Monday, January 10, 2011

देशान्तर

देशान्तर

आज के कवि : सुकान्त भट्टाचार्य



पारपत्र

जिस बच्चे ने जन्म लिया है आज रात
उसी के मुँह से मिली है ख़बर,
उसे मिला है एक पारपत्र
नये विश्व के द्वार पर।
इसीलिए जताती है अधिकार
जन्म लेते ही उसकी चीख़-पुकार।
नन्हीं-सी देह, असहाय फिर भी उसके हाथों की बँधी हुई मुट्ठियाँ
तनी हुई हैं जाने कौन-सी दुर्बोध प्रतिज्ञा में।

उस भाषा को कोई नहीं समझता
कोई हँसता है, कोई देता है मीठी झिड़की।
मैं लेकिन मन-ही-मन समझ रहा हूँ उसकी भाषा।
पायी है उसने आने वाले युग की नयी चिट्ठी -
पढ़ता हूँ नये जन्मे बच्चे का परिचय-पत्र,
उसकी अस्पष्ट धुन्ध-भरी आँखों में।

आया है नया मेहमान
जिसके लिए छोड़ना होगा स्थान।
चले जाना होगा हमें
पुरानी पृथ्वी के व्यर्थ, मरे हुए और नष्ट ढेर पर। चला जाऊँगा -
फिर भी जब तक हैं देह में प्राण
जी-जान से हटाता रहूँगा पृथ्वी का जंजाल
बना जाऊँगा दुनिया को इस बच्चे के रहने योग्य
नये जन्मे के प्रति यह है मेरी दृढ़ प्रतिज्ञा
अन्त में सब काम निपटा कर
अपनी देह के रक्त से नये शिशु को
दे जाऊँगा आशीर्वाद।

तब बनूँगा इतिहास

हे महाजीवन

हे महाजीवन, अब और यह कविता नहीं।
इस बार कठिन, कठोर गद्य लाओ।
मिट जाये पद्य-लालित्य की झंकार।
गद्य के कठोर हथौड़े से आज करो चोट।
चाहिए नहीं आज कविता की स्निग्धता।

कविता आज तुझे छुट्टी दी।

भूख के राज्य में पृथ्वी गद्यमय है।
पूर्णिमा का चाँद जैसे झुलसी हुई रोटी है।

गान

जिस तरह खींचता है जल को ताप
उसी तरह खींचता हूँ तुम्हें
लगातार रोज़-रोज़।
तुम मुझे पहचान लो
छोड़ कर अपना तमाम छल।

जानता हूँ तुम्हें कुछ कहना व्यर्थ है।
तुम मेरी और मैं तुम्हारा हूँ मित्र।
बन्द द्वार खोल कर
आओगी न कभी तुम भूल कर।
रुकेगा न कभी मेरा आना-जाना।


आगामी

जड़ नहीं, मृत नहीं, नहीं हूँ अन्धकार का खनिज,
मैं हूँ जीवन्त प्राण, हूँ एक अंकुरित बीज :
मिट्टी में पला हुआ, भीरु,
जिसने खोली हैं अपनी शंकाकुल आँखें आज।

आकाश के बुलावे पर,
सपनों ने घेर रखा है मुझ को।

हालाँकि नगण्य हूँ मैं, तुच्छ हूँ वट-वृक्षों के समाज में
तो भी मेरी इस नन्हीं-सी देह में बजती है छुपी हुई मर्मर ध्वनि
चीरी है मिट्टी मैंने, देखा है उजाले का आना-जाना,
इसीलिए मेरी जड़ों में है जंगल की विशाल चेतना।

आज सिर्फ़ फूटे हैं अंकुर,
लेकिन मुझे पता है,
कल नन्हे-नन्हे पत्ते
उद्दाम हवा की ताल पर सिर हिलायेंगे।
उसके बाद फैला दूँगा सबके सामने
अपनी मज़बूत डालियाँ,
प्रस्फुटित कर दूँगा विस्मित फूल
पड़ोसी पेड़ों के मुँह पर।
तेज़ तूफ़ान में भी दृढ़ता से जमी हुई है प्रत्येक जड़ :
हर डाल कर रही प्रतिरोध,
जानता हूँ पराजित होगा अन्तत: तूफ़ान :
जितने भी मेरे नये-नये साथी हैं माथे पर ले कर मेरा आह्वान
जानता हूँ मुखरित होंगे जंगल के नये गीत सरीखे।
अगले वसन्त में लेकिन मैं मिल जाऊँगा बड़ों की क़तार में,
कोंपलों की जयध्वनि में सब स्वागत करेंगे मेरा।
नन्हा हूँ मैं, पर तुच्छ नहीं हूँ मैं, जानता हूँ मैं भावी वनस्पति हूँ
वर्षा और मिट्टी के रस में पाता हूँ मैं इसी की स्वीकृति।
उस दिन मेरी छाया में आना,
फिर अगर तुम वार भी करोगे मुझ पर तेज़ कुल्हाड़ी से
तो भी मैं तुम्हें बुलाऊँगा बार-बार हाथ हिला कर
फल दूँगा, फूल दूँगा, दूँगा मैं पंछियों का कलरव
एक ही मिट्टी पर पला हुआ तुम्हारा अपना साथी।

ख़बर

ख़बर आती है
दिशा-दिशा से, विद्युतवाहिनी ख़बर ।
युद्ध, विप्लव, बाढ़, अकाल, आँधी -
यहाँ पत्रकारिता की रात का सन्नाटा।
रात गहरी होती है यन्त्रों के बजते हुए छन्द में - प्रकाश की व्यग्रता में;
जब तुम्हारे जीवन में निद्रा-डूबी मध्य रात्रि,
आँखों में स्वप्न और घर में अन्धकार होता है।
अतुल अदृष्य बातों के समुद्र से नि:शब्द उठ आते हैं शब्द
अभ्यस्त हाथों से ख़बरें सजाता हूँ -
अनुवाद करते-करते कभी-कभी चौंक उठता हूँ
देखता हूँ युग को बदलते हुए।
कभी हाथ काँप उठते हैं ख़बर लिखते हुए
श्रावण की बाईसवीं या जून की बाईसवीं तिथि को।
तुम्हारी नींद के अँधेरे रास्ते को पार कर
ख़बरों की परियाँ यहाँ आती हैं तुम लोगों से पहले
उन्हें पा कर कभी कण्ठ में उभरता है दर्द और कभी उभरता है गान
सुबह के उजाले में जब वे तुम्हारे पास पहुँचती हैं
तब तक हमारी आँखों में झर गये होते हैं उनके पंख।
तुम लोग ख़बर पाते हो,
सिर्फ़ ख़बर नहीं रखते किसी की उनिद्र आँखों और चौकन्ने कानों की
वह कम्पोज़िटर क्या कभी चौंक उठता है त्रुटिहीन यान्त्रिकता के
किसी अवसर पर ?
पुराने टूटे हुए चश्मे से धुँधली ऩजर आती है दुनिया -
नौ अगस्त को असम सीमान्त के हमले पर ?
क्या कभी वह जल उठता है
स्टालिनग्राद के गतिरोध में, महात्मा जी की मुक्ति में,
पेरिस के अभ्युत्थान पर ?
बुरी ख़बर नहीं लगती क्या
काले अक्षरों के लिबास में किसी की शवयात्रा ?
जो ख़बरें प्राणों के पक्षपात की आभिषिक्त हैं
वे क्या बड़े हरफ़ों में ख़ुद को प्रकाशित नहीं करतीं सम्मान से ?
यह सवाल अव्यक्त, अनुच्चरित रहता है
सुबह के अख़बार की सा़फ़-सुथरी तहों में।
केवल हम लोग लिखते हैं दैनन्दिन इतिहास
तब भी इतिहास नहीं रखेगा हमें याद
कौन याद रखेगा नवान्न के दिन काटे गये धान के गुच्छों को
लेकिन याद रखना तुम लोगों से पहले ही
हम लोग पाते हैं ख़बर - मध्य रात्रि के अँधेरे में
तुम्हारी तन्द्रा के जाने बिना भी
इसलिए तुम लोगों से पहले ही ख़बर-परियाँ आती हैं
हमारी चेतना के पथ को पार करते हुए
मेरी हृत्तन्त्री पर चोट लग कर बज उठती हैं कई एक बातें -
पृथ्वी मुक्त हुई - जनता की विजय हुई अन्तिम संघर्ष में।
तुम्हारे घर में आज भी अँधेरा, आँखों में स्वप्न,
लेकिन जानता हूँ, एक दिन वह सुबह ज़रूर आयेगी
जब यह ख़बर पाओगे, तुम हर एक के चेहरे पर
सुबह की रोशनी में, घास-घास में, पत्तों-पत्तों में।

फ़िलहाल तो तुम लोग नींद में हो।

यूरोप के प्रति

वहाँ अभी मई का महीना है, बर्फ़ के गलने के दिन,
यहाँ आग बरसाता वैशाख है, निद्राहीन।
शायद वहाँ शुरू हो गयी है मन्थर दक्खिनी हवा,
यहाँ वैशाखी लू के थपेड़े धावा बोलते हैं।
यहाँ-वहाँ फूल उगते हैं आज तुम्हारे देश में,
कैसे-कैसे रंग, कितनी विचित्र रातें देखने को मिलती हैं,
सड़कों पर निकल पड़े हैं कितने लड़के-लड़कियाँ घर छोड़ कर
इस वसन्त में, कितने उत्सव हैं, कितने गीत गाये जा रहे।
यहाँ तो सूख गये हैं फूल, मटमैली धूल में;
चीख़-पुकार करता है सारा देश, चैन ख़त्म हो चुका है,
कड़ी धूप के डर से लड़के-लड़कियाँ बन्द हैं घरों में,
सब ख़ामोश : शायद जागेंगे वैसाखी तूफ़ान में,
बहुत मेहनत, बहुत लड़ाई करने के बाद।
चारों ओर क़तार-दर-क़तार हैं तुम्हारे देश में फूलों के बा़ग़,
इस देश में युद्ध, महामारी, दुर्भिक्ष जलता है हड्डी-हड्डी में,
इसीलिए आग बरसाते ग्रीष्म के मैदान में छीन लेती है नींद
बेपरवाह प्राणों को; आज दिशा-दिशा में लाखों-लाख लोग होते हैं इकट्ठा --
तुम्हारे मुल्क में मई का महीना है, यहाँ तूफ़ानी वैशाख।

प्रस्तुत

काली मौतों ने आज बुलाया है स्वयंवर में
कई दिशाओं में कई हाथों को हिलते देखता हूँ इस बड़ी-सी दुनिया में
डरा हुआ मन खोजता है आसान रास्ता, निष्ठुर नेत्र;
इसलिए ज़हरीले स्वाद से भरी इस दुनिया में
सिर्फ़ मन के द्वन्द्व निरन्तर फैलाते हैं आग।

अन्त में टूटे हैं भ्रम, आया है ज्वार मन के कोने में
तेज़ भौहें तनी हैं कुटिल फूलों के वन में
अभिशापग्रस्त वे सभी आत्माएँ आज भी हैं बेचैन
उनके सम्मुख लगाया है प्राणों का मज़बूत शिविर
ख़ुद को मुक्त किया है आत्म-समर्पण में।

चाँद के सपने में धुल गया है मन जिस समय के दौरान
उसे आज दुश्मन जान कर लिया है पहचान
धूर्तों की तरह शक्तिशाली नीच स्पर्द्धाएं
मौक़ा पाने पर आज भी मुझे झपट सकती हैं
इसीलिए सतर्क हूँ, मन को गिरवी नहीं रखा मैंने।

बीते हैं असंख्य दिन प्राणों के व्यर्थ रुदन में
नर्म सोफ़े पर बैठ कर क्रान्तिकारी चेतना के उद्बोधन में
आज लेकिन जनता के ज्वार में आयी है बाढ़
प्यासे मन में रक्तिम पथ के अनुसरण की कामना,
कर रही है पृथ्वी पहले की राह का संशोधन।

उठाया है हथियार अब सामने दुश्मन चाहिए
क्योंकि महामारण का निर्दयी व्रत लिया है हमने आज
जटिल है संसार, जटिल है मन का सम्भाषण
उनके प्रभाव में रखा नहीं मन में कोई आसन,
आज उन्हें याद करना भूल होगी यह जानता हूँ मैं।

प्रार्थी

ओ सूरज! सर्दियों के सूरज!
हम बर्फ़-सी ठण्डी रात के दौरान
तुम्हारी ही प्रतीक्षा करते रहते हैं।
जैसे प्रतीक्षा करती रहती हैं किसानों की चंचल आँखें
धान की कटाई के रोमांचकारी दिनों की।

ओ सूरज! तुम्हें तो पता है
हमारे पास गरम कपड़ों का कितना अभाव है
कितनी दिक़्क़त से हम सर्दी को रोकते हैं
सारी रात घास-फूस जला कर
कपड़े के एक टुकड़े से अपने कान ढँकते हुए

सुबह की धूप का एक टुकड़ा
सोने के एक टुकड़े से भी ज़्यादा क़ीमती लगता है
धूप के एक टुकड़े की प्यास में
हम घर छोड़ इधर-उधर भागते-फिरते हैं

ओ सूरज!
तुम हमारी सीली नम कोठरियों को
गर्मी और रोशनी देना
और गर्मी देना
रास्ता-किनारे के उस नंगे लड़के को।

ओ सूरज! तुम हम लोगों को गर्मी देना
सुना है तुम एक जलते हुए अग्नि-पिण्ड हो,
तुम से गर्मी पा कर
शायद हम सब एक दिन एक-एक जलते हुए
अग्नि-पिंड में बदल जायें।
उसके बाद उस गर्मी में जल जाये हमारी जड़ता
तब शायद गरम कपड़े से ढँक सकेंगे हम
रास्ता किनारे के उस नंगे लड़के को
आज मगर हम प्रार्थी हैं तुम्हारे अकृपण उत्ताप के।

इस नवान्न में

इस हेमन्त में धान की कटाई होगी
फिर ख़ाली खलिहान से फ़सल की बाढ़ आयेगी
पौष के उत्सव में प्राणों के कोलाहल से भरेगा श्मशान-सा नीरव गाँव
फिर भी इस हाथ से हंसिया उठाते रुलाई छूटती है
हलकी हवा में बीती हुई यादों को भूलना कठिन है
पिछले हेमन्त में मर गया है भाई, छोड़ गयी है बहन,
राहों-मैदानों में, मड़ई में मरे हैं इतने परिजन,
अपने हाथों से खेत में धान बोना,
व्यर्थ ही धूल में लुटाया है सोना,
किसी के भी घर धान उठाने का शुभ क्षण नहीं आया -
फ़सल के अत्यन्त घनिष्ठ हैं मेरे-तुम्हारे खेत।
इस बार तेज़ नयी हवा में
जययात्रा की ध्वनि तैरती हुई आती है,
पीछे मृत्यु की क्षति का ख़ामोश बयान -
इस हेमन्त में फ़सलें पूछती हैं : कहाँ हैं अपने जन ?
वे क्या सिर्फ़ छिपे रहेंगे,
अक्षमता की गलानि को ढँकेंगे,
प्राणों के बदले किया है जिन्होंने विरोध का उच्चारण ?

इस नवान्न में क्या वंचितों को नहीं मिलेगा निमन्त्रण?

बयान

अन्त में हमारे सोने के देश में उतरता है अकाल,
जुटती है भीड़ उजड़े हुए नगर और गाँव में
अकाल का ज़िन्दा जुलूस
हर भूखा जीव ढो कर ले आता है अनिवार्य समता।

आहार के अन्वेषण में हर प्राणी के मन में है आदिम आग्रह
हर रास्ते पर होता है हर रोज़ नंगा समारोह
भूख ने डाला है घेरा रास्ते के दोनों ओर,
विषाक्त होती है हवा यहाँ-वहाँ व्यर्थ की लम्बी साँसों से
मध्यवर्ग का धूर्त सुख धीरे-धीरे होता है आवरणविहीन
बुरे दिनों की घोषणा करता है नि:शब्द।
सड़कों पर झुण्ड-दर-झुण्ड डोलती हुई चलती है कंगालों की शोभा-यात्रा
आतंकित अन्त:पुरों से उठती है दुर्भिक्ष की गूँज।
हर दरवाज़े पर बेचैन उपवासी प्रत्याशियों के दल,
निष्फल प्रार्थना-क्लान्त, भूख ही है अन्तिम सम्बल;
राजपथ पर देख कर लाशों को भरी दोपहरी में
विस्मय होता है अनभ्यस्त अँखों को।
लेकिन इस देश में आज हमला करता है ख़ूँख़ार दुश्मन,
असंख्य मौतों का स्रोत खींचता है प्राणों को जड़ से
हर रोज़ अन्यायी आघात करता है जराग्रस्त विदेशी शासन,
क्षीणायु कुण्डली में नहीं है ध्वंस-गर्भ के संकट का नाश।
सहसा देर गयी रात में देशद्रोही हत्यारे के हाथों में
देशप्रेम से दीप्त प्राण ढालते हैं अपना रक्त, जिसका साक्षी है सूरज;
फिर भी प्रतिज्ञा तैरती है हवा में अकेले,
यहाँ चालीस करोड़ अब भी जीवित हैं,
भारत भूमि पर गला हुआ सूरज झरता है आज -
दिग-दिगन्त में उठ रही है आवाज़,
रक्त में सु़र्ख टटकी हुई लाली भर दो,
रात की गहरी टहनी से तोड़ लाओ खिली हुई सुबह
उद्धत प्राणों के वेग से मुखर है आज मेरा यह देश,
मेरे उध्वस्त प्राणों में आया है आज दृढ़ता का निर्देश।
आज मज़दूर भाई देश भर में जान हथेली पर लिये
कारख़ाने-कारख़ाने में उठा रहे तान।
भूखा किसान आज हल के नुकीले फाल से
निर्भय हो रचना करता है जंगी कविताएँ इस माटी के वक्ष पर।
आज दूर से ही आसन्न मुक्ति की ताक में है शिकारी,
इस देश का भण्डार जानता हूँ भर देगा नया यूक्रेन।
इसीलिए मेरे निरन्न देश में है आज उद्धत जिहाद,
टलमल हो रहे दुर्दिन थरथराती है जर्जर बुनियाद।
इसीलिए सुनता हूँ रक्त के स्रोतत में आहट
विक्षुब्ध टाइ़फून-मत्त चंचल धमनी की।
सुनता हूँ बार-बार विपन्न पृथ्वी की पुकार,
हमारी मज़बूत मुट्ठियाँ उत्तर दें उसे आज।
वापस हों मौत के परवाने द्वार से,
व्यर्थ हों दुरभिसन्धियाँ लगातार जवाबी मार से।

शत्रु एक है

आज यह देश विपन्न है; निरन्न है जीवन आज,
मौत का निरन्तर साथ है, रोज़-रोज़ दुश्मनों के हमले
रक्त की अल्पना आँकते हैं, कानों में गूँजता है आर्तनाद;
फिर भी मज़बूत हूँ मैं, मैं एक भूखा मज़दूर।
हमारे सामने आज एक शत्रु है : एक लाल पथ है,
शत्रु की चोट और भूख से उद्दीप्त शपथ है।
कठिन प्रतिज्ञा से स्तब्ध हमारे जोशीले कारख़ाने में
हर गूँगी मशीन प्रतिरोध का संकल्प बताती है।
मेरे हाथ के स्पर्श से हर रोज़ यन्त्र का गर्जन
याद दिलाता है प्रण की, धो डालता है अवसाद,
विक्षुब्ध यन्त्र के सीने में हर रोज़ युद्ध की जो घोषणा है
वह लड़ाई मेरी लड़ाई है, उसी की राह में रुक कर गिनने हैं दिन।
निकट के क्षितिज में आता है दौड़ता हुआ दिन, जयोन्मत्त पंखों पर -
हमारी निगाह में लाल प्रतिबिम्ब है मुक्ति की पताका का
अन्धी रफ़्तार से हरकतज़दा मेरा हाथ लगातार यन्त्र का प्रसव
प्रचुर-प्रचुर उत्पादन, अन्तिम वज्र की सृष्टि का उत्सव।।

हरकारा

हरकारा दौड़ चला, दौड़ चला,
बजती है रात में इसीलिए घण्टी की रुनझुन!
हरकारा चल दिया बोझ लिये ख़बरों का हाथ में।
हरकारा चल दिया है, हरकारा,
रात की राहों में चलता है हरकारा, मानता नहीं वह निषेध कोई मन में,
दिग से दिगन्त तक दौड़ चला हरकारा,
नयी ख़बर लाने का ज़िम्मा है उस पर।

हरकारा! हरकारा!
जाने-अनजाने का
बोझ आज काँधे पर
चल रहा है हरकारा चिट्ठी और ख़बरों से लदा हुआ जहाज़ एक,
हरकारा चल रहा है, शायद हो जाय भोर।
और भी तेज़ी से, और भी तेज़ी से, यह हरकारा दुर्जय दुर्वार आज,
उसके जीवन के सपने सरीखा सरकता है वन, पीछे छूटता।
बाक़ी है, शेष है राह अभी - होता है लाल शायद पूरब का वह कोना।
नि:स्तब्ध रात के सितारे झमकते हैं नभ में,
कितनी तेज़ी से भागता है यह हरकारा हिरन की तरह।
कितने गाँव, कितने रास्ते छूट-छूट जाते हैं
हरकारा भोर में पहुँच ही जायेगा शहर।
हाथ की लालटेन करती है टुन-टुन-टुन जुगनू देते हैं आकाश,
डरो मत हरकारे! रात की कालिमा से अब भी भरा है आकाश!

इसी तरह जीवन के बहुत-से वर्षों को पीछे छोड़ कर,
पृथ्वी का बोझ भूखे हरकारे ने पहुँचा दिया "मेल" पर,
थकी हुई साँस से छुआ है आकाश, भीगी है मिट्टी पसीने से,
जीवन की सारी रातें ख़रीदीं हैं उन्होंने बहुत सस्ते में।
बड़े दुख में, वेदना में, अभिमान और अनुराग से
घर में उसकी प्रिया जागती है अकेली उनींदे बिस्तर पर।
रानार! रानार!
कब होंगे शेष ये बोझ ढोने के दिन
कब बीतेगी रात, उदित होगा सूरज?
घर में है अभाव, इसीलिए पृथ्वी लगती है काला धुआं
पीठ पर रुपयों का बोझ, फिर भी यह धन कभी नहीं जायेगा छुआ,
निर्जन है रात, रास्ते में हैं कितनी ही आशंकाएँ, फिर भी दौड़ता है हरकारा।
डाकू का डर है, उससे भी ज़्यादा डर जाने कब सूरज उग आये
कितनी चिट्ठियाँ लिखते हैं लोग -
कितनी सुख में, प्रेम में, आवेग में, स्मृति में, कितने दुख और शोक में,
मगर इसके दुख की चिट्ठी मैं जानता हूँ कोई कभी नहीं पढ़ पायेगा,
इसके जीवन का दुख जानेगी सिर्फ़ रास्ते की घास,
इसके दुख की कथा नहीं जानेगा कोई शहर और गाँव में,
इसकी कथा ढँकी रह जायेगी रात के काले लिफ़ाफ़े में।
हमदर्दी से तारों की आँखें टिमटिमाती हैं -
यह कौन है जिसे भोर का आकाश भेजेगा सहानुभूति की चिट्ठी -
रानार! रानार! क्या होगा यह बोझा ढो कर ?
क्या होगा भूख की थकान में क्षय हो -हो कर ?
रानार! रानार! भोर तो हुई है - आकाश हो गया है लाल,
उजाले के स्पर्श से कब कट जायेगा यह दुख का काल ?

हरकारे! गाँव के हरकारे!
समय हुआ है नयी ख़बर लाने का।
शपथ की चिट्ठी ले चलो आज,
कायरता को पीछे छोड़,
पहुँचा दो यह नयी ख़बर
प्रगति की ’मेल‘ में।
दिखेगा शायद अभी-अभी प्रभात
नहीं, देर मत करो और,
दौड़ चलो, दौड़ चलो और तेज़ी से
ओ दुर्दम हरकारे!
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सुकान्त भट्टाचार्य ( 15 अगस्त 1926 - 13 मई 1947) की गिनती बांग्ला भाषा के अत्यन्त सम्मानित कवियों में होती है. हालांकि सुकान्त का अकाल निधन 21 वर्ष की छोटी-सी उमर में हुआ, लेकिन उनकी उर्वर रचनाशीलता और तीखे प्रगतिशील स्वर के कारण पाठक और आलोचक उन्हें बांग्ला के एक और क्रान्तिकारी कवि नज़रुल इस्लाम से जोड़ कर "किशोर विद्रोही कवि" और "युवा नज़रुल" कहने लगे थे। अंग्रेज़ी राज की निरंकुशता और पूंजीवादियों के शोषण के खिलाफ़ सुकान्त ने सदा मुखर और निर्भीक आवाज़ उठायी। यह एक विडम्बना ही है कि बंगाल के मौजूदा मुख्य मन्त्री बुद्धदेव भट्टाचार्य, जिनके कार्यकाल में और जिनकी सत्ताधारी मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी द्वारा नन्दीग्राम, सिंगुर और लालगढ़ में जनविरोधी हिंसा देखने में आयी है, बांग्ला के इसी जनवादी कवि के भतीजे हैं।

सुकान्त का पैत्रिक निवास कोटालीपाड़ा, गोपालगंज (अब बांग्लादेश ) में उन्शिया नामक गांव में था, लेकिन उनक जन्म कलकत्ता में अपने चाचा के घर में हुआ। उनके पिता निवारण चन्द्र भट्टाचार्य पुस्तकों का प्रकाशन और वितरण करने वाली संस्था -- सरस्वती लाइब्रेरी -- के मालिक थे। सुकान्त 1944 में कम्यूनिस्ट पार्टी के सदस्य बन गये और उसी वर्ष उन्होंने एक कविता संकलन "अकाल" का सम्पादन किया। 1945 में वे बेलेघाटा देशबन्धु हाई स्कूल से प्रवेश परीक्षा के लिए बैठे लेकिन विफल रहे. पार्टी के दैनिक समाचार-पत्र "दैनिक स्वाधीनता" के शुरू होने के समय, 1946 ही से वे उसके युवा विभाग "किशोर सभा" के सम्पादक बने। 1947 में तपेदिक से जादवपुर टी.बी. हस्पताल में सुकान्त का निधन हुआ।

सुकान्त की उर्वर रचनात्मकता उनकी ज़िन्दगी ही में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में सामने आयी, मगर "छाड़पत्र" को छोड़ कर उनके बाक़ी सभी कविता संग्रह -- "घूम नेई," (1954) "पूर्वाभास" (1950) और "मीठे-कौड़ो" (1951) और नाटक "अभियान" (1953) -- उनके निधन के बाद ही प्रकाशित हुए.

अपनी अकाल मृत्यु के अन्तिम क्षणों तक सुकान्त का यही मानना था कि "कवि से बड़ी बात है कि मैं कम्यूनिस्ट हूं।" इस निष्ठा को उन्होंने पूरी तरह अपनी कविता में ही व्यक्त किया और यों आने वाले कवियों के लिए एक आलोक स्तम्भ निर्मित कर गये जो उनका दिशानिर्देश करता रहेगा.

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