राजकीय हिंसा हिंसा न भवति
जनज्वार ब्लौग पर हाल में बिहार की घटनाओं पर टिप्पणियां और साई बाबा का जवाब और फिर स्वामी अग्निवेश के स्वघोषित शान्ति दूत की भूमिका में उतरने के बारे में लिखी गयी टिप्पणी देखी. इन में कई बातें गड्ड-मड्ड हो गयी हैं. हालांकि इन टिप्पणियों पर एक मुकम्मल, सुविचारित टिप्पणी की अपेक्षा है, मैं इस वक़्त अपने को तैयार नहीं पा रहा हूं, तो भी कुछ विचारणीय बिन्दुओं का ज़िक्र कर रहा हूं.
हां, मुझे भी माओवादियों द्वारा लुकास टेटे की हत्या पर ऐतराज़ है. मेरे खयाल में यह न केवल रणनीति की दृष्टि से भूल है, बल्कि अपहृत व्यक्ति को मार डालना उन तमाम लोगों को अस्वस्ति और असुविधा की स्थिति में ला खड़ा करता है, जो नागरिक और सार्वजनिक मंचों पर माओवादियों की सही मांगों की पुरज़ोर हिमायत करते आये हैं, और वह भी एक ऐसे समय जब माओवादियों के साथ-साथ उन्हें भी लानत-मलामत का निशाना बनाया जा रहा है. दूसरी तरफ़ बिहार, दिल्ली और अन्य प्रान्तों में अनेक ऐसे परिवर्तनकामी साथी जेल में ठूंस दिये गये हैं जिनके नाम कोई नहीं लेता.
सात महीनों से इलाहाबाद की नैनी जेल में "दस्तक" पत्रिका की सम्पादक और उनके पति विश्वविजय रिमांड पर क़ैद चल रहे हैं. इतना ही अर्सा दिल्ली की ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता अनु और उन के पति को तिहार में रिमांड पर क़ैद भुगतते हो गया. क्या किसी ने इनका भी नाम लिया ? या इन्हें छुड़ाने के सिलसिले में कुछ किया ? मैं ने अपनी मित्र अरुन्धती राय और अनेक लोगों को इसकी सूचना दे कर क़दम उठाने की अपील की थी, पर शायद वे छोटे कम नामी लोगों की पक्षधरता में यक़ीन नहीं रखते. आज तक सार्वजनिक रूप से क्या किसी ने "आम लोगों की पार्टी" के आम कार्यकर्ताओं के हक़ में आवाज़ उठाई है ? क्या यह भी उसी प्रक्रिया के तहत हो रहा है जिसके तहत १९४७ से पहले तथाकथित आज़ादी के हिमायतियों ने अनाम लोगों को अक्सर विस्मृति के अंधेरों के हवाले किया था ? दूर नहीं, सफ़दर हाशिमी के साथ जो राम बहादुर नाम का मज़दूर १९८९ में कांग्रेसियों द्वारा मारा गया था, उसका कोई स्मारक बना ? उसे कोई याद भी रखता है ?
तीसरी बात यह कि लुकस टेटे की हत्या पर हाय-तोबा मचाने वालों से, ख़ास तौर पर मीडिया वालों से यह ज़रूर पूछा जाना चाहिए कि झूठी मुठ्भेड़ में आज़ाद और हेमचन्द्र पाण्डे की हत्या पर खामोशी क्यों रही ? सारे सरकारी और निजी मीडिया तन्त्र ने उस पर ऐसा सात्विक रोष क्यों प्रकट नहीं किया ? मेरे कहने का यह मतलब नहीं है कि लुकस टेटे को मार डालना उचित था. पर बात यहीं ख़त्म नहीं की जा सकती. कारण यह कि पिछले साठ बरसों से हमारे हुक्मरानों और उनके तन्त्र की हिंसा का कोई हिसाब-किताब और जवाब-तलबी नहीं की गयी है. मैं जेसिका लाल और नितीश कटारा या शिवानी भटनागर की हत्याओं सरीखे मामलों से आगे बढ़ कर पुलिस हिरासतों और फ़र्ज़ी मुठभेड़ों में मारे गये हज़ारों लोगों का ज़िक्र कर रहा हुं. मैं ज़िक्र कर रहा हूं कश्मीर में बरसों से चल रहे दमन और उत्पीड़न का, मैं ज़िक्र कर रहा हूं छत्तीसगढ़, ऊड़ीसा, झारखण्ड, आन्ध्र, महाराष्ट्र और बंगाल में बेरहमी से मारे गये आदिवासियों और उनकी ओर से आवाज़ उठाने और लड़ने वाले लोगों की गिरफ़्तारियों और हत्याओं की.
क्या लुकस टेटे की नावाजिब हत्या पर शोर मचाने वालों -- सरकारी और विपक्षी नेताओं, चन्दन मित्रा और अर्णब गोस्वामी और बरखा दत्त जैसे पत्रकारों, सभी मीडिया चैनलों, के.पी.एस. गिल जैसे हिंसक पुलिस अफ़सरों और स्वामी अग्निवेश जैसे स्वार्थ साधकों -- ने कभी इतनी ही सात्विक दु:ख और आक्रोश भरे स्वर ऊपर उल्लिखित हिंसा के अनगिनत मामलों में व्यक्त किये हैं ?
निश्चय ही अरुन्धती राय और मेधा पाटकर और गौतम नौलखा को मैं स्वामी अग्निवेश की कोटि में नहीं रखना चाहता, गो उनकी सारी बातों से मैं सहमत नहीं हूं, पर स्वामी अग्निवेश जैसे मध्यस्थ सत्ता को बहुत भाते हैं क्योंकि इनकी आड़ में सरकारी हिंसा को अंजाम देना आसान होता जिसके बाद सरकार और मध्यस्थ, दोनों की राजनीति के चमकने के रास्ते खुल जाते हैं जैसा हम सभी ममता बनर्जी के मामले में देख आये हैं और अब स्वामी अग्निवेश के मामले में देख रहे हैं. याद कीजिये स्वामी अग्निवेश बाल मज़दूरी के सवाल पर भी काफ़ी आन्दोलन कर चुके हैं और बाल मज़दूरी के विरोध के लाभ भी उठा चुके हैं जब कि बाल मज़दूरी के आंकड़े लगातार बढ़ते गये हैं.
अहिंसा का राग अलापने पर ही अपने कर्तव्य की भरपाई करने वालों को याद रखना चाहिए कि छत्तीसगढ़ में १९७५ में बाबा आम्टे जैसे अहिंसावादी वहां बाक़ायदा आश्रम खोलने के बाद और अपनी सारी सद्भावना के बावजूद आदिवासियों को न्याय नहीं दिला पाये. स्वामी अग्निवेश तो अभी उन इलाकों में गये भी नहीं हैं जहां हर बाशिन्दे के दिलो-दिमाग़ पर ज़ुल्मो-सितम के गहरे और कभी न मिटने वाले निशान हैं.
यही नहीं, पानी पी-पी कर माओवादियों को कोसने वालों को यह भी याद रखना चाहिए कि इस पूरे इलाके में दमन और उत्पीड़न के प्रतिरोध का इतिहास माओ से तो बहुत पुराना है ही वह बिर्सा मुण्डा से भी बहुत पुराना है. उसके सूत्र उन जातीय संघर्षों में छिपे हुए हैं जिनकी परिणति जन्मेजय के नाग यग्य जैसे नरसंहार में हुई थी.
चुनांचे दोस्तो, मामला जैसा कि मैं ने कहा काफ़ी पेचीदा है. अपराध और हिंसा को किसी भी युग में सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक स्थितियों से और सत्ताधारियों के शोषण से अलग कर के नहीं देखा जा सकता. फ़्रांस के महान लेखक विक्टर ह्यूगो ने अपनी अमर कृति "अभागे लोग" में इसी समस्या को उठाया है.
अन्त में इतना ही कि जैसे-जैसे समय आगे बढ़ा है वैसे-वैसे यह साफ़ होता चल रहा है कि १९४७ में इतने ख़ून-ख़राबे और इतनी मानवीय पीड़ा के बाद हमने जो हासिल की थी वह आज़ादी नहीं, बल्कि गोरे लुटेरों के बदले काले लुटेरों की सल्तनत थी जिसकी आशंका सरदार भगत सिंह ने खुले शब्दों में व्यक्त की थी. अंग्रेज़ हिन्दुस्तानी सिपाहियों से हिन्दुस्तानी लोगों पर क़हर नाज़िल करते थे, जलियांवाला बाग़ के हत्या काण्ड को अंजाम देते थे, अब पी. चिदम्बरम जैसे हुक्काम महेन्द्र करमा जैसे स्थानीय गुर्गों की मदद से छत्तीसगढ़ में सल्वा जुडुम सरीखी घृणित कार्रवाई करते हैं. उद्देश्य लूट-पाट ही है चाहे मैनचेस्टर और बकिंघम पैलेस के लिये हो या फिर वेदान्त, टाटा और पौस्को के लिए हो.
जब तक इस सारी जद्दो-जेहद को उसकी जड़ों तक जा कर नहीं देखा जायेगा और इसका समतामूलक हल नहीं निकाला जायेगा तब तक हिंसा को रोकने के सभी ऊपरी उपाय विफल होते रहेंगे. अच्छी बात यही है कि धीरे-धीरे आम जनता इस हक़ीक़त से वाक़िफ़ हो चली है.
Tuesday, September 7, 2010
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