Thursday, February 11, 2010

एक अर्से बाद फिर से आप सब से मुखातिब हूं. इस बार कुछ सवालों के साथ. मुलाहिज़ा फ़र्माइये.
क्या हम एक पुलिस राज्य बनते जा रहे हैं ?
अगर बम्बई के ताज़ा हालात पर नज़र डालें तो कु़छ ऐसा ही लगता है. सारे शहर को जिस तरह बाल ठाकरे और उनके वीर बालक गाहे बगाहे बन्धक बना लेते हैं और लोगों को उनके रहमोकरम पर या फिर पुलिस के रहमोकरम पर रहना पड़ता है, उसे देखते हुए तो यही जान पड़ता है. अभी मराठी मानुष का मामला ठण्डा भी नहीं पड़ा था कि शाहरुख खान की नयी फ़िल्म पर हंगामा शुरू हो गया.टीवी पर तस्वीरें दिखाई जा रही हैं कि शिव सेना के कार्यकर्ता किस तरह ऊधम जोत रहे हैं, सम्भावित दर्शकों को डरा धमका रहे हैं, लोग किस तरह पुलिसिया इन्तज़ाम में फ़िल्म देखने जा रहे हैं, मौजूदा सत्तासीन सरकार कैसे शिखण्डी बनी मातुश्री के आगे बेबस है, का़नून और व्यवस्था मन्त्रालय की जगह मातुश्री से आदेश ले रही है. यहां मुझे शाहरुख खान की फ़िल्म की चिन्ता नहीं है. यह हंगामा भी उसकी मार्केट वैल्यू को बढ़ायेगा. करन जौहर भी अन्ततः सुखी होगा लेकिन आम जनता थोड़ा और दुबक जायेगी. उस पर खौफ़ कुछ और तारी हो जायेगा. मज़े की बात यह है कि शिव सेना के यही लोग उन ग़रीब कश्मीरियों की हिंसा को कोसते नहीं थकते, जिन्हों ने फ़ौज के ज़ुल्म से परेशान हो कर हथियार उठा लिये हैं. कशमीर में तो चलिये पाकिस्तान का भी हाथ हो सकता है, लेकिन छत्तीसगढ़, झारखण्ड, ऊड़ीसा को क्या कहेंगे जहां बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा बेदख़ल किये जा रहे आदिवासियों ने सशस्त्र प्रतिरोध शुरू कर दिया है और मीडिया से ले कर सरकार और विपक्ष तक सभी इन आदिवासियों को कभी तो नक्सलवादी बता रहे हैं और कभी माओवादी.
ऐसी स्थिति में दूसरा सवाल है क्या आप या मैं हिंसा में विश्वास करते हैं ? इस पर बात अगली बार.

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