लेकिन ये प्रदूषित वर्ष हैं, हमारे;
दूर मारे गये आदमियों का ख़ून उछलता है लहरों में,
लहरें रंग देती हैं हमें, छींटे पड़ते हैं चांद पर.
दूर के ये अज़ाब हमारे हैं और उत्पीड़ितों के लिए संघर्ष
मेरे स्वभाव की एक कठोर शिरा है.
शायद यह लड़ाई गुज़र जायेगी दूसरी लड़ाइयों की तरह
जिन्हों ने हमें बांटे रखा, हमें मरा हुआ हुई,
हत्यारों के साथ हमारी हत्या करती हुई,
लेकिन इस समय की शर्मिन्दगी छूती है
अपनी जलती हुई उंगलियों से हमारे चेहरे,
कौन मिटायेगा निर्दोषों की हत्या में छुपी क्रूरता ?
--पाब्लो नेरुदादूर मारे गये आदमियों का ख़ून उछलता है लहरों में,
लहरें रंग देती हैं हमें, छींटे पड़ते हैं चांद पर.
दूर के ये अज़ाब हमारे हैं और उत्पीड़ितों के लिए संघर्ष
मेरे स्वभाव की एक कठोर शिरा है.
शायद यह लड़ाई गुज़र जायेगी दूसरी लड़ाइयों की तरह
जिन्हों ने हमें बांटे रखा, हमें मरा हुआ हुई,
हत्यारों के साथ हमारी हत्या करती हुई,
लेकिन इस समय की शर्मिन्दगी छूती है
अपनी जलती हुई उंगलियों से हमारे चेहरे,
कौन मिटायेगा निर्दोषों की हत्या में छुपी क्रूरता ?
आख़िरकार जैसा कि अंग्रेज़ी में कहते हैं बिल्ली बैग से बाहर आ ही गयी. हंस के सालाना जलसे पर सम्पादक राजेन्द्र जी ने ख़ामोशी तोड़ कर अपनी ओर से एक स्पष्टीकरण दे ही डाला. ऐसा लगता है कि बहस का राग अलापने वाले राजेन्द्र जी ख़ुद बहस में तभी उतरते हैं जब उन्हें यक़ीन हो जाता है कि उनकी ओर से मोर्चा संभालने वाले सिपहसालार नाकाम साबित हुए हैं या फिर उन्हें लगता है कि आख़िरी वार करने का अवसर अब उन्हीं के हाथ में है. वरना हंस के सालाना जलसे पर जिन्हें ऐतराज़ था वे तो अपनी बात कभी के कह चुके थे. लेकिन सम्भव है राजेन्द्र जी को लगा हो कि मोहल्ला ब्लौग के महारथी हमारे प्यारे साथी अविनाश जी और राजेन्द्र जी के बग़लबच्चे समरेन्द्र बहादुर शायद सफल नहीं हुए, लिहाज़ा हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता के भीष्म पितामह को अन्तत: मैदान में उतरना ही पड़ा है.
लेकिन अपने पक्ष को किसी भी तरह सही साबित करने की फ़िक्र में अपने सम्पाद्कीय में राजेन्द्र जी ने दो बुनियादी चूकें की हैं. पहली चूक सैद्धान्तिक है. वे लिखते हैं -- "हंस हमेशा एक लोकतांत्रिक विमर्श में विश्वास करता रहा है। हमारा मानना है कि एकतरफा बौद्धिक बहस का कोई अर्थ नहीं है। वह प्रवचन होता है। जब तक प्रतिपक्ष न हो, उसे बहस का नाम देना भी गलत है। हमने अपनी गोष्ठियों में प्रतिपक्ष को बराबरी की हिस्सेदारी दी है। जब भारतीयता की अवधारणा पर गोष्ठी हुई, तो हमने बीजेपी के सिद्धांतकार शेषाद्रिचारी को भी आमंत्रित किया था। अब इस बार सोचा था कि क्यों न प्रतिपक्ष के लिए छत्तीसगढ़ के डीजीपी विश्व रंजन को आमंत्रित किया जाए।"
ठीक बात है, बहस तो दो अलग-अलग विचारों वाले लोगों में ही होती है. लेकिन ऐसा लगता है कि राजेन्द्र जी बहस को भी उसी कोटि में रखते हैं जिस कोटि में साहित्य को "काव्य शास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धी मताम" वाले लोग रखते थे. यानी उमस से बेहाल मौसम में कुछ चपकलश हो जाये. वरना ये विश्वरन्जन कहां के सिद्धान्तकार ठहरे ? वे सरकार के पुलिसिआ तन्त्र का एक पुर्ज़ा हैं, जिन्हें पूरी मुस्तैदी से अपना फ़र्ज़ निभाना है, कोई सिद्धान्त नहीं बघारना. अलबत्ता बहस सही मानी में बहस तब होती जब मौजूदा सरकार के नीति-निर्धारकों या उनके प्रवक्ताओं-पैरोकारों में से किसी को राजेन्द्र जी बुलाते. पर उनका इरादा तो सनसनी पैदा करना था, मौजूदा रक्तपात में किसी सक्रिय हस्तक्षेप की सम्भावनाएं तलाश करना नहीं. क्या राजेन्द्र जी का ख़याल था कि हंस की गोष्ठी के बाद विश्वरंजन शस्त्र समर्पण करके रक्तपात से उपराम हो जाते ? या अरुन्धती यह मान लेती कि छत्तीसगढ़ और झारखण्ड में लड़ रहे लोगों का रास्ता ग़लत है ? इस तरह की अपेक्षाओं के साथ जिन बहसों की योजना बनती है वह बौद्धिक विलास नहीं है तो और क्या है ?
रही बात शास्त्रार्थ की पुरानी परम्परा की दुहाई देने की, तो राजेन्द्र जी यह कैसे भूल गये कि शास्त्रार्थ शास्त्रियों में होता है. हमारी नज़र में तो ऐसा कोई शस्त्रार्थ नहीं आया जिसमें एक ओर शास्त्री हो, दूसरी ओर बधिक, ख़्वाह वह कविता ही क्यों न लिखता हो. हां, एक उदाहरण ज़रूर है जब शास्त्री पराजित होने के कगार पर पहुंच कर बधिक बनने पर उतारू हो गया था और जिस शास्त्रार्थ ने शास्त्रार्थ नामक इस सत्ता विमर्श की सारी पोल पट्टी खोल कर रख दी थी. पाठक गण याग्यवल्क्य-गार्गी सम्वाद को याद करें जिस में गार्गी द्वारा अपने सारे तर्कों के खण्डन के बाद याग्यवल्क्य ने गार्गी को सीधे-सीधे धमकी दी थी कि इस से आगे प्रश्न करने पर तुम्हारा सिर टुकड़े-टुकड़े हो जायेगा. तो यह तो है शास्त्रार्थ की वो पुरानी परम्परा.
अब राजेन्द्र जी का झूठ ! क्षमा कीजिये इसे और कोई नाम देना सम्भव नहीं है. राजेन्द्र जी कहते हैं और मैं उन्हीं को उद्धृत कर रहा हूं -- "हंस का दफ्तर सब तरह की बहसों, नाराजगियों, शिकायतों या अन्य भड़ासों का खुला मंच है। वक्ताओं के नाम पर विचार ही हो रहा था कि यार लोग ले उड़े और पंकज विष्ट ने अपने समयांतर में लगभग धिक्कारते हुए कि हम बस्तर क्षेत्र के हत्यारे पुलिस डीजी और अरुंधती को एक ही मंच पर लाने की हिमाकत करने जा रहे हैं।"
झूठ इस में यह है कि नामों पर विचार ही नहीं हो रहा था, बल्कि वे फ़ाइनल हो चुके थे. अगर ऐसा न होता तो पंकज बिष्ट अपने समयान्तर में ऐसा लेख क्यों लिखते भला. यही नहीं, जब मैं ने राजेन्द्र जी से पूछा था कि यह आप क्या कर रहे हैं तो उन्हों ने एक बार भी यह नहीं कहा कि अभी कुछ भी अन्तिम रूप से तय नहीं हुआ है. बल्कि वे तो सारा समय मुझसे वैसी ही कजबहसी करते रहे जैसी उन्हों ने अपने सम्पाद्कीय में की है. लेकिन इसका मलाल क्या. यह उनका पुराना वतीरा है. यह तो अरुन्धती ने भंड़ेर कर दिया और राजेन्द्र जी - मुहावरे की ज़बान में कहें तो - डिफ़ेन्सिव में चले गये वरना वे भी नामवर जी, खगेन्द्र ठाकुर, आलोकधन्वा और अरुण कमल की तरह विश्वरंजन की बग़ल में सुशोभित हो कर धन्य-धन्य हो रहे होते और बहस का पुण्य लाभ कर रहे होते. सो वे यह न कहें कि अभी नामों पर विचार ही हो रहा था.
राजेन्द्र जी ने मुझसे सीधे सवाल पूछा है कि क्या मैं उनका पक्ष नहीं जानता. वे लिखते हैं - "दिल्ली में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने को आतुर नीलाभ ने भी "वंदना के इन सुरों में एक सुरा मेरा मिला लो" के भाव से एक लेख पेल डाला। इसमें उन्होंने पूछा कि मैं किधर हूं, यह मैंने कभी साफ नहीं किया। जो कुछ पढ़ते-सुनते न हों, उन्हें क्या जवाब दिया जाए? चाहे तो वे इस बार जुलाई 2010 के संपादकीय पर नजर डाल लें।"
हंस का जुलाई अंक मैं ने अभी नहीं देखा, वह तो इस विवाद के बाद आया है लिहाज़ा सम्भव है राजेन्द्र जी ने कुछ डैमेज कण्ट्रोल एक्सरसाइज़ की हो या हो सकता है हम सिरफिरों की बातों का कुछ असर हुआ हो चाहे वे हमें गालियां ही दें . लेकिन मैं राजेन्द्र जी का पक्ष बख़ूबी जानता हूं. इसीलिए यह भी जानता हूं कि माओवादियों की ओर से शान्ति प्रक्रिया को संचालित करने वाले कौमरेड आज़ाद और तीस वर्षीय युवा पत्रकार हेम चन्द्र पाण्देय की जो निर्मम हत्या फ़र्ज़ी मुठ्भेड़ में पुलिस ने की है उस पर पिछ्ले एक महीने के दौरान जो बैठकें हुई हैं उनमें राजेन्द्र जी क्यों नज़र नहीं आये. हम उनसे यह नहीं कहते कि वे बहस न करें, ज़रूर करें पर अगर वह बहस हमें सम्वेदनहीन कर रही हो या ज़रूरी कामों से भटका रही हो तब हमें ऐसी बहस पर लानत भेजने का साहस होना चाहिए भले ही ऐसा करने पर हंस सम्पादक हमें फ़ासिस्ट ही क्यों न कहें. हम अच्छी तरह जानते हैं कि वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति वाले विमर्श में राजेन्द्र जी का पक्ष क्या है.
चलते चलाते एक बात और. राजेन्द्र जी ने ब्लौग वालों को गालियां देते हुए इस बात पर चुप्पी साध ली है कि ख़ुद उन्होंने इस विवाद को बढ़ाने में एक नहीं दो ब्लौगों की मदद ली है. पर क्या करें जब पाठकों ने इन ब्लौग वालों को ही राजेन्द्र जी का दलाल कहना शुरू कर दिया.
अन्त में यह कि हंस की परम्परा का ज़िक्र करते हुए राजेन्द्र जी उसके संस्थापक प्रेमचन्द का उल्लेख ज़रूर करते हैं. अगर प्रेमचन्द ऐसेरे गोष्ठी करते तो क्या वे एक ओर क्रान्तिकारियों के समर्थक गणेश शंकर विद्यार्थी और दूसरी ओर जनरल डायर को बुलाते ?
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