क्रांति और भ्रान्ति --सितम के जहान और भी हैं...
मृणाल वल्लरी के सात साल पहले लिखे गये लेख को माओवादियों के खिलाफ़ उनके भ्रान्त धारणाओं से भरे लेख को छापने, माफ़ कीजिए ब्लौग पर प्रसारित करने, के बाद एक भावुकता भरी टिप्पणी के साथ पेश करने का क्या उद्देश्य है, यह समझ में नहीं आया सिवा इसके कि उन्हें और मोहल्ला ब्लौग को अपने रुझान का औचित्य ठहराने की ज़रूरत महसूस हुई होगी, विश्वस्नीयता को भी साबित करने की. वजह यह कि ब्लौग पर प्रसारित सामग्री को पढ़ने और उस पर त्वरित टिप्पणी करने वाले अधिकांश लोग स्वभावत: भावुक होते हैं और अर्चना पर लिखी मृणाल वल्लरी की टिप्पणी के एकांगी दृष्टिकोण से बहुत जल्दी प्रभावित भी हो जाते हैं. इस सिलसिले में दो तीन बातें कहनी हैं.
पहली यह कि यह मान कर भी कि हमारे समाज में पुरुष अब भी स्त्रियों पर ज़ोर-ज़ुल्म करते हैं, इस समस्या को एक "केस स्टडी" बना कर सिर्फ़ पुरुषों को अपार भोलेपन और नक़ली सात्विक आक्रोश से "दोग़ले" कहना एक सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक समस्या को नितान्त व्यक्तिवादी ढंग से देखना है, साथ ही पुरुषों को एक ऐसी गाली देना है जो नि:सृत ही पुरुष-प्रधान मानसिकता से हुई है. मृणाल जी युवा जुझारू पत्रकार हैं, गांव से भी उनका जुड़ाव बरक़रार है, ज़रा भागलपुर में ही "दोग़ला" का अर्थ दरयाफ़्त करें. मूल अर्थ है -- फ़ारसी पुल्लिंग : अवैध, वर्णसंकर, बदनस्ल. और देसी लोगों से पूछने पर उन्हें पता चलेगा कि इसी को उनके गांववाले "हरामी, नाजायज़, जारज, पापज, ग़ैरक़ानूनी," वग़ैरा कहते हैं जो न केवल इस गाली को स्त्री-विरोधी बना देता है, बल्कि वर्णवादी, जातिवादी और नस्लवादी भी. ब्लौग के पाठक चूंकि इस जानकारी से अपरिचित हैं इसलिए उन्हें मृणाल का सतही आक्रोश इस गाली से मण्डित हो कर और भी मनमोहक लगता है वैसे ही जैसे किसी औरत का मां और बहन की गाली देना कि भई वाह, क्या मर्दानगी दिखायी है. यों हमारे समाज में कौन है जो दोग़ला नहीं है ? शुद्ध रक्त का दावा कौन कर सकता है ? इसी से दूसरी बात निकलती है.
दूसरी बात यह है कि हमारा समाज पिछले चार पांच हज़ार वर्षों के अर्स में इतनी पुरपेच गलियों से हो कर आया है कि स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की जटिलताएं कई तरह के परस्पर विरोधी विचार-आचार सरणियों, संस्कारों और दबावों का शिकार हो गयी हैं और स्त्रियों को उनकी वाजिब जगह हासिल कराने के लिए -- चाहे वह सामाजिक धरातल पर हो या स्त्री-पुरुष के नितान्त निजी दायरे में ( मृणाल जी और उनके प्रशंसक ग़ौर करेंगे कि मैं जान बूझ कर "वैवाहिक दायरे" जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं कर रहा) -- एक लम्बी लड़ाई लड़नी है, लड़ी भी जा रही है और इसमें सिर्फ़ स्त्रियां ही नहीं, मर्द भी शरीक हैं और होंगे. वर्ना क्या मृणाल जी बता पायेंगी कि पुरुष तो स्त्रियों पर अत्याचार करते ही हैं, औरतें क्यों औरतों पर ज़ुल्म ढाती हैं ? परम्परागत सास-बहू, ननद-भौजाई और देवरानी-जेठानी की दुश्मनी के अलावा कई बार सहोदरा बहनों में भी कैसी कट्टम-जुज्झ मचती है उससे क्या मृणाल जी नावाक़िफ़ हैं. पर अपने ऐंचेपन की वजह से वे इस सब को नज़रन्दाज़ कर गयी हैं, क्योंकि जैसा कि मैं ने उनके पिछले लेख के सिलसिले में भी कहा था, वे आज की सनसनीख़ेज़, भावुकता भरी पत्रकारिता की प्रतिनिधि हैं, परिवर्तनकामी पत्रकारिता करने का दम भरना तो एक छलावा है जो आज के मीडिया मालिकों को बहुत पसन्द आता है.
तीसरी बात भी हमारे समाज में विवाह की संस्था से सम्बन्धित है. विवाह की प्रथा का आरम्भ मातृसत्ता की पराजय के बाद और व्यक्तिगत सम्पत्ति के उदय के बाद ही हुआ था. अगर मृणाल जी को मार्क्स-एंगेल्स-माओ से बहुत एलर्जी है तो अपने ही वेद-पुराणों में श्वेतकेतु की कथा पढ़ने की ज़हमत उठाएं. शुरू से आज तक विवाह एक पौरुष प्रधान समाज की अभिव्यक्ति रहा है और समय के साथ वह इतना पेचीदा हो गया है कि विवाह का टूटना या उसमें विकृतियों का पैदा होना केवल एक पक्ष ही की ज़िम्मेदारी नहीं होता. भिन्न-भिन्न मात्राओं में स्त्री-पुरुष और उनके साथ-साथ उनके इर्द-गिर्द का समाज भी ज़िम्मेदार होता है. इसलिए एक तो इस सिलसिले में कोई सरलीकरण करना ग़लत है. अनेक दलित स्त्रियां सवर्ण या या ब्राह्मण स्त्रियां दलित पुरुषों के साथ सुखी वैवाहिक जीवन बिताती रही हैं, बिता रही हैं, यहां तक कि अलग अलग धर्मॊं के दम्पति भी निर्विघ्न जीवन जीते रहे हैं, जी रहे हैं जबकि चारों ओर खुले दिमाग़ से नज़र दौड़ाने पर अनेक सगोत्रीय, सजातीय समान धर्मी विवाह -- बल्कि ९५ प्रतिशत सगोत्रीय, सजातीय समान धर्मी विवाह -- किसी न किसी व्यथा और रुग्णता का शिकार पाये जायेंगे.
दूसरे उनके विचारों से ही उत्तेजित हो कर किन्हीं महाशय ने सन्दर्भ-च्युत ढंग से कवि आलोकधन्वा को और क्रान्ति भट्ट से उनके वैवाहिक सम्बन्धों पर अनाप-शनाप टिप्पणी कर मारी है. दो व्यक्तियों का सम्बन्ध और फिर सम्बन्ध-विच्छेद कोई सार्वजनिक विश्लेषण और निष्कर्ष प्रतिपादन का मामला नहीं होता. चूंकि मैं इस दम्पति विशेष के काफ़ी क़रीब रहा हूं इसलिए मैं अधिकारपूर्वक कह सकता हूं कि आलोकधन्वा और क्रान्ति ( अब असीमा ) भट्ट का अलग होना सिर्फ़ एक पक्ष के चलते नहीं हुआ. यों कोई भी ब्लौग पर कुछ भी कहने के लिए स्वतन्त्र है, चाहे वह दूसरे पर कीचड़ उछालने से ले कर उसका चरित्र हनन करने तक क्यों न चला जाये.
मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि अगर मृणाल की मुहिम से एक भी अर्चना की जान बचती है, और सिर्फ़ जान ही नहीं बचती, बल्कि वह अपने बल पर जीवन जीने में समर्थ भी होती है तो मैं मृणाल के प्रयत्नों का स्वागत करूंगा लेकिन मृणाल केवल पढ़ी-लिखी साधन-सम्पन्न अर्चनाओं पर ही नज़र न टिकाये रखें, न अपने दायरे को वर्ण या धर्म के बन्धनों तक ही सीमित रखें. वे ज़रा वहां भी नज़र दौड़ायें जहां औरतें सत्ता और सत्ता के गुर्गों -- पुलिसवालों, नेताओं आदि का शिकार बनती हैं. जहां दलितों से बदला लेने या उन्हें उनकी औक़ात बताने के लिए उनकी औरतों के साथ बलात्कार किया जाता है. कौन नहीं जानता है कि एक सवर्ण पढ़ी-लिखी लड़्की के पास आत्महत्या के अलावा सौ रास्ते होते हैं जो समाज की दलित ८० फ़ीसदी औरतों को उपलब्ध नहीं होते. उच्छ्वास बहुत अच्छा लगता है, पर कैरियर की सीढ़ियां चढ़ने में सहायक होने के अलावा बहुत दूर नहीं ले जाता. फिर इससे आगे बढ़ कर वे स्त्रियां हैं जो यह जानती हैं कि शोषण पर टिके इस समाज में सिर्फ़ स्त्रियां ही परतन्त्र नहीं हैं बल्कि पुरुष भी उतनी ही मात्रा में परतन्त्र हैं और स्त्रियों की मुक्ति की लड़ाई लामुहाला पुरुषों की मुक्ति की भी लड़ाई है. मृणाल अगर अपने कर्म को वाक़ई सार्थक करना चाहती हैं तो उन्हें यह सत्य समझना चाहिए.
अन्त में यह कि हाल के सर्वेक्षणों ने यह भी बताया है कि जहां स्त्रियों ने आर्थिक वर्चस्व हासिल कर लिया है वहां थोड़ी मगर बढ़ती मात्रा में पुरुष भी यौन अथवा अन्य उत्पीड़नों का शिकार बने हैं, बन रहे हैं. मृणाल चाहें तो किसी भी समाज शास्त्री से पूछ सकती हैं. इसलिए उन्हें चाहिए कि ज़रा गहरे उतरें. फ़िलहाल तो यही लगता है कि -- भले ही सात साल पुराना लेख दोबारा पेश करते हुए उन्होंने यह कहा है कि आज वे इसे दूसरी तरह लिखतीं -- वे इस लेख से बहुत दूर नहीं हटी हैं वरना इसे दोबारा पेश करने के लालच में न पड़तीं.
Tuesday, September 14, 2010
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