीढ़ियों का सन्धान करते हैं वहां विनायक सेन ने स्वेच्छा से तकलीफ़ों वाला मार्ग चुना है. लेकिन सच्चे देशभक्तों को अक्सर देशद्रोही क़रार दे कर सज़ाएं दी जाती रही हैं. इसलिए हालांकि आज हमारा इरादा बांग्ला के सुप्रसिद्ध कवि जीवनान्द दास की कविताओं के अनुवाद पेश करने का था हम तुर्की के महान कवि नाज़िम हिकमत की वह मशहूर कविता पेश कर रहे हैं जो उन्होंने तुर्की की तानाशाही द्वारा क़ैद किये जाने की दसवीं सालगिरह पर लिखी थी. यह कविता हम साथी विनायक सेन को समर्पित करते हैं.
जब से मुझे इस गड्ढे में फेंका गया
जब से मुझे इस गड्ढे में फेंका गया
पृथ्वी सूरज के गिर्द दस चक्कर काट चुकी है
अगर तुम पृथ्वी से पूछो, वह कहेगी -
‘यह ज़रा-सा वक़्त भी कोई चीज़ है भला!’
अगर तुम मुझसे पूछो, मैं कहूँगा -
‘मेरी ज़िन्दगी के दस साल साफ़!’
जिस रोज़ मुझे कैद किया गया
एक छोटी-सी पेंसिल थी मेरे पास
जिसे मैंने हफ़्ते भर में घिस डाला।
अगर तुम पेंसिल से पूछो, वह कह कहेगी -
‘मेरी पूरी ज़िन्दगी!’
अगर तुम मुझसे पूछो, मैं कहूँगा -
‘लो भला, एक हफ़्ता ही तो चली!’
जब मैं पहले-पहल इस गड्ढे में आया -
हत्या के जुर्म में सज़ा काटता हुआ उस्मान
साढ़े सात बरस बाद छूट गया।
बाहर कुछ अर्सा मौज-मस्ती में गुज़ार
फिर तस्करी में धर लिया गया
और छै महीने बाद रिहा भी हो गया।
कल किसी ने सुना - उसकी शादी हो गयी है
आते वसन्त में वह बाप बनने वाला है ।
अपनी दसवीं सालगिरह मना रहे हैं वे बच्चे
जो उस दिन कोख में आये
जिस दिन मुझे इस गड्ढे में फेंका गया।
ठीक उसी दिन जनमे
अपनी लम्बी छरहरी टाँगों पर काँपते बछेड़े अब तक
चौड़े कूल्हे हिलाती आलसी घोड़ियों में
तबदील हो चुके होंगे।
लेकिन ज़ैतून की युवा शाख़ें
अब भी कमसिन हैं
अब भी बढ़ रही हैं।
वे मुझे बताते हैं
नयी-नयी इमारतें और चौक बन गये हैं
मेरे शहर में जब से मैं यहाँ आया
और उस छोटे-से घर मेरा परिवार
अब ऐसी गली में रहता है,
जिसे मैं जानता नहीं,
किसी दूसरे घर में
जिसे मैं देख नहीं सकता।
अछूती कपास की तरह सफ़ेद थी रोटी
जिस साल मुझे इस गड्ढे में फेंका गया
फिर उस पर राशन लग गया
यहाँ, इन कोठरियों में
काली रोटी के मुट्ठी भर चूर के लिए
लोगों ने एक-दूसरे की हत्याएँ कीं।
अब हालात कुछ बेहतर हैं
लेकिन जो रोटी हमें मिलती है,
उसमें कोई स्वाद नहीं।
जिस साल मुझे इस गड्ढे में फेंका गया
दूसरा विश्वयुद्ध नहीं शुरू हुआ था,
दचाऊ के यातना शिविरों में
गैस-भट्ठियाँ नहीं बनी थीं,
हीरोशिमा में अणु-विस्फोट नहीं हुआ था।
आह, समय कैसे बहता चला गया है
क़त्ल किये गये बच्चे के रक्त की तरह।
वह सब अब बीती हुई बात है।
लेकिन अमरीकी डालर
अभी से तीसरे विश्वयुद्ध की बात कर रहा है।
तिस पर भी, दिन उस दिन से ज़्यादा उजले हैं
जबसे मुझे इस गड्ढे में फेंका गया।
उस दिन से अब तक मेरे लोगों ने ख़ुद को
कुहनियों के बल आधा उठा लिया है
पृथ्वी दस बार सूरज के गिर्द
चक्कर काट चुकी है...
लेकिन मैं दोहराता हूँ
उसी उत्कट अभिलाषा के साथ
जो मैंने लिखा था अपने लोगों के लिए
दस बरस पहले आज ही के दिन :
‘तुम असंख्य हो
धरती में चींटियों की तरह
सागर में मछलियों की तरह
आकाश में चिड़ियों की तरह
कायर हो या साहसी, साक्षर हो या निरक्षर,
लेकिन चूँकि सारे कर्मों को
तुम्हीं बनाते या बरबाद करते हो,
इसलिए सिर्फ़ तुम्हारी गाथाएँ
गीतों में गायी जायेंगी।’
बाक़ी सब कुछ
जैसे मेरी दस वर्षों की यातना
फ़ालतू की बात है।
_____________________________________________________
नाज़िम हिकमत (1902-63) की कविता तुर्की ही नहीं, दुनिया की सारी शोषित मानवता के दुख-सुख, कशमकश और संघ्र्ष को वाणी देती है. सभी सच्चे कवियों की तरह नाज़िम ने अपने देश की सतायी गयी जनता के हक़ में आवाज़ बुलन्द की थी और उन लोगों की गाथाओं को अपनी कविता में अंकित किया था जो उन्हीं के शब्दों में "धरती में चींटियों की तरह, सागर में मछलियों की तरह और आकाश में चिड़ियों की तरह" असंख्य हैं, जो वास्तव में सारे कर्मों के निर्माता हैं।
नाज़िम की कविता उस व्यापक संघर्ष के दौर की कविता है, जिसमें उन्होंने अपने साथियों के संग तुर्की के तानाशाही निज़ाम का विरोध किया और इसकी क़ीमत बरसों क़ैद रह कर चुकायी। इसीलिए नाज़िम की कविता में शोषण के विरोध का स्वर धरती के बेटों की ज़बान में व्यक्त हुआ है। हैरत नहीं कि नाज़िम की रचनाएं तानाशाहों के लिए ख़तरे की घण्टी जान पड़ी होंगी. और उन्होंने सभी निरंकुश सत्ताओं की तरह इस आवाज़ को क़ैद कर देना ही सबसे सरल उपाय समझा. कुल मिला कर अपनी 61 बरस की ज़िन्दगी में नाज़िम ने 28 बरस सलाख़ों के पीछे गुज़ारे जिसमे सबसे बड़ी अवधि 13 वर्ष थी जिसके दसवें साल उन्होंने यह कविता लिखी थी.
नाज़िम की इस कविता को पढ़ते हुए हमें सहज ही उन तमाम न्याय-वंचित लोगों का ध्यान हो आता है जो दमन और उत्पीड़न पर टिके मौजूदा पूंजीवादी-सामन्ती शासन का विरोध करने के "अपराध" में जैलों में ठूंस रखे गये हैं; जो नाज़िम ही की तरह अपने देश की जनता के दुख-दर्द से विचलित हो कर एक बेहतर समाज बनाने की जद्दोजेहद में लगे हुए हैं। एक समय था कि हिन्दुस्तान की जेलों में लगभग 40,000 क़ैदी नक्सलवाद के नाम पर क़ैद थे. आज हो सकता है यह संख्या कम हो लेकिन सत्ता के इरादे और ख़ूंख़ार हुए हैं, फ़र्ज़ी मुठभेड़ों में हज़ारों लोग मार दिये गये हैं, पेशेवर हत्यारों की-सी मानसिकता वाले सशस्त्र बल तैयार किये गये हैं, मीडिया को फ़र्ज़ी ख़बरें फैलाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है, लेखकों और बुद्धिजीवियों को या तो ख़रीदा जा रहा है या धमकाया जा रहा है।
ऐसे अघोषित आपात काल के माहौल में नाज़िम हिकमत की कविता हौसलों को बुलन्द करती है और वह पुराना लेकिन सच्चा और कारगर सन्देश याद कराती है : अब उनके पास खोने के लिए सिर्फ़ बेड़ियां हैं और एक दुनिया है हासिल करने के लिए।
बेड़ियां तोड़ने और दुनिया हासिल करने की यह लडाई जारी है -- दस्त-ब-दस्त -- और दिनों दिन तेज़ हो रही है।
देशान्तर में आज हम भारी मन से आप सभी से मुखातिब हैं. जैसा कि मौजूदा सत्ता-समीकरण से अन्देशा था छत्तीसगढ़ की एक अदालत ने डाक्टर विनायक सेन और दो अन्य लोगों को देश-द्रोह के आरोप में उमर क़ैद की सज़ा सुनायी है. अभी कुछ ही दिन पहले विनायक सेन दो वर्ष तक हिरासत में रखे जाने के बाद आरोपों से बरी हो कर रिहा हुए थे. ज़ाहिर है कि मौजूदा सत्ताधारी - उनका रंग चाहे जो भी हो, भगवे से ले कर हरा और सफ़ेद - विनायक सेन को सलाख़ों के पीछे ही रखना चाहते हैं. इसलिए उन पर झूठे आरोप लगा कर उन्हें क़ैद में रखे रहने की साज़िश की जा रही है. असलियत यह है कि डाक्टर विनायक सेन छत्तीसगढ़ में अत्यन्त लोकप्रिय हैं. उन्होंने न केवल वहां आदिवासियों और आम जनता को ऐसे समय चिकित्सा उपलब्ध करायी है जब सरकारी तन्त्र नाकारा साबित हुआ है, बल्कि आदिवासियों की हत्या करने वाले सरकार समर्थित गिरोह सल्वा जुडुम का कड़ा विरोध भी किया है. ध्यान रहे कि जहां विनायक सेन जैसी मेधा और गुणों वाले डाक्टर समृद्धि की सीढ़ियों का सन्धान करते हैं वहां विनायक सेन ने स्वेच्छा से तकलीफ़ों वाला मार्ग चुना है. लेकिन सच्चे देशभक्तों को अक्सर देशद्रोही क़रार दे कर सज़ाएं दी जाती रही हैं. इसलिए हालांकि आज हमारा इरादा बांग्ला के सुप्रसिद्ध कवि जीवनान्द दास की कविताओं के अनुवाद पेश करने का था हम तुर्की के महान कवि नाज़िम हिकमत की वह मशहूर कविता पेश कर रहे हैं जो उन्होंने तुर्की की तानाशाही द्वारा क़ैद किये जाने की दसवीं सालगिरह पर लिखी थी. यह कविता हम साथी विनायक सेन को समर्पित करते हैं.
जब से मुझे इस गड्ढे में फेंका गया
जब से मुझे इस गड्ढे में फेंका गया
पृथ्वी सूरज के गिर्द दस चक्कर काट चुकी है
अगर तुम पृथ्वी से पूछो, वह कहेगी -
‘यह ज़रा-सा वक़्त भी कोई चीज़ है भला!’
अगर तुम मुझसे पूछो, मैं कहूँगा -
‘मेरी ज़िन्दगी के दस साल साफ़!’
जिस रोज़ मुझे कैद किया गया
एक छोटी-सी पेंसिल थी मेरे पास
जिसे मैंने हफ़्ते भर में घिस डाला।
अगर तुम पेंसिल से पूछो, वह कह कहेगी -
‘मेरी पूरी ज़िन्दगी!’
अगर तुम मुझसे पूछो, मैं कहूँगा -
‘लो भला, एक हफ़्ता ही तो चली!’
जब मैं पहले-पहल इस गड्ढे में आया -
हत्या के जुर्म में सज़ा काटता हुआ उस्मान
साढ़े सात बरस बाद छूट गया।
बाहर कुछ अर्सा मौज-मस्ती में गुज़ार
फिर तस्करी में धर लिया गया
और छै महीने बाद रिहा भी हो गया।
कल किसी ने सुना - उसकी शादी हो गयी है
आते वसन्त में वह बाप बनने वाला है ।
अपनी दसवीं सालगिरह मना रहे हैं वे बच्चे
जो उस दिन कोख में आये
जिस दिन मुझे इस गड्ढे में फेंका गया।
ठीक उसी दिन जनमे
अपनी लम्बी छरहरी टाँगों पर काँपते बछेड़े अब तक
चौड़े कूल्हे हिलाती आलसी घोड़ियों में
तबदील हो चुके होंगे।
लेकिन ज़ैतून की युवा शाख़ें
अब भी कमसिन हैं
अब भी बढ़ रही हैं।
वे मुझे बताते हैं
नयी-नयी इमारतें और चौक बन गये हैं
मेरे शहर में जब से मैं यहाँ आया
और उस छोटे-से घर मेरा परिवार
अब ऐसी गली में रहता है,
जिसे मैं जानता नहीं,
किसी दूसरे घर में
जिसे मैं देख नहीं सकता।
अछूती कपास की तरह सफ़ेद थी रोटी
जिस साल मुझे इस गड्ढे में फेंका गया
फिर उस पर राशन लग गया
यहाँ, इन कोठरियों में
काली रोटी के मुट्ठी भर चूर के लिए
लोगों ने एक-दूसरे की हत्याएँ कीं।
अब हालात कुछ बेहतर हैं
लेकिन जो रोटी हमें मिलती है,
उसमें कोई स्वाद नहीं।
जिस साल मुझे इस गड्ढे में फेंका गया
दूसरा विश्वयुद्ध नहीं शुरू हुआ था,
दचाऊ के यातना शिविरों में
गैस-भट्ठियाँ नहीं बनी थीं,
हीरोशिमा में अणु-विस्फोट नहीं हुआ था।
आह, समय कैसे बहता चला गया है
क़त्ल किये गये बच्चे के रक्त की तरह।
वह सब अब बीती हुई बात है।
लेकिन अमरीकी डालर
अभी से तीसरे विश्वयुद्ध की बात कर रहा है।
तिस पर भी, दिन उस दिन से ज़्यादा उजले हैं
जबसे मुझे इस गड्ढे में फेंका गया।
उस दिन से अब तक मेरे लोगों ने ख़ुद को
कुहनियों के बल आधा उठा लिया है
पृथ्वी दस बार सूरज के गिर्द
चक्कर काट चुकी है...
लेकिन मैं दोहराता हूँ
उसी उत्कट अभिलाषा के साथ
जो मैंने लिखा था अपने लोगों के लिए
दस बरस पहले आज ही के दिन :
‘तुम असंख्य हो
धरती में चींटियों की तरह
सागर में मछलियों की तरह
आकाश में चिड़ियों की तरह
कायर हो या साहसी, साक्षर हो या निरक्षर,
लेकिन चूँकि सारे कर्मों को
तुम्हीं बनाते या बरबाद करते हो,
इसलिए सिर्फ़ तुम्हारी गाथाएँ
गीतों में गायी जायेंगी।’
बाक़ी सब कुछ
जैसे मेरी दस वर्षों की यातना
फ़ालतू की बात है।
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नाज़िम हिकमत (1902-63) की कविता तुर्की ही नहीं, दुनिया की सारी शोषित मानवता के दुख-सुख, कशमकश और संघ्र्ष को वाणी देती है. सभी सच्चे कवियों की तरह नाज़िम ने अपने देश की सतायी गयी जनता के हक़ में आवाज़ बुलन्द की थी और उन लोगों की गाथाओं को अपनी कविता में अंकित किया था जो उन्हीं के शब्दों में "धरती में चींटियों की तरह, सागर में मछलियों की तरह और आकाश में चिड़ियों की तरह" असंख्य हैं, जो वास्तव में सारे कर्मों के निर्माता हैं।
नाज़िम की कविता उस व्यापक संघर्ष के दौर की कविता है, जिसमें उन्होंने अपने साथियों के संग तुर्की के तानाशाही निज़ाम का विरोध किया और इसकी क़ीमत बरसों क़ैद रह कर चुकायी। इसीलिए नाज़िम की कविता में शोषण के विरोध का स्वर धरती के बेटों की ज़बान में व्यक्त हुआ है। हैरत नहीं कि नाज़िम की रचनाएं तानाशाहों के लिए ख़तरे की घण्टी जान पड़ी होंगी. और उन्होंने सभी निरंकुश सत्ताओं की तरह इस आवाज़ को क़ैद कर देना ही सबसे सरल उपाय समझा. कुल मिला कर अपनी 61 बरस की ज़िन्दगी में नाज़िम ने 28 बरस सलाख़ों के पीछे गुज़ारे जिसमे सबसे बड़ी अवधि 13 वर्ष थी जिसके दसवें साल उन्होंने यह कविता लिखी थी.
नाज़िम की इस कविता को पढ़ते हुए हमें सहज ही उन तमाम न्याय-वंचित लोगों का ध्यान हो आता है जो दमन और उत्पीड़न पर टिके मौजूदा पूंजीवादी-सामन्ती शासन का विरोध करने के "अपराध" में जैलों में ठूंस रखे गये हैं; जो नाज़िम ही की तरह अपने देश की जनता के दुख-दर्द से विचलित हो कर एक बेहतर समाज बनाने की जद्दोजेहद में लगे हुए हैं। एक समय था कि हिन्दुस्तान की जेलों में लगभग 40,000 क़ैदी नक्सलवाद के नाम पर क़ैद थे. आज हो सकता है यह संख्या कम हो लेकिन सत्ता के इरादे और ख़ूंख़ार हुए हैं, फ़र्ज़ी मुठभेड़ों में हज़ारों लोग मार दिये गये हैं, पेशेवर हत्यारों की-सी मानसिकता वाले सशस्त्र बल तैयार किये गये हैं, मीडिया को फ़र्ज़ी ख़बरें फैलाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है, लेखकों और बुद्धिजीवियों को या तो ख़रीदा जा रहा है या धमकाया जा रहा है।
ऐसे अघोषित आपात काल के माहौल में नाज़िम हिकमत की कविता हौसलों को बुलन्द करती है और वह पुराना लेकिन सच्चा और कारगर सन्देश याद कराती है : अब उनके पास खोने के लिए सिर्फ़ बेड़ियां हैं और एक दुनिया है हासिल करने के लिए।
बेड़ियां तोड़ने और दुनिया हासिल करने की यह लडाई जारी है -- दस्त-ब-दस्त -- और दिनों दिन तेज़ हो रही है।
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