Sunday, September 26, 2010

रिसती हुई क्रान्ति --- तीसरी किस्त

तीसरी किस्त
वहां उस चमकती हुई उजली रोशनी में उस धूसर भीड़ के बीच खड़े हो कर मैं उन सारे संघर्षों के बारे में सोचती रही जो लोगों द्वारा देश में किये जा रहे हैं -- नर्मदा घाटी, पोलावरम, अरुणाचल प्रदेश में बड़े बांधों के ख़िलाफ़; ऊड़ीसा, छ्त्तीसगढ़ और झारखण्ड में खदानों के ख़िलाफ़; लालगढ़ के आदिवासियों द्वारा पुलिस के ख़िलाफ़; देश भर में उद्योगों और विशेष आर्थिक क्षेत्रों के लिए उनकी ज़मीनें छीनने के ख़िलाफ़. कितने बरसों तक और कितने तरीक़ों से लोगों ने ठीक ऐसी ही नियति से बचने के लिए जद्दो-जेहद की है. मैंने अपने कन्धों पर बन्दूकें लटकाये मासे, नर्मदा, रूपी, नीति, मंगतू, माधव, सरोजा, राजू, गुडसा उसेण्डी और कामरेड कमला ( माओवादियों के साथ जंगल में बिताये दिनों के दौरान मेरे युवा अंगरक्षकों ) के बारे में सोचा. मैं ने उस वन-प्रान्तर की महान गरिमा के बारे में सोचा जहां मैंने कुछ ही दिन पहले पैदल यात्रा की थी और सोचा आक्रोश से भरे देश की तेज़ होती हुई नब्ज़ के साउण्ड-ट्रैक सरीखी बस्तर में भूमकाल उत्सव के आदिवासी नगाड़ों की लय के बारे में.

मैंने पद्मा के बारे में सोचा जिसके साथ मैं वारंगल तक गयी थी. वह अभी तीस के पेटे ही में है लेकिन जब वह सीढ़ियां चढ़ती है तो उसे हत्था पकड़ कर अपने शरीर को अपने पीछे घसीटना पड़ता है. जब उसे गिरफ़्तार किया गया था उसके ठीक एक हफ़्ता पहले ही उसके अपेण्डिक्स का औपरेशन हुआ था. उसे तब तक पीटा गया जब तक कि उस्के शरीर के भीतर ख़ून नहीं रिसने लगा. उसके कई अवयव काट कर निकालने पड़े थे. जब पुलिसवालों ने उसके घुटने तोड़े तो उन्होंने उसे दिलासा देते हुए बताया कि वे ऐसा इसलिए कर रहे थे ताकि वह "फिर से जंगल में न चल सके." उसे आठ साल की सज़ा कटने के बाद छोड़ा गया. अब वह "अमरुला भादु मित्रुला समिति" यानी शहीदों के मित्रों और रिश्तेदारों की समिति का संचालन करती है. यह समिति खूठी मुठभेड़ों में मारे गये लोगों की लाशों को वापस लाने का काम करती है. पद्मा अपना समय आन्ध्र प्रदेश के उत्तरी हिस्से में यात्रा करते हुए बिताती है, जो भी साधन उसे उपलब्ध हो उसमें, आम तौर पर ट्रैक्टर में, लोगों के शवों को ढो कर उनके माता-पिता या पत्नियॊं तक पहुंचाती हुई जो इतने ग़रीब हैं कि अपने प्रियजनों के शरीरों को वापस लाने के लिए किराया भी नहीं ख़र्च कर सकते.

जो लोग बरसों से, दशकों से, बदलाव, या फिर अपनी ज़िन्दगियों में न्याय की एक फुसफुसाहट लाने के लिए लड़ रहे हैं उनकी लगन, अक़्लमन्दी और साहस एक असाधारण चीज़ है. चाहे लोग भारतीय राज्य का तख़्ता पलतने के लिए लड़ रहे हों या बड़े बांधों के ख़िलाफ़ लड़ रहे हों या फ़क़त किसी ख़ास इस्पात करख़ाने या खदान या विशेष आर्थिक क्षेत्र के ख़िलाफ़ लड़ रहे हों, बुनियादी बात यह है कि वे अपने सम्मन और गरिमा की लड़ाई लड़ रहे हैं, मनुष्यों की तरह जीने और महकने के अधिकार के लिए लड़ रहे हैं. वे लड़ रहे हैं, क्योंकि जहां तक उनका सवाल है, "आधुनिक विकास के फल" जर्नैली सड़क के किनारे मुर्दा मवेशियों की तरह गंधाते हैं.

हिन्दुस्तान की आज़ादी की ६४वीं सालगिरह पर प्रधान मन्त्री मनमोहन सिंह राष्ट्र के नाम एक भावहीन, हड्डियां कंपाने वाला तुच्छ भाषण देने के लिए, लाल क़िले में अपने बुलेट-प्रूफ़ डिब्बे में चढ़े. उन्हें सुनते हुए कौन कल्पना कर सकता था कि वे एक ऐसे देश को सम्बोधित कर रहे थे जहां, दुनिया की दूसरे नम्बर की विकास दर होने के बवजूद, अफ़्रीका के २६ सबसे ग़रीब देशों की कुल जनसंख्या से ज़्यादा ग़रीब लोग हैं. " आप सभी ने भारत की सफलता में योग दिया है," उन्होंने कहा, " हमारे मज़दूरों, हमारे कारीगरों, हमारे किसानों की कड़ी मेहनत ने देश को वहां ला खड़ा किया है जहां वह आज खड़ा है.... हम एक नया भारत बना रहे हैं जिसमें हर नागरिक का हिस्सा होगा, ऐसा भारत जो ख़ुशहाल होगा और जिसमें सभी नागरिक शान्ति और भाई-चारे के वातावरण में सम्मान और गरिमा की ज़िन्दगी जी सकेंगे. ऐसा भारत जिसमें सारी समस्याएं लोकतान्त्रिक तरीक़ों से तय की जा सकेंगी. ऐसा भारत जिसमें हर नागरिक के बुनियादी अधिकारों की रक्षा होगी." किसी को लग सकता था कि वे फ़िनलैण्ड या स्वीडन की जनता को सम्बोधित कर रहे थे.

अगर "व्यक्तिगत निष्ठा" के सिलसिले में हमारे प्रधान मन्त्री की शोहरत उनके भाषणों के शब्दों में प्रकट होती तो उन्होंने यह कहा होता -- "भाइयो और बहनो, इस रोज़ जब हम अपने महिमाशाली अतीत को याद करते हैं, आप सबका अभिवादन है. मैं जानता हूं कि चीज़ें थोड़ी मंहगी होती जा रही हैं, और आप लोग खाने की चीज़ों की क़ीमतों के बारे में हाय-तौबा करते रहते हैं. लेकिन इसे इस तरह देखिये -- आप में से ६५ करोड़ से ज़्यादा लोग किसानों या किसान-मज़दूरों की हैसियत में खेती में जुटे हुए हैं या उस से आजीविका चला रहे हैं, लेकिन आपकी कुल कोशिशों का योग हमारे सकल उत्पाद का १८ फ़ीसदी से भी कम ठहरता है. सो, क्या फ़ायदा है आपक ? हमारे सूचना तकनीक -- आई टी -- क्षेत्र को देखिये. उसमें हमारी ०.२ फ़ीसदी आबादी लगी हुई है और हमारी राष्ट्रीय आय का ५ फ़ीसदी हमें कमा कर देता है. क्या आप इसका मुक़ाबला कर सकते हैं ?.....


प्रधान मन्त्री के इस लाजवाब कल्पित भाषण का शेष भाग अगली किस्त में ......... कल


No comments:

Post a Comment