पांचवीं किस्त
पूंजी और पावर के पैंतरेबाज़ पी. चिदम्बरम का क़िस्सा
लोकतन्त्र की भंड़ैती को जारी रखने के लिए चुनाव जीतने वाले और जनाधार सम्पन्न नेताओं और उन लोगों के बीच -- जो वास्तव में देश को चलाते हैं , लेकिन या तो जिन्हें ( न्यायाधीशों और नौकरशाहों को ) चुनाव जीतने की ज़रूरत नहीं होती या फिर जिन्हें ऐसा करने की बन्दिशों से मुक्त कर दिया गया है ( जैसे हमारे प्रधान मन्त्री ) -- श्रम का बंटवारा लोकतान्त्रिक परिपाटी में लगायी गयी अचूक सेंध है. यह कल्पना करना भूल होगी कि सरकार की बाग-डोर सोनिया गांधी या राहुल गांधी के हाथ में है. असली सत्ता कुलीन अल्पतन्त्र ( न्यायाधीशों, नेताओं और नौकरशाहों ) की एक चुड़ैल-सभा के हाथों में चली गयी है. अपने तईं इन लोगों को रेस के असील घोड़ों की तरह वे गिने-चुने पूंजीपति चलाते हैं जो कमो-बेश पूरे देश की हर चीज़ के मालिक हैं. वे भले ही अलग-अलग राजनैतिक दलों से आते हों और राजनैतिक विरोधी होने की नौटंकी करते हों, लेकिन यह जनता की आंखों में धूल झोंकने की चालें हैं. असली मुक़ाबला थैलीशाहों के बीच धन्धे की छीन-झपट है.
इस चुड़ैल-सभा के एक वरिष्ठ सदस्य पी. चिदम्बरम हैं, जिनके बारे में कुछ लोग कहते हैं कि वे प्रतिपक्षी दलों के इतने चहेते हैं कि अगर कांग्रेस अगला चुनाव हार भी जाये तो भी वे गृहमन्त्री बने रहेंगे. एक तरीक़े से शायद यह उनके लिए लाज़िमी भी होगा, क्योंकि उन्हें जो काम उनके आक़ाओं ने सौंपा है उसे पूरा करने के लिए उन्हें हो सकता है अपने पद पर कुछ और साल बने रहना पड़े. लेकिन वे रहते हैं या जाते हैं इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला. पांसे तो फेंके जा चुके हैं.
अपने पुराने विश्वविद्यालय, हार्वर्ड, में एक भाषण देते हुए अक्तूबर २००७ में चिदम्बरम ने इस ज़िम्मेदारी का ख़ाका पेश किया था. भाषण का शीर्षक था : "ग़रीब अमीर देश : विकास की चुनौतियां." उन्होंने आज़ादी के बाद के तीन दशकों को "गंवा दिये गये वर्ष" कहा था और सकल घरेलू उत्पाद दर की डींग हांकी थी जो २००२ में ६.९ फ़ीसदी से ऊपर उठ कर २००७ में ९.४ फ़ीसदी हो गयी थी. उन्हों ने जो कहा था वह मेरे लिए इतना महत्वपूर्ण है कि मैं उनके बेस्वाद गद्य के एक अंश को पढ़्ने का दण्ड आपको भी दे रही हूं :
"कोई सोचता होगा कि जैसे-जैसे अर्थ-व्यवस्था एक ऊंची वृद्धि दर की ओर अग्रसर होगी, विकास की चुनौतियां -- एक लोकतन्त्र में -- उत्तरोत्तर कम उग्र होती जायेंगी. असलियत इससे बिलकुल उलट है. लोकतन्त्र -- या कहा जाये कि लोकतान्त्रिक संस्थाओं और समाजवादी युग की विरासत -- ने वास्तव में विकास की चुनौतियां बढ़ा दी हैं. मुझे कुछ मिसालों से इसे समझाने की इजाज़त दीजिये. हिन्दुस्तान की खनिज सम्पदा में कोयला ( दुनिया का चौथा सबसे बड़ा भण्डार), कच्चा लोहा, मैंगनीज़, माइका, बौक्साइट, कच्चा टाइटैनियम, क्रोमाइट, हीरा, प्राकृतिक गैस, पेट्रोलियम और चूने की खदानें हैं. सामान्य ज्ञान हमें बताता है कि हमें जल्दी और कौशलपूर्ण ढंग से इनका खनन करना चाहिये. इस काम में भारी पूंजी निवेश, कुशल संगठनों और ऐसी पर्यावरण नीति की ज़रूरत पड़ती है जो बाज़ार की ताक़तों को काम करने की छूट देगी. खनन उद्योग में इनमें से कोई भी तत्व आज मौजूद नहीं है. इस सिलसिले में क़ानून पुराने पड़ चुके हैं और संसद सिर्फ़ हाशिये पर ठोंक-पीट कर पा रही है. खनन की सम्भावनाओं को तलाशने और खनन करने के लिए पूंजी को आकर्षित करने में हमारी कोशिशें कमो-बेश नाकाम रही हैं. इस बीच, यह क्षेत्र वस्तुत: राज्य सरकारों के हाथों में क़ैद है. यथास्थिति में किसी भी क़िस्म के परिवर्तन का विरोध ऐसे गुट कर रहे हैं जो -- काफ़ी उचित ढंग से -- जंगलों या पर्यावरण या आदिवासी आबादी के आन्दोलन का समर्थन करते हैं.ऐसे राजनैतिक दल भी हैं जो खनन को राज्य सरकारों की इजारेदारी मानते हैं और जिन्हें निजी क्षेत्र के प्रवेश पर विचारधारा के आधार पर ऐतराज़ है. वे स्थापित श्रम संघों से समर्थन बटोरते हैं. संघों के पीछे -- उनकी जानकारी या नाजानकारी में -- व्यापारी माफ़िया खड़ा है. नतीजा -- वास्तविक पूंजी निवेश कम है, खनन उद्योग कछुए की चाल से बढ़ रहा है और अर्थ-व्यवस्था पर बोझ का काम करता है. मैं आपको एक और मिसाल दूंगा. उद्योगों को स्थापित करने के लिए ज़मीन के बड़े-बड़े टुकड़े चाहिएं. खनिज-आधारित उद्योगों मसलन इस्पात और ऐल्युमिनियम को खनन, माल की तैयारी और उत्पादन के लिए ज़मीन के बड़े-बड़े क्षेत्रों की ज़रूरत है. हवाई अड्डे, बन्दरगाहें, बांध और बिजली-घरों के लिए भूमि के विशाल क्षेत्र चाहिएं ताकि वे सड़क और रैल सम्पर्क और सहायक और संसाधन सम्बन्धी सुविधाएं उपलब्ध करा सकें.अब तक, सरकार द्वारा भूमि का अधिग्रहण प्रभुसत्ता के अधिकार को लागू करके किया जाता था. मुद्दा केवल वाजिब मुआवज़ा देने का था. यह स्थिति अब बदल गयी है. अब हर परियोजना में नये दावेदार हैं और उनकी दावेदारी को स्वीकार करना ज़रूरी है. अब हमें पर्यावरण पर असर के मूल्यांकन . अनिवार्य अधिग्रहण के औचित्य, सही मुआवज़े, क्षतिपूर्ति, विस्थापित लोगों के पुनर्वास और पुनर्प्रतिष्ठा, वैकल्पिक आवास और खेती की ज़मीन जैसे मुद्दों को ध्यान में रखना पड़ता है..."
"बाज़ार की ताक़तों" को संसाधनों का खनन "जल्दी और कौशलपूर्ण ढंग से" करना वही करना है जो औपनिवेशिक शक्तियां अपने उपनिवेशों के साथ करती रही हैं, जो स्पेन और उत्तरी अमरीका ने धक्षिणी अमरीका के साथ किया, जो यूरोप ने अफ़्रीका में किया ( और अब भी कर रहा है), यही नस्लवादी निज़ाम ने दक्षिण अफ़्रीका में किया. जो छोटे देशों के कठपुतले तानाशाह अपने लोगों का ख़ून चूसने के लिए करते हैं. यह वृद्धि और विकास का फ़ार्मूला तो है पर किसी और की वृद्धि और विकास के लिए. यह वही बहुत, बहुत, बहुत पुरानी कहानी है. क्या हमें इसे फिर से दोहराना होगा ?
अगली किस्त में चिदम्बरम के भाषण का विवेचन, सरकारी रिपोर्ट का सच और माओवाद के हौवे की असलियत
Thursday, September 30, 2010
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