Saturday, January 1, 2011

देशान्तर



आज के कवि : चे गुएवारा


फ़िदेल के लिए एक गीत

आओ चलें,
भोर के उमंग-भरे द्रष्टा,
बेतार से जुड़े उन अमानचित्रित रास्तों पर
उस हरे घड़ियाल को आज़ाद कराने
जिसे तुम इतना प्यार करते हो।

आओ चलें,
अपने माथों से
--जिन पर छिटके हैं दुर्दम बाग़ी नक्षत्र--
अपमानों को तहस--नहस करते हुए।

वचन देते हैं
हम विजयी होंगे या मौत का सामना करेंगे।
जब पहले ही धमाके की गूंज से
जाग उठेगा सारा जंगल
एक क्वाँरे, दहशत-भरे, विस्मय में
तब हम होंगे वहाँ,
सौम्य अविचलित योद्धाओ,
तुम्हारे बराबर मुस्तैदी से डटे हुए।

जब चारों दिशाओं में फैल जायेगी
तुम्हारी आवाज़ :
कृषि-सुधार, न्याय, रोटी, स्वाधीनता,
तब वहीं होंगे हम, तुम्हारी बग़ल में,
उसी स्वर में बोलते।

और जब दिन ख़त्म होने पर
निरंकुश तानाशाह के विरुद्ध फ़ौजी कार्रवाई
पहुंचेगी अपने अन्तिम छोर तक,
तब वहाँ तुम्हारे साथ-साथ,
आख़िरी भिड़न्त की प्रतीक्षा में
हम होंगे, तैयार।

जिस दिन वह हिंस्र पशु
क्यूबाई जनता के बरछों से आहत हो कर
अपनी ज़ख़्मी पसलियाँ चाट रहा होगा,
हम वहाँ तुम्हारी बग़ल में होंगे,
गर्व-भरे दिलों के साथ।

यह कभी मत सोचना कि
उपहारों से लदे और
शाही शान-शौकत से लैस वे पिस्सू
हमारी एकता और सच्चाई को चूस पायेंगे।
हम उनकी बन्दूकें, उनकी गोलियाँ और
एक चट्टान चाहते हैं। बस,
और कुछ नहीं।

और अगर हमारी राह में बाधक हो ईस्पात
तो हमें क्यूबाई आँसुओं का सिर्फ़ एक
कफ़न चाहिए
जिससे ढँक सकें हम अपनी छापामार हड्डियाँ,
अमरीकी इतिहास के इस मुक़ाम पर।
और कुछ नहीं।

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