Wednesday, October 27, 2010

चिदम्बरम के गोएबल्ज़

कल के लेख की अगली कड़ीचिदम्बरम के गोएबल्ज़

छत्तीसगढ़, झारखण्ड, महाराष्ट्र, आन्ध्र, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में सरकार ने जो इतने बड़े पैमाने पर गृह-युद्ध छेड़ रखा है, उसके पीछे अरबों डालरों की लूट का सवाल है जो प्रधान मन्त्री मनमोहन सिंह की सरकार की मदद से बाहर की कारपोरेट कम्पनियां करना चाहती हैं. ज़ाहिर है इस लूट को सुगम बनाने के लिए वहां बसे आदिवासियों का सफ़ाया करना अनिवार्य हो उठा है, क्योंकि वे अपने वन, अपनी नदियां और अपनी सम्पदा बचाने -- यानी अपने जीवन बचाने के लिए इन कम्पनियों और सरकार का विरोध कर रहे हैं. अब जैसा कि युद्ध में होता है सिर्फ़ फ़ौज से काम नहीं चलता, वरना हिटलर को गोएबल्ज़ की ज़रूरत न पड़ती जिसने मीडिया को अपना योगदान एक अद्भुत सूत्र की शक्ल में दिया था और जिसे मृणाल वल्लरी, बरखा दत्त, अर्नब गोस्वामी, चन्दन मित्रा और उन जैसे अन्य पत्रकारों ने गृह मन्त्री चिदम्बरम के गोएबल्ज़ होने के नाते अपने मन-वचन-कर्म से अपना लिया है. सूत्र था -- झूठ को सौ बार बोलो तो वह सच मान लिया जाता है. तो साहब गृह मन्त्री पी. चिदम्बरम ने फ़ौजी कमाण्डरों से कहा कि इस सम्बन्ध में वे कुछ करें. आगे क्या हुआ, यह आप प्रसिद्ध लेखिका अरुन्धती राय के लेख के उद्धरण में पढ़िए :--

"आपातकाल के दौरान, कहते हैं, जब श्रीमती गांधी प्रेसवालों को झुकने के लिए कहती थीं तो वे रेंगने लगते थे. और तिस पर भी, उन दिनों में ऐसी मिसालें थीं जब राष्ट्रीय दैनिकों ने सेन्सरशिप का विरोध करते हुए चुनौती-भरे अन्दाज़ में कोरे सम्पादकीय छापे थे. .... इस बार इस अघोषित आपातकाल में चुनौतियों की बहुत गुंजाइश नहीं है, क्योंकि मीडिया ही सरकार है. कोई भी, सिवा उन पूंजीवादी घरानों और निगमों के, जिनका उस पर नियन्त्रण है, उसे (मीडिया को) यह नहीं बता सकता कि वह क्या करे. वरिष्ठ राजनेता, मन्त्री और सुरक्षा व्यवस्था के अफ़सर टेलीविज़न पर आने के लिए लालायित रहते हैं -- दुर्बल स्वरों में अर्नब गोस्वामी और बरखा दत्त से बिनती करते हुए कि उन्हें उस दिन के प्रवचन में कुछ अपनी ओर से भी कहने की मोहलत दी जाये. कई टीवी चैनल और समाचार-पत्र छुपे तौर पर औपरेशन ग्रीनहण्ट के युद्ध कक्ष और उसके द्वारा ग़लत सूचनाएं प्रसारित करने के अभियान का संचालन कर रहे हैं. कई अख़बारों में भिन्न-भिन्न रिपोर्टरों के नाम से लेकिन हू-ब-हू उन्हीं लफ़्ज़ों में "माओवादियों के १५०० करोड़ के उद्योग" की खबर छपी. लगभग सभी अख़बारों और समाचार चैनलों ने मई २०१० में झाड़ग्राम (पश्चिम बंगाल ) में पटरी से रेल के उतर जाने की भयानक घटना के लिए, जिसमे १४० लोग मारे गये, "पुलिस सन्त्रास विरोधी जनगणेर समिति" को ( "माओवादियों" से अदल-बदल कर इस्तेमाल करके) दोषी ठहराते हुए ख़बरें छापीं. दो प्रमुख सन्दिग्ध लोगों को "मुठभेड़ों" में पुलिस ने मार गिराया है इस बात के बावजूद कि उस घटना के गिर्द छाया हुआ रहस्य अब तक खुल रहा है. प्रेस ट्रस्ट औफ़ इण्डिया ने कई झूठी ख़बरें जारी की हैं जिन्हें इण्डियन एक्सप्रेस ने वफ़ादारी से सुर्ख़ियों में छापा है जिनमें वह ख़बर भी शामिल है जिसमें कहा गया था कि माओवादियों ने अपने द्वारा मारे गये पुलिसवालों के शवों को टुकड़े-टुकड़े कर दिया था. (इसका खण्डन जो खुद पुलिस की तरफ़ से आया था, बीच के किसी पन्ने पर डाक टिकट के आकार मॆं छापा गया.) कई हू-ब-हू एक जैसे इण्टर्व्यू छपे हैं -- सब "एक्सक्लूसिव" की सुर्ख़ी के साथ -- उस महिला छापामार के बारे में कि कैसे माओवादी नेताओं ने उसके साथ बलात्कार और फिर-फिर बलात्कार किया. बताया गया कि वह हाल ही में जंगलों और माओवादियों के चंगुलों से छूट कर दुनिया को अपनी कहानी सुनाने के लिए भाग निकली थी. अब पता चल रहा है कि वह महीनों से पुलिस की हिरासत में थी.......

.............जैसे-जैसे युद्ध घिरता जा रहा है, फ़ौजों ने ऐलान कर दिया है (जिस तरह सिर्फ़ वे ही कर सकती हैं) कि वे भी हमारे दिमाग़ों के साथ खिलवाड़ करने के धन्धे में उतरने के लिए तैयार हो रही हैं. जून २०१० में उन्होंने दो "सामरिक सिद्धान्त" जारी किये. एक था साझी हवाई-ज़मीनी सामरिक कार्रवाई का सिद्धान्त. दूसरा था सैन्य मनोवैज्ञानिक कार्रवाई का सिद्धान्त, "जिसमें चुने हुए श्रोताओं के पूर्वलक्षित समुदाय को सन्देश देने की योजनाबद्ध प्रक्रिया शामिल है ताकि ऐसे ख़ास विषयों का प्रचार-प्रसार किया जाये जिनसे वांछित रवैये और व्यवहार पैदा हों जो देश के राजनैतिक और फ़ौजी मक़सदों को पूरा करें. यह सिद्धान्त ग़ैर-पारम्परिक कार्रवाइयों में बोध का प्रबन्ध करने से सम्बन्धित गतिविधियों के लिए मार्ग-दर्शन भी उपलब्ध कराता है, ख़ास तौर पर आन्तरिक परिवेश में जहां बहकायी हुई आबादी को मुख्यधारा में लाने की ज़रूरत हो." प्रेस विज्ञप्ति में आगे कहा गया था कि "सैन्य मनोवैज्ञानिक कार्रवाइयों का सिद्धान्त अमल में लाया जाने वाला ऐसा नीति और योजना सम्बन्धी दस्तावेज़ है जिसका उद्देश्य है सामरिक सेवाओं द्वारा उस मीडिया का इस्तेमाल करके, जो उन्हें उपलब्ध है, ऐसा अनुकूल माहौल बनाना जिसमें वे अपने फ़ायदे के लिए कार्रवाई कर सकें."............

यह है "लाल क्रान्ति के सपने की कालिमा" की हक़ीक़त जिसके उजागर होने पर मृणाल वल्लरी ने उलटे एक आक्रामक मुद्रा अख़्तियार करके अपने विरोधियों को चुप कराने की कोशिश की है और वे ख़ुद कितनी जुझारू हैं इसे साबित करने के लिए अंजनी के लेख में उठाये गये सवालों को नज़रन्दाज़ करके सात साल पुराना लेख मोहल्ला लाइव में चेंप दिया है. हम यह ध्यान दिलाना चाहते हैं कि नक्सलबाड़ी आन्दोलन के बाद के इन ४३ बरसों में यह पहली बार हुआ है कि एक योजनाबद्ध तरीक़े से नक्सलवादियों पर (बदले हालात में अब उन्हें माओवादी कह लीजिए, वैसे अनेक वामपन्थी धड़े हथियारबन्द क्रान्ति का समर्थन करते रहे हैं और १९६७ से ही हर तरह की केन्द्रीय सरकार उनका दमन करती रही है) "वसूली" और "बलात्कार" जैसे आरोप लगाये जा रहे हैं, जो आरोप उनके ख़िलाफ़ आज तक किसी ने नहीं लगाये. कारण ऊपर बयान की गयी हक़ीक़त में है -- प्रधान मन्त्री कार्यालय, गृह मन्त्रालय, सेना, कारपोरेट पूंजीवादी घरानों और निगमों और उनके पोषित मीडिया का घृणित गंठजोड़, जिसकी हिरावल और सबसे वफ़ादार क़तार में मृणाल वल्लरी के साथ हैं चन्दन मित्रा, बरखा दत्त और अर्नब गोस्वामी जैसे "हिज़ मास्टर्स वायस" के क़दम-तालिये. अ़च्छा तो यह होता कि मृणाल वल्लरी अपनी "प्रखर" और "जुझारू" चेतना और स्त्रीवादी विचारधारा से अनुप्राणित हो कर उमा उर्फ़ सोमा मांडी के साथ सरकार द्वारा किये गये बलात्कार का (हां, किसी भी महिला को सत्ता द्वारा अपनी घिनौनी साज़िश का औज़ार बनाना उसके साथ बलात्कार करना ही है) प्रतिकार करतीं. लेकिन इस काम में उनका अन्ध-माओवाद विरोध आड़े आ गया और उनके सारे स्त्रीवाद की पोल खोल गया. उन्होंने मेरे लेखों का इतना नोटिस लिया, मुझ पर तरह -तरह के ताने-तिश्ने कसे, लेकिन न तो मोहल्ला लाइव में उद्धृत अपने पहले लेख के शीर्षक "लाल क्रान्ति के सपने की कालिमा" के ऊपर लगाये गये मुख्य शीर्षक "क्या माओवादी बलात्कारी होते हैं ?" पर आपत्ति की, न मौडरेटर की टिप्पणी पर कुछ कहा, न अंजनी के सवालों का जवाब दिया. मैं यहां मौडरेटर की टिप्पणी उद्धृत कर रहा हूं :-

यह लेख आज जनसत्ता में छपा है। इसमें यह लगभग स्‍थापित करने की कोशिश की गयी है कि माओवादी मूवमेंट से जितनी भी महिलाएं जुड़ी हैं, वे बलात्‍कार की शिकार होती हैं और यह भी कि पूरा माओवादी मूवमेंट अपनी अंतर्यात्रा में एक चकलाघर है। किसी भी राज्‍यविरोधी आंदोलन को लेकर इस तरह के प्रचार की परंपरा नयी नहीं है और अपने समय के प्रखर बुद्धिजीवियों को राज्‍य की ओर से कोऑप्‍ट कर लेने की परंपरा भी पुरानी है। दिलचस्‍प ये है कि इस पूरे आलेख में उन अखबारों में छपे वृत्तांतों की विश्‍वसनीयता को आधार बनाया गया है, जो बाजार और राज्‍य के हाथों की कठपुतली है। यहां दो लिंक दे रहा हूं, उमा वाली खबर टाइम्‍स ऑफ इंडिया में है और छवि वाली खबर द पायोनियर में है (जिस अख़बार के महान सम्पादक वही भा.ज.पा. के चहेते चन्दन मित्रा हैं -- नीलाभ) । इसी किस्‍म का एक अभियान द हिंदू में भी आप देखेंगे, जिसमें माओवादी आंदोलनों से जुड़ी खौफनाक-दुर्दांत सच्‍चाइयां (!) समय समय पर छापी जाती हैं। द हिंदू घोषित तौर पर सीपीएम का अखबार है और सीपीएम और माओवादियों की लड़ाई जगजाहिर है। भारत में मुख्‍यधारा के कम्‍युनिस्‍ट आंदोलनों का वर्तमान हमारे सामने है और माओवाद की चुनौतियों को नजरअंदाज करने के लिए उनके बुद्धिजीवी अतिजनवाद जैसे जुमलों के साथ इस आंदोलन के वैचारिक आधार से तार्किक सामना नहीं करते बल्कि कुछ कथित हादसों की गिनती का सहारा लेते हैं। जैसे अतिजनवाद के बरक्‍स कमजनवाद जनता की ज्‍यादा विवेकशील चिंता करता हो। बहरहाल, मृणाल वल्‍लरी के इस लेख को किसी भी जन आंदोलन के खिलाफ ए‍क घिनौनी साजिश का हिस्‍सा मानना चाहिए, जिसमें कुछ घटनाओं के माध्‍यम से पूरे आंदोलन को बर्खास्‍त करने की कोशिश की जाती है : मॉडरेटर


सुधी पाठकगण, मौडरेटर की अन्तिम पंक्तियां ग़ौर-तलब हैं -- "मृणाल वल्‍लरी के इस लेख को किसी भी जन आंदोलन के खिलाफ ए‍क घिनौनी साजिश का हिस्‍सा मानना चाहिए, जिसमें कुछ घटनाओं के माध्‍यम से पूरे आंदोलन को बर्खास्‍त करने की कोशिश की जाती है." लेकिन इसका गिला अब क्या करना, उनके दूसरे लेख मॆं भी यही प्रवृत्ति दिखती है और चूंकि वह लेख सात साल पहले का है, इसलिए क्या यह नहीं माना जा सकता कि सात साल में वह प्रवृत्ति इतनी बद्धमूल हो गयी कि सत्ता और पूंजीपतियों की बांदी बन गयी ?

इस लेख की अगली कड़ी -- "स्त्री-विमर्श का पाखण्ड-प्रपंच" -- अगले अंक में कल पढ़िए

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