Saturday, February 13, 2010

पहले भी यह सवाल पूछा जाता रहा है और इधर के दिनों में तो और शिद्दत से पूछा जाने लगा है कि क्या आप हिंसा में विस्वास करते हैं ? मानो पूछ रहे हों -- क्या आप ईश्वर में विश्वास करते हैं ? सच पूछिये और ज़रा अपने अख़बारों की सतरों के बीच पढ़्ने कि कोशिश कीजिये तो आप खुले तौर पर या फिर दबे-छुपे, इस सवाल से ज़रूर रू-ब-रू होंगे. कथित आतंकवादियों या नक्सलियों या माओवादियों के बारे में गढ़ी-गढ़ायी या अतिरंजित ख़बरें छापते हुए या टेलिविज़न पर दिखाते हुए, अक्सर तान हिंसा पर टूटती है. और तब यह सवाल सीधे-सीधे या घुमा-फिरा कर पूछा जाता है और इसमें यह निहित होता है कि आम जनता तो हिंसा से नफ़रत करती है, यह तो गिने-चुने सिरफिरे या आधे पागल लोगों या इस्लामी कट्टरपन्थियों या विदेशी विचारधारा से प्रभावित राजद्रोहियों की करतूतें हैं. इसके बाद इस नाटक का दूसरा अंक शुरू होता है, जिसमें यह बताया जाता है कि भारत के इन दुशमनों ने भारत के ख़िलाफ़ गहरी साज़िश रचने का बीड़ा उठाया हुआ है. आतंकवादियों ने कश्मीर संभाल रखा है और नक्सल और माओवादी उड़ीसा, झारखण्ड और छत्तीसगढ़ में अपनी काली करतूतों को सरंजाम दे रहे हैं. चुनांचे अपने पी चिदम्बरम साहब वहां बड़े पैमाने पर फ़ौज भेज रहे हैं और उन्होंने इस अभियान को नाम दिया है औपरेशन ग्रीनहण्ट, गोया इन इलाक़ों की हरियाली के शिकार का इरादा हो. और वाक़ई ऐसा है भी. इस तरह कि वहां की सारी हरियाली के स्रोत ही को नष्ट करने की योजना है. उड़ीसा में बौक्साइट है और झारखण्ड में कच्चा लोहा, छत्तीसगढ़ में भी कच्चा लोहा है और २८ क़ीमती खनिज. अकेले बौक्साइट की क़ीमत ४ खरब डालर है यानी अंकों में ४०००००००००००० डालर. रहा कच्चा लोहा और बाक़ी के २८ खनिज, तो इनकी क़ीमत का अन्दाज़ा मुझे तो है नहीं पर अपने पी चिदम्बरम साहब को ज़रूर होगा जो होम मिनिस्टर बनने से पहले वित्त मन्त्री थे और इन खनिजों का खनन करने वाली एक कम्पनी वेदान्ता के कानूनी सलाहकार और ग़ैर कार्यकारी निदेशक जिस पद से उन्होंने शपथ लेने वाले दिन इस्तीफ़ा दिया था. लेकिन पी चिदम्बरम साहब यह कभी नहीं बताएंगे कि दरअसल ये आदिवासी हैं जो अपनी ज़मीनों और जीवन यापन के साधनों को बचाये रखने के लिये लड़ रहे हैं और उन्हें आदिवासी कह कर मारना शायद पी चिदम्बरम साहब के लिए भी भारी पड़ सकता है. सो उनके लिए यह ज़्यादा सुविधाजनक नाम ढूंढ लिया गया है. कोई भी हिन्दुस्तानी बख़ूबी यह जानता है कि पुलिस और फ़ौज और अर्ध सैनिक बल अपनी पर उतर आयें तो कैसा क़हर बरपा कर सकते हैं. वे जिस हिंसा को व्यवहार में लाते हैं उसे सिर्फ़ राजपत्रित आतंकवाद ही कहा जा सकता है. अब अगर ऐसी स्थिति में आदिवासी और दूसरे वंचित शोषित समुदाय प्रतिरोध में हथियार उठायें तो क्या तब भी यही पूछा जाता रहेगा कि आप हिंसा में विश्वास करते हैं या नहीं ? सोचो दोस्तो सोचो, सिर्फ़ सरकार और मीडिया के भरोसे मत रहो.

No comments:

Post a Comment