Monday, October 4, 2010

रिसती हुई क्रान्ति

छ्ठी किस्त


क्या माओवादी भारत के सम्विधान की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं ?

अब जबकि खनन के लाइसेंस ऐसी त्वरा से जारी कर दिये गये हैं जिसे आप घबराहट में कौड़ियों के दाम की जा रही बिक्री से जोड़ कर देखते आये हैं, और जो घोटाले उभर कर सामने आ रहे हैं वे करोड़ों डालरों में कूते गये हैं, अब जबकि खनन कम्पनियों ने नदियों को प्रदूषित कर दिया है, प्रान्तों की सरहदों को खनन से खोखला बना दिया है, पर्यावरण की ऐसी-तैसी कर दी है और गृह-युद्ध छिड़वा दिया है, चुड़ैल-सभा की लगायी हुई आग के नतीजे सामने आने लगे हैं -- और हाय-तौबा भी -- तहस-नहस इलाक़े और ग़रीबों के शवों पर पढ़े जा रहे किसी पौराणिक फ़ातिहे की तरह.

ज़रा उस खेद पर ध्यान दीजिए जिससे मन्त्री महोदय अपने व्याख्यान में लोकतन्त्र और उससे जुड़ी ज़िम्मेदारियों की बात करते हैं : "लोकतन्त्र -- या कहा जाये कि लोकतान्त्रिक संस्थाओं और समाजवादी युग की विरासत -- ने वास्तव में विकास की चुनौतियां बढ़ा दी हैं." इसके बाद वे मुआवज़ों, पुनर्वास और रोज़गार के मुद्दों से सम्बन्धित उन्हीं पिटे-पिटाये झूठों की झड़ी लगा देते हैं.

कैसा मुआवज़ा ? कैसी क्षतिपूर्ति ? कैसा पुनर्वास ? और कौन-सी "हर परिवार के लिए एक नौकरी ?" (हिन्दुस्तान में साठ साल के औद्योगीकरण ने सिर्फ़ मज़दूरों की कुल संख्या की ६ फ़ीसदी के लिए रोज़गार का बन्दोबस्त किया है. रही बात भूमि के "अनिवार्य अधिग्रहण" का "औचित्य" साबित करने की "बन्दिश" की तो एक मन्त्री निश्चित रूप से जानता है कि आदिवासियों की भूमि ( जहां सबसे अधिक खनिजों की भारी मात्रा है) का अनिवार्यत: अधिग्रहण करना और उसे निजी खनन कम्पनियों के हवाले कर देना "पंचायत ( अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तारित) अधिनियम" के अन्तर्गत ग़ैर-क़ानूनी और असंवैधानिक है. १९९६ में पारित पंचायत ( अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तारित) अधिनियम एक संशोधन है जिसके माध्यम से आदिवासियों के साथ की गयी कुछ नाइन्साफ़ियों को दुरुस्त करने की कोशिश की गयी है जो १९५० में संसद द्वारा स्वीकृत भारतीय सम्विधान में निहित थीं. वह ऐसे सभी क़ानूनों को निरस्त कर देता है जो उसके प्रावधानों के विरुद्ध जा सकते हैं. यह क़ानून स्वीकार करता है कि आदिवासी समुदाय उत्तरोत्तर बढ़ती हुई मात्रा में हाशिये पर चले गये हैं और इस का उद्देश्य इस शक्ति-सन्तुलन को क्रान्तिकारी ढंग से बराबरी की तरफ़ संशोधित करने का है. क़ानून के एक नमूने की हैसियत से यह अनोखा है, क्योंकि यह समूह -- समुदाय -- को एक क़ानूनी हैसियत प्रदान करता है और यह अनुसूचित क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी समुदायों को स्व-शासन का अधिकार देता है. पंचायत ( अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तारित) अधिनियम, १९९६ के अन्तर्गत आदिवासी भूमि के "अनिवार्य अधिग्रहण" को किसी भी दलील से सही नहीं ठहराया जा सकता. लिहाज़ा, यह विडम्बना ही है कि जिन लोगों को "माओवादी" कहा जा रहा है (जिनमें वे सभी शामिल हैं जो भूमि अधिग्रहण का विरोध कर रहे हैं) दरअसल सम्विधान की रक्षा करने के लिए ही लड़ रहे हैं, जबकि सरकार उसका उल्लंघन और तिरस्कार करने की भरसक कोशिश कर रही है.

२००८ और २००९ के बीच पंचायती राज मन्त्रालय ने दो शोधार्थियों को देश में पंचायती राज की प्रगति के बारे में तैयार की जा रही एक रिपोर्ट के लिए एक अध्याय लिखने का काम सौंपा. अध्याय का शीर्षक है "पंचायत ( अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तारित) क़ानून, १९९६, वामपन्थी अतिवाद और शासन : भारत के आदिवासी इलाक़ों में चिन्ताएं और चुनौतियां" और इसके लेखक हैं अजय दाण्डेकर और चित्रांगदा चौधरी. इसके कुछ उद्धरण नीचे दिये जा रहे हैं :

"१८९४ का केन्द्रीय भूमि अधिग्रहण अधिनियम आज तक ’पंचायत ( अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तारित) क़ानून, १९९६’ के प्रावधानों के अनुरूप लाने के लिए संशोधित नहीं किया गया है... इस समय निजी उद्योगों के लिए व्यक्तिगत और सामुदायिक भूमि का बलपूर्वक अधिग्रहण करने के लिए ज़मीनी स्तर पर औपनिवेशिक युग के इस क़ानून का व्यापक दुरुपयोग हो रहा है. कई मामलों में राज्य सरकार की परिपाटी पूंजीवादी घरानों के साथ उच्च स्तरीय क़रारनामों पर हस्ताक्षर करने और फिर ज़ाहिरा तौर पर राज्य औद्योगिक निगम के लिए जबरन भूमि के अधिग्रहण के उद्देश्य से अधिग्रहण अधिनियम को लागू करने की रही है. राज्य औद्योगिक निगम फिर बड़ी आसानी से अधिगृहीत भूमि को पट्टे पर निजी क्षेत्र के निगमों को दे देता है जो ’पंचायत ( अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तारित) क़ानून, १९९६’ द्वारा अनुमोदित ’सार्वजनिक उद्देश्य से अधिग्रहण’ के बुनियादी आधार का पूरा उल्लंघन है.

"ऐसे भी मामले हैं जहां ग्राम सभाओं द्वारा विरोध व्यक्त करने वाले दस्तावेज़ों को नष्ट कर दिया गया है और उनकी जगह जाली दस्तावेज़ नत्थी कर दिये गये हैं. इस से भी बुरी बात यह है कि जब ये तथ्य उजागर भी हो गये, तब भी राज्य ने दोषी अधिकारियों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की. सन्देश स्पष्ट और अमंगलसूचक है. इन सौदों में कई स्तरों पर सांठ-गांठ हुई है.

"इन सभी राज्यों में अनुसूची संख्या पांच के इलाक़ों में आदिवासियों की ज़मीनों को ग़ैर-आदिवासियों के हाथ बेचना निषिद्ध है. लेकिन हस्तान्तरण होते रहते हैं और उत्तर-उदारीकरण युग में और भी नुमायां हो गये हैं. मुख्य कारण हैं -- धोखेधड़ी वाले तरीक़ों से हस्तान्तरण, मौखिक सौदों के आधार पर अलिखित हस्तान्तरण, तथ्यों के ग़लत प्रस्तुतिकरण और उद्देश्यों की ग़लत बयानी के आधार पर हस्तान्तरण, आदिवासी भूमि पर बलपूर्वक क़ब्ज़ा करना, अवैध विवाहों के आधार पर हस्तान्तरण, सांठ-गांठ द्वारा मिल्कियत के दावे, सर्वेक्षण, भूमि अधिग्रहण प्रक्रिया, अतिक्रमणों को हटाने के समय अभिलेखों में ग़लत इन्दराज और लकड़ी और वन्य उत्पादन के शोषण के नाम पर और यहां तक कि कल्याणकरिता के विकास के नाम पर हस्तान्तरण."

अपने निष्कर्ष वाले हिस्से में वे कहते हैं :

"खनन कम्पनियों समेत औद्योगिक घरानों के साथ राज्य सरकार द्वारा हस्ताक्षरित क़रारनामों को एक सार्वजनिक स्तर पर दोबारा जांचा जाना चाहिये जिसमें ग्राम सभाएं जांच के केन्द्र में हों."

तो यह है असलियत -- तंग करने वाले कार्यकर्ता नहीं, माओवादी नहीं, बल्कि एक सरकारी रिपोर्ट जो क़रारनामों की फिर से जांच की मांग कर रही है. और सरकार इस दस्तावेज़ के साथ क्या करती है ? उसकी प्रतिक्रिया क्या होती है ? २४ अप्रैल २०१० को एक औपचारिक समारोह में प्रधान मन्त्री इस रिपोर्ट को जारी करते हैं. बड़ी बहादुरी दिखाई, आप सोचेंगे. सिवा इसके कि जारी की गयी उस रिपोर्ट में यह अध्याय नहीं शामिल किया गया था. उसे काट कर निकाल दिया गया था.

आधी सदी पहले, मारे जाने के ठीक पहले चे गुएवारा ने लिखा था : " जब उत्पीड़नकारी शक्तियां उन क़ानूनों के खिलाफ़ अपने को सत्ता में बनाये रखती हैं जिन्हें उन्होंने ख़ुद स्थापित किया होता है तो यह मान लिया जाना चाहिए कि शान्ति भंग की जा चुकी है." बेशक. २००९ में मनमोहन सिंह ने संसद में कहा था "अगर वामपन्थी अतिवाद उन हिस्सों में जारी रहता है जहां खनिजों के प्राकृतिक स्रोत हैं तो पूंजी निवेश के वातावरण पर निश्चय ही असर पड़ेगा." यह युद्ध की गुप-चुप घोषणा थी.

(मुझे यहां एक छोटे-से विषयान्तर की इजाज़त दीजिए, दो सिक्खों के क़िस्से को बयान करने के लिए एक क्षण : १९३१ में ब्रिटिश सरकार द्वारा फांसी चढ़ाये जाने से पहले पंजाब के गवर्नर को भेजी गयी अपनी आख़िरी अर्ज़ी में महान क्रान्तिकारी और मार्क्सवादी भगत सिंह ने कहा था -- "हमें यह घोषित करने दीजिए कि युद्ध बाक़ायदा छिड़ा हुआ है और तब तक छिड़ा रहेगा जब तक मुट्ठी भर परजीवी हिन्दुस्तान की मेहनतकश जनता और उसके प्राकृतिक संसाधनों का शोषण करते रहेंगे. वे चाहे पूरी तरह अंग्रेज़ पूंजीवादी हों या मिले-जुले अंग्रेज़ और हिन्दुस्तानी या पूरी तरह हिन्दुस्तानी ही क्यों न हों. चाहे वे अपना घातक और कपट-भरा शोषण मिले-जुले या विशुद्ध हिन्दुस्तानी नौकरशाही तन्त्र द्वारा चला रहे हों..इन सारी चीज़ों से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता." )

अगर आप उन सारे संघर्षों पर ग़ौर करें जो इस समय हिन्दुस्तान में जारी हैं, तो आप पायेंगे कि जनता अपने सम्वैधानिक अधिकारों से ज़्यादा और किसी चीज़ की मांग नहीं कर रही है. लेकिन भारत की सरकार को अब भारतीय सम्विधान के पालन की ज़रूरत नहीं महसूस हो रही है, जो ऐसा माना जाता है कि वह क़ानूनी और नैतिक ढांचा है जिस पर हमारा लोकतन्त्र टिका है. सम्विधानों के हिसाब से वह एक प्रबुद्ध दस्तावेज़ है, लेकिन उसके ज्ञान की दीप्ति को लोगों की रक्षा के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाता. इसका बिलकुल उलट होता है. उसे एक कंटीली गदा की तरह उन लोगों को मार कर धूल चटाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है जो राज्य द्वारा "सार्वजनिक हित" के नाम पर अपनी जनता के ख़िलाफ़ ढायी जा रही बढ़ती हुई हिंसा का विरोध कर रहे हैं. "आउटलुक" पत्रिका में प्रकाशित अपने एक हालिया लेख में वरिष्ठ पत्रकार बी.जी. वर्गीज़ इस कांटों जड़ी गदा को राज्य और बड़े व्यापारिक निगमों के पक्ष में लहराते हुए अखाड़े में निकल आये : "माओवादी विलीन हो जायेंगे, लोकतान्त्रिक भारत और सम्विधान की जीत होगी, चाहे जितना समय इसमें लगे और चाहे जितनी तकलीफ़ इसमें क्यों न उठानी पड़े." इस लेख का जवाब आज़ाद ने दिया था ( यह अपनी हत्या किये जाने से पहले उसकी आख़िरी टिप्पणी थी) :

"हिन्दुस्तान के किस हिस्से में सम्विधान की जीत हो रही है, मिस्टर वर्गीज़ ? दन्तेवाड़ा में, बीजापुर, कांकेर, नारायणपुर, राजनांदगांव में ? झारखण्ड में, ऊड़ीसा में ? लालगढ़, जंगलमहल में ? कश्मीर की घाटी में ? मणिपुर में ? हज़ारों सिक्खों के मारे जाने के बाद २५ लम्बे वर्षों तक आपका सम्विधान कहां छुपा हुआ था ? कहां छुपा हुआ था वह जब हज़ारों मुसलमानों का सफ़ाया कर दिया गया था ? जब लाखों किसानों को आत्म-हत्या करने पर मजबूर कर दिया गया है ? जब हज़ारों लोगों को राज्य समर्थित सल्वा जुडुम गिरोहों द्वारा हलाक़ कर दिया गया है ? जब आदिवासी औरतों के साथ बलात्कार किया गया है ? जब वर्दीधारी गुण्डों द्वारा लोगों का अपहरण होता है ? आपका सम्विधान काग़ज़ का ऐसा टुकड़ा है जिसकी क़ीमत विशाल बहुसंख्यक हिन्दुस्तानियों के लिए शौच साफ़ करने के चिथड़े (टायलेट पेपर ) जितनी भी नहीं है."

आज़ाद की हत्या के बाद मीडिया के अनेक टिप्पणीकारों ने इस अपराध की लीपा-पोती करने के लिए आज़ाद के शब्दों को बेशर्मी से उलट कर उस पर आरोप लगाया कि उसने भारतीय सम्विधान को शौच साफ़ करने वाला चिथड़ा कहा था.

अगर सरकार सम्विधान का सम्मान नहीं करेगी , तो शायद हमें उसकी प्रस्तावना के एक संशोधन की मांग करनी चाहिए. "हम, भारत की जनता, भारत को एक प्रभुसत्ता सम्पन्न समाजवादी धर्म-निरपेक्ष लोकतान्त्रिक गणतन्त्र बनाने के गम्भीर संकल्प के साथ...." की जगह लिखना चाहिये : "हम, भारत की सवर्ण जातियां और उच्च वर्ग, गुप्त रूप से भारत को एक कारपोरेट, पूंजीवादी, हिन्दू, कठपुतली राज्य बनाने के संकल्प के साथ...."

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हिन्दुस्तान के देहाती इलाक़ों में, खास तौर पर आदिवासी हृदय-प्रदेश में, बग़ावत, न केवल भारतीय राज्य व्यवस्था को, बल्कि प्रतिरोधी आन्दोलनों को भी एक क्रान्तिकारी चुनौती के रू-ब-रू ला खड़ा करती है. वह उन स्वीकृत विचारों पर सवाल उठाती है कि प्रगति, विकास, यहां तक कि सभ्यता के भी तत्व कौन-कौन-से हैं. वह प्रतिरोध की विभिन्न रणनीतियों की नैतिकता के साथ-साथ इस बात पर भी सवाल करती है कि वे कितनी असरदार हैं. बेशक, ये सवाल पहले भी किये गये हैं. वे लगातार, शान्तिपूर्वक, साल-दर-साल सौ तरीक़ों से पूछे गये हैं -- छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चे द्वारा, कोएल कारो और गन्धमर्दन आन्दोलनों द्वारा -- और सैकड़ों दूसरे जन संघर्षों द्वारा. इन्हें सबसे हठपूर्वक और शायद सबसे मुखर और नुमायां रूप में नर्मदा घाटी के बांध-विरोधी "नर्मदा बचाओ आन्दोलन" ने उठाया था. हिन्दुस्तान की हुकूमत का एकमात्र उत्तर दमन, छल-कपट ऐसी अस्पष्टता का रहा है जो आम लोगों के प्रति गहरे व्याधि-जनित अनादर ही का सूचक है. इस से भी बुरा यह रहा कि सरकार ने आगे बढ़ कर विस्थापन और बेदख़ली की प्रक्रिया को तेज़ करके ऐसे बिन्दु पर ला खड़ा किया जहां लोगों का आक्रोश उन रूपों में फूट पड़ा जिन्हें नियन्त्रित करना सम्भव नहीं रहा. आज दुनिया के सब से ग़रीब लोगों ने कुछ सबसे अमीर पूंजीवादी निगमों को बीच रास्ते रोक देने में सफलता पायी है. यह एक उल्लेखनीय कामयाबी है.

जो लोग उठ खड़े हुए हैं वे जानते हैं कि उनके देश में आपातकालीन स्थिति लागू है. उन्हें आभास है कि कश्मीर, नगालैण्ड, मणिपुर और असम की जनता की तरह उन्हें भी अवैध गतिविधि निरोधक अधिनियम और छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम जैसे क़ानूनों ने उनके नागरिक अधिकारों से वंचित कर दिया है जो शब्द, कर्म, यहां तक इरादे के आधार पर भी हर तरह के विरोध और असहमति को अपराध ठहराते हैं.

जब इन्दिरा गांधी ने २५ जून १९७५ को आपातकाल लागू किया था तो इसका उद्देश्य आसन्न क्रान्ति को कुचलना था. जितने भी दारुण वे रहे हों वे ऐसे दिन थे जब लोग खुद को अपनी क़िस्मत संवारने का सपना, इन्साफ़ हासिल करने का सपना देखने की छूट दे सकते थे. बंगाल के नक्सलवादी विप्लव का कमो-बेश सफ़ाया हो चुका था. लेकिन फिर लाखों लोग जयप्रकाश नारायण के "सम्पूर्ण क्रान्ति" के आह्वान पर एकजुट हो गये थे. सारी उथल-पुथल और असन्तोष के मूल में वही मांग थी -- ज़मीन जोतनेवाले की हो. ( पीछे के उन दिनों में भी कोई फ़र्क़ नहीं था -- भूमि के पुनर्वितरण को लागू करने के लिए, जो सम्विधान के मार्ग-दर्शक सिद्धान्तों में से एक है, आपको क्रान्ति ही की ज़रूरत पड़ती थी. )

पैंतीस साल बाद हालात बुरी तरह बदल गये हैं. लगातार कुतरा-छीला जाने की वजह से उस शानदार, खूबसूरत ख़याल -- इन्साफ़ -- के मानी अब मानवाधिकार हो गये हैं. समता एक कपोल-कल्पना है. यह शब्द अब कमो-बेश हमारे शब्द-कोशों से निष्कासित कर दिया गया है. ग़रीबों को धकेल कर कगार तक पहुंचा दिया गया है. भूमिहीनों के लिए भूमि की लड़ाई लड़ने से हट कर क्रान्तिकारी पार्टियों और प्रतिरोध आन्दोलनों को अपना निशाना नीचे करके अब जनता के उन अधिकारों के लिए लड़ना पड़ रहा है जिससे लोग उस थोड़ी-सी ज़मीन को अपने क़ब्ज़े में रख सकें जो उनके पास है. भूमि के पुनर्वितरण का जो एकमात्र प्रकार अब भावी योजनाओं में है उसका उद्देश्य है -- भूमि को ग़रीबों से छीन कर अमीरों को उनके भूमि बैंकों के लिए देना जो विशेष आर्थिक क्षेत्रों के नाम से जाने जाते हैं. भूमिहीन (ज़्यादातर दलित ), बेरोज़गार, झुग्गियों और मलिन बस्तियों के निवासी और शहरी मज़दूर तबक़ा अब मोटे तौर पर गिनती के बाहर है. पश्चिम बंगाल की लालगढ़ जैसी जगहों में लोग अब पुलिस से महज़ यही कह रहे हैं कि उन्हें अकेला छोड़ दिया जाये. वहां पुलिस सन्त्रास विरोधी जनगणेर समिति ने सिर्फ़ एक छोटी-सी मांग से शुरुआत की थी कि पुलिस अधीक्षक लालगढ़ जा कर लोगों से उन अत्याचारों के लिए क्षमा मांगें जो उनके जवानों ने लोगों पर किये थे. इस मांग को बेतुका और बेवक़ूफ़ाना माना गया. ( अधनंगे जंगलियों की यह हिम्मत कि वे इस बात की अपेक्षा रखें कि एक सरकारी अफ़सर जा कर उनसे माफ़ी मांगेगा ?) लिहाज़ा लोगों ने अपने गांवों की घेरेबन्दी कर दी और पुलिस को भीतर आने से रोक दिया. पुलिस ने हिंसा तेज़ कर दी. लोगों ने आक्रोश-भरी जवाबी कार्रवाई की. अब, दो साल के अर्से और अनेक नृशंस बलात्कारों, हत्याओं और झूठी मुठभेड़ों के बाद खुल्लम-खुल्ला युद्ध की स्थिति है. पुलिस सन्त्रास विरोधी जनगणेर समिति पर पाबन्दी लगा दी गयी है और उसे माओवादी संगठन घोषित कर दिया गया है. उसके नेता या तो जेल में ठूंस दिये गये हैं या उन्हें गोली मार दी गयी है. ( ऐसी ही नियति ऊड़ीसा में नारायणपटना के चासी मूल्य आदिवासी संघ और झारखण्ड में पोट्का के विस्थापन विरोधी एकता मंच की रही है.)

जो लोग एक समय में न्याय और समता के सपने देखते थे और खेत जोतने वाले को मिले की मांग बुलन्द करते थे उन्हें आज इतना नीचे उतार दिया गया है कि वे यह मांग करने लगे हैं कि पुलिस उन्हें मारने-पीटने और उन पर अत्याचार करने के लिए माफ़ी मांगे -- क्या यह प्रगति है ?

आपातकाल के दौरान, कहते हैं, जब श्रीमती गांधी प्रेसवालों को झुकने के लिए कहती थीं तो वे रेंगने लगते थे. और तिस पर भी, उन दिनों में ऐसी मिसालें थींजब राष्ट्रीय दैनिकों ने सेन्सरशिप का विरोध करते हुए चुनौती-भरे अन्दाज़ में कोरे सम्पादकीय छापे थे. ( विडम्बनाओं की विडम्बना यह है कि उन में से एक निर्भीक सम्पादक बी.जी. वर्गीज़ थे.) इस बार इस अघोषित आपातकाल में चुनौतियों की बहुत गुंजाइश नहीं है क्योंकि मीडिया ही सरकार है.कोई भी, सिवा उन पूंजीवादी घरानों और निगमों के जिनका उस पर नियन्त्रण है, उसे यह नहीं बता सकता कि वह क्या करे. वरिष्ठ राजनेता, मन्त्री और सुरक्षा व्यवस्था के अफ़सर टेलीविज़न पर आने के लिए लालायित रहते हैं, दुर्बल स्वरों में अर्नब गोस्वामी और बर्खा दत्त से बिनती करते हुए कि उन्हें उस दिन के प्रवचन में कुछ अपनी ओर से भी कहने की मोहलत दी जाये.कई टीवी चैनल और समाचार-पत्र छुपे तौर पर औपरेशन ग्रीनहण्ट के युद्ध कक्ष और उसके द्वारा ग़लत सूचनाएं प्रसारित करने के अभियान का संचालन कर रहे हैं. कई अख़बारों में भिन्न-भिन्न रिपोर्टरों के नाम से लेकिन हू-ब-हू उन्हीं लफ़्ज़ों में "माओवादियों के १५०० करोड़ के उद्योग" की खबर छपी. लगभग सभी अख़बारों और समाचार चैनलों ने मई २०१० में झाग्राम (पश्चिम बंगाल ) में पटरी से रेल के उतर जाने की भयानक घटना के लिए, जिसमे १४० लोग मारे गये, पुलिस सन्त्रास विरोधी जनगणेर समिति को ( "माओवादियों" से अदल-बदल कर इस्तेमाल करके) दोषी ठहराते हुए ख़बरें छापीं. दो प्रमुख सन्दिग्ध लोगों को "मुठभेड़ों" में पुलिस ने मार गिराया है इस बात के बवजूद कि उस घटना के गिर्द छाया रहस्य अब तक खुल रहा है. प्रेस ट्रस्ट औफ़ इण्डिया ने कई झूठी ख़बरें जारी के हैं जिन्हें इण्डियन एक्सप्रेस ने वफ़ादारी से सुर्ख़ियों में छापा है जिनमें वह ख़बर भी शामिल है जिसमें कहा गया था कि माओवादियों ने अपने द्वारा मारे गये पुलिसवालों के शवों को टुकड़े-टुकड़े कर दिया था. (इसका खण्डन जो खुद पुलिस की तरफ़ से आया था, बीच के किसी पन्ने पर डाक टिकट के आकार मॆं छापा गया.) कई हू-ब-हू एक जैसे इण्टर्व्यू छपे हैं -- सब "एक्सक्लूसिव" की सुर्ख़ी के साथ -- उस महिला छापामार के बारे में कि कैसे माओवादी नेताओं ने उसके साथ बलात्कार और फिर-फिर बलात्कार किया. बताया गया कि वह हाल ही में जंगलों और माओवादियों के चंगुलों से छूट कर दुनिया को अपनी कहानी सुनाने के लिए भाग निकली थी. अब पता चल रहा है कि वह महीनों से पुलिस की हिरासत में थी.

हमारे टीवी पटल पर चिल्ला-चिल्ला कर प्रसारित किये जा रहे अत्याचार आधारित विश्लेषणों का उद्देश्य आईने को धुंधला बना कर हमें यह सोचने पर विवश करना है कि " हां, आदिवासी नज़रन्दाज़ किये गये हैं और बड़े बुरे दौर से गुज़र रहे हैं; हां, उन्हें विकास की ज़रूरत है; हां, सरकार का दोष है और यह बड़े अफ़सोस की बात है. लेकिन फ़िलहाल संकट की घड़ी है. हमें माओवादियों से छुटकारा पाने और देश को सुरक्षित करने की ज़रूरत है और फिर हम आदिवासियों की मदद कर सकते हैं.

अगली किस्त में पढ़िये सरकार द्वारा संचालित युद्ध का ब्योरा

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